कविता संग्रह >> नये सुभाषित नये सुभाषितरामधारी सिंह दिनकर
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‘नये सुभाषित’ में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने लगभग सौ विषयों पर कोई दो सौ कण्डिकायें अथवा पद संग्रहीत किये हैं।...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कवि ने अधिकांश कविताओं में मौलिक भाव का समावेश किया है। इस काव्य संग्रह
में प्रेम, चुम्बन, कविता और प्रेम, सौन्दर्य, वातायन, नर-नारी, शिशु और
शौशव, विवाह, प्रफुल्लता, यौवन, जवानी और बुढ़ापा, प्रतिभा, आलोचक, फूल,
पुस्तक, कल्पना, सेतु खिलनमर्ग, पत्रकार, अभिनेता, मुक्त छंद, अनुवाद,
धर्म, हुंकार, प्रार्थना, स्वर्ग, भगवान की बिक्री, मन्दिर, सन्यासी और
गृहस्थ, राजनीति, क्रान्तिकारी, बुनियादी तालीम, अबन्ध शिक्षा, मुक्ति
देश, अल्पसंख्यक, युद्ध, पागलपन, ज्ञान, चिंता, निःशब्दता, पन्थ, आग और
बर्फ, बीता हुआ कल, कानून और आचार, समझौते की शांति, प्रशंसा, प्रसिद्धि,
देशभक्ति, परिवार, आशा, आत्माविश्वास निश्चिन्त, चीनी कवि, आत्मशिक्षण,
सत्य, परिचय, सुख और आनन्द, आँख और कान, आलस्य, ज्ञान और अज्ञान, मूर्ख,
मित्र, ईर्ष्या, संकट, समुद्र, वृक्ष, क्वांरा, परोपदेश, खिलौने, लज्जा,
जनमत, श्रम, अध्ययन, विज्ञान, निन्दा, पाप, साहस, तथ्य और सत्य, दर्द,
वायु, भूल, अनुभव, विकास, यती, नाटक, गिरगिट, कवि, अन्वेशी, आंसू, नाव,
स्मृति, प्रकाश, आधुनिकता, समर्पण, भारत, जवाहर लाल, जय प्रकाश, विनोबा,
दिनकर, मार्क्स और फ्रायड, गाँधी इत्यादि काव्य प्रस्तुत किये हैं जो
काव्य प्रेमियों को नयी दिशा देने में सक्षम हैं।
प्रेम
प्रेम की आकुलता का भेद
छिपा रहता भीतर मन में,
काम तब भी अपना मधु वेद
सदा अंकित करता मन में।
सुन रहे हो प्रिय ?
तुम्हें मैं प्यार करती हूँ।
और जब नारी किसी नर से कहे,
प्रिय ! तुम्हें मैं प्यार करती हूँ,
तो उचित है, नर इसे सुन ले ठहर कर,
प्रेम करने को भले ही वह न ठहरे।
मन्त्र तुमने कौन यह मारा
कि मेरा हर कदम बेहोश है सुख से ?
नाचती है रक्त की धारा,
वचन कोई निकलता ही नहीं मुख से।
पुरुष का प्रेम तब उद्दाम होता है,
प्रिया जब अंक में होती।
त्रिया का प्रेम स्थिर अविराम होता है,
सदा बढ़ता प्रतीक्षा में।
प्रेम नारी के हृदय में जन्म जब लेता,
एक कोने में न रुक
सारे हृदय को घेर लेता है।
पुरुष में जिनती प्रबल होती विजय की लालसा,
नारियों में प्रीति उससे भी अधिक उद्दाम होती है।
प्रेम नारी के हृदय की ज्योति है,
प्रेन उसकी जिन्दगी की साँस है;
प्रेम में निष्फल त्रिया जीना नहीं फिर चाहती।
शब्द जब मिलते नहीं मन के,
प्रेम तब इंगित दिखाता है,
बोलने में लाज जब लगती,
प्रेम तब लिखना सिखाता है।
पुरुष प्रेम सतत करता है, पर, प्रायः, थोड़ा-थोड़ा
नारी प्रेम बहुत करती है, सच है, लेकिन, कभी-कभी।
स्नेह मिला तो मिली नहीं क्या वस्तु तुम्हें ?
नहीं मिला यदि स्नेह बन्धु !
जीवन में तुमने क्या पाया ?
