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कैलाश मानसरोवर की अनुभूति

संदीप गुप्ता

प्रकाशक : जागरण प्रकाशन लिमिटेड प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7622
आईएसबीएन :0000000

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कैलाश मानसरोवर की मनोहारी परंतु दुर्गम यात्रा का वृत्तांत

Ek Break Ke Baad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कैलास मानसरोवर की अनुभूति एक सचित्र यात्रा वृतांत है जिसमें ल्हासा से कैलास मानसरोवर तक के मनोरम और दुर्गम पथ, मौसम तथा कठिनाइयों का अनुभूत किया गया यथार्थ चित्रण है। इस पुस्तक में कैलास मानसरोवर के मार्ग में आने वाले बौद्ध मठों के धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व का तो विस्तृत वर्णन है ही, वे सभी महत्वपूर्ण जानकारियाँ भी हैं जिनसे इस पवित्र स्थल की यात्रा करने के आकांक्षी लाभान्वित हो सकते हैं। पुस्तक कैलास मानसरोवर के परिदृश्य को इस रूप में चित्रित करती है कि पाठकों के समक्ष वहाँ का प्राकृतिक-आध्यात्मिक वातावरण सजीव हो उठता है।

कैलास मानसरोवर की अनुभूति
प्रत्येक आस्थावान, जिज्ञासु, पर्यटन प्रेमी और आदिदेव ओंकार में विश्वास रखने वाले लोगों के लिए एक सरल, और आत्मिक अनुभव है।

यूँ तो भ्रमण की प्रवृत्ति और अपनी साँस्कृतिक विरासत को जानने की जिज्ञासा ने सदा ही मुझे स्थान-स्थान घूमने को प्रेरित किया है, किन्तु पिता की आकस्मिक मृत्यु ने मेरे भीतर जो भावनात्मक शून्यता ला दी थी उसे दूर करने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक हो गया था कि मैं किसी ऐसे कार्य, ऐसे उद्देश्य से जुड़ूँ जो मेरा ध्यान भी बँटाए और मुझे आत्मिक शान्ति भी दे। मैं पिता की स्मृतियों से दूर नहीं भागना चाहता था, बल्कि उन्हें पवित्र धरोहर की तरह शान्त मन से सहेज लेना चाहता था। ऐसे में मुझ पर कुछ ईश्वरीय अनुकम्पा हुई। उन्हीं दिनों स्वामी चिदानंद सरस्वती (मुनि जी) का कानपुर के एक कार्यक्रम में आना हुआ। मिलने पर उन्होंने बताया कि कैलास मानसरोवर यात्रा पर जून माह में जाने की योजना बन रही है, उसी क्षण मैंने व मेरी पत्नी मंजरी ने माता जी से बात की और उन्होंने इस यात्रा पर जाने की अनुमति दे दी।

जहाँ तक मैं समझता हूँ कि कैलास मानसरोवर की यात्रा मेरे परिवार में शायद ही किसी ने की होगी। हम सौभाग्यशाली रहे कि शिवकृपा से यह अवसर हमें मिला।

