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ऐतिहासिक >> मेघवाहन

मेघवाहन

निर्मल कुमार

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 757
आईएसबीएन :81-263-0879-6

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कलिंग के महापराक्रमी सम्राट मेघवाहन खारवेल के जीवन पर केन्द्रित एक शसक्त ऐतिहासिक उपन्यास....

Meghvahan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कलिंग के महापराक्रमी सम्राट मेघवाहन खारबेल के जीवन पर केन्द्रित एक सशक्त ऐतिहासिक उपन्यास। बाहरी शक्तियों के अन्धड़ ने खारवेल को भारत का सजग प्रहरी और यहाँ की सांस्कृतिक एकता का स्वप्न साकार करनेवाला बना दिया है। मेघवाहन कलिंग की पुरानी पराजय का बदला लेने के लिए मगधराज शुंग पर आक्रमण करने को आकुल था,लेकिन तब तक यूनान का बादशाह डिमेस्ट्रियस भीमगध पर आक्रमण करने के लिए घेरा डाल चुका था। मेघ वाहन चाहता तो उससे मिलकर शुंग पर आक्रमण कर सकता था लेकिन उसने यह उचित नहीं समझा। देश के किसी भी हिस्से पर किया आक्रमण वह स्वयं पर आक्रमण मानता था। भारत की एकता का प्रश्न ही उसके लिए सर्वोपरि था। परिणामस्वरूप उसने सर्वप्रथम डिमेस्ट्रियस पर आक्रमण कर उसे सीमा के बाहर खदेड़ दिया। इसी वीरोचित कर्म से वह इतिहास से ऊपर उठकर जनश्रुति का नायक बन गया। उपन्यास की विशेषता है इसमें प्रस्तुत गहन दार्शनिक चिन्तन,जो कथा-प्रवाह में ऐसे घुल गया जैसे फूल में सुगंध। पाठक को लगेगा कि किस तरह उस समय भारत का सामान्य जन भी संस्कृति और दर्शन की जीवनधारा से गहरे तक जुड़ा हुआ था। ओजस्वी शैली में लिखे गये इस कथानक में सत्यनिष्ठा और विरल सौन्दर्यबोध भी उपन्यास को विशेष महत्व प्रदान करते हैं. इस उपन्यास के पात्रों में पाठकों को एक ओर अपने जीवन के बिम्ब मिलेंगे,उनकी समस्याओं में अपनी समस्या और अपने प्रश्नों के उत्तर भी मिलेंगे तो दूसरी ओर उनके साहस और विश्वास में सत्य-शिव-सुन्दर का सामंजस्य उदभासित होगा।

प्रिय श्रीद को


प्रिय श्रीद ! अभी तुम प्रतिबिम्ब हो अपनी आत्मा के
बड़े होते-होते, अव्यक्त आत्मा को व्यक्त से अलग करके,
संसार दोनों को एक-दूसरे का आवरण बनाने लगेगा
तुम आत्मा और स्वयं की मैत्री को प्रपंच मत बनने देना
इनकी मैत्री तो मनुष्य को नर से नारायण बनाती है।

नरनारायण ही मनुष्य जीवन का स्वप्न लक्ष्य है
इसी स्वप्न को साकार करने हेतु पूर्वजों ने एक संस्कृति रची थी
गंगा की तरह, उसे भी मैला कर दिया है उनकी सन्तान ने
तुम उस स्वप्न को साकार करके, मनु की सन्तान से कहना-
राजनीतिक स्वतन्त्रता लक्ष्य नहीं, पृष्ठभूमि है स्वतन्त्रता की।

1

युवराज खारवेल का राज तिलक था। वीरों के वीर, वृषभ कन्धोंवाले खारवेल नगरवासियों की आँखों के तारे थे। वे इतने सुन्दर, बाँके और सजीले थे कि उन्हें देखकर लगता था मानो कलिंग के बूढ़े मेघवाहन राजवंश में द्वार तोड़कर वसन्त घुस आया हो।
कलिंग के स्वर्णिम युग का आरम्भ हो रहा था। कलिंगवासियों के अपार उत्साह से प्रेरित हो मानो प्रकृति अपने अनुचरों के साथ उत्सव में सम्मिलित होने आ गयी थी। उल्लास से भरी समुद्र की लहरें अनेक आकाशगंगाएँ रच देने को मचल रही थीं। अँधेरे में चमकती दूधिया लहरें ऊपर और फिर और ऊपर उठतीं। लहरों के इस बालहठ को सारी रात अविचलित आकाशगंगा, विस्मृत-सी तकती रही।

