लोगों की राय

यात्रा वृत्तांत >> जंगल से शहर तक

जंगल से शहर तक

राजेन्द्र अवस्थी

प्रकाशक : अमरसत्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7497
आईएसबीएन :978-81-88466-70

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

436 पाठक हैं

एक बार बाबा वशिष्ठ ने गुस्से में आकर अपने तूँबे को जंगल में फेंक दिया। एक कहली नागिन ने उसे उठाकर तीन बूँद दूध पिलाया...

Jungle Se Shahar Tak - A Hindi Book - by Rajendra Awasthi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपने को मैं सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे मध्य प्रदेश और बस्तर से लेकर पूरे देश के आदिवासियों के बीच काम करने, रहने और उनके जीवन को गहराई से समझने का अवसर मिला है। मुझे बहुत ही सुखद आश्चर्य हुआ था कि आज की दुनिया से अलग इनकी अपनी जिंदगी है और उस जिंदगी के प्रति कभी उन्होंने शिकायत नहीं की। उनके लिए जो कुछ संभव था, कई तरह किया गया। बस्तर उस समय के मध्य प्रदेश का ही नहीं, दुनिया का सबसे बड़ा जिला था। जगदलपुर इसका मुख्यालय आज भी है। इतने बड़े क्षेत्र को संभालना आसान नहीं है। मैं कृतज्ञता ज्ञानपन करूँगा कि जगदलपुर अब ढाई जिलों में बँट गया है। धीरे-धीरे अब वहाँ सुधार हो रहा है और वहाँ के निवासियों की उन्नति के लिए सरकार प्रयत्नशील है। यही बात नागा, गोंड, टोडा, कोरकू, उराव, खोंड इत्यादि क्षेत्रों की है। मुझे याद है कि एक समय इनके बीच में पहुँचना बहुत कठिन था। स्थिति अब बदल गई है और वे प्रसन्नतापूर्वक इस समूचे देश के अंग हैं। यह ज्ञान उन्हें हो रहा है।

मैंने कुछ भी-चीज कल्पना से नहीं लिखी। इनके बीच में इनका बनकर, रहकर मैंने काम किया है। सारी व्यस्तताओं के बावजूद मुझे जंगलों में घूमना हमेशा पसंद रहा है। कहा जा सकता है कि मैं जंगली भी हूँ और शहरी भी।
इतिहास, साहित्य-जीवन, देश और काल का अत्यंत महत्त्वपूर्ण विषय है। वह अपने अतीत के माध्यम से आज का चित्र प्रस्तुत करता है। प्रस्तुत पुस्तक पाठकों को समर्पित करते हुए मैं अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव कर रहा हूँ।

–राजेन्द्र अवस्थी

दृष्टि-क्षेत्र का मैं राजा हूँ


उत्तर में हिमालय की ऊँची चोटियाँ। बीच में सतपुड़ा और विंध्याचल के हरे-भरे पर्वत। दक्षिण में नीलगिरि और पश्चिमी घाट के सीधे खड़े पहाड़। पश्चिम में अरावली की पहाड़ियाँ। पूरब के सघन और भारी वर्षा वाले ऊँचे शिखर। ये सब हमारे देश की शोभा हैं। इनके निवासी नागरी सभ्यता से बहुत दूर हैं। इनकी अपनी संस्कृति है। अपनी सभ्यता है। सुंदरता के वे प्रेमी हैं। उनका जीवन अपने आप में निराला है। अपनी मस्ती में ये दिन-रात मस्त रहते हैं। उनके नृत्य उनकी जिंदगी हैं। इनके भरोसे वे हर कठिनाई को भूल जाते हैं। उनकी छोटी-सी झोंपड़ी होती है। कहने को वह बहुत छोटी है, पर उसका राज्य बड़ा है। बहुत बड़ा।

दृष्टि-क्षेत्र का मैं राजा हूँ,
सब पर है मेरा अधिकार।
नहीं किसी का शासन मुझ पर,
करता हूँ स्वच्छंद विहार।

सचमुच अपनी नजर के में वे राजा हैं। सारे नदी और पहाड़ उनके अपने हैं। सुबह सूरज की किरण नहीं निकल पाती, वे उठकर अपने घरों से निकल जाते हैं। दिन-भर पहाड़ों की खाक छानते हैं। शाम को संध्या ढले घर लौटते हैं। तब वे होते हैं। उनकी रानी होती है। उनके बच्चे होते हैं। उनके गीत होते हैं। उनके बोल और उनका थिरकता जीवन होता है। कितने सुखी, चिंता से दूर हैं ये लोग ! इन्हें हम आदिवासी कहते हैं। इनकी संख्या लगभग ढाई करोड़ है।

