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भटको नहीं धनंजय

पदमा सचदेव

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :110
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 749
आईएसबीएन :81-263-0778-1

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महाभारत की नायिका द्रौपदी के जीवन पर आधारित उपन्यास...

Bhatko Nahin Dhanajay

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डोगरी की प्रतिष्ठित कवि-कथाकार और हिन्दी की जानी-मानी लेखिका पद्मा सचदेव का नवीनतम उपन्यास है ‘भटको नहीं धनंजय’। महाभारत के विख्यात नारी पात्रों की तरह द्रौपदी की पीड़ा भी विख्यात है। उनकी पीड़ा को कितने ही लेखकों ने वाणी दी है। महाभारत की तो नायिका वही है। कहना न होगा कि द्रौपदी की त्रासदी अपनी जगह है,लेकिन उसके वियोग में अर्जुन का लम्बा संघर्ष और सन्त्रास भी कम नहीं है। अपनी पत्नी को अपने भाइयों के बीच बँटी हुई देखने से बड़ा कोई कष्ट किसी पुरुष के लिए भला क्या हो सकता है।–और अर्जुन ने यही कष्ट और उससे उपजी भटकन को जिया-भोगा था। दरअसल ‘भटको नहीं धनंजय’ में अपने समय के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर की उसी यातना की कथा है-पूरी कलात्मकता के साथ। पद्मा सचदेव ने महाभारत के इस सन्दर्भ को सम्भवतः पहली बार अपने उपन्यास में पूरी आत्मीयता के साथ सशक्त अभिव्यक्ति दी है। प्रस्तुत है उपन्यास का नया संस्करण।

भूमिका

महाभारत सात समुद्रों से भी विशाल है। ‘भटको नहीं धनंजय’ में मैंने एक बूँद लेकर कुछ पृष्ठ भिगोने का यत्न किया है। कई दिन अर्जुन पीछे पड़े रहे। अर्जुन को त्रासदी भोगते-भोगते मैं बहुत कुछ अर्जुन हो गयी-अर्जुन, जो द्रौपदी भी है। स्त्री की त्रासदी को भोगने का अभ्यास होता है, फिर भी त्रासदी तो है ही। यन्त्र बन जाने की त्रासदी बड़ी भयानक है, पर वीर पुरुष के लिए अपनी पत्नी बाँटने के अपमान से बड़ा कोई अपमान नहीं। दोनों को जिया है मैंने, और उसी तरह काग़ज़ पर उतारने का यत्न किया है मैंने।
भटकने की त्रासदी भी काफ़ी भयानक है। इस द्वार को पार कर लेने के बाद भटकन बढ़ती ही जाती है। ठहराव कहीं नहीं मिलता। इसका कोई समाधान भी नहीं है। सभी द्वार लाँघकर अपनी ही दहलीज़ पर ठहराव मिलता है। पाठक ही बता पाएँगे-मुझे ठहराव मिला है या नहीं।
जंगल में आग लगते, फैलते, बढ़ते और आग-ही-आग होते देखना एक अनूठा अनुभव है। देखते-देखते एक चिनगारी कैसे दावानल होकर सब-कुछ अपने भीतर निगलती जाती है-पलक झपकते ही कितना-कुछ समा जाता है इस आग के समुद्र में, कि आग के सुन्दर रंग में खोया मनुष्य यह सोच भी नहीं पाता। ऐसी आग से बच के निकलना भाग्य के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ?

खाण्डव वन के लाक्षागृह को पुरोचन ने बड़ी कुशलता से बनाया था। ज्वलन सामग्री पर इतना सुन्दर भव्यता का आवरण देखकर कौन माई का लाल कह सकता होगा कि यह दुर्योधन ने पाण्डवों को समाप्त करने के लिए निर्मित किया है। खाण्डव वन के लोग भी कितनी आतुरता से पाण्डवों के वहाँ आकर रहने की प्रतीक्षा कर रहे थे। और आज वो लाक्षागृह धू-धू करके जल रहा था।
भीम ने बड़ी चतुराई से सुरंग पर से एक बड़ा पत्थर हटाकर सबको बाहर निकलने को कहा फिर एक कन्धे पर माँ को बिठाया और दूसरे हाथ से सुरंग का पत्थर दोबारा ठीक से बिठाकर शीघ्रता से सुरंग से बाहर निकलने लगा। प्राणों का मोह त्यागकर तीव्रता से बढ़ते कदम थोड़ी कच्ची सुरंग में भयभीत हुए बिना आगे बढ़ रहे थे। जितनी शीघ्रता से इनके कदम बढ़ रहे थे, वैसे ही आँच भी पीछे-पीछे भागती चली आ रही थी थोड़ी देर में ही लौ का उजियारा भीतर तक झाँकने लगा। पाण्डवों के पग और शीघ्रता से आगे बढ़ने लगे। बाहर एकदम घना जंगल अँधेरे का मुँह खोले सुस्ता रहा था।
बाहर निकलते ही भीम ने माँ को घास पर लिटा दिया। भाइयों की अनदेखी करके उसने एक तरफ़ पत्तों से झरते पानी के कुण्ड में से अपनी विशाल अंजलि भरी और माँ के माथे पर गिरा दी। कुन्ती हाँफकर उठ बैठी। कुछ जल उसके मुँह में चला गया था। उसने अपने पुत्रों को सामने देखकर प्रसन्नता से कहा, ‘‘पुत्रो, जल बहुत मीठा है। जाओ सभी जल ग्रहण करो।’’
मौत के जबड़े खोलकर बच आने के बाद यह कहना जैसे जीवन का द्वार खोलना था। सबने कहा, ‘‘जो आज्ञा माँ।’’
जल ग्रहण करने के बाद भीम ने युधिष्ठिर से कहा, ‘‘भैया अग्नि की आँच बयार के साथ यहाँ भी पहुँच रही है। पहले हमें इस क्षेत्र से निकल जाना चाहिए। यह पगडण्डी कहीं तो जाएगी ?’’