नीले काजल जैसे आकाश पर तारे राजमाता के केशजाल में जड़े हीरों की तरह दमक रहे थे। कुछ वर्ष पूर्व राजमाता के घने काले केशों में सफेद केशों की एक पट्टी उभर आयी थी। ऐसा लगता था मानो चतुर चितेरे काल ने राजमाता के केशों पर आकाशगंगा का ही चित्र उकेर दिया था। सागर तट पर जमा भीड़ के कण्ठ से बीच-बीच में तुमुल घोष उठता, ‘नमो अरिहन्ता !’ राजतिलक के बाद, रात्रि के समय समुद्र के किनारे उत्सव आयोजित था। महाराज खारवेल उत्सव में पधार चुके थे। साथ थीं उनकी रानी, बंगदेश की राजकुमारी दृष्टि। उनकी आँखें हिरणी की आँखों जैसी बनी थीं, और युवा मोर के लम्बे परों जैसे केश थे। उनकी नाजुक-सी छवि एक अत्यन्त क्षीण कटि पर सधी हुई थी। उनके अंगों का उन्माद और चपलता देख आश्चर्य होता कि इतनी पतली कमर में इतनी बिजलियाँ विधाता ने कैसे भर दी थीं। रानी दृष्टि का रूप गुलाबी परिधानों में खूब खिल रहा था। उनके विशाल और उन्नत उरोज फीके बैंगनी रंग की मलमल की कंचुकी से बँधे थे। हीरक मुकुट में नौ अनमोल रत्न जड़े थे, जिनसे नौ रंगों का प्रकाश निकल रहा था। मगध की रानियों के रत्नभण्डार भी रानी दृष्टि के इन अनमोल नौ रत्नों के आगे निर्धन लगते थे।

स्वर्ण और ताम्र के मिश्रित वर्णवाले महाराज खारवेल बहुत लम्बे थे, जो सभी को दूर से ही दिख रहे थे। भुर्ज काष्ठ से बने कागज की रंग-बिरंगी लालटेनें बाँस के खम्भों पर जगह-जगह लगी थीं। खारवेल ने अपना बलिष्ठ दायाँ हाथ बड़ी कोमलता से रानी दृष्टि के दायें कन्धे पर रखा हुआ था। ऐसा लगता था कि उन्हें रानी प्राणों की तरह प्रिय हैं।
तभी एक मधुर किन्तु दृढ़ नारी स्वर सुनाई दिया, ‘‘रुक जाइए नरेश ! आपके समक्ष ही वह परम पावन स्थल है, जहाँ कभी कलिंगजिन खड़े थे। सागर का जल उनके चरण पखारकर रेत के गड्ढों में थोड़ा-सा जमा हो जाता था। पर्वतों के वीर कहते हैं कि वह चरणामृत मधु से भी मीठा होता था।’’

ये शब्द उत्तरी कलिंग की जनजाति की राजकुमारी सरस्वती के थे, जो खारवेल के सामने खड़ी थीं। ‘‘यही वह स्थल है हमारे देवता कलिंगजिन का। राजाओं के राजा ! यहाँ आपको भी सर झुकाना होगा, ताकि आपका यश उस सितारे की तरह बढ़े जो चन्द्रमा का मित्र है। हमारे पर्वतों में वह कन्दरा है, जहाँ उस सितारे का जन्म हुआ था। किंवदन्ती है कि वह हमारी जनजाति का पूर्वज था और उसने चन्द्रमा से मैत्री की थी। आप समस्त कलिंग के राजा हैं, नगरवासियों के और हम जैसे वनवासियों के। मैं अपने पिता की ओर से यह मंगलकामना लायी हूँ कि आपका यश भी चन्द्रमा की तरह बढ़े।’’
खारवेल ने मुस्कराते हुए पूछा, ‘‘तुम कैसे जानती हो राजकुमारी कि यही वह स्थल है ? ऐसा तो नहीं लगता कि तुमने तीन शताब्दियाँ देखी हों ?’’
‘‘नहीं महाराज !’’ सरस्वती ने कहा, ‘‘तीन शताब्दियाँ तो नहीं देखीं मैंने ! किन्तु मुझमें एक आत्मा है, जो काल से पुरानी है।’’

महाराज हँसने लगे और महारानी भी। तभी मुनि भद्रबाहु (द्वितीय) ने कहा, ‘‘सरस्वती सच कह रही है राजन् ! यही वह स्थल है, जिसे कलिंगजिन के चरणों ने पवित्र किया था।’’
हजारों वर्ष पूर्व के कलिंगजिन की मूर्ति समुद्र से देवताओं के वरदान की तरह प्रकट हुई थी। सोलह फुट ऊँची, काले संगमरमर की वह भव्य प्रतिमा मनुष्य के हाथों की रचना नहीं लगती थी। काला संगमरमर आस-पास कहीं उपलब्ध नहीं था मूर्ति किसी भी प्रचलित शैली में नहीं तराशी गयी थी। मूर्ति के मुखमण्डल पर ही नहीं, अंग-अंग में सर्वथा विपरीत भाव परस्पर ऐसे घुल मिल गये थे कि विश्वास करना कठिन था कि कोई कलाकार प्राकृतिक भावों के पार योगमाया के उस लोक में पहुँचा होगा, जो भावों से परे है, जहाँ कोई दिव्य, रहस्यमय भंगिमा प्रकट होती है और प्रकृति के तल पर उतरते-उतरते अनेक भावों में बदल जाती है। एक ओर तो उल्लास के अतिरेक से मूर्ति का अंग-अंग खिला जा रहा था, दूसरी ओर बर्फ से ढँके हिमालय की तरह अंग शान्त और ध्यानमग्न लगते थे। एक ओर तो देखने वालों को मूर्ति परममित्र जैसी लगती थी, दूसरी ओर लगता था जो किसी का मीत नहीं हो सकता, ऐसा निर्मोही योगी है कलिंगजिन ! एक ओर तो कलिंगजिन के अंग कामदेव के अंगों की तरह विलास-कामना से मचलते लगते थे और दूसरी ओर उदयगिरि के ग्रीष्म ऋतु में तपते पत्थरों की तरह स्पन्दनहीन।

