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रसों की संख्या

प्रो. वी. राघवन्

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7580
आईएसबीएन :978-81-7124-518

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काव्यशास्त्र के आठ रसों का वर्णन एवं व्याख्यान...

Rason KI Sankhya - A Hindi Book - by Pro. V Raghvan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लम्बी अवधि तक, रस संख्या में आठ ही रहे। भारत के नाट्यशास्त्र का प्रतिपाद्य, मूलतः आठ ही रसों की स्थापना करता है। एक लम्बे समय तक कविगण भी केवल आठ रसों के विषय में चर्चा करते रहे। कालिदास अपने विक्रमोर्वशी में कहते हैं–

मुनिना भरतेन यः प्रयोगो भवतीष्वष्टरसाश्रयो नियुक्तः।
ललिताभिनयं तमद्य भर्ता मरुतां द्रष्टुमनाः सलोकपालः।।

वररुचि-प्रणीत उभयाभिसारिका में एक अवसर पर रसों तथा उनकी संख्या का उल्लेख किया गया है। सन्दर्भ एक नाटय-प्रतियोगिता का है। विट गणिकाओं मे से किसी एक की प्रशंसा करता है जो कि कुसुमपुर-स्थिर इन्द्र-मन्दिर में पुरन्दरविजय का अभिनय करने जा रही है। यहाँ रस, संख्या में आठ निरुपित किये गये हैं–

यस्यास्तावत् प्रथमं रूपश्रीनवयौवनद्युतिकान्त्यादीनां गुणानां सम्पत्, चतुर्विधामिनसयिद्धिः द्वात्रिंशद्विधों हस्तप्रचार:, अष्टादशविधं निरीक्षणम, षट् स्थानानि, गतिद्वयम् (-त्रयम्) अष्टौ रसाः त्रयो गीतवादित्रादिलया:, इत्येवमादीनि नृत्ताग्ङानि त्वदाश्रयेणालंकृतानि।

–चतुर्भाणी, मद्रास 1922, पृ. 13

जहाँ तक, काव्यशास्त्र पर लिखने वाले सिद्धान्तकारों की बात है, दण्डिन् के समय तक रस केवल आठ ही रहे। वह संक्षेप में केवल आठ रसों का वर्णन एवं व्याख्यान करते हैं। हमारी यह अवधारणा सहज ही है कि भामह को भी केवल आठ ही रसों की जानकारी थी। ये आठ रस भरत द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत किये गये हैं–

श्रृंगार–हास्य-करुण-रौद्र-वीर-भयानकाः।
बीभत्साभ्दुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः।।
एते ह्यष्टौ रसाः प्रोक्ता द्रुहिणेन महात्मना।

–नाटयशास्त्र, काव्यमाला सं. 6/15-16

और उन रसों के स्थायिभाव इस प्रकार उल्लिखित हैं–

रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा।
जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः।।

–नाटयशास्त्र,6/17

प्रस्तुत स्थल पर, भरत द्वारा प्रतिपादित इस तथ्य के यथोचित महत्त्व को निश्चित कर पाने में हम असमर्थ हैं कि ‘महात्मा ब्रह्मा द्वारा व्याख्यात ये आठ रस हैं।’ ब्रह्मा का उल्लेख, यथाकथञ्चित् केवल नाटयशास्त्र की पुरावृत्तात्मक पृष्ठभूमि की ओर संकेत करता है। प्रथम श्लोक में ही बताया गया है कि नाटयशास्त्र के सर्वप्रथम प्रवचनकार ब्रह्मा हैं।

नाट्यशास्त्रं प्रवक्ष्यामि ब्रह्मणा यदुदाहृतम्।

और इन ब्रह्मा ने, स्वयमेव शिव से शिक्षा प्राप्त की। परवर्ती काल में इस पुरावृत्त का समाधान मिलता है जिसका उल्लेख सभी लेखकों ने किया है। स्वयं नाट्यशास्त्र में ही, यह किस सीमा तक, प्रमाणों पर आधारित है ?

