उपन्यास >> टूटने के बाद टूटने के बादसंजय कुन्दन
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युवा रचनाकार संजय कुन्दन का उपन्यास ‘टूटने के बाद’ भारतीय मध्यवर्ग की समकालीन संरचना को परखते हुए व्यापक सामाजिक संवेदना के साथ उसकी समीक्षा करता है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘अप्पू को तो पराजित होना ही है हर हाल में। इस समाज
को अप्पू नहीं चाहिए।’ युवा रचनाकार संजय कुन्दन का उपन्यास
‘टूटने के बाद’ भारतीय मध्यवर्ग की समकालीन संरचना को परखते
हुए व्यापक सामाजिक संवेदना के साथ उसकी समीक्षा करता है। अप्पू की नियति
पराजय क्यों है और कैसा है वह समाज जिसको नैतिकता, मनुष्यता, सार्थकता,
पक्षधरता और संवेदना से संचालित अप्पू नहीं चाहिए–ऐसे बहुत सारे
सवाल ‘टूटने के बाद’ में मौजूद हैं। सामान्य से भी निम्न
स्थिति से उबरकर बड़े पद तक पहुँचे रमेश और उनकी पत्नी विमला परिस्थितियों
के उतार चढ़ाव या महत्त्वाकांक्षा की दौड़ के कारण ‘अपने अपने
अजनबी’ बन कर रहा जाते हैं। उनके बेटों अभय और अप्पू की अपनी
अलग-अलग दुनिया है। अभय अपनी अच्छाओं की राह पर चलते हुए शेष परिवार को
अपदस्थ कर देता है। विमला अपनी छोटी बहन कमला के पारिवारिक संघर्ष में जिस
तरह हस्तक्षेप करती है उससे उनके जटिल जीवन की राह भी सुगम होती है।
कैरियरिस्ट आरुषि और आकाश छूने को आतुर रमेश के घात-प्रतिघात में रमेश की
पराजय को संजय कुन्दन ने बेहद रोचक शैली में शब्दबद्ध किया है। अप्पू
सार्थकता की तलाश में कार्टून बनाने से लेकर डॉ. कृष्णन के चुनाव में मदद
करने तक अपनी ऊर्जा व्यय करता है और उसे उम्मीद की एक पतली-सी लकीर दिख
जाती है।
‘टूटने के बाद’ समकालीन पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों का प्रामाणिक चित्रण है। संजय कुन्दन ने अपनी विशिष्ठ भाषा शैली में आधुनिकता के अनिवार्य परिणामों को इस उपन्यास में कुशलतापूर्वक चित्रित किया है।
‘टूटने के बाद’ समकालीन पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों का प्रामाणिक चित्रण है। संजय कुन्दन ने अपनी विशिष्ठ भाषा शैली में आधुनिकता के अनिवार्य परिणामों को इस उपन्यास में कुशलतापूर्वक चित्रित किया है।
टूटने के बाद
मैं जा रहा हूँ, पता नहीं कहाँ। मुझे खोजने की कोशिश मत कीजिएगा।
-अप्पू
अभी थोड़ी देर पहले विमला त्रिपाठी को यह
एसएमएस मिला था।
वह खाने को बैठी ही थीं कि मोबाइल ने सन्देश आने की सूचना दी। इन्होंने
इसे बार-बार पढ़ा। उन्हें पहले तो यकीन ही नहीं हुआ। लेकिन मैसेज तो अप्पू
के नम्बर से ही आया था। तो क्या सचमुच अप्पू...। नहीं-नहीं ऐसा कैसे हो
सकता है ? अप्पू ऐसा क्यों करेगा ? विमला ने अप्पू का नम्बर मिलाया। उसका
मोबाइल स्विच ऑफ हो गया था। मतलब उसने एसएमसएस करके फोन बन्द कर दिया।
विमला ने कई बार उसका नम्बर मिलाया पर हर बार वह बन्द ही मिला। कहीं ऐसा
तो नहीं कि किसी ने उसका अपहरण कर लिया हो और उसके सेलफोन से यह मैसेज कर
रहा हो।
बेचैन हो गयीं विमला। क्या करें आखिर ? उन्होंने अपने पति रमेश त्रिपाठी को देहरादून फोन मिलाया। हालाँकि वह उनसे बात करने से बचना चाहती थीं फिर भी मामला बेटे का था, इसलिए बात करना जरूरी था।
‘‘हलो, बोलो विमला ?’’ रमेश जी ने कहा।
‘‘देखिए न, अप्पू का एक अजीब मैसेज आया है।’’ विमला के स्वर में घबराहट थी।
‘‘हाँ, मेरे पास भी आया है।’’
‘‘क्या ! आपके पास भी...।’’ विमला चौंकीं।
‘‘हाँ...।’’
‘‘क्या मामला है ?’’
