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स्त्रीत्व धारणाएँ एवं यथार्थ

कुसुमलता केडिया

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7584
आईएसबीएन :978-81-7124-680

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समस्त मानवीय जाति के इतिहास में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति पर बेबाक समीक्षा...

Stritva Dharnaen Evam Yatharth - A Hindi Book - by Kusumlata Kediya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विश्व की ‘एकेडमिक्स’ यूरोईसाई सिद्धान्तों, अवधारणाओं एवं विचार-प्रयत्नों से संचालित है। आधुनिक स्त्री-विमर्श पूरी तरह पापमय, हिंसक और सेक्स के विचित्र आतंक से पीड़ित ईसाईयत द्वारा गढ़ा गया है। गैरईसाई देशों एवं सभ्यताओं में उनके अपने ऐतिहासिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिदृश्य में उभरी-पनपी ‘स्त्रीत्व’ की धारणा एकेडमिक बहस के बाहर है।

यह पुस्तक इस यूरोकेन्द्रित पूर्वाग्रह को किसी सीमा तक संतुलित करने का प्रयास करती है, गैरईसाई सभ्यताओं में विद्यमान स्त्री-विमर्श को हिन्दू दृष्टि से सामने लाकर।

यह पुस्तक बताती हैः यूरोप में कैथोलिकों एवं प्रोटेस्टेन्टों ने पाँच सौ शताब्दियों तक करोड़ों निर्दोष सदाचारिणी, भावयमी श्रेष्ठ स्त्रियों को डायनें और चुड़ैल घोषित कर जिन्दा जलाया, खौलते कड़ाहों में उबाला, पानी में डुबो कर मारा, बीच से जिन्दा चीरा, घोड़े की पूँछ में बँधवा कर सड़कों-गलियों में इस प्रकार दौड़ाया कि बँधी हुई स्त्री लहूलुहान होकर दम ही तोड़ दे !

ये सभी पाप छिप-छिपा कर नहीं, सरेआम पूरे धार्मिक जोशो-खरोश से, पादरियों की आज्ञा से, पादरियों के प्रोत्साहन से और पादरियों की उपस्थिति में किये जाते थे तथा चर्चों के सामने सूचीपत्र टँगे रहते थे कि स्त्रियों को खौलते तेल में उबालने के लिए 48 फ्रैंक, घोड़े द्वारा शरीर को चार टुकड़ों में फाड़ने के लिए 30 फ्रैंक, जिन्दा गाड़ने के लिए 2 फ्रैंक, चुड़ैल करार दी गयी स्त्री को जिन्दा जलाने के लिए 28 फ्रैंक, बोरे में भरकर डुबोने के लिए 24 फ्रैंक, जीभ, कान, नाक काटने के लिए 10 फ्रैंक, तपती लाल सलाख से दागने के लिए 10 फ्रैंक, जिन्दा चमड़ी उतारने के लिए 28 फ्रैंक लगेंगे।

कौन विश्वास करेगा कि ख्रीस्तीय यूरोप में सेक्स एक आतंक था और गोरे पुरुष अपनी औरतों से थरथराते काँपते डरते रहते थे कि जाने कब उसके काम-आकर्षण में फँस जाँय क्योंकि स्त्री तो शैतान का औजार है, प्रचण्ड सम्मोहक और ‘ईविल’ है। कैथोलिक पोपों के पापों से और घरों के भीतर उसकी दखलन्दाजी से घबड़ा कर प्रोटेस्टेन्ट ईसाईयों ने ‘पति परमेश्वर है’ की धारणा रची, यह आज कितने लोग जानते है ? ख्रीस्तपंथी यूरोप में सन् 1929 तक स्त्री को व्यक्ति नहीं माना जाता था, स्त्रियों को आँख के अलावा शेष समस्त देह को ख्रीस्तपंथ के आदेशों के अन्तर्गत ढँककर रखना अनिवार्य था और पति-पत्नी का भी समागम सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार एवं रविवार के दिनों में वर्जित एवं दण्डनीय पाप घोषित था।

पोप इनोसेन्ट के जुलूस मे आगे-आगे सैकड़ों निर्वसन स्त्रियाँ एवं दोगले बच्चे चलते थे, यह कितनों को पता है ?