कैलास मानसरोवर, जिसे शास्त्रों में स्वयं भगवान ॐकार की निवास स्थली माना है, पर पहुँच कर मुझे सचमुच यह अनुभूति हुई कि जैसे मैंने साक्षात शिव के दर्शन कर लिए हों। सच कहूँ तो सिर्फ दर्शन ही नहीं उनकी निकटता, उनका सानिध्य भी जैसे मुझे मिल गया हो। यात्रा निश्चित रूप से कष्ट मिश्रित तो थी ही साथ ही आनन्ददायक भी थी। बिल्कुल वैसे जैसे बच्चे का रुदन सुनकर माँ उसे जन्म देने की समस्त पीड़ा भूल जाती है। मुझे लगा क्यों न मैं अपने इस अनुभव तो जिज्ञासुओं व यात्रा के इच्छुक लोगों के साथ बाँटूँ। इस सोच के आते ही मुझे तमाम ऐसे यात्रियों के नाम याद आये जिन्होंने जब किसी देश की यात्रा की तो उस अनुभव को लिपिबद्ध कर लिया। पुस्तक लिखने की चर्चा स्वामी चिदानन्द सरस्वती (मुनि जी) से एवं "पाञ्चजन्य" के संपादक तरुण विजय जी से भी काठमांडू से लौटने के उपरान्त हुई। स्वामी चिदानन्द सरस्वती (मुनि जी) ने मुझे आशीर्वाद तो दिया ही साथ ही बताया कि पुस्तक में वे सब पहलू अवश्य लिखना जिन्हें तुमने देखा और समझा है। यात्रा के दौरान मैंने चित्र अवश्य ही खींचे थे परन्तु किसी भी प्रकार का विवरण एकत्रित नहीं किया था। प्रारम्भ में तथ्य एकत्र करने में समस्या आयी, परन्तु धीरे-धीरे इस पावन कार्य में सभी समस्याओं का समाधान अपने आप होता चला गया।

आज भी प्रगति के इतने ऊँचे आयामों और दिन-प्रतिदिन की बढ़ती सुविधाओं के बावजूद जब भी हम किसी स्थान विशेष के लिए पहली बार पाँव बाहर निकालते हैं तो उस स्थान के सामाजिक, प्राकृतिक, आर्थिक तथा साँस्कृतिक ढाँचे को जान लेना चाहते हैं। बस इसी भाव से कि मेरी निजी अनुभूति किसी अन्य जिज्ञासु के यात्रा की प्रेरणा बन सके, मैंने अपने अनुभव लिखने प्रारम्भ कर दिये। मेरे पिता, जो सिर्फ अखबार के संपादक ही नहीं वरन् हर विषय की गहरी जानकारी रखने वाले तथा कई पुस्तकों के लेखक भी थे, सदा इस बात के लिए प्रेरित करते थे कि समाचार पत्र से जुड़े होने के नाते हमें लेखन कला से भी जुड़ना चाहिए। पिता के जीवित रहते मुझे कभी यह बहुत आवश्यक नहीं लगा कि मैं लेखन से जुड़ूँ, किन्तु जब वे हमारे बीच नहीं रहे तब लगा कि उनके बताए मार्ग पर चलना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। यह भाव आते ही मुझे लगा क्यों न अपने लेखन की शुरुआत इस यात्रा-वृत्तांत से करूँ।

बस इसी तरह के भावनात्मक प्रवाह में मैंने लिखना आरम्भ कर दिया। अपनी यात्रा के अनुभवों को और जानकारियों को जब काफी कुछ लिख चुका तो लगा क्यों न इसे पुस्तक का रूप दे दूँ। इससे मेरे दो लक्ष्य पूरे होंगे; एक- आने वाले समय में मानसरोवर यात्रियों के लिए जानकारी से पूर्ण एक पुस्तक सामने आएगी और दूसरा- यह पिता के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि भी होगी।

मानसरोवर तट पर मैने तथा मेरी धर्मपत्नी मंजरी ने अपने पिता का वैदिक विधान से तर्पण किया। ऐसे बहुत ही विरले लोग होंगे जिनका इतने शुद्ध रूप से स्वामी जी के हाथों भगवान भोलेनाथ के स्थल पर विधि-विधान से तर्पण किया गया हो। मेरा मानना है कि यह तर्पण पितृश्राद्ध के रूप में उनकी आत्मा को शांति प्रदान करेगा।

