कविता संग्रह >> धूपछाँह धूपछाँहरामधारी सिंह दिनकर
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राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की सोलह ओजस्वी कविताओं का संकलन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘धूपछाँह’ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह
‘दिनकर’ की सोलह ओजस्वी कविताओं का संकलन है जिसमें
प्रांजल प्रवाहमयी भाषा, उच्चकोटि का छंद विधान और भाव संप्रेषण का समावेश
किया गया है।
प्रस्तुत पुस्तक में शक्ति या सौंदर्य, बल या विवेक, बच्चे का तकिया, पानी की चाल, कवि का मित्र, दो बिघा जमीन, तन्तुवायु, कैंची और तलवार, पुरातन भृत्य, भारतेन्दु-स्मृति, वर-भिक्षा, रौशन बे की बहादुरी, नींद, तीन दर्द, पुस्तकालय, कलम और तलवार इत्यादि काव्य संकलित हैं जो उन लोगों को समर्पित है जो अपेक्षाकृत अल्पवयस्क है और सीधी-सीधी रचनाओं से सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं।
आशा है कविवर दिनकर की यह कृति युवा पीढ़ी को एक नया संदेश देगी।
प्रस्तुत पुस्तक में शक्ति या सौंदर्य, बल या विवेक, बच्चे का तकिया, पानी की चाल, कवि का मित्र, दो बिघा जमीन, तन्तुवायु, कैंची और तलवार, पुरातन भृत्य, भारतेन्दु-स्मृति, वर-भिक्षा, रौशन बे की बहादुरी, नींद, तीन दर्द, पुस्तकालय, कलम और तलवार इत्यादि काव्य संकलित हैं जो उन लोगों को समर्पित है जो अपेक्षाकृत अल्पवयस्क है और सीधी-सीधी रचनाओं से सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं।
आशा है कविवर दिनकर की यह कृति युवा पीढ़ी को एक नया संदेश देगी।
शक्ति या सौन्दर्य
तुम रजनी के चाँद बनोगे ?
या दिन के मार्त्तण्ड प्रखर ?
एक बात है मुझे पूछनी,
फूल बनोगे या पत्थर ?
तेल, फुलेल, क्रीम, कंघी से
नकली रूप सजाओगे ?
या असली सौन्दर्य लहू का
आनन पर चमकाओगे ?
पुष्ट देह, बलवान भूजाएँ,
रूखा चेहरा, लाल मगर,
यह लोगे ? या लोग पिचके
गाल, सँवारि माँग सुघर ?
जीवन का वन नहीं सजा
जाता कागज के फूलों से,
अच्छा है, दो पाट इसे
जीवित बलवान बबूलों से।
चाहे जितना घाट सजाओ,
लेकिन, पानी मरा हुआ,
कभी नहीं होगा निर्झर-सा
स्वस्थ और गति-भरा हुआ।
संचित करो लहू; लोहू है
जलता सूर्य जवानी का,
धमनी में इससे बजता है
निर्भय तूर्य जावनी का।
कौन बड़ाई उस नद की
जिसमें न उठी उत्ताल लहर ?
आँधी क्या, उनचास हवाएँ
उठी नहीं जो साथ हहर ?
सिन्धु नहीं, सर करो उसे
चंचल जो नहीं तरंगों से,
मुर्दा कहो उसे, जिसका दिल
व्याकुल नहीं उमंगों से।
फूलों की सुन्दरता का
तुमने है बहुत बखान सुना,
तितली के पीछे दौड़े,
भौरों का भी है गान सुना।
अब खोजो सौन्दर्य गगन–
चुम्बी निर्वाक् पहाड़ों में,
कूद पड़ीं जो अभय, शिखर से
उन प्रपात की धारों में।
सागर की उत्ताल लहर में,
बलशाली तूफानों में,
प्लावन में किश्ती खेने-
वालों के मस्त तरानों में।
बल, विक्रम, साहस के करतब
पर दुनिया बलि जाती है,
और बात क्या, स्वयं वीर-
भोग्या वसुधा कहलाती है।
बल के सम्मुख विनत भेंड़-सा
अम्बर सीस झुकाता है,
इससे बढ़ सौन्दर्य दूसरा
तुमको कौन सुहाता है ?
है सौन्दर्य शक्ति का अनुचर,
जो है बली वही सुन्दर;
सुन्दरता निस्सार वस्तु है,
हो न साथ में शक्ति अगर।
सिर्फ ताल, सुर, लय से आता
जीवन नहीं तराने में,
निरा साँस का खेल कहो
यदि आग नहीं है गाने में।
या दिन के मार्त्तण्ड प्रखर ?
एक बात है मुझे पूछनी,
फूल बनोगे या पत्थर ?
तेल, फुलेल, क्रीम, कंघी से
नकली रूप सजाओगे ?
या असली सौन्दर्य लहू का
आनन पर चमकाओगे ?
पुष्ट देह, बलवान भूजाएँ,
रूखा चेहरा, लाल मगर,
यह लोगे ? या लोग पिचके
गाल, सँवारि माँग सुघर ?
जीवन का वन नहीं सजा
जाता कागज के फूलों से,
अच्छा है, दो पाट इसे
जीवित बलवान बबूलों से।
चाहे जितना घाट सजाओ,
लेकिन, पानी मरा हुआ,
कभी नहीं होगा निर्झर-सा
स्वस्थ और गति-भरा हुआ।
संचित करो लहू; लोहू है
जलता सूर्य जवानी का,
धमनी में इससे बजता है
निर्भय तूर्य जावनी का।
कौन बड़ाई उस नद की
जिसमें न उठी उत्ताल लहर ?