सर्वप्रथम भरत मुनि कहते हैं कि ब्रह्मा ने स्वयं गहन चिन्तन किया तथा चारों वेदों का ही तत्त्व-संग्रह कर पञ्चम वेद निर्मित किया, जिसे नाट्यवेद कहा गया (1/16-19)। कैशिकी वृत्ति के सन्दर्भ में, प्रथम अध्याय में, पहली बार शिव का उल्लेख किया गया है ब्रह्मा करते हैं कि सुन्दर, शोभासम्पन्न एवं कोमल कैशिकी की समुचित प्रस्तुति पात्रों द्वारा नहीं की जा सकती है। उसकी समुचित अभिव्यक्ति तो अभिनेत्रियों द्वारा ही होनी संभव है और वह यह भी बताते हैं कि उन्होंने एक ही पुरुष पात्र द्वारा इसकी अभिव्यक्ति देखी है जिसका नाम है–भगवान् शिव ! (1/45) शिव के सन्दर्भ में, हम पुनः चतुर्थ अध्याय में ही उल्लेख पाते हैं। प्रथम नाटक असुरविजय अथवा अमृतमथन1 देवों तथा असुरों की दर्शकमण्डली के समक्ष, इन्द्रध्वज-महोत्सव के अवसर पर, देवलोक में अभिनीत किया गया था (1/54-7)

तदन्तेऽनुकृकिर्बद्धा यथा दैत्याः सुरैर्जिताः।

जब यह ‘समवकार’ जो कि मंचाभिनीत होने वाला प्रथम रूपक था, समास हो गया तब एक दिन ब्रह्मा, भगवान् शिव के समक्ष नाट्यप्रस्तुति सम्पन्न करने के लिये, भरत तथा उनके पार्षदों को कैलास ले गए। यह ‘समवकार’ तथा त्रिपुरदाह नामक एक डिम, जो कि शिव के ही अपने शौर्यकर्मों में से किसी एक का अभिनय था, वहाँ अभिनीय किये गए (4/5-10)। इन रूपकों की मंचप्रस्तुति के समापन पर शिव ने ब्रह्मा तथा अभिनेताओं की प्रशंसा की तथा उन्हें बताया कि ताण्डव नृत्य के रमणीक एंव विविध करण एंव अंगहार, जिन्हें वह स्वयमेव प्रतिसन्ध्या सम्पन्न करते हैं, का समावेश उनके रूपकों के पूर्वरंग में किया जाना चाहिये ताकि उनके शुद्ध पूर्वरंग चित्र-कोटिक (बहुरूप) बन सकें (4/11-15)। उन्होंने अपने गणों में से अन्यतम-तण्डु को आमंत्रित किया–भरत को ताण्डव नृत्य के अंगहारों तथा करणों की शिक्षा देने के लिये (4/17-18)।

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1. इसी अमृतमथन का उल्लेख कालिदास, अपने विक्रमोर्वशीय में, लक्ष्मीस्वरयंवर के रूप में करते हैं।

इस प्रकार, शिव मूलतः नृत्य के देवता (नटराज) परिलक्षित होते हैं जबकि ब्रह्मा ने स्वयमेव नाट्य का निर्माण किया तथा इस कला की स्वोपज्ञ सृष्टि के लिये शिव की प्रशंसा अर्जित की। भरत प्रथम कलाकार हैं जिन्हें ब्रह्मा ने आत्मनिर्मित कला के प्रदर्शन-हेतु चुना। ब्रह्मा द्वारा सम्पादित नाट्यकला की सृष्टि अपने समस्त अंगों को संकेतित करती हैं–नाट्य की कथावस्तु, नाट्य का अभिनय, नाट्यप्रयोग का पोषक संगीत और अन्ततः रस–जो इन तीनों का अतिशायी है तथा दर्शकों के हृदयों में रणरणक उत्पन्न कर देता है। यह है अभिप्राय श्लोक का,

जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च।
यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि।।

उपर्युक्त आख्यान इस ऐतिहासिक तथ्य की ओर इंगित करता है कि पहले नृत्य अस्तिव में आया तथा नाट्य उसके अनन्तर निर्मित हुआ। दोनों के बीच विद्यामान अन्तः सम्बन्ध को तण्डु सूचित करता है। नृत्य तथा नाट्य–दोनों के देवता हैं शिव एवं ब्रह्मा ! इसलिये, वह भरत वह व्यक्ति हैं जो कि नृत्य एंव नाट्य की समन्वित कला का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह प्रारंभ में ही कहते हैं–

प्रणम्य शिरसा देवौ पितामहमहेश्वरौ।

और अपनी टीका में अभिनवगुप्त यहाँ लिखते हैं–
एको (ब्रह्मा) विजिगीषुर्नाट्यप्रवर्तयितेति देवः। भगवांस्तु आनन्दनिर्भरतया क्रीडाशीलः सन्ध्यादौ नृत्यतीति नाट्ये तदुपस्कारिणि च नृत्ते तदुपंज्ञ प्रवृत्तिरिति तावेवात्र अभिदैवतं गुरू चेति नमस्कार्यौ।