‘‘मुझे तो लगता है कि हमें डरा रहा है वो।’’
‘‘नहीं ऐसा कैसे कर सकता है।’’ विमला को रमेश जी की बात पर यक़ीन नहीं हो रहा था।
कुछ देर दोनों चुप रहे। फिर रमेश जी ने कहा, ‘‘कोई बच्चा तो है नहीं। चला गया होगा किसी दोस्त के यहाँ। फिर आ जाएगा। तुम टेंशन मत लो। मैं देखता हूँ।’’ यह कहकर रमेश जी ने फोन काट दिया।
रमेश जी ने कितनी आसानी से बात टाल दी जैसे कुछ हुआ ही न हो। क्या उन्हें अपने बेटे से ज़रा भी लगाव नहीं ! ऐसा कैसे हो सकता है। अपने बच्चों की हर बात पर वह तो हमेशा बहुत सीरियस हो जाते थे। अप्पू को ज़रा-सी छींक भी आ जाती थी तो वह परेशान हो जाते थे। उसे बाहर से आने में थोड़ी भी देर हो जाती थी, तो वह उसे ढूँढ़ने निकल पड़ते थे। लेकिन अभी की बातचीत से तो ऐसा लग ही नहीं रहा था कि यह वही रमेश जी हैं। क्या कोई इनसान इतना बदल सकता है ?
नहीं, कुछ करना होगा। बेटा मुसीबत में है और माँ-बाप चैन से बैठ रहे, ऐसा कैसे हो सकता है ? उन्हें ही कुछ करना होगा।
विमला ने अपना खाना फ्रिज में रखा और अनिरुद्ध बाबू को फोन मिलाने लगीं। अनिरुद्ध बाबू रमेश जी के मित्र थे। वह भी दिल्ली के मयूर विहार इलाके में उसी सोसायटी के पास रहते थे जिसमें रमेश जी का फ्लैट था। वह फ्लैट उन्हीं की मार्फत ख़रीदा गया था। अनिरुद्ध बाबू रमेश और विमला के बच्चों के लोकल गार्जियन की तरह थे। जब से रमेश जी देहरादून रहने लगे, उनके दोनों बच्चों अभय और अप्पू की जवाबदेही काफी कुछ उन्हीं पर थी। अभय के अमेरिका जाने के बाद तो उनकी भूमिका और बढ़ गयी थी।
‘‘हलो हलो’’–विमला जोर-जोर से बोल रही थीं, लेकिन उधर की आवाज स्पष्ट नहीं सुनाई दे रही थी। विमला ने फोन काटकर फिर से मिलाया। इस बार लग गया।
‘‘हलो भाई साहब नमस्कार। विमला बोल रही हूँ।’’
‘‘हाँ, भाभी जी बताइए।’’ अनिरुद्ध बाबू ने ज़ोर से कहा। शायद इधर की आवाज भी ढंग से नहीं पहुँच रही थी।
‘‘भाई साहब, अप्पू कहीं है ?’’ विमला ने पूछा।
‘‘घर में होगा। क्यों ?’’
‘‘अभी उसका मैसेज आया है कि वह घर छोड़कर जा रहा है। मैं उसका मोबाइल ट्राई कर रही हूँ तो वह स्विच ऑफ आ रहा है। पता नहीं क्या हुआ। प्लीज जरा आप जा कर देखिए न।’’
‘‘मैं बस पहुँचने ही वाला हूँ। जाकर देखता हूँ फिर बताता हूँ।’’
बात खत्म हो गयी। विमला की बेचैनी और बढ़ गयी। पता नहीं किस बात से अप्पू दुखी है ? ज़रूर वह रमेश जी से नाराज़ हो गया होगा। अगर कोई बात थी तो उसे विमला से बताना चाहिए था। क्या अब वह अपनी माँ पर भी भरोसा नहीं करता ?
