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अधूरे सपने

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7535
आईएसबीएन :81-903874-2-1

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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...


इधर अतनू बोस के परिवार में नौकर ने नाश्ते में कितनी रोटियां ज्यादा खा लीं इसका भी हिसाब किया जाता, इस बात पर नौकर से बहस भी छिड़ जाती।
चोरी-चोरी माधवी हर वक्त चोरी के डर से आतंकित रहती।
कहीं उसकी गृहस्थी से कुछ छिन ना जाये। उसे यह पता भी न चल पाया पहरेदारी करते-करते भी उसके लोहे की सन्दूक की चाभी, लक्ष्मी की पिटारी का मोहर कब छिन गया।
क्योंकि यह घर छोटा-सा चित्र जैसे सुन्दर था। यहां खबर इस कोने से दूसरे कोने में अनायास ही पहुंचती। हवा ही उसे पहुंचा देती।
अमीर लोग काहे को जरूरत से ज्यादा बड़ा मकान बनवाते हैं इसकी वजह मुझे अब पता लगी। जिससे एक जगह की खबर दूसरे स्थान में ना जा सके। मैंने तो छोटी-सी तस्वीर की तरह घर...।
घर का क्या दोष? माधवी का आदर्श अगर उसका मैंका ना होता? उसे किसने महरी को हटा कर मसाला पीसने को कहा था? कौन कहता था कि नौकर को निकाल कर खुद पोंछा लगाओ?
माधवी को काहे यह बात समझ नही आती थी कि इससे अतनू बोस की आत्मा को कष्ट पहुचता था। क्यों नहीं समझती थी इससे उसका प्रयोजन घटता जा रहा था। उसकी अवधि कम होने लगी थी।

एकदिन मैंने क्रोध भी दर्शाया था, ''नौकरों को क्यों हटाया?''
इतने लोग काम करेंगे तो मैं दिन भर क्या करूंगी।
हां, माधवी क्या करे?
आराम को उपभोग करने की शक्ति हरेक के पास नहीं रहती। उसमें भी नहीं थी। उपभोग शब्द का अर्थ उसके अभिज्ञान में अलग तरह का था या उसका अपना अलग कोश था।
उसे अपने संकीर्ण परिधि में आनन्द मिलता। वह नीचता, गन्दगी, बेशरमी में खुशी थी।

माधवी के बारासात के मैके वाले इस घर में आते ऐसी बात भी नहीं थी। माधवी उनसे भी कंजूसी करती। वह उन्हें पसंद ना करती। अगर वे कभी आते तो वह उन्हें भगाने के लिए तत्पर हो उठती। वह उनसे डरती, अगर वे अपना डेरा यही जमा लें। इस डर से उन्हें बैठने तक देती।
इस दीनहीन प्रकृति की कंजूस, अभद्र औरत से अतनू क्या हासिल करेगा? फिर भी वह उसे सहे जा रहा था उसे अब भी आशा थी माधवी से कभी इस घर में एक स्वर्गीय वस्तु का आगमन होगा।
अतनू बोस उस स्वर्गीय गुलाब की आशा में गोबर के खाद की गन्दगी को भी बरदाश्त कर रहे थे। अतनू बोस का वह सपना भी चूरमार होकर टूट गया।

एक दिन वह अमानवीय घटना घटी। मैं, अतनू बोस गाड़ी में इधर-उधर घूमते-घामते जशोर रोड़ के किस कोने में पहुंचे थे पता नहीं। एक औरत को नल के पास देखा। वह दो मोटे-ताजे लड़कों के साथ बैठी थी। उसे महिला कहना भी उचित होगा क्योंकि उसके चेहरे पर तेज था ऐश्वर्य था।
वह ऐश्वर्यवर्ती मुझे जानी पहचानी लगी। कौन? मैं कुछ सोचे बिना गाड़ी से उतर गया मैंने छोटे लड़के से जिसकी उम्र छह या सात बरस होगी सीधा प्रश्न किया-''बेटा यह तुम्हारी मां है?'' उसने गर्दन झटका कर हां कहा।
थोड़ी देर बाद ही गाड़ी में चढ़ बैठा। सन्देहहीन होकर ही आया था। प्रभा ने मुझे आप कहकर सम्बोधित किया था।
फिर भी मैं समझ गया कि उसका व्यंग्य बाण से भेद करने की आदत बरकार थी। कहा-खबर मिलती है अमीर बन गए हैं, साहब बन गए हैं। हिन्दू धर्म को भी नहीं मानते, पिता के श्राद्ध में भी नहीं गये-अपना नाम भी बदल डाला है।