जो कोई प्रेम-भरी दृष्टि से कलिंगजिन को देखता उसे वे प्रेमी नजर आते। जो उन्हें प्रथम अरिहन्त समझ श्रद्धा से उनकी पूजा करता, उसे वे वही आदि जिनेन्द्र लगते, जो वे थे। किंवदन्ती थी कि प्रागैतिहासिक काल में जब कलिंग में भीषण अकाल पड़ा था तो आदि जिनेन्द्र की चिरकुमारी पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी समुद्र से प्रकट हुई थीं, और वह मूर्ति उन्होंने कलिंग के राजा को दी थी। लोगों का विश्वास था कि इस मूर्ति को स्वयं ब्रह्मा ने अपने हाथों से बनाया था। यह मान्यता मगध के शुंगवंशीय राजघराने में भी उतनी ही प्रचलित थी जितनी कलिंग और मगध की जनता में।
अब वह मूर्ति मगध के चौक में शोभित थी। मगध की कुमारियाँ उसकी उपासना इच्छित वर की कामना से करती थीं। प्रतिवर्ष एक विशाल मेला मगध के चौक में लगता था, जहाँ भारतवर्ष के अनेक प्रान्तों से कुमारियाँ और सुहागिनें, बच्चे और पुरूष आते थे।

कलिंग जनजाति की भोली बालाएँ कलिंगजिन को ही अपना अमर प्रेमी मान, उस मेले में उसे एक नजर देखने के लिए हजारों की संख्या में आया करती थीं। कलिंगजिन की उनकी चाहों के उत्तर में कुछ ऐसा मुस्कुराता था कि प्रत्येक बाला को लगता मानो वह केवल उसका प्रेमी है। बच्चे उसे ऐसी श्रद्धा से देखते मानो वही वह प्राचीन योद्धा था जिसने राक्षसों से पृथ्वी को कई बार मुक्त किया था। उनकी भोली नजरों को कलिंगजिन सिर से पैर तक शस्त्रों से सुसज्जित नजर आता। कलिंग देश में कथाएँ प्रसिद्ध थीं पर्वतों से लेकर समुद्र तट तक बसे लोगों में, तरह-तरह की कथाएँ। और प्रत्येक कथा में कलिंगजिन की आकृति अलग थी। उनकी बातें सुनकर किसी को भी विश्वास हो जाता कि तरह-तरह के अद्भुत कारनामे कलिंगजिन ने किये थे। कुछ जादू से भरे थे और कुछ अपूर्व शक्ति से।

महाराज और महारानी ने उस स्थान पर प्रणाम किया और लाखों की उस भीड़ के कण्ठ से जयध्वनि निकली, ‘जय कलिंगजिन !’ यह ध्वनि लहरों और हवाओं के शोर को चीरती हुई ऊपर चली गयी। लोगों के शीश पर कलशों में पवित्र जल था, जिसे उन्होंने उस स्थल पर डाल दिया। लहरें आयीं और उस जल को ले गयीं। मानो वरूण देव सहमत हो गये थे उनकी हवी सुदूर मगध के खड़े कलिंगजिन तक पहुँचा देने को।

जिस घड़ी या समारोह कलिंग में हो रहा था, कलिंगजिन मगध के चौक में खड़ा सैनिकों और नागरिकों को आपाद कण्ठ आनन्द और विश्वास से भर रहा था। जहाँ सभी सामाजिक समारोह होते थे, मेले लगते थे और सैनिक कदमताल करते थे। उसकी वह चितचोर मुस्कराहट, जो अभिन्न थी और हरजाई भी, अब अपने मगध प्रेमियों को बेहाल किये हुए थी। ‘‘मगध के आक्रमण को पचास वर्ष से अधिक हो गये राजन् ! उसे अन्तिम आक्रमण मत समझिए। उस अक्षम्य अपराध को कलिंगवासी कभी क्षमा नहीं करेंगे,’’ सरस्वती ने कहा। ‘‘हम कलिंगवासी चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक आप मगध से हमारी मूर्ति वापस नहीं लाएँगे।’’ भुर्जपत्रों की कन्दीलों में जलता प्रकाश सरस्वती के भावावेग से तप्त मुख पर पड़ रहा था। यद्यपि वह धीर-गम्भीर थी, किन्तु ऐसा लगता था, मानो उसके स्नायुओं से निकलकर निरन्तर जीवन्त भाव उसके आनन पर चल रहे थे। वे भाव उसके सुन्दर श्याम वर्ण पर शक्तिपीठों की तरह दीप्त थे। उसके गाल भाववेश में तपाये ताँबे जैसे हो गये थे। आँखें बाघिन की आँखों की तरह चमक रही थीं। एक क्षण को खारवेल को लगा मानो उसकी आँखों में उसे उत्तरी कलिंग के पूरे वन प्रान्त के, उपत्यकाओं और अल्हड़ झरनों के दर्शन हो गये। उसकी आँखों में एक सुन्दर स्त्री होने का भाव नहीं था। उसकी आँखें अव्यक्तिगत थीं। जैसे वन की सारी गतिशीलता और रहस्य उन दो आँखों में भरी हुई थी। उसके पीन, उन्नत, कठोर पयोधर विद्रोह से भरे थे। उनकी कोमल कठोरता पर क्षण भर को खारवेल की दृष्टि ठिठक गयी और वह आश्चर्य से भर गया, यह कैसी पूर्णता थी, जो विधाता ने उसके अंग-प्रत्यंग को सहज ही दे दी थी।