युधिष्ठिर बोले, ‘‘भीम, इस पगडण्डी से हम नहीं जाएँगे। यहाँ कोई भी जाँचने आ सकता है। जिन्होंने इतनी कुशलता से लाक्षागृह बनवाया वो इतनी सहजता से न जाने देंगे। यहाँ से निकलने के लिए सबसे कठिन राह चुनो। कम-से-कम उस पर कोई शत्रु न होगा। महात्मा विदुर के गुप्तचर तो हमें पा ही लेंगे।’’

‘‘जो आज्ञा,’’ कहकर भीम ने एक लम्बा और मोटा वृक्ष जड़ से उखाड़कर जड़ पाँव से समतल कर दी। फिर उसके पत्ते उखाड़कर इधर-उधर बिखेर दिये। एक दुर्गम राह के पत्ते हटाता भीम सबको आगे करके ले जाने लगा। राह में से निकलते ही पत्ते सिकुड़कर फिर खिल जाते तो यह जानना असम्भव-सा लगता कि यहाँ कभी कोई राह भी होगी। वन में चिड़ियाँ कलरव मचाकर अपने-अपने घोंसले में जा बैठी थीं। झींगुरों को बोलने का मौक़ा लग गया था। काफ़ी देर चलने के बाद पाण्डव एक ऐसे स्थान पर आकर रुके जहाँ पीपल के भव्य वृक्ष के नीचे घास बिछौने की तरह बिछी हुई थी। यहाँ तक न कोई पगडण्डी आ रही थी न कोई राह थी। दूर कहीं से नदी का हल्का-हल्का स्वर कानों में रस घोल रहा था। सब लोग वहीं आकर बैठ गये। भीम ने युधिष्ठिर की तरफ़ देखा। मानो पूछ रहा हो-‘‘अब क्या आज्ञा है ?’’
युधिष्ठिर ने पूछा, ‘‘भीम, आस-पास कहीं फलों के पेड़ अवश्य होंगे।’’

भीम उठा और अँधेरे जंगल में घुस गया। नकुल, सहदेव ने बहुत से पत्ते बटोरकर एक नर्म शय्या बिछाकर कुन्ती को वहाँ बैठने का आग्रह किया। अब इस स्थान के स्वर मुखर होने लगे थे। कहीं से बूँद-बूँद जल झर रहा था। उसका स्वर एक लय में यूँ ही आ रहा था जैसे जंगल का ही हिस्सा हो। नकुल ने पलाश के पत्तों का दोना बनाकर जल भरा और माँ कुन्ती के चरण धोकर बड़े भइयों के चरण धोये। पत्तों के बिछौने पर सुख से बैठे युधिष्ठिर ने देखा-कहीं से झोली भरकर फल ले आया है भीम। भीम ने उत्तरीय में बँधे फल झरने पर धोये। फिर माँ के आगे रख दिये। एक बहुत बड़ा पका हुआ कटहल चम्पे की तरह महक रहा था। भीम ने धीरे-से कहा, ‘‘माँ यह मैं खाऊँगा।’’

माँ मुस्करा उठी, उसने सबको फल देकर कहा, ‘‘आज का भोजन बड़ा उत्तम है। मेरे भीम के रहते कोई भूखा नहीं रह सकता।’’
कृष्ण पक्ष की इस अँधेरी रात में रजाई में दुबके चाँद ने ज़रा-सा कोना उठाकर सोचा यहाँ इस निर्जन में कौन सा-संसार बस गया है ?
युधिष्ठिर ने फल खाते-खाते कहा, ‘‘धरती सबका ध्यान रखती है। वो माँ की भी माँ है। कल दिन में जब हमारी माँ ने भोज दिया था तब भीलनी और उसके पाँचो पुत्र मदिरा पीने के बाद इतने मत्त हो गये कि उठकर घर ही न जा सके। आग भड़कते ही जब चट-चट की ध्वनि आ रही थी तब भी मुझे उन्हीं का ध्यान था।’’

अर्जुन ने कहा, ‘‘भैया, भगवान् किस-किस राह से आकर समस्या सुधार जाता है, उसमें मनुष्य का गुजर नहीं है। भीलनी और उसके पाँच पुत्रों के कंकाल देखकर सब समझ रहे होंगे पाण्डव जल मरे।’’
इस वाक्य ने सबको वास्तविकता में लाकर पटक दिया। बिना कुछ बोले सब अपनी-अपनी पुष्पशय्या पर सोते ही निद्रा में लीन हो गये। इस शयनागार में सोने से पहले जब भीम सतर्क होकर बैठने लगा तब युधिष्ठिर ने कहा था, ‘‘भीम यहाँ तुम्हारी सतर्कता की कोई आवश्यकता नहीं। तुम हम सबको उठाकर लाए हो अब तुम सो जाओ। नकुल और सहदेव बारी-बारी से प्रहरी होंगे।’’ जैसे ही भीम अपनी शय्या पर लेटा, टाँगें पसारीं तो उसके खर्राटे हवा में भयावह लहर-सी रचने लगे।