कुछ विद्वानों ने इन आदिम जातियों को दो भागों में बाँटा है। एक हैं द्राविड़ नस्ल के। दूसरे हैं मुंडा या कोल। उनका कहना है कि मुंडा वंश के लोग ही भारत के आदिवासी हैं। द्राविड़ तो आर्यों की तरह बाहर से आकर भारत में रहे। लेकिन मैं इस बात को नहीं मानता। सारे आदिवासी एक हैं। वे अपने को हिंदू मानते हैं। उनकी रीति-रिवाज हिंदुओं से मिलते हैं। उनके देवी-देवता भी वही हैं। हिंदुओं के पर्व भी उनके पर्व हैं। उनमें और हिंदुओं में कोई अंतर नहीं है। अंग्रेजों ने हरिजनों और आदिवासियों को हिंदुओं से अलग बताया था। इसके पीछे उनका राजनीतिक ध्येय था। वे हिंदुओं की जनसंख्या को कम बताना चाहते थे। इसका प्रमाण् सन् 1931 और 1941 की जनसंख्या से मिलता है। सन् 1931 में आदिवासियों की संख्या पौन करोड़ बताई गई थी। सन् 1941 में वह बढ़कर सवा दो करोड़ हो गई। इस तरह एक ही कलम से उन्होंने इतनी बड़ी जनसंख्या को हिंदुओं से अलग कर दिया।

अब अंग्रेज नहीं रहे। हमारा देश स्वतंत्र है। अब यह भेदभाव मिटाना चाहिए। इन वन निवासियों को हिंदुओं के अधिकाधिक पास लाने की आवश्यकता है। ताजी जनगणना में हमारी सरकार ने ऐसा किया भी है। आदिवासियों की उपजातियों की संख्या अलग-अलग नहीं बताई गई। उनकी संख्या भाषा के आधार पर बताई गई है।
भाषा के आधार पर इस समय हमारे यहाँ 23 मुख्य आदिम जातियाँ हैं। इनकी कुल संख्या लगभग सवा करोड़ है। शेष सवा करोड़ आदिवासी लगभग चार सौ भाषाएँ बोलते हैं, जिसे वे ‘बोलियाँ’ कहते हैं। इनमें कुछ संख्या तो दो-ढाई सौ तक ही सीमित है।

भाषा के अनुसार सबसे अधिक संख्या संथाल, गोंड़ और भीलों की है। संथाली बोलने वाले 28 लाख से अधिक हैं। गोंड़ी भाषा लगभग साढ़े बारह लाख लोग बोलते हैं। साढ़े ग्यारह लाख से अधिक भीली भाषा बोलते हैं। दूसरी मुख्य जातियाँ हैं : उराँव, लंबाड़ी, हो, मुंडा, कंध, कछारी, आहोम, खासी, खड़िया, पोरजा, कोया, मिकिर, लुशाई, सावरा, गारी, कुई, कोरकू, लंभानी, कछारी, परजा, नागा आदि।

आदिवासी मुख्यतः तीन क्षेत्रों में रहते हैं। उत्तर-पूर्व में हिमालय की घाटियाँ हैं। इनमें नागा, गारी, खासी और मिशमी जातियाँ मुख्य हैं। नागाओं का निवास केंद्र मणिपुर तथा गोलाघाट जिले हैं। ये घनसीरी से लेकर रँगमा पहाड़ियों तक पाए जाते हैं। इनके 21 प्रधान भेद हैं। गारो और खासी आसाम राज्य की जातियाँ हैं। गारी मुख्य रूप से आसाम के कामरूप और गोलपाड़ा जिले में रहते हैं। यह जाति मनुष्य की बलि के लिए बदनाम है। खासी लोग खासी और जयंतिया की पहाड़ियों में रहते हैं। मिशनी जाति के लोग का निवास डिहांग और लाहित नदी के बीच में है।

