पौराणिक >> अम्बा नहीं मैं भीष्मा अम्बा नहीं मैं भीष्माचित्रा चतुर्वेदी
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अम्बा की व्यथा-कथा पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भीष्मा यानी अम्बा महाभारत की वह तेजस्विनी नारी है जो अपने प्रति अन्याय
के प्रतिकार के लिए जी-जीकर मरती रही। इस सत्रह वर्षीया किशोरी ने किसी
साधारण व्यक्ति को नहीं, युग के प्रचण्ड महारथी, अजेय योद्धा, श्रेष्ठ
प्रशासक तथा राजधर्म के अद्वितीय प्रवाचक भीष्म को चुनौती दी थी।
स्वंयवर-बेला में अपने मनोनुकूल पति का वरण करने को आतुर अम्बा का, उसकी
दो अनुजाओं अम्बिका तथा अम्बालिका सहित भीष्म ने हरण किया था-अपने अनुज से
उनका विवाह करने हेतु। इसके बाद तो समाज की रूढ़िग्रस्त मानसिकता के कारण
अम्बा के साथ ऐसी घटनाएँ घटती चली गयीं कि वह सदा के लिए पति तथा
परिवार-सुख से वंचित ही हो गयी। भीष्म दीर्घजीवी थे। अम्बा तीन
जन्मों तक संघर्षरत रही। भीष्म और अम्बा के बीच इस शीतयुद्ध का अन्त
महाभारत युद्ध में तब हुआ जब अम्बा शिखण्डी बनकर कुरुक्षेत्र में अवतरित
हुई। अम्बा शिखण्डी के रूप में भीष्म के सामने न आती तो महाभारत युद्ध न
जाने कब तक चलता रहता। महायुद्ध को निर्णायक मोड़ पर लाने की अम्बा की
ऐतिहासिक भूमिका को कम कर के नहीं देखा जा सकता। यह उस किशोरी की
व्यथा-कथा है जिसकी प्रबल इच्छा शक्ति, संकल्प की दृढ़ता और जुझारूपन को
कौरव-पाण्डव महारथियों के तुमुल जयघोषों से दबा दिया गया था।
‘अम्बा
नहीं, मैं भीष्मा’ पुस्तक वस्तुतः अम्बा को तर्पण हैं, जलांजलि
के
रूप में विनयांजलि है।
महाभारत के पात्र विशेष को केन्द्र में रखकर लिखे गये उपन्यासों-मृत्युजय (कर्ण), महाभारती (द्रौपदी),युगन्धर (कृष्ण) वसुधारा (युधिष्ठिर) की श्रृंखला में प्रस्तुत है भारतीय ज्ञानपीठ का एक और महत्वपूर्ण उपन्यास अम्बा नहीं, मैं भीष्मा !!
महाभारत के पात्र विशेष को केन्द्र में रखकर लिखे गये उपन्यासों-मृत्युजय (कर्ण), महाभारती (द्रौपदी),युगन्धर (कृष्ण) वसुधारा (युधिष्ठिर) की श्रृंखला में प्रस्तुत है भारतीय ज्ञानपीठ का एक और महत्वपूर्ण उपन्यास अम्बा नहीं, मैं भीष्मा !!