युधिष्ठिर ने मन में सोचा कितना सरल है भीम, निद्रा इसके वश में है। सबको मौत के मुँह से निकाल लाया और चेहरे पर कोई लक्षण नहीं। कल जब महात्मा विदुर का सन्देश आया था कि पुरोचन आज ही कृष्णपक्ष में लाक्षागृह में आग लगा देगा तब माँ भोज की तैयारी कर रही थी। फिर कितनी ऊहापोह, कितनी हड़बड़ी, कितनी अनिश्चितता। भगवान् का धन्यवाद करके युधिष्ठिर बाँयीं तरफ़ करवट बदलकर सोने लगे।
नकुल ने सहदेव से कहा, ‘‘तुम भी भीम भैया के चरणों की तरफ़ सो रहो। तुम्हारी आधी शय्या पर तो उनके चरण ही हैं। नक्षत्रों की सहायता से आधी रात जानकर मैं तुम्हें जगा दूँगा।’’

धीरे-धीरे सबको निद्रा ने अपनी गोद में सुला लिया तो नकुल सजग हुए। उनके भीतर का एक प्रहरी जग पड़ा। उसने देखा निस्तब्ध रात्रि में माँ कुन्ती एक छुई-मुई बच्ची की तरह घुटने जोड़े निश्चिन्त होकर सो रही हैं। युधिष्ठिर भी अपनी बायीं करवट पर जमें हुए सो रहे थे। भीम एकदम पहाड़ की तरह सीधा निश्चल निश्चिन्त ! उसके चरणों के पास सहदेव गणपति के चरणों में पड़ा मूषक-सा लग रहा था। अर्जुन का एक हाथ गाण्डीव पर था दूसरा वृक्ष के तने पर अधलेटा-सा पड़ा था। नकुल ने तृप्ति से सबको देखकर आकाश में अदृश्य को प्रणाम करके धन्यवाद दिया। उसकी अवरुद्ध वाणी से टूट-टूटकर शब्द झरे।

‘‘हे परमेश्वर, हम पाँचों भाई, माँ कुन्ती के साथ यहाँ तुम्हारी ही अनुकम्पा से जीवित हैं। अपनी दया बनाये रखना।’’ अपनी आँखों का जल पोंछकर उसने मुँह धो लिया, फिर प्रहरी के स्थान पर जा बैठा। रात कितनी सुन्दर हो सकती है, नकुल ने देखा। पीपल एक बुजुर्ग की तरह निस्तब्धता की चादर ओढ़े जैसे सब पर दृष्टि रख रहा था। उसकी शाखाओं में छुपे कितने ही घोंसलों में पक्षी शान्ति से सो रहे थे। आकाश टाँग पर टाँग रखे जैसे घर का बड़ा परिवार का लेखा-जोखा कर रहा हो। छोटे-छोटे शोर एक होकर बह रहे थे। भीम के खर्राटे भी गहरी नींद में बदल गये थे। सिर्फ उसकी मूँछ साँस के आवन-जावन से ऊपर-नीचे हो रही थी। अदभुत् था। वृक्ष तोड़कर बनाया हु्आ लट्ठ पास ही पड़ा था। ऊपर-नीचे होते देह पर उत्तरीय उड़ता तो लगता भीम शायद सो नहीं रहा। सबसे निश्चिन्त थी माँ कुन्ती। अपने पुत्रों के मध्य सोयी मणि की तरह शोभायमान थी। युधिष्ठिर किसी देवपुरुष की भाँति कुछ चिन्तन-सा करते प्रतीत होते थे।

सहदेव मुस्कराया, फिर सन्तोष सुख में झूलने लगा। नदी का स्वर कुछ मुखर हो उठा था। सहदेव को एकदम याद आया महात्मा विदुर ने गंगा का नाम लिया था। विदुर के प्रताप से ही हम सब सुरक्षित हैं। कुन्ती की ओर स्नेह से देखकर सहदेव ने सोचा। माँ यह तुम्हारी ही तपस्या का परिणाम है। तुम्हारे पाँचों पुत्र तुम्हारे पास हैं। कल भीलनी माँ के पाँचों पुत्रों की अस्थियों का संस्कार करने कौरव आएँगे। भीष्म पितामह को ही सब करना पड़ेगा। पितातुल्य विदुर न होते तो संस्कार तो हमारा ही होता।
सहदेव को अकस्मात् लगा अँधेरा और गहरा गया है। आधी रात के इस अमूल्य क्षण का अँधेरा जब सो जाता है, रात करवट बदलती है, निद्रा का जादू सब पर फैल चुका होता है। सहदेव ने सोचा मुझे तो नींद नहीं आ रही पर नकुल भैया को न जगाया तो अवज्ञा करके दण्ड भुगतना पड़ेगा। अभी सहदेव सोच में था कि किस तरह नकुल को जगाऊँ ताकि भीम भैया भी न जग जाएँ। तभी नकुल धीरे-से उठकर उसके पास आ गया और बोला, ‘‘लगता है आधी रात हो गयी। बड़ी प्यास भी लग रही है। जल लाकर दे।’’
‘‘जो आज्ञा।’’