विमला बालकनी में आकर खड़ी हो गयीं। सड़क पर सन्नाटा पसर गया था। दस-साढ़े दस बजे रात के बाद पटना की सड़कें सूनी होने लगती थीं। शहर अपनी देह सिकोड़ने लगता था। इस वक़्त आकाश एकदम मटमैला दिख रहा था। दूर कुछ पेड़ हिलते दिख रहे थे। हल्की सरसराहट सुनाई देने लगी थी। ये आँधी के लक्षण थे।
उस दिन भी जबर्दस्त आँधी आयी थी जिस दिन अप्पू पैदा हुआ था। अप्पू के जन्म के एक दिन पहले वह डॉक्टर सुनन्दा के यहाँ गयी थीं और कहा था कि वह उन्हें एडमिट कर लें। लेकिन डॉक्टर ने यह कहते हुए मना कर दिया कि हड़बड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। अभी चार-पाँच दिन देर है। लेकिन अप्पू महोदय आने के लिए हड़बड़ाए हुए थे। विमला को शाम में दर्द शुरू हो गया। तुरन्त समझ में आ गया कि अब चलना ही होगा। इधर दर्द शुरू हुआ उधर तेज अँधड़ आ धमका। लगा कि पूरे शहर को उड़ाकर कहीं दूर फेंक देगा। विमला अपने मायके लोहानीपुर में थीं। वहाँ से राजेन्द्र नगर का तीन से चार किलोमीटर का सफर ही इतना कठिन और भयावह हो जाएगा, यह उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। संयोग से उनका भाई रजनीश घर में था। वह रिक्शा लाने दौड़ा। कहीं कोई रिक्शा दिख ही नहीं रहा था। बड़ी मुश्किल से एक रिक्शेवाले को उसने हाथ-पैर जोड़कर चलने को तैयार किया। किसी तरह विमला और उनकी माँ उस पर बैठीं। रजनीश पीछे से रिक्शे को धक्का दे रहा था। लगता था कि हवा ने रिक्शे को आगे न बढ़ने देने की ज़िद ठान ली है। रिक्शावाला आगे से खींच रहा था और रजनीश पीछे से ठेल रहा था। विमला को कुछ देर के लिए तो ऐसा लगा कि यह उनके जीवन का आखिरी क्षण है। उस वक्त उनके सामने अभय का चेहरा घूम रहा था। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की किसी तरह उसका जीवन पार लग जाए। उसके बाद उन्हें ठीक से कुछ भी याद नहीं। उन्हें यह याद है कि एक बार रिक्शा पलटते-पलटते बचा। उसके बाद जब उनकी आँखें खुलीं तो उन्होंने अप्पू को अपने बगल में पाया। उस वक़्त उन्होंने अद्भुत शान्ति महसूस की। वैसा सुकून फिर आज तक कभी नहीं मिला।
तभी विमला का मोबाइल बजा। अनिरुद्ध बाबू का नम्बर था। विमला की धड़कन बढ़ गयी।
‘‘क्या हुआ भाई साहब ?’’ उन्होंने काँपते हुए पूछा।
‘‘बाहर से तो लॉक है। हमने गेटकीपर से भी पूछा तो वह कह रहा है कि उसे जाते हुए नहीं देखा। मैंने दबरान को अपना नम्बर दे दिया है। अगर उसको अप्पू दिखेगा तो वह बताएगा। कहाँ चला गया पता नहीं। दो-तीन दिन से मैं भी थोड़ा काम में बिजी था सो उससे मिल नहीं पाया। हालाँकि वह तो कुछ बोलता ही नहीं है। हर समय कहता है सब ठीक है।... आप निश्चिन्त रहिए मैं पता करके बताऊँगा।’’
कैसे निश्चिन्त रह सकती हैं विमला। हर समय उन्हें अपने बेटों की फिक्र लगी रहती थी। अभय के अमेरिका जाने के बाद से तो हर समय उनकी नींद उड़ी रहती थी। अखबार में हर समय वह इंटरनैशनल खबरें खोजतीं ख़ासकर अमेरिका की खबरों को ध्यान से पढ़तीं। जब भी वहाँ किसी भारतीय पर हमले का कोई समाचार होता, वह परेशान होकर अभय को फोन मिला देतीं थीं। उन्हें इस बात का सन्तोष था कि चलो अप्पू अभय से भी ज़्यादा दूर निकल चुका है शायद...।
उन्हें याद आया कि पिछली बार जब वह दिल्ली गयी थीं तो उन्होंने अप्पू के ठीक बगल में रहने वाली एक महिला से बातचीत की थी। उसने अपना नम्बर दिया था। विमला उसका नम्बर खोजने लगीं। उन्होंने उसका नम्बर ले लिया था ताकि अप्पू के बारे में जानकारी ली जा सके। उन्होंने नम्बर मोबाइल में रखने की बजाय अपनी डायरी में कहीं लिख रखा था। वह डायरी पलटने लगीं। तभी मोबाइल बज उठा। अनिरुद्ध बाबू की आवाज आयी, ‘‘भाभीजी कुछ पता नहीं चल रहा है। हमारे एक मित्र हैं असिस्टेंस पुलिस कमिश्नर, सोच रहे हैं उनको बता दें। लेकिन रमेश जी कह रहे हैं रात भर देख लेने के लिए।’’
‘‘रमेश जी की बात छोड़िए न। उनको क्या मतलब है ?’’