‘‘हमारी आशाएँ और सपने मुरझा गये हैं, यशस्वी मेघवाहन महाराज !’’ एक वृद्ध योद्धा बोला, ‘‘आपने महाराज को वचन दिया था उनकी मृत्यु-शैया पर। आज शपथ लीजिए जनता के बीच कि आप हमारे सपनों और आशाओं को फिर से हरा करेंगे।’’
‘‘आप जानते हैं कि कलिंगजिन ही हमारी शक्ति है। वह हमारा जीवित देवता है। उसके बिना हम कुछ नहीं कर सकते। हम कब तक एक पराजित जाति का लज्जाजनक जीवन जीते रहेंगे ? क्या आपकी इच्छा नहीं होती कि आपकी प्रजा अपनी सुवासित आशाओं और सुन्दर सपनों के साथ जिए ?’’ सरस्वती वर्षा ऋतु में वन में भर आयी नदी की तरह आवेग में बोली।

‘‘मैंने ऐसा कभी नहीं कहा।’’ खारवेल बोला, ‘‘मैं प्रण करता हूँ अपने देश की समस्त माताओं, सुन्दरियों, वृद्धाओं, और पुरुषों के समक्ष कि मैं कलिंगजिन को वापस लाऊँगा। यदि न ला सका तो सभी देशवासियों के समक्ष इन दोनों भुजाओं को तोड़ दूगाँ।’’

एक तुमुल नाद से भीड़ ने इस प्रण का स्वागत किया। खारवेल ने अपनी दायीं भुजा उठाकर उन्हें चुप हो जाने का संकेत दिया और कहा, ‘‘मुझे सुनो मेरे देशवासियों ! एक निवेदन करना है। सभी प्रण लें कि कोई भी कलिंगवासी मूर्ति के न होने के कारण स्वयं को अनाथ नहीं कहेगा। कलिंगजिन तुम सबके हृदयों में भी हैं। क्या पाँच शताब्दी पूर्व ज्ञानी महावीर ने नहीं कहा था ? और क्या सुननेवाला अपने युग का सर्वश्रेष्ठ विद्वान गौतम नहीं था कि ईश्वर प्रत्येक आत्मा के भीतर रहता है और आत्मा स्वयं ही एक सोया हुआ ईश्वर है ? तुम सब प्रण करो कि कलिंगजिन की मूर्ति की शरण लेने के बजाय तुम सब अपनी-अपनी आत्मा में छिपे प्रकाश की शरण लोगे। वह प्रकाश ही सनातन कलिंगजिन है, जो सदा से था और सदा रहेगा। मुझे बहादुर कलिंग के बेटों की आवश्यकता है, क्योंकि मुझे प्रतिशोध लेना है उस नरसंहार का, जो मगधराज अशोक ने कलिंग की पवित्र भूमि पर किया था। मुझे उस अपमान का प्रतिशोध लेना है जिससे वहशी मगध सेना ने हमारे पूर्वजों का अभिषेक किया था। मुझे मगध से कहना है कि वह इतना सक्षम नहीं है कि कलिंग का उचित अभिषेक कर सके। छिछली भावुकता से जर्जर कलिंग की जनता के दम पर मैं ऐसा नहीं कर सकता। वे लोग कुछ नहीं कर सकते जिनकी शक्ति एक मूर्ति में समायी हुई है, जो उस शक्ति को नहीं जानते जो उनकी आत्मा में सो रही है; जो उनके हृदय में अजर-अमर है जिसका कोई नाश नहीं कर सकता।’

ये शब्द भीड़ की अगली पंक्तियों ने पिछली पंक्तियों से कहे। रात के गहराते-गहराते ये शब्द लाखों की उस भीड़ में प्रत्येक ने सुने। यही प्राचीन कलिंग विधि थी राजाओं और ज्ञानियों का संवाद जन-जन तक पहुँचाने की। खारवेल का विचार बहुत नया था और भीड़ को आसानी से पच नहीं रहा था। कुछ लोगों को इस विचार में मगध के योगी पातंजलि के शब्द सुनाई पड़ रहे थे। कुछ को श्रमणवाद में ब्रह्मवाद घुसा हुआ महसूस हो रहा था। उन्हें यह विचार निर्ग्रन्थ मुनियों के विचारों से भिन्न लग रहा था।

किन्तु यह विचार उनके राजा ने व्यक्त किया था। अतः उन्हें इसमें ईश्वरेच्छा का आभास भी हो रहा था। उन्हें विश्वास था कि यह एक व्यक्ति खारवेल की वाणी नहीं हो सकती। शायद तीर्थंकर ही संकेत कर रहा था कि जिन्हें श्रमण और ब्राह्मण विचारों में विरोध दिख रहा था, वे संशयशील मस्तिष्क थे। जिन्होंने सच्ची साधना की थी उन्होंने पाया कि सत्य के खुले आलोक में दोनों विचार मात्र दो अन्दाज थे-एक ही सत्य को व्यक्त करने के।