सहदेव ने सबके सो जाने पर पलाश का एक बड़ा दोना बनाकर बूँद-बूँद टपकते पानी के नीचे रख दिया था। वही ढुल-ढुल करता दोना उसने नकुल के हाथों पर रखा। नकुल ने पानी के छींटे मुँह पर मारकर जल पी लिया और पूरी तरह जग गया। झरने के नीचे दोना रखा तो जंज़ीर खनकने जैसा स्वर आ-आकर दोने में झरने लगा। रात की चुप्पी मुखर हो उठी।
नकुल ने सोचा आस-पास का अवलोकन करना चाहिए। पीपल के पत्ते भी अब ऊँघ रहे थे। नकुल को यह देखकर सन्तोष हुआ। कितने समय के बाद सब तृप्ति की नींद सो रहे हैं। लाक्षागृह में पुरोचन की उपस्थिति ही सोने न देती थी। हर क्षण धड़का लगा रहता था। इधर-उधर देखकर नकुल की दृष्टि भुरुकुवा* पर अटक गयी। उसने देखा तारों के बीच कैसे राजा लग रहा था। एकदम उज्ज्वल, स्वच्क्ष और नीरोग। पौ फटने के पहले जब यह आकाश पर अकेला रह जाएगा तब यह कितना भव्य लगेगा।

माँ कुन्ती के कोमल शिशुवत् चेहरे का सन्तोष तारों की रोशनी में झिलमिला रहा था।। अचानक कहीं से गाय के रँभाने की आवाज़ सुनाई दी। पशुओं का प्रेमी नकुल चौकन्ना हुआ। इस निर्जन में गाय कहाँ है ? उसने सधे हुए हाथ-पैरों से पीपल की फुनगी तक जाने का विचार किया। कहीं बहुत दूर टहनियों पर हाथ-पाँव साधे नकुल ने देखा, भुरुकुवा का अंग-अंग निचुड़कर जैसे एक लकीर-सी बन गया था। पूरे अस्तित्व को कई गुणा बढ़ाकर गंगा की छाती पर लोट रहा था। नकुल मुग्ध हो गया।
गाय के रँभाने का स्वर फिर सुनाई दिया। उसने देखा सिर पर एक बड़ी-सी गठरी लिये हाथ में बछड़े की डोरी थामे एक ग्रामीण कुछ गा रहा था। चौकन्ना हुआ नकुल। उसमें विदुर का भाव था। ठीक महात्मा विदुर का। जिस तरह धीरे-से नकुल पीपल की फुनगी तक गया था, वैसे ही उतर आया। उतरते समय ज़रा-सी असावधानी से धम्म का स्वर होते ही युधिष्ठिर उठकर बैठ गये। अर्जुन का हाथ गाण्डीव पर चला गया और भीम ने लट्ठ पर हाथ रखा। नकुल ने कहा, ‘‘प्रातः अनुकूल सन्देश लायी है। महात्मा विदुर का कोई गुप्तचर हो सकता है। गाय और बछड़ा भी है।’’
अर्जुन और युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘चलो देखते हैं।’’
नकुल ने कहा, ‘‘भैया, आप झरने पर हाथ-मुँह धोकर स्वस्थ हो लें। मैं उन्हें टोहकर यहीं ले आऊँगा।’’
युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘ठीक है ऐसा ही करो।’’

नकुल के साथ जिस व्यक्ति ने प्रवेश किया यह वही व्यक्ति था जो कितनी बार पुरोचन की अनुपस्थिति में लाक्षागृह आ चुका था। युधिष्ठिर को देखते ही उसने कहा, ‘‘महाराज, सारी रात ढूँढ़ते ही बीत गयी। आप किस मार्ग से आये जान न पाया। नौका का प्रबन्ध करके गाय साथ लाने की आज्ञा थी। अब तो लगता था आपको न पा सकूँगा। बछड़ा भूखा था, उसकी रस्सी मेरे हाथ में थी। गाय के थन दूध से भरे हैं। वह न रँभाती तो कहाँ नकुल को पाता।’’
युधिष्ठिर ने हँसकर कहा, ‘‘अब सिर से यह गट्ठर उतारो और नन्दीजी को छककर दूध पीने दो।’’
गुप्तचर ने धीरे-से कहा, ‘‘यह ब्राह्मणों के वस्त्र हैं। आप इसी वेष में दक्षिण जाएँगे। यही आज्ञा है। बछड़ा तो दूध ऐसे पीने लगा है जैसे बूँद भी न रहने देगा। माँ भी कैसी तृप्ति से खड़ी हो गयी है।’’
कुन्ती, जो अब तक सबकी बातें सुन रही थी, बोली-‘‘माँ को अपने बच्चों की तृप्ति से अधिक सुख कहीं नहीं मिलता।’’
गुप्तचर ने कहा, ‘भोर होने से पहले गंगा पार करना उचित होगा। आप शीघ्रता से वस्त्र पहनिए। जो वस्त्र पहने हैं उन्हें यहीं कहीं गाड़ देना होगा।’’

