सिनेमा एवं मनोरंजन >> गुरु दत्त हिंदी सिनेमा का एक कवि गुरु दत्त हिंदी सिनेमा का एक कविनसरीन मुन्नी कबीर
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गुरु दत्त हिंदी सिनेमा का एक कवि...
फिल्म निर्माण एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें जोखिम ही जोखिम है। तो इससे जुड़े लोग कैसे जोखिम से बच सकते है। गुरुदत्त भी नहीं बच पाये। उनका फिल्मी दायरा बहुत बड़ा था। फिल्म निर्माण की बारीकियों से बखूबी वाकिफ बल्कि उनमें सिद्धहस्त गुरुदत्त पर प्रसिद्ध सिनेमा लेखिका नसरीन मुन्नी कबीर की लिखी किताब ‘गुरुदत्ता हिंदी सिनेमा का एक कवि’ की सबसे खास बात है कि इसमें गुरुदत्त की कुछ महत्वपूर्ण निर्देशित एवं अभिनीत फिल्मों की चर्चा करते हुए उनके अनोखे व्यक्तित्व को सामने लाने की सफल कोशिश की गई है।
काव्यात्मकता और विषाद के बहुत बड़े शोमैन थे गुरुदत्ता। जिन भी फिल्मों का निर्देशन उन्होंने किया, उनके गीत आप देखने से रह गये तो फिल्म देखने के सच्चे आनंद से वंचित होना पड़ेगा। यह उनके गीतों के चयन और उनकी प्रस्तुति की विशेषता थी जो उनकी फिल्मों में फिलर के रूप में नहीं बल्कि उसकी जरूरत होते थे। फिल्म निर्माण में जिन लोगों को गुरुदत्त ने साथ लिया उनकी काबिलियत का भरपूर उपयोग किया। वी.के. मूर्ति, अबरार अल्वी, जानीवाकर, एस. गुरुस्वामी, मोहन सहगल, राज खोसला, आत्माराम आदि के गुरुदत्त के संबंध में दिये गये संस्मरणों से यह किताब अपनी प्रामाणिकता का बखान करती है।
गुरु दत्त शानदार फिल्मों की एक विरासत छोड़कर 10 अक्तूबर, 1964 को इस संसार से विदा हो गए। सन् 1980 से विश्व भर में उनकी फिल्में प्रदर्शित हो रही हैं। जब भी दर्शक ‘प्यासा’ या ‘साहब, बीवी और गुलाम’ फिल्म देखता है तो उनकी फिल्म-निर्माण कला और अनूठी शैली से अभिभूत हुए बिना नहीं रहता। इस पुस्तक में प्रसिद्ध सिनेमा लेखिका नसरीन मुन्नी कबीर भारतीय सिने जगत् के श्रेष्ठ निर्देशक गुरुदत्त के जीवन और रचनाकर्म को सहज-सरल भाषा में प्रस्तुत कर रही हैं।
गुरुदत्त 1964 में दिवंगत हुए थे, पर गुजरते समय के साथ भारतीय सिनेमा पर गुरु दत्त की फिल्मों का प्रभाव एवं महत्त्व बढ़ता गया है। यह पुस्तक एक विलक्षण फिल्मकार और बेहतरीन सिनेकलाकार के जीवन तथा उसके कार्य को रेखांकित करती है, जिसने भारतीय सिनेजगत् को एक नया आयाम दिया, नए मायने दिए और एक नई लय-ताल दी।
काव्यात्मकता और विषाद के बहुत बड़े शोमैन थे गुरुदत्ता। जिन भी फिल्मों का निर्देशन उन्होंने किया, उनके गीत आप देखने से रह गये तो फिल्म देखने के सच्चे आनंद से वंचित होना पड़ेगा। यह उनके गीतों के चयन और उनकी प्रस्तुति की विशेषता थी जो उनकी फिल्मों में फिलर के रूप में नहीं बल्कि उसकी जरूरत होते थे। फिल्म निर्माण में जिन लोगों को गुरुदत्त ने साथ लिया उनकी काबिलियत का भरपूर उपयोग किया। वी.के. मूर्ति, अबरार अल्वी, जानीवाकर, एस. गुरुस्वामी, मोहन सहगल, राज खोसला, आत्माराम आदि के गुरुदत्त के संबंध में दिये गये संस्मरणों से यह किताब अपनी प्रामाणिकता का बखान करती है।
