नारी विमर्श >> अधूरे सपने अधूरे सपनेआशापूर्णा देवी
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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...
लेकिन तब तो मैं किसी ऐसे खुले, किसी अन्धड़ जैसे माहौल की तलाश में था। और
निर्मला के विपरीत स्त्री-जो मुझे मेरे सब कुछ से दूर लेकर चली जायेगी। मैं
उन मोहल्लों में जाता जहां सिर्फ पैसे का ही मोल था।
उनमें से एक लड़की को मैं प्यार करने लगा। नाम याद नहीं पर चेहरा याद
है-श्यामल, स्वास्थती, चेहरा सुन्दर। तेल लगाकर एक बड़ा जूड़ा बनाती और उस तेल
की खूशबू से मैं कई बार भाग आया करता।
उस लड़की के मन में बड़ा कष्ट था। किसी दूर-दराज गांव में उसकी ससुराल थी।
ससुराल में उसे सताया जाता है तभी तो यहां मां के पास पड़ी है। मां तीन घरों
में बर्तन मांज कर गुजारा करती है, उसने भी बेटी को कठोर निर्देश दे रखा है
अपने पेट का इंतजाम आप करने को, और साथ में सदुपदेश भी कि बर्तन मांज कर कुछ
भी हासिल नहीं होगा पेट तो भरेगा पर और कुछ ना होगा। तभी तो निर्मला की
मृत्यु के पश्चात् जब कलकत्ता गया तो ख्याल गया उसकी खबर लूं पर भीतर से उस
ख्याल ने ज्यादा जोर ना पकड़ा। तभी तो गया नहीं। नहीं तो उसे कुछ रुपये देने
की इच्छा हो रही थी, उसकी मां उसे बड़ा कष्ट देती है अगर वह पैसा ना कमाये तो।
पैसा अलग रखा भी फिर खर्च कर डाला। एक दिन दुपहरी को वह मेरा घर
ढूंढ़ते-ढूंढ़ते हाजिर हुई यह बात मुझे दिन के उजाले की तरह याद है। मैंने
पूछा क्या? उसने कहा, 'रमेशबाबू से पूछा आप आये हैं पर-।''
मैंने हँस कर पूछा, ''मेरे लिए क्या तेरे दिल में तकलीफ हो रही थी?''
उस लड़की ने विपन्नता से जबाव दिया, हमारा दिल? मां परेशान किये डाल रही है,
कहती है, ''ऐसे बड़े दिलवाले बाबू को खो दिया तभी तो कहने आई थी आप जायेंगे
तो?''
मैंने हँसी को और गहरा कर कहा, ''नहीं मेरी पत्नी मेरी है तभी मेरा आजकल सूतक
चल रहा है, साल भर संन्यासी बनकर रहना पड़ेगा।''
उसने संदिग्ध स्वर में प्रश्न फेंका, ''यह खबर मुझे रमेशबाबू से मिली है पर
पत्नी की मृत्यु पर एक बरस का छूत...?''