कुछ ही देर में एक नाव पर पाँच ब्राह्मण एक दिव्यजोत स्त्री के साथ नौका पर गंगा के चौड़े पाट को प्रणाम करके जा रहे थे। नाव मछली की तरह तैर रही थी। भुरुकुवा आकाश पर अबोला मुग्ध होकर देख रहा था।
एक वन से दूसरे वन में से निकलते, प्रकृति की शोभा देखते, सरोवरों में नहाते, अग्निहोत्र यज्ञ करते पाण्डव पूर्णतया सन्तुष्ट थे। सबके तन पर ब्राह्मणों के वस्त्र थे। कुन्ती भी तापसी वेष में थी। पाण्डव मार्गों को पूरी तरह जीते कभी शीघ्रता से कभी धीरे चलते। जहाँ भी भगवत्-भजन होता सुनते, शास्त्रों का मर्म समझते, उपनिषद की तहों तक जाते मार्ग व्यतीत कर ही रहे थे कि एक दिन मार्ग में ही उन्हें महर्षि व्यास के दर्शन हो गये। व्यासजी ने प्रसन्न होकर कहा, ‘‘मेरा ध्यान आप ही की तरफ था। महात्मा विदुर के आश्वासन के बाद भी जब आपको देखे बग़ैर न रह सका तब मार्ग छानने लगा। आज आपको पाकर बहुत प्रसन्न हूँ। अब आप मेरी बात मानकर एकचक्रा नगरी में चले जाइए। यह पास ही में है। वहाँ एक ब्राह्मण के घर मैं आपको पहुँचा दूँगा। कभी-कभी आने का सुयोग भी रहेगा।’’ फिर उन्होंने कुन्ती से कहा, ‘‘देवी, तुम्हारे पुत्र धैर्यवान हैं। ये निश्चय ही प्रथ्वी को जीतकर उस पर शासन करेंगे। तुम्हारे और माद्री के पुत्र महारथी होंगे। अब चलो, मैं तुम सबको ब्राह्मण के घर ठहरा देता हूँ। एक माह बाद फिर आऊँगा।’’
ब्राह्मण के घर रहकर पाण्डव महात्माओं की संगति में धर्मोपदेश सुनते और दिन मे भिक्षाटन करते। अपने उत्तम गुणों के कारण पाण्डव सबके प्रिय हो गये। धैर्य के साथ कथा-वार्त्ता सुनते और सबके साथ मिलकर रहते।

प्रतिदिन वे भिक्षा लाकर माँ के पास आते। माँ नियम से भिक्षा के दो भाग करती, एक भाग भीम के लिए, दूसरे में से शेष चारों भाइयों और कौए, कुत्ते, गाय के लिए। और सब अन्न पाते। एकचक्रा नगरी में भिक्षा भी बड़ी उत्तम मिलती थी। इस प्रकार नियम से दिन निकल रहे थे। पाण्डवों को इस नियम में रहकर कभी स्मरण ही नहीं रहता था कि वे कौन हैं ?
एक दिन जब सभी भाई भिक्षा के लिए जाने लगे थे तो भीम किसी कारणवश माँ के पास ठहर गये। उसी दिन ब्राह्मण के घर में बड़ी चिन्ताजनक बातें सुनाई पड़ने लगीं। कुन्ती का जी भर आया। उसने ब्राह्मण के घर जाकर इस चिन्ता का कारण पूछा तो मालूम हुआ-‘‘यमुना तट पर दो कोस की दूरी पर एक बहुत बड़ी गुफा में एक नरभक्षी राक्षस रहता है। वह इस नगरी का पालक है। शत्रुओं से इस नगरी की सुरक्षा करता है। इस सुरक्षा के बदले कर के रूप में उसे हर दिन खाने के लिए एक पशु, एक मनुष्य और भोजन देना पड़ता है। हर घर की बारी बँधी रहती है। यह बारी चाहे डेढ़-दो बरस के बाद आये, पर इसका धड़का हर रोज हर पल लगा रहता है। यह नगरी इसी त्रासदी में जी रही है। समय आते ही हर कोई अपने परिवार के लिए मर-मिटना चाहता है। हमारे घर में भी हर प्राणी मरने के लिए प्रस्तुत हो रहा है। यह विवाद उसी का परिणाम है। आज हमारा दुर्दिन है, बहन।’’

कुन्ती ने कहा, ‘‘ब्राह्मण महोदय आप विषाद मत करें। मुझे एक उपाय सूझ रहा है। आप तो जानते ही हैं मेरे पाँच आज्ञाकारी पुत्र हैं। उनमें से यदि एक चला भी जाए तो कोई बात नहीं। उस पापी राक्षस को सामग्री पहुँचाने मेरा एक पुत्र चला जाएगा।’’
ब्राह्मण ने कानों को हाथ लगाकर कहा, ‘‘देवी, यह कभी नहीं हो सकता। अपने घर में आये अतिथि का मैं अपनी रक्षा के लिए वध करवाऊँ, ऐसा पाप करके मैं जी नहीं सकता।’’
कुन्ती ने कहा, ‘‘हम इतने समय से यहाँ रह रहे हैं, अब हम भी इसी परिवार के सदस्य हैं। हमें अतिथि मत कहिए। मैं आपका कष्ट बाँटना चाहती हूँ।’’
ब्राह्मण ने कहा, ‘‘देवी, कष्ट तो आपने बाँट लिया। अब इस विषय में और बात नहीं होगी।’’
कुन्ती ने सोचा अब इन्हें कुछ-न-कुछ बताना पड़ेगा। उसने कहा, ‘‘मेरा पुत्र बलवान है। उसने कई राक्षस मारे हैं। उसके पास राक्षसों को मारने के लिए एक मन्त्रशक्ति है पर यह बात आप किसी से नहीं कहेंगे। मेरा आपसे अनुरोध है कि मेरे पुत्र को राक्षस के पास जाने दीजिए।’’