गुरु दत्त शानदार फिल्मों की एक विरासत छोड़कर 10 अक्तूबर, 1964 को इस संसार से विदा हो गए। सन् 1980 से विश्व भर में उनकी फिल्में प्रदर्शित हो रही हैं। जब भी दर्शक ‘प्यासा’ या ‘साहब, बीवी और गुलाम’ फिल्म देखता है तो उनकी फिल्म-निर्माण कला और अनूठी शैली से अभिभूत हुए बिना नहीं रहता। इस पुस्तक में प्रसिद्ध सिनेमा लेखिका नसरीन मुन्नी कबीर भारतीय सिने जगत् के श्रेष्ठ निर्देशक गुरुदत्त के जीवन और रचनाकर्म को सहज-सरल भाषा में प्रस्तुत कर रही हैं।
गुरुदत्त 1964 में दिवंगत हुए थे, पर गुजरते समय के साथ भारतीय सिनेमा पर गुरु दत्त की फिल्मों का प्रभाव एवं महत्त्व बढ़ता गया है। यह पुस्तक एक विलक्षण फिल्मकार और बेहतरीन सिनेकलाकार के जीवन तथा उसके कार्य को रेखांकित करती है, जिसने भारतीय सिनेजगत् को एक नया आयाम दिया, नए मायने दिए और एक नई लय-ताल दी।
पादुकोण परिवार
अपने विशाल परिवार से घिरी हुई गुरु दत्त की दुर्बल माँ वसंती पादुकोण ने
अपना पचासीवाँ जन्मदिन वर्ष 1993 में बंबई के एक मध्यवर्गीय आवासीय इलाके
माटुंगा के एक किराए के छोटे से फ्लैट में मनाया। माटुंगा का फ्लैट
पादुकोण के घर के रूप में सन् 1942 से था, जब वे कलकत्ता में कई साल
बिताने के बाद वहाँ आए। पादुकोण घराने में एक नानी और पाँच बच्चे
थे–गुरु दत्त, आत्माराम, ललिता, देवी और विजय। बंबई में गुरु
दत्त का शुरुआती वर्षों का अधिकतर समय तंगहाली और छोटी जगह में बीता। उन
दिनों वह बिना किसी शिकायत के उस बिस्तर पर सोते थे, जो आधा अंदर के आँगन
में था और आधा बाहर के आँगन में। वसंती पादुकोण के पचासीवें जन्मदिन की
तसवीरें यह दरशाती हैं कि कैसे अब बड़े हो चुके उनके बच्चे गर्व से
अपने-अपने बेटे-बेटियों और मुसकराते हुए पोते-पोतियों के साथ खड़े हैं।
साल के बाकी दिन श्रीमती पादुकोण के अत्यधिक उत्साहित पड़ोसियों की आवाजें
ही इन दो साधारण कमरों में गूँजती हैं, जिनमें जिंदगी भर की यादों से बचना
नामुमकिन है।
मूलतः मैंगलोर का रहनेवाला वसंती पादुकोण का परिवार कुछ साल बर्मा में रहा और वहीं सन् 1908 में वसंती का जन्म हुआ। जब वह तीन साल की थीं तब उनके माता-पिता भारत लौट आए; क्योंकि उनके दादाजी मरणासन्न थे। कुछ ही सालों बाद वसंती के पिताजी को उनके साझेदार ने धोखा दिया, फलस्वरूप उन्हें अपना पैतृक घर बेचना पड़ा। उनके माता-पिता अलग-अलग रहने लगे और उनके पिता, जिनसे वह बहुत प्यार करती थीं। बंबई व पूना में रहने लगे; क्योंकि वे कभी कोई स्थायी काम नहीं कर पाए। वसंती पादुकोण का बचपन बहुत ही दुःखदायी और अस्थिर रहा, क्योंकि उन्हें एक रिश्तेदार से दूसरे रिश्तेदार के घर उड़िपी से बंबई, फिर बंबई से सिकंदराबाद और फिर सिकंदराबाद से मद्रास भटकना पड़ा। जैसा कि उन दिनों आम रिवाज था, जब वसंती बारह वर्ष की थीं तब उनकी माँ ने उनकी शादी शिवशंकर राव पादुकोण से तय कर दी, जो कि वसंती के भाई रमानाथ के कॉलेज के दोस्त थे। रमानाथ कासरगोड़ में रहते थे, लेकिन मद्रास में पढ़ाई करते थे।
