श्रंगार - प्रेम >> कच्ची सड़क कच्ची सड़कअमृता प्रीतम
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उठती जवानी में किस तरह एक कंपन किसी के अहसास में उतर जाता है कि पैरों तले से विश्वास की ज़मीन खो जाती है...
कच्ची सड़क
उठती जवानी में किस तरह
एक कंपन किसी के अहसास में
उतर जाता है
कि पैरों तले से विश्वास की ज़मीन
खो जाती है–
यही बहक गए बरसों के धागे इस
कहानी में लिपटते भी हैं,
मन-बदन को सालते भी हैं,
और हाथ की पकड़ में आते भी हैं–
ऐसे–जैसे कोई खिड़की के शीशे को नाखूनों से खुरचता हो...
मीना हाथ में ली हुई किताब को पढ़ती-सी इस वक्त कमरे में अकेली थी, पर उसका ध्यान किताब में नहीं था, शायद कमरे में भी नहीं था–उसने चौंककर कमरे की ओर, दरवाज़े की ओर, और फिर खिड़की की ओर देखा।
उसे लगा–अभी खिड़की के शीशे के आगे एक बांह-सी हिली थी, फिर परे हो गई थी।
उसका दिल ज़ोर से धड़का, और, वह कमरे में से दौड़ती-सी बाहर वहां रसोई में चली गई, जहां दलीप उसके लिए चाय बना रहा था।
दलीप चाय की केतली को ट्रे में रखता हुआ कहने लगा–लो मालकिन, चाय तैयार है।
मीना उखड़े हुए सांसों में भी हंस-सी दी–मेहमान को फ्रेंच में मालकिन कहते हैं ?
दलीप हंसता-सा कहने लगा–फ्रेंच पढ़ते-पढ़ते अगर कोई मेहमान से मालकिन बन जाए, तो... ?
मीना ने प्याले और चमचे भी ट्रे में रख दिए, और दलीप ने ट्रे उठा ली। कमरे की मेज़ पर ट्रे रखते हुए दलीप ने देखा-मीना कुछ घबराकर खिड़की की तरफ देख रही है।
दलीप ने प्यालों में चाय डाली, और मीना उसके हाथ से चाय का प्याला पकड़ती हुई कुरसी पर बैठ गई। पर उसने मुश्किल से अभी दो घूंट भरे थे–लगा जैसे कोई खिड़की के शीशे को नाखूनों से खुरचता हो...
उसका हाथ कांप-सा गया, और उसने प्याला मेज़ पर रखकर, पहले खिड़की की तरफ देखा, फिर दलीप की तरफ।
–क्या बात है मीनू ?
जवाब में मीना ने खिड़की की तरफ हाथ किया।
दलीप ने उठकर खिड़की के पास जाकर बाहर की ओर देखा, फिर मीना की तरफ लौटता हुआ कहने लगा–वहां तो कुछ भी नहीं।
–कोई था।
–कहां ? कब ?
–अभी जब मैं यहां अकेली बैठी हुई थी।
–कौन था ?
–किसी की बांह-सी थी, फिर परे हो गई।
दलीप हंसने लगा, और खिड़की के पास जाकर खिड़की को ज़रा-सा खोलकर, उसमें से अपनी बांह को बाहर निकालकर, उसने बुगनवेलिया की बेल को हाथ से इधर खिड़की के आगे करते हुए कहा–हवा से इसकी टहनी कभी ऐसे हिलती है जैसे कोई खिड़की के आगे बांह हिला रहा हो।
बुगनवेलिया के लाल और सिलकी रंग के फूल सचमुच किसी की छोटी-छोटी उंगलियों की तरह हिल रहे थे।
–नहीं, शीशे को कोई नाखूनों से खुरच रहा था...
–बेल के कांटे शीशे से रगड़ते हैं...