बीच में नर्मदा और गोदावरी नदियों की घाटियाँ हैं। यहाँ विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत है। इनमें भारत की सबसे ज्यादा आदिम जातियाँ हैं। ये जातियाँ नीते अजंता और ऊपर अरावली की पहाड़ियों तक फैली हैं। यहाँ छोटानागपुर के पठारी भाग में संथाल हैं। यह एक प्रगतिशील जाति है। नर्मदा की घाटी में गोंड़, कोल, कोरकू, भील और बैगा मिलते हैं। गोंड़ों की अनेक उपजातियाँ हैं। यह जाति एक जमाने में राज भी कर चुकी है। भीलों में भी काफी पहले जागरण की लहर उठ चुकी है।
दक्षिण में कृष्णा नदी है। इनके नीचे नीलगिरि की पहाड़ियाँ हैं। यहाँ मुख्यतः टोडा, बडगा और खोंड रहते हैं। मालाबार में कुरूमान, इरूला और पनियन जाति के लोग मिलते हैं। त्रावणकोर-कोचीन में कदन, कनिकरन, मलयन और मलपंतरम जातियाँ अधिक पाई जाती हैं। ये सब जातियाँ जनसंख्या के हिसाब से बहुत कम हैं। लेकिन वास्तव में ये बहुत पुरानी जातियाँ हैं।

भारत के दक्षिण-पूर्व में अंडमान और निकोबार द्वीप हैं। यहाँ भी काफी संख्या में आदिवासी रहते हैं।
राज्यों के हिसाब से मध्य प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड और आसाम में सबसे अधिक आदिवासियों की संख्या है।
राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इन्हें ‘गिरिजन’ कहा

कुछ समय पहले आदिवासियों को लेकर एक बड़ा विवाद चला था। वह विवाद इस शब्द से था। वन में रहने वाली इन जातियों को आदिवासी, वनवासी, गिरिजन, भूमिजन, वन्यजाति, अरण्यवासी, आदिमवासी–क्या कहकर पुकारा जाए ? प्रश्न बड़ा था। इस पर अलग-अलग मत थे। मेरा अपना मत था कि इन्हें ‘गिरिजन’ कहा जाए। कारण हरिजन और गिरिजन मिलकर ही भारत का बहुजन बनता है। इस पर मैंने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से भी चर्चा की थी। वह भी इस बात से सहमत हो गए थे। किंतु संविधान में इनके लिए ‘आदिम जाति’ शब्द कहा गया है। नाम तो आखिर नाम ही है। अतः बाद में इस पर विवाद चलाना ठीक नहीं समझा गया। जो शब्द संविधान में ले लिया गया, उसे ही क्यों न चलाया जाए ? और इसलिए इन वनवासी जातियों को इस नाम से पुकारा जाता है।

आदिवासियों की उत्पत्ति कैसे हुई ? यह एक वाचारणीय प्रश्न है। इनके संबंध में संस्कृत ग्रंथों में अनेक बार लिखा गया है। भागवत में लिखा है कि ध्रुव की सातवीं पीढ़ी में जो राजा बना, उसकी जाँघों से निषाद की उत्पत्ति हुई। यह उस समय की बात है, जब भारत में पुर और ग्राम की कल्पना तक नहीं थी। निषाद वन में रहने वाले थे और ‘आदिवासी’ कहलाते थे। इससे पता चलता है कि वन-निवासी निषाद और ध्रुव पीढ़ी के राजा पृथु एक ही मूल पुरुष की संतान हैं। दोनों ही भारतीय रहे हैं। एक कथा और है। कहा जाता है कि कश्यप हमारे आदि जनक थे। इनका स्थान कश्यप पर्वत था। इनसे ही देवता, राक्षस और मनुष्य उत्पन्न हुए। उनकी कई रानियाँ थीं। एक रानी दिति थी। उससे दैत्य राक्षस हुए। दूसरी रानी अदिति से देवता हुआ। तीसरी थी कदद। इससे नागा हुए। चौथी रानी विनता से गरुणी या गारुण जाति के लोग हुए। इससे भी पता चलता है कि इन सब जातियों में भाईचारा रहा। सब अपने को एक ही पिता की संतान मानती रही हैं। सब अपने को भारतभूमि का निवासी समझती थीं।

संस्कृत साहित्य में और भी कथाएँ हैं। उनमें कहा गया है कि शंकर ने कभी किरात का वेश धारण किया था, कभी शवर का। रक्ष और यक्ष जातियों को एक ही मूल पुरुष की संतान माना गया है। वे दोनों जातियाँ अपने यहाँ देव-योनि में मानी गई हैं। वनवासियों में बहुत-सी लोककथाएँ चली आ रही हैं। पुराणों में भी दंत कथाओं की कमी नहीं है। लेकिन किसी भी कथा से यह पता नहीं चलता कि आर्य अथवा ये वनवासी कहीं बाहर से आए थे। उनमें कभी परस्पर युद्ध भी नहीं हुए। अतः ऐसा नहीं था कि इनमें कोई जाति बाहर से आई हो और उसने राज्य पाने के लिए युद्ध किया हो। सब अपने को भारतीय मानती हैं।