अविवाहित यानी ‘सेलिबेट’ पादरियों को वेश्या-कर देना अनिवार्य था और ख्रीस्तीय राज्य उन पादरियों के लिए लाइसेंसशुदा वेश्यालय चलाया था, विवाह एक धत्-कर्म था तथा वेश्या होना विवाहित होने की तुलना में गौरवमय था–ख्रीस्तपंथी पादरियों की व्यवस्था के अनुसार। ऐतिहासिक यथार्थ के इन महत्त्वपूर्ण पक्षों की प्रामाणिक प्रस्तुति करनेवाली यह पुस्तक विश्व की श्रेष्ठ 25 विश्व-सभ्यताओं में स्त्री की गरिमापूर्ण स्थिति की थी प्रामाणिक विवेचना करती है और हिन्दू स्त्रियों के समक्ष उस दायित्व को रखती है जो उन्हें वैश्विक मानवीय सन्दर्भों में शुभ, श्रेयस एवं तेजस की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए निभाना है।

 

क्या प्राचीन सभ्यताओं में स्त्री पराधीन एवं पीड़ित रही है ?

 

प्रायः आधुनिक शिक्षित समाज में स्त्री एवं स्त्रीत्व के विषय में कतिपय विशिष्ट धारणाएँ प्रचलित और मान्य हैं तथा इन्हें ही स्त्री-सम्बन्धी वास्तविक मान्यताएँ तथा व्यवहार का आधार भी मान लिया जाता है। मुख्यतः ये है:–

(1) स्त्री सदा से पराधीन, पुरुष-अधीन रही है।

(2) स्त्री का क्षेत्र सदा से घर रहा है।

(3) स्त्री का मुख्य विशेषताएँ हैं–कोमलता, नजाकत, सहनशीलता, दबकर चलना, बच्चों का पालन-पोषण करने में जीवन की परम सार्थकता की अनुभूति करना, पति को ही परमेश्वर मानना, घर के दायरे के बाहर के जीवन के बारे में पुरुष पर निर्भर रहना।

(4) माँ, बहन, बेटी, बहू–ये ही स्त्री के मुख्य रूप हैं।

(5) स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने एवं सामाजिक जीवन में सहभागी बनाने का अवसर केवल आधुनिक युग में, केवल ख्रीस्तपंथी यूरोप के प्रभाव से ही मिला है।

(6) विवाहित स्त्रियाँ अपने-अपने पतियों की सम्पत्ति है, खेती हैं।

(7) सामाजिक जीवन में स्त्री सक्रिय हो तो आकर्षक-सुन्दर वेश आदि में न रहे। अगर रही तो पुरुषों में शैतानियत जगना स्वाभाविक है।

(8) यूरोख्रीस्त समाजों में ख्रीस्तपंथ से विद्रोह के बाद एवं विज्ञान के विकास के साथ-साथ पनपी आधुनिकता के दौर से पहले के सभी समाजों में स्त्री पुरुषाश्रित एवं पुरुष-अधीन रही है। उसे नरक का द्वार, शैतान का माध्यम, पतन की प्रेरक एवं सदा दमन योग्य माना जाता रहा है।

(9) स्त्री आधुनिक युग में पहली बार सबला बनी है। अब तक तो वह अबला ही रही है।

(10) मातृत्व ही अब तक स्त्री-जीवन की चरम सार्थकता माना जाता रहा है।

(11) उच्च शिक्षा, सेना, व्यापार, आदि में स्त्रियों को स्वतंत्र उद्यमी, सैनिक अधिकारी तथा प्रशासक आदि बनने का अवसर मानवीय इतिहास में पहली बार आधुनिक दौर में ही मिल रहा है।