यह पुस्तक मेरी यात्रा के लगभग डेढ़ वर्ष बाद पूर्ण हुई। पुस्तक लिखने में डॉ. ब्रह्ममूर्ति त्रिपाठी, मेरी धर्मपत्नी मंजरी व मेरे कुछ सहयोगियों का भी अपनत्व भरा सहयोग मिला और अंततः यह कार्य पूरा हुआ। इस पुस्तक की संरचना में जिन आर्ष ग्रंथों की सहायता ली गई वे हमारी सभ्यता-संस्कृति के संरक्षक हैं-अभिभावक हैं। फलस्वरूप उनके प्रति मेरी अर्चना-अभ्यर्थना के भावपुष्प सहज ही समर्पित हैं। अन्त में यह पुस्तक पाठकों को सौंपते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है और विश्वास है कि यह कैलास मानसरोवर यात्रा के साथ-साथ भगवान शिव के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त करने के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी।


-संदीप गुप्त

यात्रा क्यों और कैसे..?



भारतीय दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष की संयुक्त स्थिति ही संसार है। संसार का अर्थ परिवर्तनशीलता में निहित है। यह संसार प्रकृति की देन होने के कारण सुख और दुःख से व्याप्त है। मन, बुद्धि, अहंकार ये आन्तरिक भाव हैं। इन तीनों के अव्यवस्थित होने पर ऐसी व्यथा का जन्म होता है जो अप्रत्याशित होती है।

कभी-कभी यह व्यथा कोई न कोई घटना बनकर हमारे अन्तस् को इतना अधिक झकझोर देती है कि मनःस्थिति में अवसाद, विषाद, उद्दिग्नता, असारता औऱ वैराग्य का भाव प्रकट होने लगता है। उस समय संसार की असारता और जीवन में हताशा एवं निराशा इतनी अधिक बढ़ जाती है कि संसार की वास्तविकता समझने के लिए हम बैचेन हो जाते हैं। सांसारिक सम्बन्ध, व्यवसाय, प्रतिष्ठा इन सबसे हटकर हम शान्ति प्राप्ति का साधन खोजने लगते हैं।

सुख जब चरम सीमा पर पहुँचता है तब आनन्द की प्रतिष्ठा होती है पर जब दुःख चरम पर होता है तब वैराग्य का जन्म होता है। यह वैराग्य ही भगवत् दर्शन की ओर मनुष्य को उन्मुख कर देता है।

मैं भी अवसाद से भरी हुई मनःस्थिति में आ गया जब मेरे पूज्य पिता की आकस्मिक मृत्यु हुई। मुझे ऐसा लगने लगा कि मैं जिन दृढ़ चट्टान पर खड़ा था वह मेरे पैरों के नीचे से खिसक गयी, मैं असहाय, निरुपाय और मेरे चारों ओर था निस्तब्ध वातावरण। घर-परिवार के सभी लोग व्यथित दिखाई दे रहे थे, गले रुँधे हुए थे, वाणी मूक थी। घर का प्रत्येक कोना दुःख से भरा हुआ था। पूरा परिवार कभी सिसकियाँ भरता, तो कभी अपनी नम आँखों से एक-दूसरे को देखकर अवाक् रह जाता। परिवार एक गहरे सदमें में था।

इस सदमें का असर घर से बाहर भी कम नहीं था जिसके कारण देश-विदेश से आने वाले शुभचिन्तकों एवं संवेदना प्रकट करने वाले आत्मीयजनों का तांता लगने लगा। इसी क्रम में परमार्थ निकेतन के स्वामी चिदानन्द जी सरस्वती (मुनि जी) का आगमन हुआ और उनके दर्शन मात्र से ही मुझे धैर्य और इस आघात को सहन करने की शक्ति प्राप्त हुई।

मुनि जी परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष और संचालक हैं। परमार्थ निकेतन उत्तर प्रदेश हृषीकेश तीर्थ में गंगा के तट पर एक विशाल आश्रम के रूप में स्थित है। इस आश्रम में एक हजार कक्ष और एक विशाल मनोरम उद्यान भी है। विश्व भर से आने वाले हजारों तीर्थयात्रियों को परमार्थ निकतेन स्वच्छ, शुद्ध और पवित्र सात्विक वातावरण प्रदान करके उन्हें आधुनिक सुख-सुविधा के साथ सनातन संस्कृति एवं आध्यात्मिक ज्ञान की ऊर्जा से अनुप्राणित करता है।