तर्पण
भीष्म: शान्तनवो वीर: सत्यवादी जितेन्द्रिय:।
आभि: अद्भिरवाप्नोति पुत्रपौत्रोचिंता क्रियाम्।।
वैयाघ्रपद-गोत्राय सांकृत्यप्रवराय च।
अपुत्राय ददाम्येतज्जलं भीष्माय वर्मणे।।
वसुनामावताराय शन्तनोरात्मजाय च।
अर्घ्यं ददामि भीष्माय आबालब्रह्मचारिणे।
आभि: अद्भिरवाप्नोति पुत्रपौत्रोचिंता क्रियाम्।।
वैयाघ्रपद-गोत्राय सांकृत्यप्रवराय च।
अपुत्राय ददाम्येतज्जलं भीष्माय वर्मणे।।
वसुनामावताराय शन्तनोरात्मजाय च।
अर्घ्यं ददामि भीष्माय आबालब्रह्मचारिणे।
-शान्तनु के पुत्र सत्यवादी जितेन्द्रिय वीर भीष्म तर्पण के इन जलों से
पुत्रपौत्रोचित क्रिया (सत्कार) को प्राप्त करते हैं।
-वैयाघ्र (व्याघ्र) पदगोत्र सांकृत्यप्रवर पुत्रहीन कवचधारी भीष्म को यह तर्पण का जल अर्पित करता हूँ।
-वसुओं के अवतार, शन्तनुपुत्र आबालब्रह्मचारी भीष्म को अर्घ्य देता हूँ।
गंगानन्दन देवव्रत भीष्म का देहावसान माघ शुक्ल अष्टमी (भीमाष्टमी) को हुआ था। उनको तर्पण उपर्युक्त विधि से किया गया है। किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि भीष्म को तर्पण सब करते हैं। मान्यता यह है कि भीष्म को तर्पण किये बिना कोई भी श्राद्ध या तर्पण पूर्ण अथवा सार्थक नहीं है। अपने समस्त पूर्वजों को तर्पण सब से अन्त में होता है। कहीं कहीं सूर्य से पूर्व भी उनको तर्पण करने का उल्लेख आता है। भीष्म के तर्पण की परम्परा कब से चली आ रही है यह तो ज्ञात नहीं, पर जब से हमारे कुलवृद्धों को स्मरण आता है, वे सदा ही भीष्म पितामह को जलांजलि अनिवार्य रूप से अर्पित करते आ रहे हैं। सामान्य तौर पर व्यक्ति के पुत्रपौत्रादि ही उसे ही उसे तर्पण करते हैं किन्तु पुत्रहीन (अविवाहित) थे अत: उन्हें सभी तर्पण करते हैं। वे सब के पितामह माने गये।
श्राद्ध में अथवा तर्पण में गंगाजल का विशेष महत्व रहा है। फिर भीष्म तो स्वयं गंगापुत्र हैं अत: उन्हें तर्पण न करने से गंगा की अवहेलना होगी। अत: गंगाजल के महत्व के कारण गंगापुत्र को तर्पण करना आवश्यक है। दीर्घजीवी पूर्वजों को भी तर्पण करने का विधान है। इसके अतिरिक्त उनको तर्पण करने का एक और कारण समझ में आता है। श्राद्ध में क्रमानुसार पिता, पितामह, प्रपितामह के उपरान्त वृद्धप्रपितामह का स्थान है। प्रपितामह के पूर्व वे पूर्वज अथवा वृद्धप्रपितामह हैं जिन्हें हम जानते नहीं, हमारे लिए सामान्य तौर पर वे अज्ञात हैं। सभी अज्ञात वृद्धप्रपितामहों को तर्पण करना भी पवित्र कर्तव्य हैं। भीष्म पितामह एक प्रकार से हमारे लिए सभी अज्ञात पूर्वजों तथा वृद्धपितामहों के प्रतिनिधि या प्रतीक स्वरूप हैं। भीष्म को तर्पण करने का अर्थ है उनके माध्यम से सभी अज्ञात पूर्वजों तथा वृद्धप्रपितमहों को विनम्रता से स्मरण करते हुए जलांजलि के द्वारा उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करना।