‘‘क्या बात कर रही हैं आप। वो तो बेचारे बहुत परेशान हैं। ऐसे में कोई भी होगा।’’
‘‘खैर, अब आपको जो सही लगे कीजिए।’’ यह कहकर विमला ने कट कर दिया। रमेश जी की चर्चा आ जाने से उनका मन खिन्न हो गया था। वह फिर उस महिला का नम्बर तलाश करने लगीं। आखिरकार नम्बर मिल गया। उन्होंने जल्दी-जल्दी नम्बर डायल किया। नम्बर मिलते ही वह कहने लगीं, ‘‘हैलो, मैं पटना से बोल रही हूँ मिसेज त्रिपाठी। आपके बगल वाले फ्लैट में मेरा बेटा रहता है। पहचाना आपने ?’’
‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं पहचानूँगी। आपने बहुत बढ़िया अचार दिया था।’’
‘‘सा‘‘री, मैंने आपको इस टाइम में फोन किया। आपकी एक हेल्प चाहिए, प्लीज।’’
‘‘हाँ, हाँ कहिए न।’’
‘‘मेरा बेटा घर में नहीं है शायद। उसका सेलफोन लग नहीं रहा। अगर वह आ जाए तो जरा कहिएगा वह मुझसे बात करे।’’
‘‘लेकिन वह तो घर में है ही। उसकी लाइट तो जल रही है। हाँ, कुछ देर पहले नहीं जल रही थी। हमलोग खाना खाकर चक्कर काटने गये थे, तब अँधेरा था। लगता है अभी-अभी आया है।’’
विमला को लगा जैसे उनकी साँस वापस आयी हो। उन्होंने उस महिला से प्रार्थना की, ‘‘प्लीज, जरा उससे बात करवा दीजिए।’’ थोड़ी देर बाद उधर से अप्पू की आवाज आयी, ‘‘हाँ माँ...।’’ उसकी आवाज में थरथराहट थी। लग रहा था जैसे दूर से भागता हुआ आया हो।
‘‘तुम कहाँ थे बेटा ?’’ विमला की आवाज भर्रा गयी थी।
‘‘अप्पू ने कहा, ‘‘मेरे मोबाइल पर करो।’’
विमला ने जल्दी से उसका मोबाइल मिलाया, ‘‘हाँ बेटा, तुमको क्या हो गया है।’’
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘तुम कहाँ चले गये थे ?’’
‘‘बस ऐसे ही।’’
‘‘फिर तुमने ऐसा मैसेज क्यों किया ?’’ उधर से कोई आवाज नहीं आयी। विमला ने बार-बार अपना सवाल दोहराया लेकिन उधर से जवाब नहीं मिला।
‘‘खाना खा चुके ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘ठीक है सो जाओ। कल बात करते हैं।’’ यह कहकर विमला ने फोन काट दिया। उन्होंने जल्दी से अनिरुद्ध को फोन करके यह बात बताई और यह भी कहा कि वह रमेश जी को सूचित कर दें।
बेचैन हो गयीं विमला। क्या करें आखिर ? उन्होंने अपने पति रमेश त्रिपाठी को देहरादून फोन मिलाया। हालाँकि वह उनसे बात करने से बचना चाहती थीं फिर भी मामला बेटे का था, इसलिए बात करना जरूरी था।
‘‘हलो, बोलो विमला ?’’ रमेश जी ने कहा।
‘‘देखिए न, अप्पू का एक अजीब मैसेज आया है।’’ विमला के स्वर में घबराहट थी।
‘‘हाँ, मेरे पास भी आया है।’’
‘‘क्या ! आपके पास भी...।’’ विमला चौंकीं।
‘‘हाँ...।’’
‘‘क्या मामला है ?’’