ब्राह्मण मन्त्रशक्ति की बात सुनकर मान गया। फिर कुन्ती ने युधिष्ठिर से सलाह करके भीम को बकासुर राक्षस के पास सामग्री लेकर भेज दिया।
भीम आज इतना भोजन पाकर ख़ूब प्रसन्न हुआ। उसने राक्षस की गुफा से थोड़ी दूर रुककर पहले भोजन किया। फिर घड़ा भरा दही पीना चाहता था कि बकासुर ने आकर उसे धक्का दिया। भीम ने एक हाथ से बकासुर को पकड़ा और दूसरे हाथ से सारा दही पी गया। खाली घड़ा उसके सिर पर फोड़कर पूछा, ‘‘क्या बात है, मेरे भोजन के समय तुमने मुझे इस तरह क्यों छेडा़ ?’’
बकासुर ने कहा, ‘‘यह मेरा इलाका है और यहाँ रोज़ मेरा भोजन आता है। तुम मेरा ही भोजन करके मुझ पर बिगड़ रहे हो ?’’
भीम ने कहा, ‘भोजन तो मैंने कर लिया। अब आओ दो हाथ भी कर लें।’’
राक्षस भीम पर झपटा तो भीम ने उसकी लँगोट पकड़कर उसके हाथ-पाँव मोड़कर मिला दिये। राक्षस की रीढ़ की हड्डी चटकने के साथ ही उसका क्रन्दन पूरी नगरी ने सुना। राक्षस का शव घसीटकर भीम ने नगरी के द्वार पर रखा और घर चला गया।

लोगों ने बकासुर का शव देखकर सोचा ज़रूर किसी देवता ने इसे मारा है। ब्राह्मण की प्रसन्नता का ठिकाना न था। उन्हीं दिनों उसके घर एक बड़ा विद्वान ब्राह्मण आया, वो बड़ी सुन्दर कथाएँ कहता था। उस घर में ब्राह्मण द्वारा कथा कहने के समय पूरा घर लोगों से भर जाता था। पाण्डव भी नियम से कथा सुनने आते थे। कुन्ती के कहने पर उस पण्डित ने धौम्य पण्डित का पता देकर कहा कि आप इन्हें अपना पुरोहित नियुक्त करें। धौम्य पण्डित ही फिर उनके पुरोहित हुए।
उन्हीं दिनों द्रुपद की राजधानी में द्रौपदी के स्वयंवर का भी समाचार हर तरफ़ चर्चित था। हर कोई स्वयंवर देखने को उत्सुक था। पाण्डवों ने भी निश्चय किया कि हमें भी स्वयंवर में जाना चाहिए। व्यासजी के दर्शन भी उन्हीं दिनों हुए तो पाण्डवों ने अपने मन की मंशा कही। व्यासजी ने उन्हें आशीर्वाद देकर कहा, ‘‘द्रौपदी आप ही को मिलेगी। इसमें संदेह नहीं है। आप स्वयंवर में अवश्य सम्मिलित हों।’’ व्यासजी की आज्ञा ही से पाण्डव नगर के एक कोने पर साफ़-सुथरे इलाके में कुम्हार के घर ठहरे। वहाँ आस-पास स्वयंवर देखने आये कितने ही लोग ठहरे हुए थे। उत्सव में पूरी नगरी डूबी हुई थी। नगरी की चहल-पहल हर दिशा में थी। शंख, तुरही, मंगलनिनाद, नगाड़े और लोगों के उत्साहित स्वरों से पूरी नगरी गूँज रही थी।

स्वयंवर के लिए बड़े भव्य और सुन्दर भवन का निर्माण हुआ था। उसके बाहर चारों तरफ़ राजकुमारों के रहने के लिए सजाये हुए कई भवन थे। जी को लुभानेवाले खेल-तमाशों, प्रदर्शनों एवं गन्धर्वों के गायन का भी प्रबन्ध था।
स्वयंवर मण्डप की छटा निराली थी। वहाँ मंच पर एक वृहदाकार धनुष रखा हुआ था। इस धनुष की डोरी फौलादी तारों से बनी थी। ऊपर काफ़ी ऊँचाई पर सोने की मछली टँगी हुई थी। उसके नीचे एक चमकदार यन्त्र बड़े वेग से घूम रहा था। राजा द्रुपद ने घोषणा की थी, ‘‘जो राजकुमार उस भारी धनुष को तानकर डोरी चढा़एगा और ऊपर घूमते हुए यन्त्र के मध्य में से तीर चलाकर ऊपर टँगे हुए निशाने को बींध देगा, उसी को द्रौपदी माला पहनाएगी।’’
इस स्वयंवर के लिए दूर-दूर के अनेक क्षत्रिय वीर आये हुए थे। मण्डप में सैकड़ों राजा इकट्ठे थे। इनमें धृतराष्ट्र के सौ बेटे, अंगनरेश कर्ण, श्रीकृष्ण, शिशुपाल, जरासन्ध आदि भी शामिल थे। दर्शकों की भी भारी भीड़ थी। एक सधा हुआ कोलाहल पूरे मण्डप में था, जिसमें कृष्णा कृष्णा की ध्वनि आ रही थी।

कौन पाएगा इस अमूल्य रत्न को। पूरी राजधानी दुल्हन की तरह सजी थी। अपने घर में रहने की इच्छा ही न होती थी। सब लोग बार-बार मण्डप का चक्कर लगाते और भी जो नया सुन्दर वहाँ घटता उसकी बात उत्साह से करते। राजा द्रुपद ने यह लक्ष्य बड़े सोच-विचार के बाद बनवाया था। उन्होंने सुना था कि पाण्डव किसी प्रकार बच निकले हैं। उन्होंने सोचा यदि पाण्डव ज़िन्दा हुए तो वे इस स्वयंवर में अवश्य आएँगे और आये तो यह दुर्भेद लक्ष्य अर्जुन के अतिरिक्त कोई साध न पाएगा। द्रुपद द्रोणाचार्य की शत्रुता का विचार करके सदा चिन्तित ही रहा करते थे। इसलिए अपनी शक्ति बढ़ाने और द्रोण की शक्ति कम करने के विचार से पांचाल नरेश की इच्छा थी कि द्रौपदी का ब्याह अर्जुन से हो जाए ताकि उन्हें द्रोण की चिन्ता न रहे। स्वयंवर रचने का एक कारण यह भी था।
पौष मास की शुक्लपक्ष की एकादशी को रोहिणी नक्षत्र में स्वयंवर होना निश्चित हुआ। और यह तिथि कल ही है। सिर्फ़ आज की रात शेष है। कल भी निकलेगा सूर्य और कल ही किसी के गले में द्रौपदी जयमाला डालेगी।