यह आश्रम धार्मिकों, श्रद्धालुओं और अनेक समाज-सेवियों द्वारा दिये गये दान के धन से संचालित होता है तथा आश्रम की ओर से सभी तीर्थयात्रियों एवं अतिथियों को हर प्रकार की सुविधा देने हेतु सदा संलग्न रहता है।

परमार्थ निकेतन की दि्नचर्या में प्रातः प्रार्थनाएँ, सत्संग, विद्वानों के उद्बोधन, भजन-कीर्तन, योगाभ्यास और ध्यान आदि की कक्षाएँ लगती हैं। संध्या को गंगा-आरती शिव महिमा श्लोक का पाठ होता है इसके अतिरिक्त आश्रम में साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक कार्यक्रमों के आयोजन होते रहते हैं। ये कार्यक्रम ख्यातिप्राप्त संगीतज्ञों, कलाकारों, समाजसेवियों तथा संत महात्माओँ द्वारा प्रस्तुत किये जाते हैं। समय-समय पर देश-विदेश से आये हुए जिज्ञासुओं और श्रद्धालुओं के हेतु शिविर लगाकर उन्हें सनातन भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्मिक ज्ञान के विभिन्न रूपों से परिचित कराया जाता है।

परमार्थ निकेतन की स्थापना सन् 1942 में परम तपस्वी, वीतराग महामण्डलेश्वर स्वामी सुखदेवानन्द जी महाराज ने की थी। सन् 1986 से यह आश्रम पूज्य स्वामी चिदानन्द सरस्वती (मुनि जी) की अध्यक्षता में भारतीय संस्कृति की सेवा में उत्तरोत्तर संलग्न रहकर निरन्तर विकास के साथ-साथ यश अर्जित कर रहा है।

परमार्थ निकेतन का शाब्दिक अर्थ है "जो सभी के कल्याण हेतु समर्पित हो"। यही उद्देश्य लेकर परमार्थ निकेतन श्रद्धालु तीर्थ यात्रियों के दैहिक, संवेदनात्मक, मानसिक व आध्यात्मिक कल्याण हेतू सेवारत है।

परमार्थ निकेतन के सम्पूर्ण देश में कई तीर्थ स्थानों पर आश्रम स्थापित हैं। मानसरोवर के तट पर भी कैलाल पर्वत की छत्रछाया में परमार्थ निकेतन द्वारा आश्रम निर्मित है। यही कारण है कि "मुनि जी" महाराज प्रतिवर्ष अपने शिष्यों, अनुयाइयों और श्रद्धालुओं का जत्था इस पवित्र स्थल तक ले जाते हैं।

"मुनि जी" ने बातचीत के दौरान बताया कि इस वर्ष उनके भक्तों को जत्था मानसरोवर यात्रा पर जा रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि मेरे पिता ने भी इस यात्रा पर जाने की इच्छा व्यक्त की थी। "मुनि जी" महाराज ने इस यात्रा के भौतिक एवं आध्यात्मिक आनन्द के पक्ष की चर्चा की। स्वामीजी ने कहा प्रकृति में हमें साक्षात् ईश्वर के दर्शन होते हैं फिर हिमालय तो औघड़ अविनाशी का निवास है जिसने स्वयं सामवेद की रचना की। उन शिव के सानिध्य में पहुँचकर तुम सत्य का साक्षात्कार करोगे तो यह पवित्र यात्रा तुम्हारे मन को अवश्य शांत प्रदान करेगी क्योंकि भगवान शिव के तीर्थ स्थानों में कैलास-मानसरोवर प्रमुख है। इस यात्रा हेतु कुछ जानकारियों व कुछ औपचारिकताओं के विषय में स्वामी जी ने बताया।

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