फिर हँस कर पूछा-लड़के, लड़कियां कितनी हैं? लगा प्रभा ने पुराने फरिहास का प्रसंग छेड़ दिया हो प्रभा अपने विजयगौरव की पताका फहरा कर हारे हुए को चिढ़ा रही हो।
और वहां खड़े नहीं रह पाया। गाड़ी में चढ़ कर उनके चेहरों पर धूल उड़ा कर चला आया। काहे नहीं उड़ाता? नहीं तो क्या कमीज की जेब से पर्स के भीतर से बेबी बोस का छोटा-सा चित्र उसे दिखाता? हां जिस चित्र को वह कभी भी चन्दन के बक्से से निकाल कर अपने कमीज के पॉकेट में रखता। उस पॉकेट का स्थान उसका वक्षस्थल था।

हां, अतनू बोस केवल धूल उड़ाकर ही क्यों चला आया। वह तो अगर चाहता तो गाड़ी दुर्घटना भी कर सकता था। मोटे-मोटे आठ-दस बरस के लड़कों का खून कर सकता था। जितने भी तन्दुरुस्त हों पर गाड़ी की तेज गति के सामने कुछ भी नहीं।
जिस गाड़ी के चार चक्के हैं और वे काफी वजनदार भी हैं, भुलक्कड़ अतनू बोस सिर्फ माथे में तीखा सा दर्द लेकर भाग आया-जिस दर्द की वजह थी बातों का दशन। जैसे किसी जहरीले कीड़े ने काटा हो। वह था-बच्चे कितने? कितने लड़के, कितनी लड़कियां?
सिर्फ एक साधारण-सा प्रश्न? उसने तो कोई बात चोट पहुंचाने के लिए नहीं कही थी। तब क्या वही व्यंग्यबाण सत्य है? बेबी बोस का क्या मुझसे कोई नाता ही नहीं?
माधवी बोस भी एक दिन मुझे प्रभा की तरह प्रश्न वाणों से जर्जरित कर देगी-''तीन-तीन शादियां मेरे साथ ब्याह से पहले भी की थीं और दो बरस मेरे साथ भी बिता दिये...?''
उसी दिन उसे जबर्दस्ती डॉक्टर के पास ले गया। वह जाना नहीं चाहती थी। माधवी कह रही थी-''रात को खाना बनाना है, अंडे की करी बनाने के लिए अंडे उबाल रखे हैं।''
कहां, भाड़ में जाए अंडे।
चूल्हा बुझ जायेगा।

भाड़ में जाय। पर मुझे तो कोई बीमारी नहीं है। बेकार में डॉक्टर के पास क्यों जाऊं?
तुम्हें नहीं मुझको तो है। डॉक्टर ने मुझे उबार लिया।
डॉक्टर ने बताया बेबी की शक्ल मेरे से अलग नहीं है।

पर माधवी बोस नाम की दुबली काली लड़की जिसकी उम्र का अन्दाजा लगाना मुश्किल था-उसके बारे में डॉक्टर ने बताया-उसमें मां होने की शक्ति नहीं। कभी नहीं थी। प्रकृति उसके प्रति अनुदार, जो किसी भी लड़की का अधिकार है उससे वंचित करके पृथ्वी पर भेज दिया।
फिर माधवी बोस को इस पृथ्वी पर रहने की क्या जरूरत है। सिर्फ गाय के दूध को बचा कर बेचने के लिए या किचन की दीवार पर कंडे थोपने को। या नौकर ने कितनी रोटियां खाईं। उसका हिसाब लगाने; और रात को भीगे-भीगे हल्दी से सने हाथों और एक गन्द सी, अस्त-व्यस्त साड़ी डाल कर अतनू बोस के साफ सुथरे बिस्तरे पर एक कोने में सिमट कर रोने के लिए अब अतनू बोस भी गहरी नींद में रहता। ना माधवी बोस किसी को दोष मत देना, तुम्हारी विधात ने ही तुम्हें मारा।
अचानक हैजा होने का तो बहाना था। अतनू बोस को शाबासी देनी होगी। किसी भी बात से ना टूटने की करामात-उसे तो पुरस्कार प्राप्त होना चाहिए।
अतनू के कुछ हितैषी मित्र भी थे। बड़े बाजार के सूत्र से प्राप्त। जिनके यहां वह शादी-ब्याह पर उपहार लेकर जाया करता था साथ में पौली बोस भी। उन लोगों ने अतनू बोस की चौथी शादी को आखिरी ही समझा था, वे भी उसे दयादृष्टि से देखने लग गए। शायद पीछे कानाफूसी करते भी होंगे-''पौली की जगह पर यह काली, बांस सी मास्टरनी...।''
पर वे भी उसके शोक पर सहानुभूति दर्शाने आए। कहा-क्या करोगे? लगता है गृहस्थ-सुख तुम्हारे नसीब में ही नहीं।
अतनू बोस उनके सहानुभूति का जवाब ऐसे देता, चाय पीयोगे।
वे सब उससे पूछते अचानक कैसे ऐसी बीमारी हुई?
तब अतनू कहता-सिग्रेट मंगवाऊं।

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