भीष्म नि:सन्तान थे, अत: हम सभी उनकी सन्तान हैं। इस नाते सहस्रों वर्षों से उन्हें तर्पण होता आ रहा है। राजपुरुष होते हुए भी अपने परिवार कुटुम्ब के कल्याण में सदा संलग्र रहने वाले वे महात्यागी व तपस्वी थे। वे आजन्म ब्रह्मचारी रहे। ब्रह्मचर्य ऋषि-मुनियों के लिए भी अनिवार्य न था। विवाहित तथा अविवाहित ऋषि-मुनियों को भी मेनकाएँ तथा मत्स्यगन्धाएँ उपलब्ध थीं। अत: भीष्म अपवाद थे जो पिता से की गयी प्रतिज्ञा हेतु ब्रह्मचर्य का कठोर व्रत धारण कर अद्वितीय हो गये और ब्रह्मचर्य-प्रतिज्ञा का पालन करते करते भीष्म हो गये। उनका चरम वृ्द्धावस्था में अपने किशोर पौत्रों-प्रपौत्रों के साथ रणभूमि में उतना रोमांचित कर देता है। उनकी तेजस्विता अद्भुत पराक्रम त्याग प्रबल इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प के सामने नतमस्तक ही हुआ जा सकता है। इस प्रचण्ड वीर, श्रेष्ठ शासक, राजधर्म के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक के हृदय में भक्ति की पुण्य सलिला कलकल करती प्रवाहित थी। वे परम भक्त थे। शायद उनके हृदय की यह भक्ति-सरिता ही वह गंगा थी जिसके वे पुत्र थे।
भीष्म अपराजेय थे। उनके शौर्य का ऐसा दबदबा और आतंक था कि कोई भी नरेश हस्तिनापुर की ओर आँख भी नहीं उठा सकता था। हस्तिनापुर का विशाल राज्य भीष्म के बाहुबल की छत्रछाया में सदा सुरक्षित रहा। कोई बाहरी शक्ति उसे नहीं तोड़ सकती थी, इसीलिए वह टूटा भी, तो आन्तरिक कलह से। मात्र एक रथ के बल पर, सैकड़ों क्षत्रियों को पछाड़ते हुए वे स्वयंवर-मण्डप से काशिराज की तीन कन्याओं का अपहरण कर लाये थे। ऐसा और कोई दृष्टांत दिखता नहीं जहाँ एक साथ तीन कन्याओं का हरण हुआ हो। यह अपहरण उन्होंने अपने लिए नहीं, अपने अनुज हस्तिनापुर महाराज विचित्रवीर्य के लिए किया था, जो अपने विवाह के लिए भी उन ही पर निर्भर थे। विचित्रवीर्य स्वयंवर में नहीं गये, न ही अपने लिए किसी कन्या का हरण कर पाये, न ही किसी राजा ने स्वेच्छा से महाशक्तिशाली हस्तिनापुर राज्य के इस नरेश को अपनी कन्या देनी चाही। यह विचारणीय तथ्य है। भीष्म ने अपने गुरुकुल के कल्याण का बीड़ा उठाया था अत: यह दायित्व उन ही पर आ पड़ा। सामान्य तौर पर राजकन्य़ाओं का हरण उनकी इच्छा से होता आया है, जैसे रुक्मिणी का हरण या बाद में संयोगिता का पृथ्वीराज द्वारा हरण। किन्तु भीष्म द्वारा तीन कन्याओं के हरण में, इन कन्याओं की कोई भूमिका या सहमति न थी। वे तो स्वतंत्र रूप से स्वयं ही अपना वर चयन करने स्वयंवर मण्डप में तैयार खड़ी थीं। यहाँ हरण के औचित्य का भी प्रश्न उठता है।