''अगर कोई चाहे तो रख सकता है।''
तब वह निश्चिन्त स्वर में बोली, ''ओह इच्छानुसार। अगर इच्छा हो।''
मैंने कहा, ''तुझे तो पैसे की जरूरत होगी ले-ले।''
उसकी तरफ कुछ रुपये बढ़ा दिये।
वह देखती रही पर लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया।
मैंने कहा, 'ले-ले।'
वह अचानक जोर से बोली, ''ना ऐसे कैसे लूं? लगेगा भीख ले रही हूं।'' कह कर चली
गई।
मैं भरी आश्चर्यचकित होकर देखता रह गया। मुझे याद आया उसकी मां तीन घरों में
बर्तन मांजती है और उसे बात-बात पर पैसे के लिए तंग करती है।
स्त्री चरित्र देवा ना जानति! मैं विस्मय बोध करते-करते सहानुभूति, सम्मान से
जड़ हो गया। मां से लताड़ खाकर भी।
लेकिन मेरा विस्मय बोध सम्मान, सहानुभूति सब लेकिन दो दिनों में ही मिट गया।
वह लड़की जिस। नाम किसी तरह से याद नहीं आता-वह दो दिन बाद आई। गले में आंचल
डालकर मुझे प्रणाम कर बोली, ''बाबू आप देवता हैं नहीं तो परिवार की मृत्यु पर
कोई संन्यास ग्रहण करता है भला? आपको देखने के बाद मेरे मन में इन दो दिनों
में काफी उथल-पुथल मची। लगा ससुराल ही चली जाऊं। पति मारे, पीटे फिर भी तो वह
धर्म का पथ है, मेरी अपनी जन्म देने वाली माता भी तो कम परेशान नहीं करती। वह
तो मुझे नरक में धकेले दे रही है। उस दिन तो आपसे पैसा लिया। आज आपसे पैसा
लेकर मां को बताये बिना भागूंगी।''
मन-ही-मन हँसी आई। पैसा ना लेकर चली गई थी तभी शायद आप अफसोस कर रही हैं। उसे
पूरा पैसा ही दे दिया।
उसका चेहरा चमकने लगा।
लगा शायद सच में शायद अच्छी राह पर चलना चाहती है। उस राह पर चलने के लिए
सहारे की जरूरत थी या किसी आदर्श की जो उसे मुझसे मिल गया।
पर इस संसार को हम साफ नजरों से कहां देखते हैं? मेरी तो नहीं है। तभी तो मैं
यह सोचकर भी प्रसन्न ना हो पाया कि वह लड़की मेरे पैसों के बल पर अपने पतिगृह
में लौट जायेगी और वहां गृहस्थ जीवन जीयेगी जो उसके लिए सही होगा।
सोचता हूं पैसे से सब कुछ हो सकता है।
पैसा बलवान है। शायद कुछ क्षणों के मन की उत्तेजना पर उसे अफसोस हो रहा है जब
वह मेरे पैसों को फेंककर चली गई थी। और अब एक कहानी बना कर-
पर झूठ नहीं कहता उस लड़की का सुन्दर-सा चेहरा याद आता है तो अच्छा लगता है,
उसमें एक ज्योति का आभास था जैसे उसे मुक्ति का पथ मिल गया हो।
जाने दें, मरने दें, एक बर्तन मांजने वाली महरी की लड़की के जीवन में
पाप-पुण्य सुपथ-कुपथ को लेकर कौन सिर खपाये? ज्यादा खपाया भी नहीं। सिर्फ
सोचा, मगर इस सरल, सहज लड़की ने पढ़ाई-लिखाई की होती और किसी अच्छे खानदान में
ब्याह हुआ होता तो क्या वह पूर्ण नारी ना होती? जो नारी एक पुरुष को सब
प्रकार का सुख प्रदान कर सकती है।
फिर उस चिनताधारा को भी जबर्दस्ती मन से निकाल फेंका।
मैं अतनू बोस। कांचनगर के बोस के खानदान का लड़का मैं...।
ओह! एक बात में बताना ही भूल गया। मेरा असली नाम है अतीन्द्र वसु। अपनी
वंश-परम्परा को कायम रखने की खातिर मेरा नाम रखा गया था जो दूसरे भइयों का
था, यतीन्द्र, सतीन्द्र। लेकिन पौली ने उस नाम को सुन कर नाक सिकोड़ा था। कहा
था, छि: वह भी कोई नाम है क्या? इन अक्षरों को ही टेढ-मेढ़ा करके अतनू बना
लो। किया भी था।
समाचार-पत्र में विज्ञापन में कानूनी तौर पर अपना नाम अतनू बोस बना डाला।
पौली के साथ मैं काफी बहक गया था, उस समय अगर पीली वंश की वसु पदवी को मिटा
कर अगर कोई और पदवी देती तो उसे भी रख लेता। तब तो पौली के कहने से जीता,
मरता था। पौली अगर जिन्दा रहने को कहती...।
पौली तो मेरी तीसरी पत्नी थी। पहले दूसरी के बारे में बता दूं।
दूसरी भी-अभिभावकों के दया स्वरूप ही आई थी। उस महरी की बेटी से ऐसे ही मजाक
से संन्यास लेने की बात कही थी पर अचानक ख्याल आया कि अवधूत या साधु बनना ही
बाकी रह गया है, बन कर देखा ही जाये ना?
बस एक साधु को पकड़ कर उसे गुरु बना कर साधना में जुट गया।
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