दलीप ने हाथ में पकड़ी हुई टहनी को छोड़ दिया। वह खिड़की के शीशे के साथ घिसटती हुई जब परे हुई, तब मीना को यकीन-सा आ गया कि पहले भी बिलकुल यही आवाज़ आई थी।
वह कच्ची-सी होकर हंस पड़ी। कहने लगी–मेरा सचमुच आजकल दिमाग खराब हो गया है।
दलीप ने कुछ चिंतित-सा होकर पूछा–तू आज भी साइकल पर आई है ?
मीना ने ‘हां’ में सिल हिलाया।
दलीप ने कुछ गुस्से से कहा–मैंने कल भी तुझसे कहा था कि साइकल पर मत आना, बस से आ जाना। मैं वापसी पर तुझे मोटरसाइकल से छोड़ आऊंगा।
मीना कुछ परेशान-सी दलीप की ओर देखने लगी।
दलीप ने पूछा–आज किस रास्ते से आई थी ? पुल की तरफ से ?
–नहीं रेलवे लाइन की तरफ से।
–फिर आज तो रास्ते में वह कार वाला नहीं होगा !
–सारे रास्ते नहीं था, पर जहां रिंग रोड मिलती है, वहां वह खड़ा था।
और साथ ही मीना हंस-सी दी–यह भी शायद मेरा भुलावा हो, उसने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। रोज़ वही गाड़ी देखता हूं, रास्ते में किसी-न-किसी जगह, कभी मेरे पीछे आती, कभी किसी जगह खड़ी हुई। शायद वैसे ही डर गई हूं।
दलीप हंसने लगा–तू आजकल कोई सस्पेंस नॉवल तो नहीं पढ़ रही ?
–नानसेंस।–और मीना घड़ी की ओर देखते हुए कहने लगी–छः बजने वाले हैं, उठो, क्लास का वक्त हो गया है।
मीना का घर निज़ामुद्दीन में था। वह रोज़ साउथ एक्सटेंशन फ्रेंच पढ़ने आती थी। कालेज की पढ़ाई खत्म करके वह फ्रेंच का कोर्स करने लगी थी। दलीप कालकाजी के कालेज में पढ़ता था। पर उसका घर यहां साउथ एक्सटेंशन में था–जहां फ्रेंच की क्लासें होती थीं, वहां से बिलकुल पास। और वह भी शाम के खाली वक्त में फ्रेंच का कोर्स करने लगा था। उनका यही परिचय उनकी दोस्ती बन गया था–शायद ऐसी दोस्ती, जो उम्र का साथ भी बन सकती थी।
मीना कभी-कभी आध घंटा पहले आ जाती थी, पहले दलीप के पास, और फिर दोनों चाय का प्याला पीकर फ्रेंच की क्लास के लिए इकट्ठे चले जाते थे।
आज भी रोज़ की तरह छः से साढ़े सात बजे तक दोनों ने क्लास अटेंड की, पर मीना ने जब घर जाने के लिए अपनी साइकल उठाई, दलीप ने उससे कहा–साइकल यहीं रहने दे, मैं तुझे मोटरसाइकल पर छोड़ आता हूं।
–नहीं, सुबह छोटे भाई को साइकल की ज़रूरत होती है।–मीना नहीं मानी।
–अच्छा, फिर पुल की ओर से मत जाना। इस वक्त वह रास्ता बड़ा सूना-सूना होता है।
–वैसे भी वह रास्ता लंबा पड़ता है, मैं इधर रेलवे लाइन की तरफ से जाऊंगी। जहां हर समय रौनक होती है। जहां कोई डर नहीं।
रिंग रोड से मुड़ने वाली सड़क तक दलीप उसके साथ गया। दूर, जहां तक अंदर की सड़क दिखती थी, देखा, और फिर मीना से कहने लगा–कोई हाथ का इशारा करे या रोके तो साइकल से मत उतरना।
–मेरा डर अब तुम्हें लगने लगा है ?–मीना ने हंसकर कहा और साइकल पर चढ़ने लगी।
दलीप ने जल्दी से पूछा–उस कार का रंग क्या है ?