फूलों के दिन में पौधों को प्यार सभी जन करते हैं
मैं तो तब जानूँगी जब पतझर में भी तुम प्यार करो।
जब ये केश श्वेत हो जाएँ और गाल मुरझाए हों,
बड़ी बात हो रसमय चुम्बन से तब भी सत्कार करो।
प्रेम होने पर गली के श्वान भी
काव्य की लय में गरजते, भूँकते हैं।
प्रातःकाल कमल भेजा था शुचि, हिमधौत, समुज्ज्वल,
और साँझ को भेज रहा हूँ लाल-लाल ये पाटल।
दिन भर प्रेम जलज-सा रहता शीतल, शुभ्र, असंग
पर, धरने लगता होते ही साँझ गुलाबी रंग।
उसका भी भाग्य नहीं खोटा
जिसको न प्रेम-प्रतिदान मिला,
छू सका नहीं, पर, इन्द्रधनुष
शोभित तो उसके उर में है।
छिपा रहता भीतर मन में,
काम तब भी अपना मधु वेद
सदा अंकित करता मन में।
सुन रहे हो प्रिय ?
तुम्हें मैं प्यार करती हूँ।
और जब नारी किसी नर से कहे,
प्रिय ! तुम्हें मैं प्यार करती हूँ,
तो उचित है, नर इसे सुन ले ठहर कर,
प्रेम करने को भले ही वह न ठहरे।
मन्त्र तुमने कौन यह मारा
कि मेरा हर कदम बेहोश है सुख से ?
नाचती है रक्त की धारा,
वचन कोई निकलता ही नहीं मुख से।
पुरुष का प्रेम तब उद्दाम होता है,
प्रिया जब अंक में होती।
त्रिया का प्रेम स्थिर अविराम होता है,
सदा बढ़ता प्रतीक्षा में।
प्रेम नारी के हृदय में जन्म जब लेता,
एक कोने में न रुक
सारे हृदय को घेर लेता है।
पुरुष में जिनती प्रबल होती विजय की लालसा,
नारियों में प्रीति उससे भी अधिक उद्दाम होती है।
प्रेम नारी के हृदय की ज्योति है,
प्रेन उसकी जिन्दगी की साँस है;
प्रेम में निष्फल त्रिया जीना नहीं फिर चाहती।
शब्द जब मिलते नहीं मन के,
प्रेम तब इंगित दिखाता है,
बोलने में लाज जब लगती,
प्रेम तब लिखना सिखाता है।
पुरुष प्रेम सतत करता है, पर, प्रायः, थोड़ा-थोड़ा
नारी प्रेम बहुत करती है, सच है, लेकिन, कभी-कभी।
स्नेह मिला तो मिली नहीं क्या वस्तु तुम्हें ?
नहीं मिला यदि स्नेह बन्धु !
जीवन में तुमने क्या पाया ?
फूलों के दिन में पौधों को प्यार सभी जन करते हैं
मैं तो तब जानूँगी जब पतझर में भी तुम प्यार करो।
जब ये केश श्वेत हो जाएँ और गाल मुरझाए हों,
बड़ी बात हो रसमय चुम्बन से तब भी सत्कार करो।
प्रेम होने पर गली के श्वान भी
काव्य की लय में गरजते, भूँकते हैं।
प्रातःकाल कमल भेजा था शुचि, हिमधौत, समुज्ज्वल,
और साँझ को भेज रहा हूँ लाल-लाल ये पाटल।
दिन भर प्रेम जलज-सा रहता शीतल, शुभ्र, असंग
पर, धरने लगता होते ही साँझ गुलाबी रंग।
उसका भी भाग्य नहीं खोटा
जिसको न प्रेम-प्रतिदान मिला,
छू सका नहीं, पर, इन्द्रधनुष
शोभित तो उसके उर में है।
चुम्बन
सब तुमने कह दिया, मगर, यह चुम्बन क्या है ?
‘‘प्यार तुम्हें करता हूँ मैं,’’ इसमें जो ‘‘मैं’’ है,
चुम्बन उस पर मधुर, गुलाबी अनुस्वार है।
चुम्बन है वह गूढ़ भेद मन का, जिसको मुख
श्रुतियों से बच कर सीधे मुख से कहता है।
‘‘प्यार तुम्हें करता हूँ मैं,’’ इसमें जो ‘‘मैं’’ है,
चुम्बन उस पर मधुर, गुलाबी अनुस्वार है।
चुम्बन है वह गूढ़ भेद मन का, जिसको मुख
श्रुतियों से बच कर सीधे मुख से कहता है।
कविता और प्रेम
ऊपर सुनील अम्बर, नीचे सागर अथाह,
है स्नेह और कविता, दोनों की एक राह।
ऊपर निरभ्र शुभ्रता स्वच्छ अम्बर की हो,
नीचे गम्भीरता अगम-अतल सागर की हो।
है स्नेह और कविता, दोनों की एक राह।
ऊपर निरभ्र शुभ्रता स्वच्छ अम्बर की हो,
नीचे गम्भीरता अगम-अतल सागर की हो।
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