जनता के हृदय में बालरवि की तरह सहज विश्वास उदित हो रहा था। क्योंकि यह विचार कलिंग के प्रथम नागरिक ने व्यक्त किये थे। उस स्थल पर जिसे और पवित्र नहीं किया जा सकता था, क्योंकि शताब्दियों तक वहाँ अचल खड़े रहकर कलिंग ने उसे पहले ही पवित्र कर दिया था।

भुर्ज की ताजा छाल से मण्डित दीपों के प्रकाश में समूह-नृत्य प्रारम्भ हो गया। मुनिजन भद्रबाहु (द्वितीय) के पीछे-पीछे, नागरिकों के आमोद-प्रमोद के लिए स्वतन्त्रता देने के उद्देश्य से तपोवन को लौट गये थे। भीड़ समुद्र-तट छोड़ नगर के विशाल प्रांगण में आ गयी थी। घरों की छतों, चौबारों और छज्जों पर कोमलांगियों ने कतारों में घी के दिये जला रखे थे। समुद्र-तट प्रांगण से दिख रहा था। सान्ध्य-कर्मों से निवृत्त होकर लोग प्रांगण में इकट्ठे हो रहे थे।

नर्तकों, वाद्यवृन्द, जनों गायकों और अभिनेताओं के समूह कलिंग के पुरी, गंजम, कटक आदि जनपदों से आये हुए थे। कलिंग के दो विशाल नगर, तोशाली और समापा, होड़ लगाये हुए थे एक-दूसरे से उत्सव को जीत लेने की। जनजातियों के नायक और नर्तक, गहन वनों, झरनों और प्रकृति के आँचल में पले और सरल प्रेम से सुवासित, उद्गारों से भरे अपने हृदयों के साथ पहले ही आ चुके थे। नगर के कलाकार भी कुछ आ चुके थे, कुछ आ रहे थे। उनकी कला में प्रकृति की उन्मुक्तता नहीं थी, तो भी कोई कमी नहीं थी। उनमें शास्त्रीय संगीत और नृत्य की गरिमा के साथ एक विद्वत् परम्परा का ओज था। वत्सराज उदयन जैसे अनेक विद्वान कलाकारों ने शास्त्रीय कलाओं को सरस्वती के चरण-स्पर्श करने की क्षमता दे रखी थी। सातकर्णी के कलाकार भी कलिंग के राजा के लिए, अपने राजा की शुभकामनाएँ लिये उपस्थित थे। यूनानी कलाकारों और नटों का एक दल उन दिनों कलिंग के शहरों और गाँवों में अपनी कला का प्रदर्शन करता हुआ भ्रमण कर रहा था। कुछ धन कमाने के अवसर देख वे भी उत्सव में सम्मिलित हो गये थे।

आधी रात होते-होते महारानी दृष्टि की पलकें थकान से बोझिल होने लगीं। काजल से कजराये विशाल नेत्रों में निद्रा देवी और कामदेव ने अरुण रेखाएँ डाल दी थीं। किन्तु नागरिकों की अप्रसन्नता का भय उन्हें अपना आसन छोड़कर जाने नहीं दे रहा था। उन्होंने कुर्सी की पीठ पर अपना शीश टिका दिया। उन्हें थका और बेचैन देख प्रधानमंत्री उनके निकट आये और बोले, ‘‘मेघवाहन महारानी ! कृपया कुछ देर के लिए सम्राज्ञी-शिविर में विश्राम कर लें।’’

महारानी ने महाराज की ओर देखा, और उनके नेत्रों में सहमति देख वे उठीं। फिर अपनी सोलह कुमारी सखी-परिचारिकाओं के साथ चल दीं। प्रधानमंत्री राजकला के सिद्धहस्त खिलाड़ी थे। महारानी को विश्राम के लिए भेजने के पीछे उनके दो उद्देश्य थे। एक तो वह उनकी दृष्टि में एक शुभचिन्तक मित्र बनकर रहना चाहते थे, लेकिन उनका दूसरा उद्देश्य जरा गहरा था। उन्होंने खारवेल के भाषण पर जनता की उत्साहविहीन प्रतिक्रिया को देख लिया था। और यह उनके लिए चिन्ता का विषय बन चुकी थी। वे खारवेल और सरस्वती को निर्विघ्न एक दूसरे से बात करने और निकट आने का अवसर देना चाहते थे।

प्रधानमंत्री खारवेल और सरस्वती के बीच विवाह की योजना मन ही मन बना चुके थे। वे चाहते थे सरस्वती खारवेल की दूसरी रानी बने। सरस्वती अत्यंत साहसी थी। उसमें लोगों के नेतृत्व करने की अद्भुत क्षमता थी- यही गुण प्रधानमंत्री की अनुभवी आँखों ने देख लिया था। यदि सरस्वती खारवेल के विचारों से सहमत हो जाए तो जनजातियाँ खारवेल के साथ हो जाएँगी। जनजातियाँ ही कलिंगवासियों में सर्वाधिक रूढ़िवादी थीं। वे राजा के पक्ष में हो गयीं तो सभ्य नागरिकों को राजा के पक्ष में करना कठिन नहीं होगा।