–काला।
–और नम्बर ?
–वह तो मैंने कभी देखा ही नहीं।
–उसमें कैसा आदमी होता है ?
पतला-सा, काला-सा। वह हमेशा गॉगल्स लगाए होता है।
–अकेला होता है ?
–हमेशा अकेला।
दलीप ने साइकल के हैंडल पर से हाथ उठाया, फिर पूछा–उसने कभी कोई इशारा किया है ?
–नहीं, ऐसा लगता है कि वह मेरी ओर ताकता रहता है। पर वह गॉगल्स लगाए होता है, मुझे आंखें नहीं दिखतीं, शायद यूं ही लगता है।
और मीना ने ‘ओ. के.’ कहते हुए साइकल चला दी।
सड़क पर दूर, जहां तक नज़र जाती थी–कहीं कोई काले रंग की कार नहीं थी। दलीप कुछ देर वहां खड़ा रहा, फिर अपने घर की ओर लौट पड़ा।
मीना वह सड़क लांघ गई, अगली भी, और रेलवे लाइन वाली जगह आ गई। फाटक बंद था, वहां कितनी ही कारें, स्कूटर और साइकिलें रुकी हुई फाटक के खुलने का इंतज़ार कर रही थीं। मीना भी साइकल से उतरकर उस भीड़ में खड़ी हो गई।
साइकल वाले ऊबकर कभी-कभी साइकल की घंटी बजा देते–जैसे बंद फाटक को आगे रास्ते से हटने के लिए कह रहे हों।
एक स्कूटर वाला कह रहा था–पांच बरस हो गए हैं सुनते हुए कि यहां पुल बनेगा...
और एक साइकल वाला जवाब दे रहा था–जनाब ! यह बात तो उन्होंने इलेक्शनों के वक्त कही थी, अब फिर इलेक्शनों के वक्त कह देंगे...
एक और साइकल वाला कह रहा था–नहीं, अब वे इलेक्शनों के वक्त कागज़ पर इसका नक्शा बनाएंगे और फिर उससे अगले इलेक्शनों में नींव खुदवाएंगे।
उठती जवानी में किस तरह
एक कंपन किसी के अहसास में
उतर जाता है
कि पैरों तले से विश्वास की ज़मीन
खो जाती है–
यही बहक गए बरसों के धागे इस
कहानी में लिपटते भी हैं,
मन-बदन को सालते भी हैं,
और हाथ की पकड़ में आते भी हैं–
ऐसे–जैसे कोई खिड़की के शीशे को नाखूनों से खुरचता हो...
मीना हाथ में ली हुई किताब को पढ़ती-सी इस वक्त कमरे में अकेली थी, पर उसका ध्यान किताब में नहीं था, शायद कमरे में भी नहीं था–उसने चौंककर कमरे की ओर, दरवाज़े की ओर, और फिर खिड़की की ओर देखा।
उसे लगा–अभी खिड़की के शीशे के आगे एक बांह-सी हिली थी, फिर परे हो गई थी।
उसका दिल ज़ोर से धड़का, और, वह कमरे में से दौड़ती-सी बाहर वहां रसोई में चली गई, जहां दलीप उसके लिए चाय बना रहा था।
दलीप चाय की केतली को ट्रे में रखता हुआ कहने लगा–लो मालकिन, चाय तैयार है।
मीना उखड़े हुए सांसों में भी हंस-सी दी–मेहमान को फ्रेंच में मालकिन कहते हैं ?
दलीप हंसता-सा कहने लगा–फ्रेंच पढ़ते-पढ़ते अगर कोई मेहमान से मालकिन बन जाए, तो... ?