‘‘मुझे तो लगता है कि हमें डरा रहा है वो।’’
‘‘नहीं ऐसा कैसे कर सकता है।’’ विमला को रमेश जी की बात पर यक़ीन नहीं हो रहा था।
कुछ देर दोनों चुप रहे। फिर रमेश जी ने कहा, ‘‘कोई बच्चा तो है नहीं। चला गया होगा किसी दोस्त के यहाँ। फिर आ जाएगा। तुम टेंशन मत लो। मैं देखता हूँ।’’ यह कहकर रमेश जी ने फोन काट दिया।
रमेश जी ने कितनी आसानी से बात टाल दी जैसे कुछ हुआ ही न हो। क्या उन्हें अपने बेटे से ज़रा भी लगाव नहीं ! ऐसा कैसे हो सकता है। अपने बच्चों की हर बात पर वह तो हमेशा बहुत सीरियस हो जाते थे। अप्पू को ज़रा-सी छींक भी आ जाती थी तो वह परेशान हो जाते थे। उसे बाहर से आने में थोड़ी भी देर हो जाती थी, तो वह उसे ढूँढ़ने निकल पड़ते थे। लेकिन अभी की बातचीत से तो ऐसा लग ही नहीं रहा था कि यह वही रमेश जी हैं। क्या कोई इनसान इतना बदल सकता है ?
नहीं, कुछ करना होगा। बेटा मुसीबत में है और माँ-बाप चैन से बैठ रहे, ऐसा कैसे हो सकता है ? उन्हें ही कुछ करना होगा।
विमला ने अपना खाना फ्रिज में रखा और अनिरुद्ध बाबू को फोन मिलाने लगीं। अनिरुद्ध बाबू रमेश जी के मित्र थे। वह भी दिल्ली के मयूर विहार इलाके में उसी सोसायटी के पास रहते थे जिसमें रमेश जी का फ्लैट था। वह फ्लैट उन्हीं की मार्फत ख़रीदा गया था। अनिरुद्ध बाबू रमेश और विमला के बच्चों के लोकल गार्जियन की तरह थे। जब से रमेश जी देहरादून रहने लगे, उनके दोनों बच्चों अभय और अप्पू की जवाबदेही काफी कुछ उन्हीं पर थी। अभय के अमेरिका जाने के बाद तो उनकी भूमिका और बढ़ गयी थी।
‘‘हलो हलो’’–विमला जोर-जोर से बोल रही थीं, लेकिन उधर की आवाज स्पष्ट नहीं सुनाई दे रही थी। विमला ने फोन काटकर फिर से मिलाया। इस बार लग गया।
‘‘हलो भाई साहब नमस्कार। विमला बोल रही हूँ।’’
‘‘हाँ, भाभी जी बताइए।’’ अनिरुद्ध बाबू ने ज़ोर से कहा। शायद इधर की आवाज भी ढंग से नहीं पहुँच रही थी।
‘‘भाई साहब, अप्पू कहीं है ?’’ विमला ने पूछा।
‘‘घर में होगा। क्यों ?’’
‘‘अभी उसका मैसेज आया है कि वह घर छोड़कर जा रहा है। मैं उसका मोबाइल ट्राई कर रही हूँ तो वह स्विच ऑफ आ रहा है। पता नहीं क्या हुआ। प्लीज जरा आप जा कर देखिए न।’’
‘‘मैं बस पहुँचने ही वाला हूँ। जाकर देखता हूँ फिर बताता हूँ।’’
बात खत्म हो गयी। विमला की बेचैनी और बढ़ गयी। पता नहीं किस बात से अप्पू दुखी है ? ज़रूर वह रमेश जी से नाराज़ हो गया होगा। अगर कोई बात थी तो उसे विमला से बताना चाहिए था। क्या अब वह अपनी माँ पर भी भरोसा नहीं करता ?