गुरु दत्त के माता-पिता दोनों ही मैंगलोर के सारस्वत समुदाय से थे। यह एक ब्राह्मण जाति है, जो कि मूलतः उत्तर भारत में थी और बाद में वे लोग देश की अलग-अलग जगहों में जाकर रहने लगे। उनकी जाति का नाम पारंपरिक रूप से कश्मीर की सरस्वती नदी से जोड़ा जाता है, जबकि कई सारस्वत परिवार गोवा के पास के तटीय जिलों में रहते हैं। कोंकणी-भाषी मैंगलोर के सारस्वत समुदाय में से कई लोग बड़े-बड़े कलाकार और बुद्धिजीवी हुए हैं। शिवशंकर एक साधारण लेकिन पढ़े-लिखे परिवार से थे और वह स्वयं भी अपनी बी.ए. की डिग्री के लिए पढ़ रहे थे, जब उनकी शादी बीस साल की आयु में हुई। उनके नौ बड़े भाई थे और तीन बहनें। तेईस बच्चों में वह सबसे छोटे बेटे थे। जब वह तेरह साल के थे तब उनकी माँ चल बसीं। ज्यादातर पादुकोणों में इतने बड़े परिवार के अंदर ही शादियाँ कर दी जाती थीं। वसंती ही एक बाहर से अनेवाली महिला थीं। वसंती के जवान होने पर उनका विवाह संपन्न हुआ। इसके कुछ ही दिनों बाद यह युवा दंपती पानांबुर चले गए। यह मैंगलोर के पास एक गाँव है, जहाँ शिवशंकर गाँव की पंचायत के द्वारा चलाए जानेवाले स्कूल के हेडमास्टर थे। एक-दो साल के बाद, 1924 में वह बैंगलोर आ गए, जहाँ वह बैंक में काम करने लगे। वसंती और उनकी माँ भी उनके साथ वहाँ रहने लगीं। यहीं 1925 के जुलाई माह में बरसात के मौसम में गुरु दत्त का जन्म हुआ।
वैसे तो उनके अपने पहले बच्चे के जन्म को पचहत्तर साल बीत चुके हैं, लेकिन गुरु दत्त के लिए वसंती पादुकोण का प्यार पहले से अधिक बढ़ा ही है। उनके जीवन से जुड़ी हुई चीजें उनकी माँ के लिए अपनी व अपने अन्य बच्चों के जीवन से जुड़ी चीजों से अधिक महत्व रखती हैं। अगर वसंती पादुकोण अपने अतीत से छुटकारा पाना चाहतीं तो भी माटुंगा के इस फ्लैट में रहकर यह नामुमकिन था। फ्लैट का हर हिस्सा विभिन्न प्रकार की यादें जगा देता है। उन्हें आज भी याद है, जब बलराज साहनी ने उस कमरे में बैठकर उनके बेटे की पहली फिल्म के संवादों पर काम किया था और कैसे गुरु दत्त ने खिड़की के पास रखी लकड़ी की मेज पर बैठकर ‘प्यासा’ फिल्म की कहानी लिखी। खिड़की में लगी लोहे की सलाखों पर लगे हरे रंग के परदे में से छनकर आती सूरज की सुनहरी किरणें उस मेज की साधारणता को छिपा देती हैं। ‘प्यासा’ फिल्म के रोल में गुरु दत्त की एक ब्लैक ऐंड व्हाइट बड़ी फोटो एक साधारण लकड़ी के फ्रेम में उनकी माताजी के कमरे में लगी है। उस फोटो पर एक फूलमाला चढ़ी है।