विधाता महानतम न्यायाधिपति हैं। उसके जैसा नीर-क्षीर विवेक किसका हो सकता है ? यदि विधाता के पश्चात् कोई महान् निष्पक्ष न्यायाधिपति है तो वह महाभारत का रचनाकार है। कृष्ण द्वैयापन वेदव्यास ने अपने पात्रों के साथ नीर-क्षीर विवेक के द्वारा जो न्याय किया है वह अपने आप में अद्भुत है। जहाँ उन पात्रों के श्रेष्ठ गुणों को पूरी उदारता से उजागर किया है, वहीं उन्होंने उनकी दुर्बलताओं तथा दोषों को सार्वजनिक करने में लेशमात्र भी कृपणता नहीं बरती, फिर चाहे वे धर्मराज युधिष्ठिर हों या स्वयं भीष्म पितामह ही।
भीष्म ने अम्बा, अम्बिका व अम्बालिका का हरण किया। इसका गहरा प्रभाव न चाहते हुए भी उनके जीवन पर पड़ा। और अनजाने में ही भीष्म के अविवाहित जीवन में एक नारी का प्रवेश हो गया जो उनकी मृत्युर्पयन्त उनके जीवन पर छायी ही रही। काशिराज-सुताओं के इस अपहरण पर भीष्म के गुरु परशुराम ने उनसे दो टूक शब्दों में स्पष्टीकरण माँगा-
-वैयाघ्र (व्याघ्र) पदगोत्र सांकृत्यप्रवर पुत्रहीन कवचधारी भीष्म को यह तर्पण का जल अर्पित करता हूँ।
-वसुओं के अवतार, शन्तनुपुत्र आबालब्रह्मचारी भीष्म को अर्घ्य देता हूँ।
गंगानन्दन देवव्रत भीष्म का देहावसान माघ शुक्ल अष्टमी (भीमाष्टमी) को हुआ था। उनको तर्पण उपर्युक्त विधि से किया गया है। किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि भीष्म को तर्पण सब करते हैं। मान्यता यह है कि भीष्म को तर्पण किये बिना कोई भी श्राद्ध या तर्पण पूर्ण अथवा सार्थक नहीं है। अपने समस्त पूर्वजों को तर्पण सब से अन्त में होता है। कहीं कहीं सूर्य से पूर्व भी उनको तर्पण करने का उल्लेख आता है। भीष्म के तर्पण की परम्परा कब से चली आ रही है यह तो ज्ञात नहीं, पर जब से हमारे कुलवृद्धों को स्मरण आता है, वे सदा ही भीष्म पितामह को जलांजलि अनिवार्य रूप से अर्पित करते आ रहे हैं। सामान्य तौर पर व्यक्ति के पुत्रपौत्रादि ही उसे ही उसे तर्पण करते हैं किन्तु पुत्रहीन (अविवाहित) थे अत: उन्हें सभी तर्पण करते हैं। वे सब के पितामह माने गये।
श्राद्ध में अथवा तर्पण में गंगाजल का विशेष महत्व रहा है। फिर भीष्म तो स्वयं गंगापुत्र हैं अत: उन्हें तर्पण न करने से गंगा की अवहेलना होगी। अत: गंगाजल के महत्व के कारण गंगापुत्र को तर्पण करना आवश्यक है। दीर्घजीवी पूर्वजों को भी तर्पण करने का विधान है। इसके अतिरिक्त उनको तर्पण करने का एक और कारण समझ में आता है। श्राद्ध में क्रमानुसार पिता, पितामह, प्रपितामह के उपरान्त वृद्धप्रपितामह का स्थान है। प्रपितामह के पूर्व वे पूर्वज अथवा वृद्धप्रपितामह हैं जिन्हें हम जानते नहीं, हमारे लिए सामान्य तौर पर वे अज्ञात हैं। सभी अज्ञात वृद्धप्रपितामहों को तर्पण करना भी पवित्र कर्तव्य हैं। भीष्म पितामह एक प्रकार से हमारे लिए सभी अज्ञात पूर्वजों तथा वृद्धपितामहों के प्रतिनिधि या प्रतीक स्वरूप हैं। भीष्म को तर्पण करने का अर्थ है उनके माध्यम से सभी अज्ञात पूर्वजों तथा वृद्धप्रपितमहों को विनम्रता से स्मरण करते हुए जलांजलि के द्वारा उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करना।