अर्जुन का हृदय दही में घूमती मथानी के संग फिरते मक्खन के पेड़े की तरह गोल-गोल घूम रहा था। रात को जब पत्तों और पुआलों के नर्म बिछौने पर सबको नींद ने गोद में ले लिया तो अर्जुन जाग रहा था। सब तरफ़ शान्ति थी। अर्जुन ने बाहर आँगन के पिछवाड़े से आते बर्तन निकालने, टनकोर कर देखने और रखने के स्वर सुने। इस समय कुम्हार के सिवा कौन होगा। स्वयंवर में रंग किये सुन्दर बर्तन बिकने का भी सुयोग था। एक क्रम से बर्तन उठता, शायद फिरता, फिर हाथ में तौला जाता, टनकोरा जाता, फिर रख दिया जाता। जो बर्तन आवाज़ नहीं करता उसको अलग रखे जाने का स्वर आता।
ठक..टन...ठक...टन इन स्वरों के साथ जैसे अर्जुन का जागना भी अनिवार्य हो गया। धीरे-धीरे अतीत की चादर खुलने लगी। सलवटें सीधी होने लगीं और कई दृश्य उभरने लगे।

महात्मा विदुर वही करते हैं जो पिता होते तो करते। लाक्षागृह में यदि उन्हें .सुरंग खोदने का विचार न आया होता तो हम कहाँ होते। उस दिन कैसे सुरंग से पत्थर हटाकर भीम ने हम चारों भाइयों को निकाला। कैसे माँ को कन्धे पर बिठाकर सुरंग पर पत्थर रखा और उसमें से कैसे निकले ? माँ कुन्ती तो बेहोश थीं। एक बच्ची की तरह ही उन्हें भीम बाहर निकाल लाए। भीम को जैसे माँ के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई न दे रहा था। माँ को पानी से भिगोना, पानी पिलाना, घास पर लिटा देना-यह मल्ल योद्धा को कैसे-कैसे सूझा। यह तो सिर्फ़ माँ को अपने बच्चे के लिए सूझता है।

वह क्षण कैसा विकट था। उस समय लगता था पता नहीं कब समाप्त होगा। अब लगता है कभी था ही नहीं।
और वो क्षण भी आज कहाँ है। जब हम सब गुरु द्रोणाचार्य के साथ गंगा स्नान को गये थे। जल में गोता लगाते समय ग्राह ने द्रोणाचार्य का पाँव पकड़ लिया था। समर्थ होते हुए भी गुरू ने चिल्लाना शुरू कर दिया था, ‘‘मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो।’’ तब मैंने सिर्फ़ ग्राह को देखा और पाँच तीखे बाण चढ़ाकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। कितने प्रसन्न हुए थे आचार्य। उन्होंने मुझे ब्रह्मशिर नामक अस्त्र भी प्रदान किया था।
और उस दिन जब रात का भोजन करते समय दीया बुझ गया था। सभी शिष्यों के हाथ भोजन की थाली पर रुक गये थे। सिर्फ़ मैं ही खाता रहा था। तब द्रोण ने लक्ष्य करके कहा था, ‘‘यह मेरा शिष्य अर्जुन मेरा नाम उज्ज्वल करेगा। यही अँधेरे में तीर चला सकेगा।’’

अर्जुन ने मन में कहा, कल तीर तो रोशनी में ही चलकर लक्ष्यभेद करेगा। गुरु का आर्शीवाद चाहिए।
अर्जुन ने लक्ष्य किया। बरतनों का शोर बन्द हो गया है। रात चुप है। निद्रा की गोद में सोये हुए सभी चिन्तारहित हैं। मेरे सभी अपने मेरे ही पास हैं।
अर्जुन ने मुद्रा बदली। अपने दोनों हाथ सिर के पीछे रखे और सजग प्रहरी की मुद्रा में लेटकर उसे स्मरण हो आया। कैसे बचपन में ही उसे सब एक धनुर्धारी कहने लगे थे। मुझे कभी शर्म नहीं आयी। सिर्फ़ धनुर्धारी बनने का लोभ सिर उठाता रहा।
हाँ वह सब याद आ रहा है। जब राजकुमार भली-भाँति सुशिक्षित हो गये थे। तब गुरु द्रोण ने शिष्यों के अस्त्र ज्ञान की परीक्षा लेने का विचार किया। गुरु द्रोण ने कारीगरों से एक नकली गिद्ध बनवाकर वृक्ष की एक टहनी पर रखवा दिया। वो गिद्ध एकदम असली लगता था। गुरु द्रोण ने कहा, ‘‘तुम सब लोग धनुष लेकर उस पर बाण चढ़ाकर खड़े हो जाओ। मैं एक-एक को आज्ञा दूँगा। जो इस चिड़िया की आँख अपने बाण से बींध देगा वही विजयी होगा।’’