विमला बालकनी में आकर खड़ी हो गयीं। सड़क पर सन्नाटा पसर गया था। दस-साढ़े दस बजे रात के बाद पटना की सड़कें सूनी होने लगती थीं। शहर अपनी देह सिकोड़ने लगता था। इस वक़्त आकाश एकदम मटमैला दिख रहा था। दूर कुछ पेड़ हिलते दिख रहे थे। हल्की सरसराहट सुनाई देने लगी थी। ये आँधी के लक्षण थे।
उस दिन भी जबर्दस्त आँधी आयी थी जिस दिन अप्पू पैदा हुआ था। अप्पू के जन्म के एक दिन पहले वह डॉक्टर सुनन्दा के यहाँ गयी थीं और कहा था कि वह उन्हें एडमिट कर लें। लेकिन डॉक्टर ने यह कहते हुए मना कर दिया कि हड़बड़ाने की कोई जरूरत नहीं है। अभी चार-पाँच दिन देर है। लेकिन अप्पू महोदय आने के लिए हड़बड़ाए हुए थे। विमला को शाम में दर्द शुरू हो गया। तुरन्त समझ में आ गया कि अब चलना ही होगा। इधर दर्द शुरू हुआ उधर तेज अँधड़ आ धमका। लगा कि पूरे शहर को उड़ाकर कहीं दूर फेंक देगा। विमला अपने मायके लोहानीपुर में थीं। वहाँ से राजेन्द्र नगर का तीन से चार किलोमीटर का सफर ही इतना कठिन और भयावह हो जाएगा, यह उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। संयोग से उनका भाई रजनीश घर में था। वह रिक्शा लाने दौड़ा। कहीं कोई रिक्शा दिख ही नहीं रहा था। बड़ी मुश्किल से एक रिक्शेवाले को उसने हाथ-पैर जोड़कर चलने को तैयार किया। किसी तरह विमला और उनकी माँ उस पर बैठीं। रजनीश पीछे से रिक्शे को धक्का दे रहा था। लगता था कि हवा ने रिक्शे को आगे न बढ़ने देने की ज़िद ठान ली है। रिक्शावाला आगे से खींच रहा था और रजनीश पीछे से ठेल रहा था। विमला को कुछ देर के लिए तो ऐसा लगा कि यह उनके जीवन का आखिरी क्षण है। उस वक्त उनके सामने अभय का चेहरा घूम रहा था। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की किसी तरह उसका जीवन पार लग जाए। उसके बाद उन्हें ठीक से कुछ भी याद नहीं। उन्हें यह याद है कि एक बार रिक्शा पलटते-पलटते बचा। उसके बाद जब उनकी आँखें खुलीं तो उन्होंने अप्पू को अपने बगल में पाया। उस वक़्त उन्होंने अद्भुत शान्ति महसूस की। वैसा सुकून फिर आज तक कभी नहीं मिला।
तभी विमला का मोबाइल बजा। अनिरुद्ध बाबू का नम्बर था। विमला की धड़कन बढ़ गयी।
‘‘क्या हुआ भाई साहब ?’’ उन्होंने काँपते हुए पूछा।
‘‘बाहर से तो लॉक है। हमने गेटकीपर से भी पूछा तो वह कह रहा है कि उसे जाते हुए नहीं देखा। मैंने दबरान को अपना नम्बर दे दिया है। अगर उसको अप्पू दिखेगा तो वह बताएगा। कहाँ चला गया पता नहीं। दो-तीन दिन से मैं भी थोड़ा काम में बिजी था सो उससे मिल नहीं पाया। हालाँकि वह तो कुछ बोलता ही नहीं है। हर समय कहता है सब ठीक है।... आप निश्चिन्त रहिए मैं पता करके बताऊँगा।’’
कैसे निश्चिन्त रह सकती हैं विमला। हर समय उन्हें अपने बेटों की फिक्र लगी रहती थी। अभय के अमेरिका जाने के बाद से तो हर समय उनकी नींद उड़ी रहती थी। अखबार में हर समय वह इंटरनैशनल खबरें खोजतीं ख़ासकर अमेरिका की खबरों को ध्यान से पढ़तीं। जब भी वहाँ किसी भारतीय पर हमले का कोई समाचार होता, वह परेशान होकर अभय को फोन मिला देतीं थीं। उन्हें इस बात का सन्तोष था कि चलो अप्पू अभय से भी ज़्यादा दूर निकल चुका है शायद...।
उन्हें याद आया कि पिछली बार जब वह दिल्ली गयी थीं तो उन्होंने अप्पू के ठीक बगल में रहने वाली एक महिला से बातचीत की थी। उसने अपना नम्बर दिया था। विमला उसका नम्बर खोजने लगीं। उन्होंने उसका नम्बर ले लिया था ताकि अप्पू के बारे में जानकारी ली जा सके। उन्होंने नम्बर मोबाइल में रखने की बजाय अपनी डायरी में कहीं लिख रखा था। वह डायरी पलटने लगीं। तभी मोबाइल बज उठा। अनिरुद्ध बाबू की आवाज आयी, ‘‘भाभीजी कुछ पता नहीं चल रहा है। हमारे एक मित्र हैं असिस्टेंस पुलिस कमिश्नर, सोच रहे हैं उनको बता दें। लेकिन रमेश जी कह रहे हैं रात भर देख लेने के लिए।’’
‘‘रमेश जी की बात छोड़िए न। उनको क्या मतलब है ?’’