मूलतः मैंगलोर का रहनेवाला वसंती पादुकोण का परिवार कुछ साल बर्मा में रहा और वहीं सन् 1908 में वसंती का जन्म हुआ। जब वह तीन साल की थीं तब उनके माता-पिता भारत लौट आए; क्योंकि उनके दादाजी मरणासन्न थे। कुछ ही सालों बाद वसंती के पिताजी को उनके साझेदार ने धोखा दिया, फलस्वरूप उन्हें अपना पैतृक घर बेचना पड़ा। उनके माता-पिता अलग-अलग रहने लगे और उनके पिता, जिनसे वह बहुत प्यार करती थीं। बंबई व पूना में रहने लगे; क्योंकि वे कभी कोई स्थायी काम नहीं कर पाए। वसंती पादुकोण का बचपन बहुत ही दुःखदायी और अस्थिर रहा, क्योंकि उन्हें एक रिश्तेदार से दूसरे रिश्तेदार के घर उड़िपी से बंबई, फिर बंबई से सिकंदराबाद और फिर सिकंदराबाद से मद्रास भटकना पड़ा। जैसा कि उन दिनों आम रिवाज था, जब वसंती बारह वर्ष की थीं तब उनकी माँ ने उनकी शादी शिवशंकर राव पादुकोण से तय कर दी, जो कि वसंती के भाई रमानाथ के कॉलेज के दोस्त थे। रमानाथ कासरगोड़ में रहते थे, लेकिन मद्रास में पढ़ाई करते थे।
गुरु दत्त के माता-पिता दोनों ही मैंगलोर के सारस्वत समुदाय से थे। यह एक ब्राह्मण जाति है, जो कि मूलतः उत्तर भारत में थी और बाद में वे लोग देश की अलग-अलग जगहों में जाकर रहने लगे। उनकी जाति का नाम पारंपरिक रूप से कश्मीर की सरस्वती नदी से जोड़ा जाता है, जबकि कई सारस्वत परिवार गोवा के पास के तटीय जिलों में रहते हैं। कोंकणी-भाषी मैंगलोर के सारस्वत समुदाय में से कई लोग बड़े-बड़े कलाकार और बुद्धिजीवी हुए हैं। शिवशंकर एक साधारण लेकिन पढ़े-लिखे परिवार से थे और वह स्वयं भी अपनी बी.ए. की डिग्री के लिए पढ़ रहे थे, जब उनकी शादी बीस साल की आयु में हुई। उनके नौ बड़े भाई थे और तीन बहनें। तेईस बच्चों में वह सबसे छोटे बेटे थे। जब वह तेरह साल के थे तब उनकी माँ चल बसीं। ज्यादातर पादुकोणों में इतने बड़े परिवार के अंदर ही शादियाँ कर दी जाती थीं। वसंती ही एक बाहर से अनेवाली महिला थीं। वसंती के जवान होने पर उनका विवाह संपन्न हुआ। इसके कुछ ही दिनों बाद यह युवा दंपती पानांबुर चले गए। यह मैंगलोर के पास एक गाँव है, जहाँ शिवशंकर गाँव की पंचायत के द्वारा चलाए जानेवाले स्कूल के हेडमास्टर थे। एक-दो साल के बाद, 1924 में वह बैंगलोर आ गए, जहाँ वह बैंक में काम करने लगे। वसंती और उनकी माँ भी उनके साथ वहाँ रहने लगीं। यहीं 1925 के जुलाई माह में बरसात के मौसम में गुरु दत्त का जन्म हुआ।
वैसे तो उनके अपने पहले बच्चे के जन्म को पचहत्तर साल बीत चुके हैं, लेकिन गुरु दत्त के लिए वसंती पादुकोण का प्यार पहले से अधिक बढ़ा ही है। उनके जीवन से जुड़ी हुई चीजें उनकी माँ के लिए अपनी व अपने अन्य बच्चों के जीवन से जुड़ी चीजों से अधिक महत्व रखती हैं। अगर वसंती पादुकोण अपने अतीत से छुटकारा पाना चाहतीं तो भी माटुंगा के इस फ्लैट में रहकर यह नामुमकिन था। फ्लैट का हर हिस्सा विभिन्न प्रकार की यादें