द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से आरम्भ करके सबसे बारी-बारी पूछा था, ‘‘तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है।’’ प्रायः सभी ने कहा था, ‘‘गुरुदेव हमें आप, यह वृक्ष और वह चिड़िया सभी कुछ दिखाई दे रहा है।’’ द्रोण ने सभी को झिड़क दिया। फिर अन्त में मुझसे पूछा था, ‘‘अर्जुन तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है ? मैंने ध्यान से देखकर कहा था, ‘‘गुरुदेव, मुझे चिड़िया की आँख के सिवा कुछ नहीं दिखाई दे रहा है।’’ गुरु द्रोण ने प्रसन्न होकर बाण चलाने की आज्ञा दी थी और चिड़िया की आँख भूमि पर आ गिरी थी। गुरु द्रोण ने मुझे गले से लगा लिया था।

पर आज यह सब क्यों स्मरण हो आया। मैंने तो कभी अपने आप से भी ये बातें न कही थीं। अर्जुन ने बायीं करवट ली।
कैसी होगी द्रौपदी, कृष्णा ? सुना है उसकी देह से निकलती सुगन्ध एक कोस तक रहती है। उसके बाल कमर के नीचे तक लहराते हैं। उसकी मदभरी आँखों पर दृष्टि नहीं ठहरती। वो मधुभाषिणी है। कृष्णा है। कृष्णा नाम सुन्दर है। फाल्गुन नाम भी सुन्दर है। फाल्गुन ही तो कभी-कभी कहती है माँ मुझे। बचपन का नाम। अर्जुन मुस्कराये। आँख लग गयी। फिर देखा- एक वन है शायद। बहुत सुन्दर जलाशय। उस पर एक रंग-बिरंगी चिड़िया उड़ रही है। अचानक वो वन एक मार्ग हो गया है जो स्वयंवर के मण्डप की तरफ़ जाता है। अर्जुन ने देखा, सारे भाई शीघ्रता से मण्डप की ओर जा रहे हैं और आगे-आगे वही चिड़िया है। एक मोड़ पर वृक्ष की टहनी से टकराकर गिरी है। अर्जुन ने तुरन्त उसे उठा लिया है। फिर भीम अपनी चौड़ी हथेली पर पानी लेकर उसे पिला रहा है। चिड़िया के स्वस्थ होते ही भीम ने उसे युधिष्ठिर के हाथ में दे दिया है। एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती हुई वो चिड़िया व्याकुल होकर अर्जुन को देखती है।

अर्जुन क्या करें ?
पसीने से तरबतर अर्जुन उठ बैठता है। उसका मन धौंकनी-सा चल रहा है। वो साँस धीरे लेता है ताकि उसके भाई न जग जाएँ। और जग जाने पर पूछ न लें, तुम्हें क्या हुआ। इसका उत्तर कहाँ है। स्वस्थ होने में समय लग रहा है। जल होता तो अच्छा था। कहाँ है जल। अर्जुन उठकर बाहर गया। बाहर रेत के ऊँचे स्थान पर जल की भरी गगरियाँ रखी थीं। अर्जुन ने एक गगरी सिर पर उँड़ेली। भीगने से सुख मिला। दूसरी गगरी का भी सारा पानी अर्जुन ने पी लिया। अभी भी चिड़िया की कातर दृष्टि देह पर चिपकी थी। अर्जुन ने सोचा रात को किसी और को भी प्यास लग सकती है और जल पीना उचित नहीं है।
पर आज और किसे प्यास लगेगी।
भीतर आकर अर्जुन ने सोचा-अब सो जाऊँगा। सोने से पहले उसने अपनी बगल में खाली स्थान छोड़ा और उस पर हाथ रखकर सो गया। उसे लगा यौवन प्यास लेकर आ गया है।

अगले दिन सभी उत्साहपूर्वक उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर तैयार हो गये। विदुर द्वारा भेजे गये और नये वस्त्र आ गये थे। उन्हें पहनकर सभी भव्य और तेजस्वी लग रहे थे। माँ वे सबको आशीर्वाद दिया। अर्जुन सबसे पीछे खड़े थे। माँ ने मुस्कराकर देखा। सिर पर हाथ रखा और कहा, ‘‘अर्जुन, मुझे बहू चाहिए। अपने फाल्गुन की बहू।’’
इस घर में पहली बार कुन्ती के अतिरिक्त किसी और स्त्री की बात हुई थी।
राह मंगलनिनादों से भरी-भरी मनुष्यों को कन्धे से कन्धा रगड़ते देख रही थी। सब अपनी धुन में जा रहे थे। कोई किसी की तरफ़ नहीं देख रहा था। सबको एक ही स्थान पर पहुँचना था। सभी के पाँव शीघ्रता से उठ रहे थे। पथ पर मनुष्यों के अतिरिक्त रथ-घोड़े सब भाग रहे थे। इन मनुष्यों में ब्राह्मण तपस्वी उत्साहित युवक। सबके मन में एक ही कामना थी-कृष्णा को देखना। जो विराट नगरी के लोग थे उनके मन में अपनी राजकुमारी के स्वयंवर का उछाह तो था ही, उसके ससुराल जाने का वियोग भी था। राजकुमारी के रहने से राज्य कितना भरा-भरा लगता है। ससुराल जाएँगी तो कैसा लगेगा ?

अर्जुन को रात्रि का स्वप्न स्मरण हो आया। उसने चारों तरफ़ देखना शुरू किया। न वैसा जलाशय कहीं था न ही रातवाली वो सुनहरी चिड़िया ही उड़ रही थी। अर्जुन की गति और तेज हो गयी। मानो शीघ्रता से जाकर ऊहापोह समाप्त हो जाएगी। भीम ने लक्ष्य किया और कहा, ‘‘ठीक है भाई, आप मछली की आँख फोड़ेंग

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