जनजातियों की राजकुमारी सरस्वती पहले ही राजा के दायीं ओर बैठी हुई थी। प्रधानमंत्री महारानी को उनके शिविर तक पहुँचाकर लौट आये थे। वे दोनों से बोले, ‘‘कैसा अद्भुत संगम है महाराज ! आप दोनों को साथ देखकर ऐसा लगता है कि विधि ने ही यह संगम रचा है। आर्य और आर्येतर संस्कृतियों का संगम रचने की अभिलाषा जैन मुनियों के हृदयों में शताब्दियों से पल रही है। आर्येतर भारतीयों ने जिस ईश्वर को यक्ष रुप में जाना था, उसे ही आर्य मुनियों ने आत्मा के रूप में देखा। दोनों में अन्तर ही कहाँ है ? आप दोनों को साथ देखकर जैन मुनियों का यह सपना पूरा हुआ-सा लगता है।’’
बिजली की-सी तेजी से सरस्वती की आँखें प्रधानमंत्री की ओर उठीं। उन्हें भय हुआ कि राजकुमारी उनका उद्देश्य न जान ले। किन्तु सरस्वती की तेज नजरें हट गयीं और विचारों में खो गयीं। अब वह मधुवर्णी प्रतिमा-सी लग रही थी। गुमसुम, विचारों में खोयी, जिसकी नजरें नर्तकों पर टिकी हुई थीं। खारवेल को उसकी एकाग्रता मुग्ध कर रही थी। उसे राजा के साथ होने की न संज्ञा थी न गर्व। वह एक वन-फूल की तरह लग रही थी जो वीराने में खिला, जिसे किसी के द्वारा सराहे जाने की कामना नहीं थी, न कोई मलाल था। वह हीनता और श्रेष्ठता ग्रन्थियों से सर्वथा मुक्त थी। उसकी यह स्वतन्त्र छवि देख खारवेल के हृदय में एक नस धड़कने लगी। वह उसकी ओर झुका और बोला, ‘‘वीर पर्वतवासियों की राजकुमारी को नृत्य शायद अच्छा नहीं लग रहा है ?’’

लाज की एक लालिमा सरस्वती के सुन्दर मुख पर आयी। वह बोली,‘‘क्षमा करें महाराज ! मैं सचमुच विचारों में खो गयी थी।’ लाज विद्युत की तरह आयी थी और उसी तेजी से जा चुकी थी। अब वह धीर और संयत थी, अपने नन्हे हृदय में एक तूफान समेटे, जो उस आरोह और अवरोह से कम नहीं था जो सामने समुद्र की लहरों में हो रहा था। तूफान समुद्र की तरह स्वयं ही अपनी हद नहीं तोड़ रहा था, यद्यपि उसका आवेग किसी असाधारण तूफान से कम नहीं था।
‘‘क्या मैं जान सकता हूँ कि कौन-सा धृष्ट विचार है जो शहद जैसी स्निगध राजकुमारी के मष्तिष्क पर बैठ गया है ?’ खारवेल ने पूछा।

‘‘कोई खास विचार नहीं है, महाराज। मैं आपके भाषण पर सोच रही थी। आपके विद्वता पूर्ण शब्द मेरी समझ में नहीं आये थे। अब धीरे-धीरे आ रहे हैं।’’
राजा, जो अपने विचारों के प्रति जनता का निरुत्साह देख कुछ हदप्रभ हो गया था, राजकुमारी के शब्द सुन महसूस करने लगा मानो समुद्र की सारी शक्ति उसकी धमनियों में भर आयी थी। वह बोला ‘‘विधुमुखी राजकुमारी ! मैं कोई नयी बात नहीं कर रहा था न वह मुझ अकेले का कोई विचार था। मैं वही कह रहा था जो हमारे अर्हन्तों ने, तीर्थंकरों ने कहा है। क्या तीर्थंकरों ने जनता से यह नहीं कहा था कि हम तुम्हें कोई ग्रंथ नहीं देते जिसमें धर्म संगृहीत हो, क्योंकि धर्म किसी ग्रंथ में संगृहीत नहीं किया जा सकता। धर्म तो प्रतिपल ताजा और चिर नूतन है। मनुष्य का काम तो सिर्फ इतना है कि मस्तिष्क और हृदय में असत्य, ईर्ष्या, द्वेष और पाप की ग्रन्थियाँ न बनने दे। जिनके हृदय और मस्तिष्क स्वतन्त्र रहते हैं, उनमें धर्म स्वतः ही अज्ञात स्रोतों से प्रकट होता रहता है। माली पौधों को साफ रखता है, झाड़-झंखाड़ नहीं उगने देता। वह पौधों पर बाहर से लाये फूल नहीं चिपकाता। फूल तो टहनी के भीतर से निकलते हैं। इसी तरह सत्य भी सच्चे-साफ हृदय से आप ही जन्म लेता है। कलिंगजिन कैसे प्रसन्न हो सकते हैं यह देखकर कि अपने हृदय की ग्रन्थियाँ तो मनुष्य खोले नहीं, और सारा विश्वास उनकी मूर्ति में रख दे। भले ही ब्रह्मा ने उस मूर्ति को तराशा हो। वह मूर्ति शक्तिदायिनी तो तभी होगी, जब ग्रन्थियाँ खोल लेने से सभी हृदयों में कलिंगजिन प्रकट हो जाएँगे। मूर्ति तो मात्र एक अनुकृति है, उस सौन्दर्य की जो केवल आत्मा में जन्म ले सकता है और कहीं नहीं। जो मनुष्य एक मूर्ति से प्रेरित होता है, क्या यह उसका कर्तव्य नहीं है कि वह उस सौन्दर्य का उद्गम अपने हृदय में भी खोजे ?’’

