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नारी विमर्श >> अधूरे सपने

अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


किसी प्रकार इस काम में लग गई। पर मुझे अच्छा नहीं लगता। हर वक्त रोगियों की तकलीफें, मौत-यह सब मैं नहीं देख सकती।
मैंने कहा-''सेवा करना भी तो महान काम है। उसने अपनी नीली आंखों में प्रसन्नता की हँसी की रोशनी भर कर कहा-ओह सभी तो महान काम करने नहीं आते। मुझे वह काम अच्छा नहीं लगता।''
मुझे उसकी सरल स्वीकारोक्ति पर तरस आ गया। मेरे साथ उसका उम्र का इतना व्यवधान और नर्सिंग करते करते ये लोग इतनी स्वछन्द हो जाती हैं कि इन्हें मेरे बिस्तेरे पर बैठने या सोफा के हैन्डल पर बैठकर बात करने में विधा नहीं होती थी।
बात करते-करते मेरे बालों में हाथ फेरती, मेरे हाथ को दबाती रहती।

मैं भी उस सुख को उपभोग करते-करते पूछता फिर तुम्हें क्या अच्छा लगता है सुनूं?
कावेरी हँस-हँस कर खुशी के लहजे में कहती-सुनेंगे। हमेशा के लिए कोई अमीर मुझे पाले, मैं अपनी मर्जी से खाऊं, घूमूं, किताबें पढ़ूं? पाले? इस नई भाषा ने मुझे आकृष्ट किया। मैंने कहा क्या मतलब?
अगर पाले नहीं तो मुझे क्यों इतनी सुविधायें काहे को देगा?
मैं भी बोल उठा-यह तुम्हारी मर्जी है या मजाक कर रही हो?

कावेरी ने अपनी आंखें बड़ी-बड़ी करके कहा, हाय मजाक क्यों होगा। सच कह रही हूं यही मेरे जीवन की ख्वाहिश है-मैं बिना किसी चिन्ता के खा-पी रही हूं-किताबें पढ़ रही हूं-अगर किसी अमीर ने मुझ पर तरस खाकर गोद लिया कि मेरे बाप-मां नहीं हैं-।
मैं भी हँसते-हँसते बोला-अगर मैं गोद लूं। मुझे भी तो लोग अमीर ही समझते हैं।
'आप।'
कावेरी की आंखों के सामने तो स्वर्गलोक के दरवाजे खुल गये या उसके हाथों अलादीन का प्रदीप लग गया हो। तभी वह खुशी से झूम उठी। आप लेंगे। अरे वाह!
फिर थोड़ी बुझ गई-मैं तो ईसाई हूं।
मैं हँसने लगा-तो क्या इतने दिनों तक तुम्हारे हाथ से खाता रहा और तुमने मुझे जीवनदान दिया। तुम्हें ही ईसाई कर कर छोटा करूंगा। मैं ही तुम्हें गोद ले लेता हूं।
वह तब भी संदेह से भर कर बोली-आप मजाक कर रहे हैं?

जरा भी नहीं। देखस ही तो रही हो मुझे नुक्सान नहीं फायदा-ही-फायदा है। हमेशा तुम्हारी सेवा मिलेगी, मुझे मजूरी भी नहीं देनी होगी। हां, या नहीं?
मेरी हास्य रस से उसके सरल चेहरे पर जो सेविका के शुभ्र कपड़े से घिरा था एक चमक पैदा हो गई। उसकी नीली आंखें शीशे की तरह जगमगाने लगीं-मुझे भी मजा आ रहा था।
मर्जी के प्रश्न पर वह खुशी के मारे चीख उठी-क्यों? पैसा तो मुझे फ्लैट, खाना, कपड़ा इन सबके लिए चाहिए था। मुझे रहने दें, खाना दें, कपड़ा दें। मुझे पैसे की जरूरत क्यों होगी? मैं भी कम नहीं था उसने प्रश्न किया।
वह तो ठीक है पर मैं तो गोद लेकर हमेशा के लिए निश्चिन्त होने के दिलासे में रहूं और बाद में तुम्हें कोई आकर मांगे?
क्यों-और कोई क्यों?

कावेरी भी उत्तेजित थी-आपके पास इतनी किताबें हैं, इतना सुन्दर घर है, आप भी इतने अच्छे हैं, आपके पास से चली क्यों जाऊंगी?
वाह वह क्या कोई बता सकता है? तुम्हारा अगर प्रेमी तुम्हें ब्याह कर मुझसे दूर ले गया?
अभी नहीं। मैं ब्याह करूंगी ही नहीं। वह अस्थिरता से इधर-उधर टहलने लगी।
और अचानक मेरे बिल्कुल करीब आकर मेरे हाथ पर अपना हाथ रखकर धीमे से बोली, ''इससे तो यही अच्छा है आप मुझसे शादी कर लीजिये फिर तो किसी और के मुझे यहां से ले जाने का सवाल ही नहीं रहेगा।''
क्या विश्वास नहीं हो रहा? सोचते होंगे मैं मनगढन्त किस्सा सुना रहा हूं।
नहीं मैं बनावट में विश्वास नहीं करता। जो सच है वही बयान कर रहा हूं।
मैंने कहा-इस रोगी वृद्ध से अपने को बांध कर अपना जीवन काहे को बर्बाद करोगी?
उससे क्या? मुझे तो नर्सिंग आती है। अपनी सेवा से आपको पहले सा बना दूंगी। पर उस उम्र को तो काट-छांट नहीं सकता।
वह भी हँसी-उम्र का हिसाब मेरे लिए नई बात नहीं है। मेरे पिता से मां बीस बरस छोटी थीं, मां को तो इसका दुख ना था। मां पिताजी को प्यार करतीं थीं।

मुझे उसके सरल स्वभाव ने मोह लिया।

मैं सोचने लगा कावेरी जैसी लड़की मेरी जीवन-संगिनी बनेगी यह क्या कम लोभनीय प्रस्ताव था?
बीमारी दूर हो चुकी थी पर कमजोरी थी उसी हालत में मेरी शादी कावेरी के साथ हो गई।

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