भीष्म नि:सन्तान थे, अत: हम सभी उनकी सन्तान हैं। इस नाते सहस्रों वर्षों से उन्हें तर्पण होता आ रहा है। राजपुरुष होते हुए भी अपने परिवार कुटुम्ब के कल्याण में सदा संलग्र रहने वाले वे महात्यागी व तपस्वी थे। वे आजन्म ब्रह्मचारी रहे। ब्रह्मचर्य ऋषि-मुनियों के लिए भी अनिवार्य न था। विवाहित तथा अविवाहित ऋषि-मुनियों को भी मेनकाएँ तथा मत्स्यगन्धाएँ उपलब्ध थीं। अत: भीष्म अपवाद थे जो पिता से की गयी प्रतिज्ञा हेतु ब्रह्मचर्य का कठोर व्रत धारण कर अद्वितीय हो गये और ब्रह्मचर्य-प्रतिज्ञा का पालन करते करते भीष्म हो गये। उनका चरम वृ्द्धावस्था में अपने किशोर पौत्रों-प्रपौत्रों के साथ रणभूमि में उतना रोमांचित कर देता है। उनकी तेजस्विता अद्भुत पराक्रम त्याग प्रबल इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प के सामने नतमस्तक ही हुआ जा सकता है। इस प्रचण्ड वीर, श्रेष्ठ शासक, राजधर्म के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक के हृदय में भक्ति की पुण्य सलिला कलकल करती प्रवाहित थी। वे परम भक्त थे। शायद उनके हृदय की यह भक्ति-सरिता ही वह गंगा थी जिसके वे पुत्र थे।
भीष्म अपराजेय थे। उनके शौर्य का ऐसा दबदबा और आतंक था कि कोई भी नरेश हस्तिनापुर की ओर आँख भी नहीं उठा सकता था। हस्तिनापुर का विशाल राज्य भीष्म के बाहुबल की छत्रछाया में सदा सुरक्षित रहा। कोई बाहरी शक्ति उसे नहीं तोड़ सकती थी, इसीलिए वह टूटा भी, तो आन्तरिक कलह से। मात्र एक रथ के बल पर, सैकड़ों क्षत्रियों को पछाड़ते हुए वे स्वयंवर-मण्डप से काशिराज की तीन कन्याओं का अपहरण कर लाये थे। ऐसा और कोई दृष्टांत दिखता नहीं जहाँ एक साथ तीन कन्याओं का हरण हुआ हो। यह अपहरण उन्होंने अपने लिए नहीं, अपने अनुज हस्तिनापुर महाराज विचित्रवीर्य के लिए किया था, जो अपने विवाह के लिए भी उन ही पर निर्भर थे। विचित्रवीर्य स्वयंवर में नहीं गये, न ही अपने लिए किसी कन्या का हरण कर पाये, न ही किसी राजा ने स्वेच्छा से महाशक्तिशाली हस्तिनापुर राज्य के इस नरेश को अपनी कन्या देनी चाही। यह विचारणीय तथ्य है। भीष्म ने अपने गुरुकुल के कल्याण का बीड़ा उठाया था अत: यह दायित्व उन ही पर आ पड़ा। सामान्य तौर पर राजकन्य़ाओं का हरण उनकी इच्छा से होता आया है, जैसे रुक्मिणी का हरण या बाद में संयोगिता का पृथ्वीराज द्वारा हरण। किन्तु भीष्म द्वारा तीन कन्याओं के हरण में, इन कन्याओं की कोई भूमिका या सहमति न थी। वे तो स्वतंत्र रूप से स्वयं ही अपना वर चयन करने स्वयंवर मण्डप में तैयार खड़ी थीं। यहाँ हरण के औचित्य का भी प्रश्न उठता है।