‘‘रुक जाइए राजन् !’’ अनुनय करते हुए राजकुमारी की सुभग नासिका में झुर्रियाँ पड़ गयीं। ‘‘आपके विचार तेज बादलों की तरह चल रहे हैं। मेरी मन्द बुद्धि का चन्द्रमा उनके साथ नहीं चल पा रहा है। गत वर्ष वर्षा ऋतु में मैं अपनी कुमारी-परिचारिका सखियों के साथ कुमारी पर्वत पर मुनि भद्रबाहु के दर्शनार्थ गयी थी। उन्होंने कहा था कि फसलों को जन्म देनेवाली चिर-प्रसविनी माता ही सरस्वती हैं। वे ही कुमारियों के हृदय में निवास करती है। अज्ञान के ताने-बाने ने इस देवी को एक कम्बल से ढँक रखा है। वह कम्बल केवल सच्चे प्रेम से हटता है। उसे ही कुमारियों को हटाना है। देवी सरस्वती आप ही जग जाएँगी। क्या यही बात आप दूसरे ढंग से नहीं कह रहे है ?’’

खारवेल का हृदय यह सुन आन्तरिक उल्लास से भर गया। प्रशंसा भरी नजरों से सरस्वती को निहारता हुआ वह बोला, ‘मैं जो कठिन शब्दों में कह रहा था, वह आपने सरल शब्दों में कह दिया। लोग आपको इस राज्य का सबसे श्रेष्ठ धनुर्धर कहते हैं। आप इतनी विदुषी भी हैं, यह तो मुझसे किसी ने नहीं कहा था। अच्छा हुआ जो नहीं कहा, अन्यथा मेरे जानने के लिए कुछ भी न रह जाता।
उसके शब्द सुन सरस्वती के आनन के पोर-पोर को खोलती हुई एक मुक्त मुस्कुराहट आयी और दोनों हँसने लगे।
सरस्वती की आँखों में आँखें डालकर खारवेल बोला, ‘आपकी मैत्री से मैं धन्य हो गया राजकुमारी !’’
फिर लाज का एक लाल-सा घूँघट सरस्वती की कमनीय त्वचा पर आया। उसके हटते ही बात पलटने के इरादे से वह बोली, ‘‘और सब तो ठीक है, किंतु बातों ही बातों में आप मेरा अधिकार छीने लिए जा रहे हैं।’’
‘‘कौन-सा अधिकार राजकुमारी ?’’

‘‘आपके साथ नृत्य करने का,’’ सरस्वती एक शरारत-भरी मुस्कान के साथ बोली। ‘‘हम वनवासी हैं महाराज ! हमारे संगीतकार झरने हैं और वनों में चलती हवाएँ हैं जो बाँसों के झुरमुटों में कई अलग राग अलापती हैं तो साल के वन में कोई और।’’ उसने अपने संगीतकारों को इशारा किया। ‘पता नहीं यह धुन आपको अच्छी भी लगेगी या नहीं ?’’
खारवेल बोला,‘‘आप तो सर से पैर तक संगीत हैं राजकुमारी। अभागा ही होगा जो आपके संगीत पर नाच न सके। ’’
जनजाति की पर्वतीय धुन बजने लगी। खारवेल को आश्चर्य हुआ, यह धुन उसने कई बार सुनी थी, किन्तु आज पहली बार इसे सुनकर उसके हृदय में एक हूक-सी उठी थी।
‘‘वह देखिए राजन् ! सरस्वती बोली। ‘पर्वतों के लड़कों और लड़कियों की टोली नाचने के लिए आयी है। अब मैं कैसे न नाचूँ।’’ दो लड़के आये जो सरस्वती को ले गये और दो लड़कियाँ आयीं जो खारवेल को हाथ से पकड़कर ले गयीं। प्रधानमंत्री ने आँखों ही आँखों में महाराज को निःशंक हो नाचने का संकेत दिया, क्योंकि खारवेल कुछ असमंजस में था कि राजतिलक की पहली ही रात को उसका नाचना क्या शोभनीय होगा।

राजा के पैर फिर भी ठिठक रहे थे। यह देख प्रधानमंत्री बोले, ‘‘राजन् ! कलिंग राज्य की यह एक प्राचीन परम्परा है। कलिंग के राजा कलिंगजिन के सभी उत्सवों में जनजातियों के साथ मिलकर नाचते रहे हैं। नृत्य समारोहों की इस परम्परा में आप एक और विस्तार जोड़ दीजिए राजन्, राजतिलक की पहली रात्रि को अपनी प्रजा के साथ नाचकर। आप इतिहास रचने के लिए जनमे हैं मेघवाहन खारवेल, इतिहास को दोहराने के लिए नहीं।’’