आँधी क्या, उनचास हवाएँ
उठी नहीं जो साथ हहर ?
सिन्धु नहीं, सर करो उसे
चंचल जो नहीं तरंगों से,
मुर्दा कहो उसे, जिसका दिल
व्याकुल नहीं उमंगों से।
फूलों की सुन्दरता का
तुमने है बहुत बखान सुना,
तितली के पीछे दौड़े,
भौरों का भी है गान सुना।
अब खोजो सौन्दर्य गगन–
चुम्बी निर्वाक् पहाड़ों में,
कूद पड़ीं जो अभय, शिखर से
उन प्रपात की धारों में।
सागर की उत्ताल लहर में,
बलशाली तूफानों में,
प्लावन में किश्ती खेने-
वालों के मस्त तरानों में।
बल, विक्रम, साहस के करतब
पर दुनिया बलि जाती है,
और बात क्या, स्वयं वीर-
भोग्या वसुधा कहलाती है।
बल के सम्मुख विनत भेंड़-सा
अम्बर सीस झुकाता है,
इससे बढ़ सौन्दर्य दूसरा
तुमको कौन सुहाता है ?
है सौन्दर्य शक्ति का अनुचर,
जो है बली वही सुन्दर;
सुन्दरता निस्सार वस्तु है,
हो न साथ में शक्ति अगर।
सिर्फ ताल, सुर, लय से आता
जीवन नहीं तराने में,
निरा साँस का खेल कहो
यदि आग नहीं है गाने में।
बल या विवेक
कहते हैं, दो नौजवान
क्षत्रिय घोड़े दौड़ाते,
ठहरे आकर बादशाह के
पास सलाम बजाते।
कहा कि ‘‘दें सरकार, हमें भी
घी-आटा खाने को,
और एक मौका अपना कुछ
जौहर दिखलाने को।’’
बादशाह ने कहा, ‘‘कौन हो तुम ?
क्या काम तुम्हें दें ?’’
‘‘हम हैं मर्द बहादुर,’’ झुककर
कहा राजपूतों ने।
‘‘इसका कौन प्रमाण ?’’ कहा
ज्यों बादशाह ने हँस के,
घोड़ों को आमने-सामने कर,
वीरों ने कस के–
एँड़ मार दी और खींच
ली म्यानों से तलवार,
और दिया कर एक दूसरे
की गरदन पर वार।
दोनों कटकर ढेर हो गये,
अश्व गये रह खाली,
बादशाह ने चीख मार कर
अपनी आँख छिपा ली !
दोनों कट कर ढेर हो गये,
पूरी हुई कहानी,
लोग कहेंगे, भला हुई
यह भी कोई कुरबानी ?
‘‘हँसी-हँसी में जान गँवा दी,
अच्छा पागलपन है,
ऐसे भी क्या बुद्धिमान कोई
देता गरदन है ?’’
मैं कहता हूँ, बुद्धि भीरु है,
बलि से घबराती है,
मगर, वीरता में गरदन
ऐसे ही दी जाती है।
सिर का मोल किया करते हैं
जहाँ चतुर नर ज्ञानी,
वहाँ नहीं गरदन चढ़ती है।
वहाँ नहीं कुरबानी।
जिसके मस्तक के शासन को
लिया हृदय ने मान,
वह कदर्य भी कर सकता है
क्या कोई बलिदान ?
क्षत्रिय घोड़े दौड़ाते,
ठहरे आकर बादशाह के
पास सलाम बजाते।
कहा कि ‘‘दें सरकार, हमें भी
घी-आटा खाने को,
और एक मौका अपना कुछ
जौहर दिखलाने को।’’
बादशाह ने कहा, ‘‘कौन हो तुम ?
क्या काम तुम्हें दें ?’’
‘‘हम हैं मर्द बहादुर,’’ झुककर
कहा राजपूतों ने।
‘‘इसका कौन प्रमाण ?’’ कहा
ज्यों बादशाह ने हँस के,
घोड़ों को आमने-सामने कर,
वीरों ने कस के–
एँड़ मार दी और खींच
ली म्यानों से तलवार,
और दिया कर एक दूसरे
की गरदन पर वार।
दोनों कटकर ढेर हो गये,
अश्व गये रह खाली,
बादशाह ने चीख मार कर
अपनी आँख छिपा ली !
दोनों कट कर ढेर हो गये,
पूरी हुई कहानी,
लोग कहेंगे, भला हुई
यह भी कोई कुरबानी ?
‘‘हँसी-हँसी में जान गँवा दी,
अच्छा पागलपन है,
ऐसे भी क्या बुद्धिमान कोई
देता गरदन है ?’’
मैं कहता हूँ, बुद्धि भीरु है,
बलि से घबराती है,
मगर, वीरता में गरदन
ऐसे ही दी जाती है।
सिर का मोल किया करते हैं
जहाँ चतुर नर ज्ञानी,
वहाँ नहीं गरदन चढ़ती है।
वहाँ नहीं कुरबानी।
जिसके मस्तक के शासन को
लिया हृदय ने मान,
वह कदर्य भी कर सकता है
क्या कोई बलिदान ?
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