नारी विमर्श >> अधूरे सपने अधूरे सपनेआशापूर्णा देवी
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इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्ष मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शरीर के दाह को मिटा सके...
मैं अगर अनपढ़ पत्नी को पढ़ाना-लिखाना चाहूं तो वह भी उनके लिए असम्मान
प्रदर्शन होगा।
मिथ्या सम्मानबोध का तमगा गले में डालकर औरों का जीना हराम किये दे रहे हैं।
बड़े यानि भयंकर, यही उनका विश्वास था। अब मैं समझ पा रहा हूं कि यह अजीब चीज
मेरी हड्डी, मांस सबसें घुलमिल गई थी। खून तो एक ही रहेगा, अगर वह ना होता तो
मैं काहे निर्मला को इतना सताता?
जिस विद्रोह का प्रदर्शन करने में मैं अक्षम था उसी को निर्मला के अन्दर
क्यों देखना चाहता था। जब नहीं देख पाता तो उस पर अत्याचार करता, परन्तु वह
भी मेरे व्यवहार के प्रति अगर विद्रोह करती?
शायद इतिहास ही बदल जाता। निर्मला ऐसा ना कर सकी। वह तो अनुगत, विनीत और
दासत्व ही सीख पाई थी।
जब वह मध्यरात्रि को कर्मक्लान्त देह सहित मेरे शय्याप्रान्त में आती तब वह
मुझे केवल प्रसन्न करने ही स्वयं को मुझे सौंपती। उसमें कामना, वासना का लेश
भी न रहता। मेरे अन्दर जिस कामना ने तिल-तिल डेरा जमा रखा था वह आक्रोश और
विकृत काम वासना उस निरीह नारी पर टूट पड़ता। उसे मैं चूर-चूर करता पर वह बिना
किसी प्रतिवाद के मेरे सारे अत्याचार नीरवता से सह जाती।
अचानक कभी-कभी मैं एक हिंस्र पशु की तरह और एक निपट गंवार की तरह चिढ़ कर
कहता, ''मैं तुम्हारा इतना अपमान करता हूं तुम कैसे सहती हो? तकलीफ नहीं
होती?''
वह पीड़ा से हँस देती, ''अपमान कैसा? तुम तो प्रेम करते हो मुझसे।''
इस पृथ्वी के विरुद्ध, अभिभावकों के विरुद्ध और समाज व्यवस्था के विरुद्ध
जितना भी आक्रोश मेरे मन में संचित होता रहता था वह उसके कोमल सुन्दर शरीर के
ऊपर से लेता। और अपने मन की दाह की अग्नि उसके शान्त मन को दग्ध करके मिटाया
करता। और वह कहती, तकलीफ काहे की यह तो तुम्हारा प्रेम है।
इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्षु मन जो एक सम्पूर्ण
मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शारीरिक दाह को मिटा सके, उसे
वासना और कामक्रीड़ा में अपना समान भागीदार बना सके।
तभी तो मेरे चरित्र में खरबी आ गई।
हालांकि अभिभावकों की कड़ी दृष्टि के सामने ऐसा कुछ भी करने का प्रश्न ही
नहीं था पर कलकत्ते के घर में तो ऐसा कुछ भय नहीं था। हां, हम लोगों का एक
मकान कलकत्ते में था।
हां, घन सुन कर महोदय किसी सुन्दर, रमणीक, कमनीय नीड़ की कल्पना मत कीजियेगा।
यह तो एक मकान था जहा बारबार के प्रयोजन से आने वालों को एक रहने की जगह भर
मिलती थी। मेरे पिता, ताया जी को बीच-बीच में कारोबार के सिलसिले में कलकत्ता
आना पड़ता था, इसी कारण एक नौकर और महाराज को तनख्वाह और खाना कपड़ा पर रख छोड़ा
था। उनके पास पैसा था और सस्ता जमाना था तभी ऐसा कर पाते थे।
और जब बच्चों को नाटक, बायस्कोप देखने का शौक चर्राता तब और लड़कियों को
ससुराल से और बहुओं को मायके से लाने या ले जाने की आवश्यकता होती तब इस मकान
की जरूरत बढ़ जाती। या किसी कठिन रोग से आक्रान्त किसी व्यक्ति को कलकत्ते में
बड़े डॉक्टर को दिखाने की आवश्यकता होती, तब इसी घर में आना पड़ता था।