विधाता महानतम न्यायाधिपति हैं। उसके जैसा नीर-क्षीर विवेक किसका हो सकता है ? यदि विधाता के पश्चात् कोई महान् निष्पक्ष न्यायाधिपति है तो वह महाभारत का रचनाकार है। कृष्ण द्वैयापन वेदव्यास ने अपने पात्रों के साथ नीर-क्षीर विवेक के द्वारा जो न्याय किया है वह अपने आप में अद्भुत है। जहाँ उन पात्रों के श्रेष्ठ गुणों को पूरी उदारता से उजागर किया है, वहीं उन्होंने उनकी दुर्बलताओं तथा दोषों को सार्वजनिक करने में लेशमात्र भी कृपणता नहीं बरती, फिर चाहे वे धर्मराज युधिष्ठिर हों या स्वयं भीष्म पितामह ही।
भीष्म ने अम्बा, अम्बिका व अम्बालिका का हरण किया। इसका गहरा प्रभाव न चाहते हुए भी उनके जीवन पर पड़ा। और अनजाने में ही भीष्म के अविवाहित जीवन में एक नारी का प्रवेश हो गया जो उनकी मृत्युर्पयन्त उनके जीवन पर छायी ही रही। काशिराज-सुताओं के इस अपहरण पर भीष्म के गुरु परशुराम ने उनसे दो टूक शब्दों में स्पष्टीकरण माँगा-
भीष्म कां बुद्धिमास्थाय काशिराज-सुता तदा।
अकामेन त्वयाऽऽनीता पुनश्चैव विसर्जिता।।
अकामेन त्वयाऽऽनीता पुनश्चैव विसर्जिता।।
-उद्योग, अम्बोपाख्यान, 178/28
-भीष्म ! तुम्हें तो पत्नी पाने की कामना नहीं थी, फिर भी काशिराज की
पुत्री को हरण कर लाये और फिर उसे निकाल दिया।
विभ्रंशिता त्वया हीयं धर्मादास्ते यशस्विनी।
परामृष्टां त्वया हीमां को हि गन्तुमिहार्हति।।
परामृष्टां त्वया हीमां को हि गन्तुमिहार्हति।।
-वही, 29
-इस यशस्विनी (अम्बा) को स्पर्श करके धर्मभ्रष्ट किया तुमने, अब इसे कौन
ग्रहण कर सकता है ? भारत ! तुम इसे हर लाये इसलिए शाल्व ने इससे विवाह
करना अस्वीकार कर दिया। मेरी आज्ञा से तुम इसे ग्रहण करो (वही, 30)।
तुम्हें ऐसा करना चाहिए जिससे इस राजकुमारी को स्वधर्म पालन का अवसर मिले।
राजाओं का इस प्रकार अपमान करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है-
राजाओं का इस प्रकार अपमान करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है-
स्वधर्म पुरुषव्याघ्र राजपुत्री लभत्वियम्।
न युक्तस्त्ववमानोऽयं राज्ञां कर्तुं त्वयानघ।।
न युक्तस्त्ववमानोऽयं राज्ञां कर्तुं त्वयानघ।।
-वही 31
तुम्हारे द्वारा अपनी मर्यादा से गिरने के कारण इसे पति प्राप्ति नहीं हो
रही है, इसे ग्रहण करो (अपने अनुज हेतु) –वही, 42
भीष्म उत्तर देते हैं कि है यह तो पहले ही कह चुकी है कि अन्य पुरुष में अनुरक्त है। ऐसी स्त्री सर्पिणी के समान भयंकर होती है। इसे जानबूझ कर कौन अपने घर में लाएगा ?
भीष्म उत्तर देते हैं कि है यह तो पहले ही कह चुकी है कि अन्य पुरुष में अनुरक्त है। ऐसी स्त्री सर्पिणी के समान भयंकर होती है। इसे जानबूझ कर कौन अपने घर में लाएगा ?