ये धारणाएँ वास्तविक सामाजिक यथार्थ से कहाँ तक मेल खाती है, यह विवेचना का विषय है। सर्वप्रथम तो स्त्री की विविध समाजों में अब तक जो स्थिति रही है, उस पर विचार उपयोगी होगा। उन ऐतिहासिक तथ्यों के सन्दर्भ में ही यह निश्चित कर पाना सम्भव हैं कि क्या सचमुच स्त्री की सामाजिक स्थिति प्रारम्भ में बहुत निचले स्तर की थी और क्रमशः उस स्थिति में निरन्तर सुधार हुआ है ? अथवा भिन्न-भिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न मान्यताओं या विश्वासों (faiths) के फलस्वरूप भिन्न-भिन्न स्थितियाँ होती रही हैं ?

 

प्राचीन सभ्यताओं की मातृसत्तात्मक व्यवस्थाएँ

 

विश्व की विविध सभ्यताओ के इतिहास की विपुल जानकारी सुलभ है। विश्व के प्रत्येक हिस्से में मातृसत्तात्मक व्यवस्थाएँ रही हैं, इसके प्रचुर प्रमाण मिलते हैं।

मार्को पोलो ने तेरहवीं शती ई० के अपने यात्रा-संस्मरण में भारत के चोल देश का वर्णन किया है। बताया है कि ‘‘यहाँ के लोग मूर्ति-पूजक हैं, गोमांस कदापि नहीं खाते, भगवान शिव एवं नन्दी की पूजा करते हैं। यहाँ के राजा विश्व के विविध देशों से घोड़े मँगाकर पालते हैं। सामान्यतः राजा भी भूमि पर बैठकर सभा–संचालन करते हैं। यहाँ चावल मुख्य भोजन है। यहाँ के लोग वीर हैं, पर बहुत सादगी से रहते हैं। नित्य दो बार स्नान करते हैं। आहार-विहार में पवित्रता का ध्यान रखते हैं। केवल दाएँ हाथ से भोजन खाते हैं। दूसरे के जूठे बर्तन में पानी नहीं पीते। राज्य में न्याय बड़ी दृढता से किया जाता है। मंदिरों में संगीत, नृत्य एवं पूजन होता है। चोल राज्य के ब्राह्मण कभी भी झूठ नहीं बोलते। यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यहाँ योगी शैव साधु एवं जैन मुनि भी बहुत है। ये सभी साधु एवं मुनि पूर्ण अहिंसा व्रत का पालन करते है।...मलाबार क्षेत्र में मातृसत्तात्मक व्यवस्था है।’’1 प्रसिद्ध अमरीकी विदुषी मटिल्डा जोसलिन गेज का कहना है कि मार्कोपोलो एवं लिविंगस्टोन इन दो यात्रा-संस्मरण लेखकों ने एशिया एवं अफ्रीका के अनेक क्षेत्रों में मातृसत्तात्मक व्यवस्था देखी थी।2 ये ही लेखिका बताती हैं कि बॅकोफँ विलकिन आदि कई लेखकों ने विस्तार से लिखा है कि प्राचीन समाजों में परिवार, धर्म एवं राजसत्ता–तीनों पर स्त्रियों का प्रभुत्व होता था। टायलर के ‘प्रिमिटिव कल्चर’ को उद्धत करते हुए मटिल्डा बताती हैं कि जावा, मेडागास्कर एवं आस्ट्रेलिया में बच्चों का नाम मातृकुल की परम्परा में रखा जाता रहा है।3

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1. ‘द ट्रेवेल्स ऑफ मार्को पोलो’ (इतावली में मारिया बेलांसी लिखित पुस्तिका का तेरेसा वाग द्वारा अंग्रेजी अनुवाद, सिजिविक एंड जैक्सन, लन्दन, 1984 अध्याय सात-भारत, पृष्ठ पृष्ठ 153 से 172
2. वूमेन, चर्च एंड स्टेट–मटिल्डा जोसलिन गेज, (द टुथ सीकर कम्पनी न्युयार्क ), भारत में व्हायस ऑफ इंडिया नई, दिल्ली, 1917 में प्रकाशित में देखें पृष्ठ 14-15
3. वही (मटिल्डा), पृष्ठ 14-15