मीना ने प्याले और चमचे भी ट्रे में रख दिए, और दलीप ने ट्रे उठा ली। कमरे की मेज़ पर ट्रे रखते हुए दलीप ने देखा-मीना कुछ घबराकर खिड़की की तरफ देख रही है।
दलीप ने प्यालों में चाय डाली, और मीना उसके हाथ से चाय का प्याला पकड़ती हुई कुरसी पर बैठ गई। पर उसने मुश्किल से अभी दो घूंट भरे थे–लगा जैसे कोई खिड़की के शीशे को नाखूनों से खुरचता हो...
उसका हाथ कांप-सा गया, और उसने प्याला मेज़ पर रखकर, पहले खिड़की की तरफ देखा, फिर दलीप की तरफ।
–क्या बात है मीनू ?
जवाब में मीना ने खिड़की की तरफ हाथ किया।
दलीप ने उठकर खिड़की के पास जाकर बाहर की ओर देखा, फिर मीना की तरफ लौटता हुआ कहने लगा–वहां तो कुछ भी नहीं।
–कोई था।
–कहां ? कब ?
–अभी जब मैं यहां अकेली बैठी हुई थी।
–कौन था ?
–किसी की बांह-सी थी, फिर परे हो गई।
दलीप हंसने लगा, और खिड़की के पास जाकर खिड़की को ज़रा-सा खोलकर, उसमें से अपनी बांह को बाहर निकालकर, उसने बुगनवेलिया की बेल को हाथ से इधर खिड़की के आगे करते हुए कहा–हवा से इसकी टहनी कभी ऐसे हिलती है जैसे कोई खिड़की के आगे बांह हिला रहा हो।
बुगनवेलिया के लाल और सिलकी रंग के फूल सचमुच किसी की छोटी-छोटी उंगलियों की तरह हिल रहे थे।
–नहीं, शीशे को कोई नाखूनों से खुरच रहा था...
–बेल के कांटे शीशे से रगड़ते हैं...
दलीप ने हाथ में पकड़ी हुई टहनी को छोड़ दिया। वह खिड़की के शीशे के साथ घिसटती हुई जब परे हुई, तब मीना को यकीन-सा आ गया कि पहले भी बिलकुल यही आवाज़ आई थी।
वह कच्ची-सी होकर हंस पड़ी। कहने लगी–मेरा सचमुच आजकल दिमाग खराब हो गया है।
दलीप ने कुछ चिंतित-सा होकर पूछा–तू आज भी साइकल पर आई है ?
मीना ने ‘हां’ में सिल हिलाया।
दलीप ने कुछ गुस्से से कहा–मैंने कल भी तुझसे कहा था कि साइकल पर मत आना, बस से आ जाना। मैं वापसी पर तुझे मोटरसाइकल से छोड़ आऊंगा।
मीना कुछ परेशान-सी दलीप की ओर देखने लगी।
दलीप ने पूछा–आज किस रास्ते से आई थी ? पुल की तरफ से ?
–नहीं रेलवे लाइन की तरफ से।
–फिर आज तो रास्ते में वह कार वाला नहीं होगा !
–सारे रास्ते नहीं था, पर जहां रिंग रोड मिलती है, वहां वह खड़ा था।
और साथ ही मीना हंस-सी दी–यह भी शायद मेरा भुलावा हो, उसने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। रोज़ वही गाड़ी देखता हूं, रास्ते में किसी-न-किसी जगह, कभी मेरे पीछे आती, कभी किसी जगह खड़ी हुई। शायद वैसे ही डर गई हूं।
दलीप हंसने लगा–तू आजकल कोई सस्पेंस नॉवल तो नहीं पढ़ रही ?