जगा देता है। उन्हें आज भी याद है, जब बलराज साहनी ने उस कमरे में बैठकर उनके बेटे की पहली फिल्म के संवादों पर काम किया था और कैसे गुरु दत्त ने खिड़की के पास रखी लकड़ी की मेज पर बैठकर ‘प्यासा’ फिल्म की कहानी लिखी। खिड़की में लगी लोहे की सलाखों पर लगे हरे रंग के परदे में से छनकर आती सूरज की सुनहरी किरणें उस मेज की साधारणता को छिपा देती हैं। ‘प्यासा’ फिल्म के रोल में गुरु दत्त की एक ब्लैक ऐंड व्हाइट बड़ी फोटो एक साधारण लकड़ी के फ्रेम में उनकी माताजी के कमरे में लगी है। उस फोटो पर एक फूलमाला चढ़ी है।
वसंती पादुकोण
मैं सिर्फ बारह साल की थी, जब मेरी शादी हुई। मुझे जीवन के बारे में कुछ
भी मालूम नहीं था। मेरा बेटा गुरु दत्त जब जनमा था, मैं बहुत छोटी थी,
मात्र सोलह साल की। जब वह पैदा नहीं हुआ था, उसी समय एक ज्योतिषी ने कहा
कि तुम्हें एक साल के अंदर एक लड़का होगा, जो बहुत मशहूर होगा। तब मुझे
बच्चे नहीं हुए थे, तो बहुत शर्म आई। मुझे मालूम नहीं था कुछ, तो मैंने
ज्यादा कुछ पूछा नहीं। 9 जुलाई, 1925 को गुरु दत्त का जन्म हुआ, बारह बजे।
उस दिन हॉस्पीटल में सात लड़कियाँ और वह एक ही लड़का पैदा हुआ था।
जब गुरु दत्त एक साल का था, किसी को भी देखकर बहुत हँसता था। किसी की बात नहीं मानता था। अपने दिल में अगर ठीक लगा तो ही वह मानता था। और गुस्सेवाला बहुत था।...और बचपन में बहुत नटखट था। प्रश्न पूछना उसका स्वभाव था। कभी-कभी उसके प्रश्नों के जवाब देते-देते मैं परेशान हो जाती थी। लेकिन वह मुझे नहीं छोड़ता था। बोलना ही पड़ता था उससे।
सन् 1979 में ‘इम्प्रिंट’ में छपे एक संस्करण में वसंती पादुकोण ने गुरु दत्त के बचपन को विस्तार से बताया, जिसमें उन्होंने अपने 11 दिन के छोटे बच्चे के साथ जब वह घर लौटीं तो उसके बाद जो-जो घटनाएँ हुईं, उनका वर्णन किया–
बारहवें दिन पालने की रस्म हुई। कुछ रिश्तेदार और पड़ोसी आमंत्रित थे। मेरे बड़े भाई (विट्ठल) ने मेरे बेटे के लिए दो नाम चुने थे–‘वसंत कुमार’ और ‘गुरु दत्त’, क्योंकि जिस दिन बच्चा का जन्म हुआ था उस दिन गुरुवार था (जो कि गुरु का दिन होता है)। गुरु दत्त के दूसरे जन्मदिन (1926) पर मैंने उसे लाल कपड़े पहनाए, जो उसका पसंदीदा रंग था, उसे जेवर पहनाए और उसे मकान मालिक के घर शुभकामनाओं के लिए भेजा। दोपहर हो गई थी, जब वह भागते हुए वापस आया। वह एक कुएँ के पास गिर गया। उसके माथे पर काफी चोट लग गई थी। मैं उसे नजकीद के डॉक्टर के पास ले गई। रात में उसे बहुत ही तेज बुखार हो गया, जो दो हफ्तों तक चला। हम बारी-बारी से बच्चे के पास बैठते थे। भगवान् की कृपा से वह कठिन समय टल गया। उसने धीरे से कहा, ‘अम्मा’। मैंने उसे चम्मच से पानी दिया, जो उसने धीरे-धीरे पिया। दूर से मुझे किसी के गाए स्वामी समर्थ रामदास के श्लोक की आवाज सुनाई दी–
दुनिया में सबसे ज्यादा खुश कौन है ?