मटिल्डा जोसलिन गेज ने विलकिन की पुस्तक से यह उद्धरण दिया है–‘‘परिवार का सबसे प्राचीन अर्थ होता था–माँ और सन्तान।’’1 मटिल्डा लिखती हैं–‘‘भारत, मिस्त्र, असीरिया, बेबिलोनिया एवं चाल्डिया की और प्राचीन अफ्रीका की सभ्यताओं के विषय में पुस्तकालयों, पांडुलिपियों एवं पुरातात्विक अभिलेखों तथा साक्ष्यों से यह प्रमाणिक है कि स्त्रियों को इन प्राचीन सभ्यताओं में अत्यधिक स्वाघीनता सुलभ थी। मातृ-शक्ति वहाँ सर्वाधिक समादृत थी और परिवार, धर्मतंत्र एवं राज्यतंत्र में स्त्री की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। स्त्रियाँ धर्माध्यक्ष भी होती थीं। देवियाँ परमपूज्य आध्यात्मिक सत्ताएँ थीं।’’2 मटिल्डा ने विलियम रार्क्टसन स्मिथ की पुस्तक ‘‘किनशिप इन एंश्येन्ट अरेबिया’’ (प्राचीन अरब में रिश्तेदारियों का स्वरूप) की ये पंक्तियाँ उद्धृत की हैं–‘‘प्राचीन अरब में देवियाँ एवं माताएँ परम समादृत थीं। विरासत एवं रिश्तेदारियाँ स्त्री–वंश से संचालित होती थीं। बेबिलोनिया की देवी इश्तुर ऐसी ही एक देवी है।’’3 ‘‘लिविंग स्टोन ने नृतत्त्वशास्त्रीय अनुसंधान में यह पाया कि अफ्रीका के कबीले अपनी सत्यता प्रमाणित करने के लिए माँ की ही शपथ लेते हैं। माँ के ही नाम पर वंश की पहचान होती है।’’4 ‘‘समस्त प्राचीन धर्मों में देवियों की पूजा होती रही है। देवियाँ परम शक्ति, आदि शक्ति के रूप में पूजित रही हैं। मिस्त्र में ‘नेइथ’ को देवताओं की नेत्री और विजेत्री के रूप में पूजा जाता था। प्रतिवर्ष उनके नाम पर उत्सव होते थे, जिसमें प्रत्येक परिवार अनिवार्यतः आराधना करने पहुँचता था।’’5

अमरीका में जब यूरोपीय समूहों ने धावा बोला तो वहाँ के छः प्रधान समूह वहाँ शासन कर रहे थे। जिन्हें आज भी ‘छः राष्ट्र’ कहा जाता है। उन सभी अमरीकी राष्ट्रों में मातृसत्तात्मक शासन-व्यवस्था थी।6 इनका शासन-क्षेत्र टाम्बिगवी नदी से विशाल झीलों के इलाके तक और हडसन से ओहियों तक था।7 इन समाजों के समस्त विवादों का निपटारा जिस न्याय-परिषद के समक्ष होता था, उस परिषद मे स्त्रियाँ ही प्रधान न्यायाधीश थीं; मुखिया पद भी स्त्रियों के ही पास था। न्यूयार्क के अलबनी राज्य पुरातात्विक संग्रहालय में ऐसी संधियों के अभिलेख आज भी सुरक्षित हैं जिन संधि पत्रों पर इन छः राष्टों की प्रधान (मुखिया) स्त्रियों के हस्ताक्षर है।8 युद्ध के मामलों में

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1.मटिल्डा-वहीं पृष्ठ 13, पाद टिप्पणी 1
2. उपर्युक्त-पृष्ठ 12 एंव 13
3. उपर्युक्त-पृष्ठ 13
4. वही, पृष्ठ 14
5. वही, पृष्ठ 16
7. वही
8. मटिल्डा की उपर्युक्त पुस्तक में पृष्ठ 18 पर उद्धत ‘डाक्यूमेंटरी हिस्ट्री ऑफ न्यूयार्क’