–नानसेंस।–और मीना घड़ी की ओर देखते हुए कहने लगी–छः बजने वाले हैं, उठो, क्लास का वक्त हो गया है।
मीना का घर निज़ामुद्दीन में था। वह रोज़ साउथ एक्सटेंशन फ्रेंच पढ़ने आती थी। कालेज की पढ़ाई खत्म करके वह फ्रेंच का कोर्स करने लगी थी। दलीप कालकाजी के कालेज में पढ़ता था। पर उसका घर यहां साउथ एक्सटेंशन में था–जहां फ्रेंच की क्लासें होती थीं, वहां से बिलकुल पास। और वह भी शाम के खाली वक्त में फ्रेंच का कोर्स करने लगा था। उनका यही परिचय उनकी दोस्ती बन गया था–शायद ऐसी दोस्ती, जो उम्र का साथ भी बन सकती थी।
मीना कभी-कभी आध घंटा पहले आ जाती थी, पहले दलीप के पास, और फिर दोनों चाय का प्याला पीकर फ्रेंच की क्लास के लिए इकट्ठे चले जाते थे।
आज भी रोज़ की तरह छः से साढ़े सात बजे तक दोनों ने क्लास अटेंड की, पर मीना ने जब घर जाने के लिए अपनी साइकल उठाई, दलीप ने उससे कहा–साइकल यहीं रहने दे, मैं तुझे मोटरसाइकल पर छोड़ आता हूं।
–नहीं, सुबह छोटे भाई को साइकल की ज़रूरत होती है।–मीना नहीं मानी।
–अच्छा, फिर पुल की ओर से मत जाना। इस वक्त वह रास्ता बड़ा सूना-सूना होता है।
–वैसे भी वह रास्ता लंबा पड़ता है, मैं इधर रेलवे लाइन की तरफ से जाऊंगी। जहां हर समय रौनक होती है। जहां कोई डर नहीं।
रिंग रोड से मुड़ने वाली सड़क तक दलीप उसके साथ गया। दूर, जहां तक अंदर की सड़क दिखती थी, देखा, और फिर मीना से कहने लगा–कोई हाथ का इशारा करे या रोके तो साइकल से मत उतरना।
–मेरा डर अब तुम्हें लगने लगा है ?–मीना ने हंसकर कहा और साइकल पर चढ़ने लगी।
दलीप ने जल्दी से पूछा–उस कार का रंग क्या है ?
–काला।
–और नम्बर ?
–वह तो मैंने कभी देखा ही नहीं।
–उसमें कैसा आदमी होता है ?
पतला-सा, काला-सा। वह हमेशा गॉगल्स लगाए होता है।
–अकेला होता है ?
–हमेशा अकेला।
दलीप ने साइकल के हैंडल पर से हाथ उठाया, फिर पूछा–उसने कभी कोई इशारा किया है ?
–नहीं, ऐसा लगता है कि वह मेरी ओर ताकता रहता है। पर वह गॉगल्स लगाए होता है, मुझे आंखें नहीं दिखतीं, शायद यूं ही लगता है।
और मीना ने ‘ओ. के.’ कहते हुए साइकल चला दी।
सड़क पर दूर, जहां तक नज़र जाती थी–कहीं कोई काले रंग की कार नहीं थी। दलीप कुछ देर वहां खड़ा रहा, फिर अपने घर की ओर लौट पड़ा।
मीना वह सड़क लांघ गई, अगली भी, और रेलवे लाइन वाली जगह आ गई। फाटक बंद था, वहां कितनी ही कारें, स्कूटर और साइकिलें रुकी हुई फाटक के खुलने का इंतज़ार कर रही थीं। मीना भी साइकल से उतरकर उस भीड़ में खड़ी हो गई।
साइकल वाले ऊबकर कभी-कभी साइकल की घंटी बजा देते–जैसे बंद फाटक को आगे रास्ते से हटने के लिए कह रहे हों।
एक स्कूटर वाला कह रहा था–पांच बरस हो गए हैं सुनते हुए कि यहां पुल बनेगा...
और एक साइकल वाला जवाब दे रहा था–जनाब ! यह बात तो उन्होंने इलेक्शनों के वक्त कही थी, अब फिर इलेक्शनों के वक्त कह देंगे...
एक और साइकल वाला कह रहा था–नहीं, अब वे इलेक्शनों के वक्त कागज़ पर इसका नक्शा बनाएंगे और फिर उससे अगले इलेक्शनों में नींव खुदवाएंगे।
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