जानने के लिए पूछो अपने मन से
हे मन ! जो तुम्हारे साथ घटता है, तुम्हीं उसके जिम्मेदार हो ?
कुछ लोगों ने कहा कि गुरु इस वजह से बीमार हुआ था कि उसके अंदर एक आदमी, जो कि कुएँ में गिरकर मर गया, उसकी आत्मा घुस गई है। इसलिए हमने तांत्रिक को शैतानी आत्मा निकालने के लिए बुलवाया। उसने हमें बताया कि बच्चे का नाम वसंत कुमार नहीं होना चाहिए, जो कि हमारे द्वारा दिया गया पहला नाम था। तब से उसका नाम ‘गुरु दत्त’ हो गया।
जब गुरु दत्त एक साल का था, किसी को भी देखकर बहुत हँसता था। किसी की बात नहीं मानता था। अपने दिल में अगर ठीक लगा तो ही वह मानता था। और गुस्सेवाला बहुत था।...और बचपन में बहुत नटखट था। प्रश्न पूछना उसका स्वभाव था। कभी-कभी उसके प्रश्नों के जवाब देते-देते मैं परेशान हो जाती थी। लेकिन वह मुझे नहीं छोड़ता था। बोलना ही पड़ता था उससे।
सन् 1979 में ‘इम्प्रिंट’ में छपे एक संस्करण में वसंती पादुकोण ने गुरु दत्त के बचपन को विस्तार से बताया, जिसमें उन्होंने अपने 11 दिन के छोटे बच्चे के साथ जब वह घर लौटीं तो उसके बाद जो-जो घटनाएँ हुईं, उनका वर्णन किया–
बारहवें दिन पालने की रस्म हुई। कुछ रिश्तेदार और पड़ोसी आमंत्रित थे। मेरे बड़े भाई (विट्ठल) ने मेरे बेटे के लिए दो नाम चुने थे–‘वसंत कुमार’ और ‘गुरु दत्त’, क्योंकि जिस दिन बच्चा का जन्म हुआ था उस दिन गुरुवार था (जो कि गुरु का दिन होता है)। गुरु दत्त के दूसरे जन्मदिन (1926) पर मैंने उसे लाल कपड़े पहनाए, जो उसका पसंदीदा रंग था, उसे जेवर पहनाए और उसे मकान मालिक के घर शुभकामनाओं के लिए भेजा। दोपहर हो गई थी, जब वह भागते हुए वापस आया। वह एक कुएँ के पास गिर गया। उसके माथे पर काफी चोट लग गई थी। मैं उसे नजकीद के डॉक्टर के पास ले गई। रात में उसे बहुत ही तेज बुखार हो गया, जो दो हफ्तों तक चला। हम बारी-बारी से बच्चे के पास बैठते थे। भगवान् की कृपा से वह कठिन समय टल गया। उसने धीरे से कहा, ‘अम्मा’। मैंने उसे चम्मच से पानी दिया, जो उसने धीरे-धीरे पिया। दूर से मुझे किसी के गाए स्वामी समर्थ रामदास के श्लोक की आवाज सुनाई दी–
दुनिया में सबसे ज्यादा खुश कौन है ?
जानने के लिए पूछो अपने मन से
हे मन ! जो तुम्हारे साथ घटता है, तुम्हीं उसके जिम्मेदार हो ?
कुछ लोगों ने कहा कि गुरु इस वजह से बीमार हुआ था कि उसके अंदर एक आदमी, जो कि कुएँ में गिरकर मर गया, उसकी आत्मा घुस गई है। इसलिए हमने तांत्रिक को शैतानी आत्मा निकालने के लिए बुलवाया। उसने हमें बताया कि बच्चे का नाम वसंत कुमार नहीं होना चाहिए, जो कि हमारे द्वारा दिया गया पहला नाम था। तब से उसका नाम ‘गुरु दत्त’ हो गया।
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