मैं ही जल्दी-जल्दी आने लगा। क्योकि मेरा दिल उस अचलायतन में हांफ उठा था।
मेरी पत्नी गांव की थी तभी उसे मायके के बहाने इस मकान में आने की कभी
आवश्यकता नहीं पड़ी। फिर भी निर्मल कभी-कभी कहती-'कायस्कोप देखने का मन करता
है। कभी तो देखते हैं सिर्फ मैं ही...।
मैं कहता-ठीक है अगले हफ्ते तुम्हें ले कर जाऊंगा।
निर्मला उसी वक्त मेरा हाथ पकड़कर प्रार्थना करती, ''मैं तुम्हारे पैर पड़ती
हूं वह सब मत करना। चाची जी, या समझली बहू नौ बहू या दीदी लोग जाये तभी...।''
मैं झुंझला उठता।
क्योंकि मैंने यह निश्चय किया था इस बहाने मैं इस घर में प्रगति की आवहवा की
सृष्टि कर पाऊंगा। परन्तु निर्मल ही बाधा देती, ''तुम अगर बड़ों के सामने ऐसा
प्रस्ताव रखो तो मैं गले में फांसी लगा लूंगी।''
गले में फांसी यह उसका तकिया कलाम था। बायस्कोप के प्रस्ताव पर वह शर्म से
गले में फांसी लगाने की व्याकुलता जाहिर करती।
मैं और बात नहीं बढ़ाता था क्योंकि मेरा मन खट्टा हो जाता था। उस समय तक।
लगता था कितनी ग्रामीण विचारों वाली है; पर यह सरल, निष्कपट, बुद्धि रहित और
गधे जैसा बोझ ढोने वाली मेहनती लड़की कभी गले में फांसी लगाकर मर जायेगी; यह
कोई भी ना सोच सकता था। यह बात तो सपने में भी कोई ना सोच पाया था।
क्योंकि कोई भी यह धारणा ना बना सकता था कि इस लड़की में किसी प्रकार की भावना
प्रवणता या मन के अन्दर कोई छिपी वेदना भी हो सकती है।
तभी तो निर्मला के बारे में सब निश्चिंत थे। वह कोई गलत काम कर ही नहीं सकती।
निर्मला के बाद जो बहुएं आई थीं उनके बारे में कुछ सोचने का मसाला मिलता था,
अगर वे गुरुजन स्तुति में कोई कसर छोड़ पातीं। पर निर्मला तो निष्ठा की
जीती-जागती मिसाल थी। निर्मला तो आदर्श गृहवधु का प्रतीक थी।
यहीं निर्मला ने ही एक भयंकर अनिष्ठा का काम कर डाला। सबकी सोच पर तुषारापात
हो गया था। अचानक एक दिन किचन के पीछे जहां कंडे, लकड़ियां रखी जाती हैं वहां
झूलती पाई गई, उसका चेहरा पूरी तौर से भयंकर एवं बिगड़ गया था।
नये तौर से उसके लिए मेरे मन में घृणा उपजी। सोचा करना ही था तो थोड़ी हिम्मत
ही दिखाती, ऐसा घृणित तरीका क्यों चुना? क्योंकि यही तरीका सबसे अधिक ग्रामीण
था।
दिन-रात गले में फांसी शब्द व्यवहार करने की वजह से या और कोई उपाय ना था।
हालांकि मुझ पर जो जिरह का एक तूफान ही बह गया। पिछली रात को निर्मला कब
शयनकक्ष से उठ कर गई, उसके पहले हमारे बीच में क्या-क्या बातें हुई थीं। उसने
क्या इच्छा जाहिर की थी, इत्यादि-इत्यादि। इन अभिभावकों ने प्रश्न से जर्जरित
कर डाला, जो इस बात को महत्वपूर्ण ही नहीं मानते थे कि हमारा कोई
दाम्पत्य-सम्पर्क भी था।?
मैंने भी निर्बोध का जामा पहन अपनी नींद की दुहाई देकर 'मन खराब' का बहाना
बनाया। लेकिन मैं क्या सच में आसमान से गिरा था? कल कुछ अन्यथा ना देखा था?
सच कहूं तो पिछली रात को ही वह मुझे पहली बार अच्छी लगी। मुझे यह भी ख्याल
आया कि अगर उसे इस माहौल से निकाल कर ले जाऊं तो वह सम्पूर्ण मानवी बन सकती
है।
क्यों कि कल रात वह विनीत दासी का आवरण त्याग कर तेजी व्यक्तित्व सम्पन्न
नारी बन गई थी। उसने मुझसे कैफियत मांगा-''रोज-रोज कलकत्ते में तुम्हारा इतना
क्या काम रहता है?''
उत्तर दिया, रहता है काम।
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