‘‘क्या बात कर रही हैं आप। वो तो बेचारे बहुत परेशान हैं। ऐसे में कोई भी होगा।’’
‘‘खैर, अब आपको जो सही लगे कीजिए।’’ यह कहकर विमला ने कट कर दिया। रमेश जी की चर्चा आ जाने से उनका मन खिन्न हो गया था। वह फिर उस महिला का नम्बर तलाश करने लगीं। आखिरकार नम्बर मिल गया। उन्होंने जल्दी-जल्दी नम्बर डायल किया। नम्बर मिलते ही वह कहने लगीं, ‘‘हैलो, मैं पटना से बोल रही हूँ मिसेज त्रिपाठी। आपके बगल वाले फ्लैट में मेरा बेटा रहता है। पहचाना आपने ?’’
‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं पहचानूँगी। आपने बहुत बढ़िया अचार दिया था।’’
‘‘सा‘‘री, मैंने आपको इस टाइम में फोन किया। आपकी एक हेल्प चाहिए, प्लीज।’’
‘‘हाँ, हाँ कहिए न।’’
‘‘मेरा बेटा घर में नहीं है शायद। उसका सेलफोन लग नहीं रहा। अगर वह आ जाए तो जरा कहिएगा वह मुझसे बात करे।’’
‘‘लेकिन वह तो घर में है ही। उसकी लाइट तो जल रही है। हाँ, कुछ देर पहले नहीं जल रही थी। हमलोग खाना खाकर चक्कर काटने गये थे, तब अँधेरा था। लगता है अभी-अभी आया है।’’
विमला को लगा जैसे उनकी साँस वापस आयी हो। उन्होंने उस महिला से प्रार्थना की, ‘‘प्लीज, जरा उससे बात करवा दीजिए।’’ थोड़ी देर बाद उधर से अप्पू की आवाज आयी, ‘‘हाँ माँ...।’’ उसकी आवाज में थरथराहट थी। लग रहा था जैसे दूर से भागता हुआ आया हो।
‘‘तुम कहाँ थे बेटा ?’’ विमला की आवाज भर्रा गयी थी।
‘‘अप्पू ने कहा, ‘‘मेरे मोबाइल पर करो।’’
विमला ने जल्दी से उसका मोबाइल मिलाया, ‘‘हाँ बेटा, तुमको क्या हो गया है।’’
‘‘कुछ नहीं।’’
‘‘तुम कहाँ चले गये थे ?’’
‘‘बस ऐसे ही।’’
‘‘फिर तुमने ऐसा मैसेज क्यों किया ?’’ उधर से कोई आवाज नहीं आयी। विमला ने बार-बार अपना सवाल दोहराया लेकिन उधर से जवाब नहीं मिला।
‘‘खाना खा चुके ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘ठीक है सो जाओ। कल बात करते हैं।’’ यह कहकर विमला ने फोन काट दिया। उन्होंने जल्दी से अनिरुद्ध को फोन करके यह बात बताई और यह भी कहा कि वह रमेश जी को सूचित कर दें।
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