को जातु परभावां हि नारीं व्यालीमिव स्थिताम्।
वासयेत गृहे जानन् स्त्रीणां दोषो महात्मय:।
वासयेत गृहे जानन् स्त्रीणां दोषो महात्मय:।
-वही, 45
भीष्म को एक किशोरी कन्या की दुर्गति पर खेद नहीं है। न ही वे उसकी स्थिति
को सुधारने के लिए कुछ करना चाहते हैं। वे उसकी स्थिति को संशयपूर्ण मानते
हैं कि वह ग्रहण करने योग्य है अथवा नहीं तथा परशुराम पर आक्षेप लगाते हैं
कि वे भीष्म के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं (दबाव डालकर)उल्लेखनीय
है कि उनके मन में तब भी संशय रहा था जब द्रौपदी ने उनसे न्याय की गुहार
की थी।
अम्बा को ग्रहण करने योग्य मानने में संशय तथा पहले से स्वयं को हारे हुए युधिष्ठर द्वारा दाँव पर हारी गयी द्रौपदी दासी हुई या नहीं, इस पर मौन साधकर भीष्म स्वयं को द्वापर का मर्यादापुरुषोत्तम सिद्ध करते हैं, किन्तु त्रेतायुग के मर्यादापुरुषोत्तम राम जनता के प्रति अद्वितीय समर्पित शासक थे।
उन्होंने सीता का परित्याग किया तो जनता की इच्छा का सम्मान करके, इसलिए आजीवन वे वेदनापान भी करते ही रहे। जनता कि इच्छा उनके लिए सर्वोपरि थी जिसके लिए उन्होंने पत्री के माध्यम से परिवार तथा पुत्रसुख भी जनता के चरणों में निर्माल्य की भांति चढ़ा दिया। भीष्म के समय क्रांतिकारी निर्णय भी लिये गये थे। कृष्ण ने भौमासुर की बन्दिनी स्त्रियों को अपनी पत्नी रूप में स्वीकार कर उन्हें सुरक्षा व सम्मान से विभूषित किया था। भीष्म का क्षितिज कुरु-कुटुम्ब तक सीमित था। पिता को दिए हुए वचन के कारण वे कुरुकुल का हित अहित सोचते रहे। कुरुवंश की मर्यादा व कल्याण की वेदी पर कई नारियों को बलि चढ़ जाना पड़ा। अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका, गान्धारी, द्रौपदी आदि सभी आखेट हुई।
अम्बा को अपने परिवार में स्थान देने की अपेक्षा भीष्म अपने गुरु परशुराम से युद्ध करना उचित मानते हैं। वे परशुराम को ललकारते हुए कहते हैं कि जहाँ आपने अपने पिता को जलांजलि देकर आत्मशुद्धि का अनुभव लिया था, वहीं मैं आपका वध कर आत्मशुद्धि अनुभव करूंगा।
अम्बा को ग्रहण करने योग्य मानने में संशय तथा पहले से स्वयं को हारे हुए युधिष्ठर द्वारा दाँव पर हारी गयी द्रौपदी दासी हुई या नहीं, इस पर मौन साधकर भीष्म स्वयं को द्वापर का मर्यादापुरुषोत्तम सिद्ध करते हैं, किन्तु त्रेतायुग के मर्यादापुरुषोत्तम राम जनता के प्रति अद्वितीय समर्पित शासक थे।
उन्होंने सीता का परित्याग किया तो जनता की इच्छा का सम्मान करके, इसलिए आजीवन वे वेदनापान भी करते ही रहे। जनता कि इच्छा उनके लिए सर्वोपरि थी जिसके लिए उन्होंने पत्री के माध्यम से परिवार तथा पुत्रसुख भी जनता के चरणों में निर्माल्य की भांति चढ़ा दिया। भीष्म के समय क्रांतिकारी निर्णय भी लिये गये थे। कृष्ण ने भौमासुर की बन्दिनी स्त्रियों को अपनी पत्नी रूप में स्वीकार कर उन्हें सुरक्षा व सम्मान से विभूषित किया था। भीष्म का क्षितिज कुरु-कुटुम्ब तक सीमित था। पिता को दिए हुए वचन के कारण वे कुरुकुल का हित अहित सोचते रहे। कुरुवंश की मर्यादा व कल्याण की वेदी पर कई नारियों को बलि चढ़ जाना पड़ा। अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका, गान्धारी, द्रौपदी आदि सभी आखेट हुई।