प्रधानमंत्री के इन चतुर और सुन्दर शब्दों ने खारवेल का सारा संकोच छीन लिया। महारानी भी महाराज के नाचने की सूचना पाकर अपने शिविर से निकल आयीं, महाराज का नाच देखने के लिए। वे जानती थीं कि महाराज नृत्य और संगीत के प्रसिद्ध ज्ञाता हैं, किन्तु उन्होंने पहले कभी भी उन्हें किसी पर्वतीय धुन पर नाचते हुए नहीं देखा था।
महारानी ने देखा, स्वर्ण और ताम्र के मिश्रित वर्णवाले अपने राजा को नाचते हुए और वे हँसने लगीं। अपने असाधारण रूप में ऊँचे कद को अन्य नर्तकों के समान करने के लिए उन्होंने शरीर झुका रखा था, जो उन्हें कुछ हास्यास्पद बना रहा था। उन्होंने अपना मुकुट छोड़ जनजातियों की पगड़ी पहन रखी थी।
महारानी अपनी कुमारी सखियों को छोड़ तेजी से आगे बढ़ीं और महाराज के समीप जा उनके कान में बोलीं, ‘‘प्रकृति ने जो ऊँचाई दी है, उसे झुकाकर आप अच्छे नहीं लग रहे हैं महाराज !’’

महाराज ने महारानी को भी नृत्य में खींच लिया। वे भी पर्वतीय बालाओं द्वारा कमर में बाँहें डालकर बनाई गयी कड़ी में जुड़ गयीं। जनजातियों की मृदंगों और नगाड़ों की थाप पर महाराज को एक सिद्ध नर्तक की तरह नाचते देख लोग आश्चर्य में पड़ गये। युवतियों और युवकों को महाराज का नृत्य बहुत भाया। कुछ वृद्ध सभासद थे जिन्हें अपने राजा का साधारण लोगों की तरह नाचना अच्छा नहीं लग रहा था। किन्तु वे मौन थे। कुछ सम्भ्रान्त नागरिकों को राजा का जंगलियों के साथ थिरकना अशोभनीय लग रहा था और वे नाक-भौं सिकोड़ रहे थे। किन्तु खारवेल पर इसका कोई असर नहीं था। वह युवा था और मस्त होकर नाच रहा था। वह भूल गया था उस क्षण कि वह राजा है। कोई नहीं जानता था उसकी यही सरलता वनवासियों को मोहे लिये जा रही थी। उस रात का वही नृत्य था जिसने वीर जनजातियों के हृदयों में उसके लिए प्राण न्यौछावर करने की साध जगा दी थी।

उसकी वीरता, पौरुष और सौन्दर्य सरस्वती का हृदय नहीं जीत पाये थे। किन्तु नृत्य के उन क्षणों में, जब जंगली धुनों की लय में उन दोनों के हृदय धड़क रहे थे, कोई कोयल सरस्वती के हृदय से उड़कर खारवेल के हृदय में जा बैठी। कितना वैभव था राजा के हृदय में, यह सरस्वती को तभी पता चला, जब संगीत की एक धुन दोनों के हृदय में एक साथ बजने लगी । राजा के रत्न-भण्डार का लोभहीन सरस्वती पर कोई प्रभाव नहीं था। किन्तु खारवेल के हृदय का वैभव देख सरस्वती के मन की कोयल बौरा गयी। अब उसके लिए कठिन हो गया राजा की आँखों में पहले जैसी बेबाकी से देखना, क्योंकि अब उसका हृदय उसे छोड़ खारवेल से जा मिला था। अब जब भी वह राजा को देखती तो चाहत उसकी आँखों को धुँधला देती, और लाल डोरे न जाने कहाँ से नयनों में उतर आते। वह दृढ़ता से उन्हें निकालने की चेष्टा करती पर वे निकल नहीं रहे थे। नीलकमल जैसी उसकी आँखों की वह पहलेवाली रौनक किसी भी तरह नहीं लौट रही थी। हृदय के हाथों एक ही रात में उसका यह हाल होगा, इसकी उम्मीद सरस्वती को न थी। थोड़ी भी आशंका होती तो वह कुछ अपना बचाव तो करती। बिना कुछ लिये-दिये ही उसका सब कुछ लुट चुका था।

ये पर्वतीय जनजातिवाले भी अनोखे हैं। जो भी करते हैं पूरी लगन से। अब जब उससे बिन पूछे, सरस्वती के मन की कोयल उड़कर किसी और डाल पर जा बैठी, तो अब किसी के किये कुछ नहीं हो सकता था।
प्रधानमंत्री के मन की मुराद जैसे पूरी हो गयी थी। इतनी जल्दी उसकी योजना रंग ले आएगी, उसे भी मालूम नहीं था। किन्तु यहाँ उसका अभिमान भूल कर रहा था। योजना तो किसी और की थी जो किसी को अपनी सूरत नहीं दिखाता। प्रधानमंत्री को क्या पता था कि वह किसी अज्ञात खिलाड़ी का केवल एक मोहरा था। एक ऐसा खिलाड़ी का जिसे किसी ने कभी खेलते हुए नहीं देखा, न जाना, न पहचाना।
महारानी दृष्टि अभिज्ञ थीं। उन्हें पता नहीं था उस आत्मीयता का जो उनके स्वामी और पर्वत की राजकुमारी के बीच स्थापित हो चुकी थी।

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