–अभिनवभारती, गायकवाड ओरियेण्टल, सीरिज़, बडौदा, प्रथम सं.,
खण्ड1. पृष्ठ 2

इस प्रकार शिव का योगदान है नृत्य जिसने नाट्य के अलंकरण की भूमिका सम्पन्न की–‘तदुपस्कारिणि च नृत्ते’। नाट्य के लिये ब्रह्मा का योगदान, अपने आप ही पर्याप्त था। उन्होंने इतिवृत्त, अभिनय, संगीत तथा रस का व्याख्यान प्रस्तुत किया। ब्रह्मा द्वारा कल्पित नाट्य का यही वह पक्ष है जिसकी ओर भरत छठें अध्याय में संकेत करते हैं, जब वह कहते हैं कि ‘ब्रह्मा द्वारा प्रतिपादित ये आठ रस हैं।’

एते ह्यष्टौ रसाः प्रोक्ता द्रुहिणेन महात्मना।

यही वह मूल उद्धरण है जिसे शारदातनय अपना आधार बनाते हैं यह प्रतिपादित करने में कि ‘ब्रह्मा के अनुसार रस केवल आठ हैं तथा नवम्, ‘शान्त’ का होना असंभव है।’

..................तस्माच्छान्तस्य नोद्भवः।
तस्मात्राट्यरसा अष्टाविति पद्यभुवो मतम्।।

–भावप्रकाश गायकवाड ओरियेण्टल सीरिज़ बडौदा,
अध्याय 2, पृ. 46-47

इन पुरावृत्तात्मक अंशों का सम्बन्ध कुछ यथार्थ तथ्यों से होना चाहिये जो हमें प्राप्य है विशेषकर यह कि नाट्य से सम्बद्ध, सममुच विशाल ग्रंथ विद्यमान थे जो शिव अथवा सदाशिव एवं ब्रह्मा की कृतियों के रूप में परिज्ञात थे। अभिनवगुप्त स्वयं तीन अधिकृत विद्वानों की ओर संकेत करते हैं–सदाशिव ब्रह्मा एवं भरत !

एतेन सदाशिव-ब्रह्म-भरतमतत्रयविवेचनेन ब्रह्ममतसारताप्रतिपादनाय आदि।

–अभिनवभारती, गायकवाड ओरियेण्टल सीरिज़, खण्ड 1, पृष्ठ 8

प्रस्तुत सन्दर्भ में, इस विचारविमर्श की निष्कर्ष, एक ग्राह्य तथ्य प्रदान करता है कि सदाशिव-भरत, ब्रह्म-भरत तथा भरतकृत नाट्यशास्त्र–इन तीनों कृतियों में, कुछेक के अनुसार, ब्रह्मभरत सर्वोत्तम तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। रस को सामाजिकाश्रय अर्थात् ‘दर्शकों के हृदय में रहने वाला कोई तत्त्व’–सिद्ध करने वाली दशरूपक की कारियाएँ 4/38 तथा, 39 शारदातनय द्वारा उद्धत की गई हैं तथा सदाशिवलकृत मानी गई हैं (भा. प्र. 6. पृ. 152)।

यह विवरण विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता है। कारिकाओं की युक्तिपरक शैली किसी परवर्ती लेखक की ओर इंगित करती है। बहरहाल, यह विशिष्ट विवरण सत्य हो अथवा नहीं, यह स्वीकार किया जा सकता है कि सदाशिव एवं ब्रह्मा के नाम वाले प्राचीन ग्रंथ विद्यमान थे। यद्यपि, भरत-प्रणीत नाट्यशास्त्र के अन्तः साक्ष्य से हम शिव को मात्र नृत्य-आविष्कारक (नटराज) के रूप में जानते हैं, संभव है कि नाट्य के समस्त विभागों की व्याख्या करने वाले एक सदाशिव-भरत रहे हों। यह भी संभव है कि यह सदाशिव-भरत नृत्य-सम्बन्धी अपने प्रकरणों, ताण्डवनृत्य, करणों एवं अंगहारों के लिये विशेष महिमा-मण्डित रहे हों।

इसी प्रकार तण्डु, जो कि नाट्यशास्त्र में सामान्यतः ताण्डव (नृत्य) को शिव से भरत तक ले जाता है, की भी कोई स्वरचित प्राचीन नाट्यकृति रही होगी। तण्डु संज्ञा को समझने में कुछ कठिनाई है। नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में, हम एक तण्डु के बारे में सुनते हैं जो कि भरत के सौ पुत्रों में से एक हैं (2/26)। छठें अध्याय से हम उन्हें शिव के परिचारक रूप में जानते हैं। प्रथम अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में (गायकवाड़ ओरियेण्टल सीरिज़ 1, पृ. 18)