‘वोटो पावर’ इन स्त्री प्रधानों के ही पास होता था।1 विलियम जॉन्सन ने मोहाक कबीले की ऐसी ही एक मुखिया द्वारा अपने वीर जवानों को युद्ध में जाने से रोकने का एक दृष्टान्त दिया है।2 घर में तो स्त्री की ही सत्ता सर्वोच्य थी। घर, अन्य या वस्तु उसकी ही अनुमति से बिकते और बिक्री होने पर प्राप्त धन स्त्री के ही स्वामित्व में रहता। सामान्यतः पति-पत्नी आजीवन साथ रहते, पर किसी कारण वे अलग हों तो पत्नी अपने साथ अपना समूचा धन एवं सम्पत्ति तथा बच्चे भी ले जाती थी।3 उत्तरी अमरीका के प्राचीन निवासियों के वंश की पहचान मातृवंश से ही होती है। कई कबीलों में स्त्रियों के पास ही कानून बनाने की शक्ति है। न्यूमेक्सिको के ‘जूनी’ समाज में स्त्रियों को आज भी सर्वोच्य धार्मिक एवं राजनैतिक सप्ता प्राप्त है। उनकी सर्वोच्य परिषद में छः पुरोहित होते हैं जो सर्वोच्य स्त्री-पुरोहित (supreme priestess) के नियंत्रण में होते हैं।4 भारत में मलाबार में 16वीं शताब्दी ईस्वी में पहुँचे-फैले पुर्तगालियों ने पाया कि वहाँ मातृसत्तात्मक व्यवस्था थी। उनकी एक उन्नत सभ्यता थी जो पूर्णतः स्त्रियों के नियंत्रण में थी। जबकि उन दिनों इंगेलैड तथा समस्त यूरोप में स्त्रियाँ घर में तथा राजनीति में दासी की ही स्थिति में थी।5 उन पुर्तगालियों ने लिखा है कि मलाबार-क्षेत्र के शहर समृद्ध है, जीवन शैली गरिमामय है, उनकी नौ सैनिक शक्ति एवं जहाजी बेड़े अति श्रेष्ठ है, कलाएँ वहाँ अत्यन्त समृद्ध है, परन्तु इन सबसे भी ब़ढ़कर आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि यहाँ तो स्त्रियों का ही शासन है, स्त्रियों का ही नियंत्रण है। यह वह वक्त है, जब यूरोप में (चीन से सीखकर) पहली बार मुद्रण-कला विकसित हो रही थी खीस्तपंथी चर्च बाइबिल को छापने पर कठोरतापूर्वक प्रतिबंध लगाए था जिसके विरुद्ध यूरोपीय प्रबुद्धजन संघर्षरत थे। उन दिनों यूरोप में केवल अति उच्च अभिजात पुरुषों को शिक्षा पाने का अधिकार प्राप्त था, स्वतंत्र विचारों को वहाँ क्रूरतापूर्वक कुचला जा रहा था। हजारों निर्दोष लोगों को चर्च की आज्ञा का अक्षरशः पालन न करने के अपराधों के लिए प्रतिवर्ष भीषण यंत्रणाएँ देकर चर्च द्वारा मार डाला जाता था। वहाँ के शहरों और गाँवों में गंदगी का साम्राज्य था। जिससे प्लेग तथा अन्य महामारियाँ बारम्बार पूरे यूरोप में फैलती थीं। यूरोपीय सेनाएँ एवं नौसेनाएँ कमजोर तथा दोषपूर्ण थीं। स्त्रियों को न तो धार्मिक एवं राजनैतिक शक्ति प्राप्त थी, न ही परिवार में उनकी प्रतिष्ठित स्थिति थी। ईश्वर को भी केवल पुरुष-रूप में पूजा जाता था। जिन दिनों ख्रीस्तपंथी यूरोप की यह दुःस्थिति थी

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1. मटिल्डा की उपर्युक्त पुस्तक में पृष्ठ 18 पर उद्धृत ‘डाक्यूमेंटरी हिस्ट्री ऑफ न्यूयार्क’
2. वही
3. वही
4. वहीं, पृष्ठ 19
5. वही, पृष्ठ 21