इस बात के प्रमाण हैं कि वैदिक काल से ही भारतीयों और शेष वनवासियों में पड़ोसियों का-सा संबंध रहा है। उनमें आपस में विवाह भी हुआ करते थे। दोनों एक-दूसरे की संस्कृति से कुछ न कुछ लेते रहे हैं। कहा जाता है कि हिंदुओं में महादेव की कल्पना आदिवासियों से ली गई है। विवाह के समय सिंदूर की प्रथा भी आदिवासियों से ही आई है। मूर्ति-पूजा का प्रचलन भी इन्हीं वन-निवासियों में रहा है। उन्हीं से हिंदुओं ने सीखा।

इस तरह आदिवासी हमसे अलग नहीं हैं। दोनों की संस्कृतियाँ मिलकर ही भारतीय संस्कृति बनी है। अतः उन्हें किसी अजायबघर का जीव नहीं मानना चाहिए। वे हमारे राष्ट्र के अंग हैं।
नामकरण : वे एक तूँबे से पैदा हुए

आदिम जातियों के नामकरण का भी इतिहास है। कहा जाता है कि संथालों का नाम सावंत नामक स्थान पर रखा गया है। बंगाल में मिदनापुर जिले में सावंत नामक एक स्थान है। यह स्थान ‘सावंत भूमि’ कहा जाता है। आज भी बाँग्ला में संथालों को ‘सावंताल’ ही लिखा और कहा जाता है। गोड़ों की अपनी एक लंबी परंपरा रही है। एक विद्वान् ने कहा है कि ‘गोंड़’ शब्द तेलुगु भाषा से आया है। तेलुगु में यह ‘कोंड़’ है। कोंड़ का अर्थ होता है पहाड़। गोंड़ों का केंद्र तेलंगाना प्रांत माना जाता है। हो सकता है इसी से बिगड़कर गोंड़ बन गया हो।

गोंड़ अपने को महादेव द्वारा उत्पन्न किया बताते हैं। वे लिंगो को अपना पूर्वज कहते हैं। उनका कहना है कि लिंगो महादेव का अवतार है। इसी से प्रत्येक गोंड़ महादेव का कट्टर भक्त है। गोंड़ों में एक किंवदंती भी प्रचलित है। उससे ज्ञात होता है कि उनका आदिस्थान काचीकोपा-लोहागढ़ है। बहुत-से विद्वानों ने पंचमढ़ी (मध्य प्रदेश) में ‘बड़ा महादेव’ और ‘चौरागढ़’ को काचीकोपा-लोहागढ़ बताया है। जो हो, पर आज भी वहाँ मेला लगता है। और हर गोंड़ वहाँ जाना अपना एक धार्मिक करम समझता है। गोंड़ों की बहुत-सी उप-जातियाँ हैं। इनमें माड़िया, मुड़िया, परजा, अगरिया, परधान, खैरबार, लारिया और राज-गोंड़ मुक्या हैं। बैगा भी अपने को गोड़ों की एक शाखा बताते हैं। उनके यहाँ एक लोककथा कही जाती है। वह इस प्रकार है :

‘बैगाओं के आदिपुरुष नंगा बैगा थे। नंगा बैगा की उत्पत्ति एक तूँबे से हुई। एक बार बाबा वशिष्ठ ने गुस्से में आकर अपने तूँबे को जंगल में फेंक दिया। एक कहली नागिन ने उसे उठाकर तीन बूँद दूध पिलाया। इसके बाद वह बाँबी के पीछे छुप गई। उससे तीन संतानें हुईं। एक होते ही मर गई। दूसरी का नाम ‘नंगा बैगा’ रखा गया। तीसरी का नंगा ‘बैगिन’। नागिन ने दोनों को एक ही जगह पाला-पोसा। जब वे बड़े हुए तो उनका विवाह हो गया। इन दोनों के दो लड़के हुए। उनमें से एक जंगल काटकर अपना पेट भरने लगा उसे ‘बैगा’ नाम दिया गया। दूसरा लड़का खेती करने लगा। उसको ‘गोंड़’ कहा गया। इन दोनों की प्रजा बैगा और गोंड़ कहलाई।’

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book