एक भिन्न नाम ताण्ड्य तथा चतुर्थ अध्याय के सत्रहवें-अठारहवें श्लोक में भिन्नपाठ ‘ताण्डिन्’ मिलता है (गायकवाड ओरियेण्टल सीरिज़ 1, पृष्ठ 19)। अभिनवगुप्त का कहना है कि ताण्डव शब्द की व्युत्पत्ति के प्रति शाब्दिक अर्हता को दृष्टि में रखते हुए तण्डु पाठ ही समुचित है–

सर्वत्र पाठे तण्डुशब्द एव युक्तः ताण्डवशब्दव्युत्पत्तिवशात्।

–अभिनवभारती, गायकवाड ओरियेण्टल सीरिज़ बड़ौदा, खण्ड 1, पृ. 90

ऐसा दृष्टिगोचर होता है मानो ताण्डव शब्द से ही तण्डु निष्पन्न हुआ है। निश्चय ही, यह ताण्डव शिव द्वारा तण्डु के समक्ष सम्पादित किया गया, जिन्होंने शिव के आदेशानुसार, इसकी शिक्षा भरत को दी। इसलिये, ‘ताण्डव’ संज्ञा ऐसी संज्ञा नहीं हो सकती है जो कि तण्डु के परवर्ती किसी नृत्य को दी गई हो–भरत की भागीदारी में !1 इन सन्दर्भ में, अभिनवगुप्त की टीका का प्रतिपाद्य यह कहता प्रतीत होता है कि यह तण्डु, शिव के प्रमुख के परिचारक नन्दिन् के अतिरिक्त दूसरा और कोई नहीं। एम्. आर. कवि के संस्करण में (खण्ड 1. पृ. 90) हम पाते हैं–

तण्डुमुनिशब्दौ (नन्दिभर) तयोरपरनामनी।

परन्तु ‘ मद्रास गवर्नमेण्ट ओरियेण्टल एम्. एस्. एस्. लाइब्रेरी’ में विद्यमान अभिनवभारती की पाण्डुलिपि में हम एक उद्धरण पाते हैं जो इस प्रकार प्रारम्भ होता है–

तण्डुमुनिशब्दौ तस्योरेव (?) नामनि (नी)

(खण्ड 1. पृ. 68)

और इस उद्धरण को पुनर्निर्मित अथवा हृदयंगम कर पाना सचमुच कठिन है। तण्डु एवं नन्दिन् की एकरूपता को लेकर लेखकों में मतैक्य नहीं प्रतीत होता हैं।

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1. तण्डु से ताण्डव की व्याख्या करना ही एकमात्र व्याख्या नहीं है। भानुजी तथा क्षीरस्वामिन्, अमरकोश (नाट्यवर्ग 5.10) की स्वोपज्ञ टीकाओं में ताण्डव की अन्वर्थनामता, उसके प्रतिमादक तण्डु के कारण मानते हैं। भरतमल्लिक (अपनी अमरकोशीय टीका में) कहते हैं कि महर्षि ताण्ड (शिव के गणविशेष नन्दिकेश्वर नहीं) ने शास्त्र का प्रवचन किया, जिसे उनकी संज्ञा के ही आधार पर ‘ताण्डि’ (नपुं.) कहा गया और इस ताण्डि से ताण्डव की व्युत्पत्ति हुई–ताण्डेन कृतं ताण्डि, नृत्यशास्त्रम्। तदस्यास्तीति भरतः (अमरटीकायाम्) द्रष्टव्य-ताण्डव के सन्दर्भ में शब्दकल्पदुम तथा वाचस्पत्यम्। सर्वानन्दकृत टीकासर्वस्व (त्रि. सं. सी. संस्करण, भाग पृ. 41) में है–ताण्ड्येन मुनिना प्रोक्तं...ताण्डि नृत्यशास्त्रम्। तदस्यास्तीति ताण्डवम्। सुभूतिचन्द्र इन व्युत्पत्तियों में जोड़ते हैं–‘तण्डते (तण्ड्यते) भूरतेनेति ताण्डवम्।’ ताण्डव को ऐसा इसलिये कहा गया है क्योंकि शक्तिसम्पन्न नृत्य (उद्धत) होने के कारण, भूमि धमाकों से आहत होती है (ताड् धातु से) विद्याविनोदनारायण ये समस्त व्याख्याएँ प्रस्तुत करते हैं। रायमुकुट,सर्वानन्द तथा क्षीरस्वामी की व्याख्याओं को प्रस्तुत करते हुए इतना और जोड़ते हैं–तडिधातोः ताण्डवमिति तु कौमुदी।

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