उन दिनों ही मलाबार में स्त्रियों के नेतृत्व में ऐसी उन्नत, समृद्ध सभ्यता विद्यमान थी। स्वच्छता, शांति, कलाएँ, न्याय, सुशासन और सुव्यवस्था मलाबार की विशेषताएँ थीं। देवियों की देवताओं के साथ-साथ पूजा प्रचलित थी और स्त्रियाँ पुरुषों के साथ-साथ समादृत थीं।1

मटिल्डा जोसलिन गेज कहती हैं–‘‘इंग्लैंज से भेजे गये ख्रीस्तपंथी मिशनरियों ने मलाबार में ‘गॉड’ और ‘मैंन’ की बर्बर ख्रीस्तीय धारणाएँ बलपूर्वक थोपीं तथा मलाबार की यह सुन्दर श्रेष्ठ सभ्यता शीघ्र ही पहले विकृत, क्षीण बनाई गई, फिर नष्ट कर दी गई।’’2

मटिल्डा बताती है–‘‘प्राचीन मिस्त्र (इजिप्त) में ‘आइसिस’ नामक देवी पूज्य थीं। उन्हें ही सभ्यता की आदि उपदेशक माना जाता था। उन्होंने ही रोटी बनाने की पाक-कला सिखाई। तभी से इजिप्त विश्व का प्रमुख अन्न-उत्पादक देश बना। वहाँ गेहूँ का विराट उत्पादन होने लगा। रोम-साम्राज्य इजिप्त के ही गेहूँ पर पलता था। आइसिस ही औषधि-विज्ञान की प्रवर्तक देवी हैं। एक अन्य देवी इजिप्त में थीं–नेप्थिस, जो गृह-देवी मानी जाती थीं। प्रत्येक पूजा के प्रारम्भ एवं अंत में उनकी पूजा अनिवार्य थी। एक इजिप्ती-अभिलेख में आइसिस की प्रतिमा के नीचे यह लिखा मिला है–

‘‘मैं वह सब हूँ जो था, है और जो भविष्य में होगा। मर्त्यों में से कोई भी आज तक मेरा रहस्य पूरी तरह जान नहीं सका है।’’ आइसिस समस्त सृष्टि की आदि-बीज मानी जाती हैं। उनके दस हजार नाम हैं। जिनमें एक प्रमुख नाम है–‘जगज्जनी’। समस्त इजिप्त में वे पूज्य थीं। उनके भव्य मंदिर थे। उन मंदिरों के पुजारी नित्य स्नान करते थे, शुद्ध वस्त्र पहनते थे, मांसाहार कभी नहीं करते थे तथा लहसुन, प्याज आदि कभी नहीं खाते थे। वर्ष में दो बार उन देवी की विशेष आराधना का उत्सव नियमतः होता था, जिसमें सम्पूर्ण समाज सहभागी होता था। वे लोग पुनर्जन्म में अटल श्रद्धा रखते थे तथा आत्मा की अमरता में उनकी आस्था थी। इसीलिए वहाँ स्त्रियाँ भी पुरुषों जैसी ही सम्मानित थीं। स्त्रियाँ वहाँ धर्माचार्या होती थीं। सम्मानित कुलों की कन्याएँ धर्माचार्य होती थीं और वे देवकन्याएँ कही जाती थीं। गर्भगृह में पूजा का कार्य भी धर्माचार्य स्त्रियाँ सम्पन्न कराती थीं। प्रतिमाओं को दुग्ध आदि से नहलाना, भेंट चढ़ाना–ये सभी अति महत्त्वपूर्ण पूजा कर्म स्त्रियाँ भी करती थीं।3 (जोकि ख्रीस्तपंथ में सर्वथा वर्जित है)।

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1. वही, पृष्ठ 21
2. वही, पृष्ठ 22
3. वही, पृष्ठ 30 से 33

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AMAN KUMAR

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Suresh  Lama

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