अम्बा को अपने परिवार में स्थान देने की अपेक्षा भीष्म अपने गुरु परशुराम से युद्ध करना उचित मानते हैं। वे परशुराम को ललकारते हुए कहते हैं कि जहाँ आपने अपने पिता को जलांजलि देकर आत्मशुद्धि का अनुभव लिया था, वहीं मैं आपका वध कर आत्मशुद्धि अनुभव करूंगा।
अपि यत्र त्वया राम कृतं शौचं पुरा पितु:।
तत्राहमपि हत्वा त्वां शौचं कर्तास्मि भार्गव।।
तत्राहमपि हत्वा त्वां शौचं कर्तास्मि भार्गव।।
-वही 60
उस समय भीष्म तरुण थे। वीर थे। प्रचण्ड योद्धा थे। अत: अपनी
शौर्य
क्षमता से स्वयं अभिभूत थे। वे अपने इस शौर्य दीप को छिपाते नहीं। वे अपने
गुरु से कहते हैं कि अकेले ही संसार के समस्त क्षत्रियों का नाश कर देने
हेतु आप जो आत्मप्रशंसा करते रहते हैं, तो उसका उत्तर सुनिए:
न तदा जातवान् भीष्म: क्षत्रियों वापि मद्धिध:।
पश्चाज्जातानि तेजांसि तृणेषु ज्वलितं त्वया।।
पश्चाज्जातानि तेजांसि तृणेषु ज्वलितं त्वया।।
-वही, 63
जब क्षत्रियों को आपने पराजित किया था, तब भीष्म जैसे तेजस्वी क्षत्रिय थे
ही कहाँ ? वे तो घासफूस के तिनकों के समान तृणवत् थे। तब भीष्म कहाँ पैदा
हुआ था ! आपके दर्प, अभिमान को नष्ट करनेवाला भीष्म तो अब उत्पन्न हुआ है
! मैं युद्ध में आपका घमण्ड चूर-चूरकर डालूँगा।
सोऽहं जातो महाबाहो भीष्म: पुरंजय:।
व्यपनेष्यामि ते दर्पं युद्धे राम न संशय:।।
व्यपनेष्यामि ते दर्पं युद्धे राम न संशय:।।
-वही, 64
परशुराम ने ताड़ना देते हुए उन्हें ‘युद्धकामुक
दुर्मद’ आतुर
व मूर्ख कहा है (वही 69)। युवावस्था में अपने शौर्य तथा बल की प्रशंसा
करना किसी भी वीर पुरुष के लिए स्वाभाविक है। यद्यपि यह भी सत्य है कि यह
स्पष्ट रूप से अहंकार ही है। व्यास की लेखनी ने बड़ा स्वाभाविक चित्रण
किया है।
ऐसे कठोर हृदय महाबली लौह-पुरुष के लौह-कवच के पीछे एक कोमल हृदय धड़कता था, जिसे लोग अनुभव न कर पाते थे। जब परशुराम भी भीष्म को पराजित न कर पाये, तब अम्बा चारों ओर से निराश हो गयी और फिर उसने स्वयं ही तपोबल से इतनी शक्ति अर्जित करने का संकल्प लिया जिससे वह भीष्म का वध कर सके। जैसे ही भीष्म को ज्ञात हुआ कि अम्बा ने कठोर तपस्या का व्रत लिया है वे अत्यन्त विचलित हो उठे। यह उनके लिए कल्पनातीत था कि एक सुकुमार किशोरी राजकुमारी वन में रहकर कष्ट सहकर तपस्या करे। उन्हें भारी आघात लगा और वे ग्लानि और पीड़ा से सुधबुध भुलाकर अचेत से हो गये। वे स्वयं ही दुर्योधन को बताते हैं कि वे अत्यन्त व्यथित और दीन होकर चेत गँवा बैठे थे-
ऐसे कठोर हृदय महाबली लौह-पुरुष के लौह-कवच के पीछे एक कोमल हृदय धड़कता था, जिसे लोग अनुभव न कर पाते थे। जब परशुराम भी भीष्म को पराजित न कर पाये, तब अम्बा चारों ओर से निराश हो गयी और फिर उसने स्वयं ही तपोबल से इतनी शक्ति अर्जित करने का संकल्प लिया जिससे वह भीष्म का वध कर सके। जैसे ही भीष्म को ज्ञात हुआ कि अम्बा ने कठोर तपस्या का व्रत लिया है वे अत्यन्त विचलित हो उठे। यह उनके लिए कल्पनातीत था कि एक सुकुमार किशोरी राजकुमारी वन में रहकर कष्ट सहकर तपस्या करे। उन्हें भारी आघात लगा और वे ग्लानि और पीड़ा से सुधबुध भुलाकर अचेत से हो गये। वे स्वयं ही दुर्योधन को बताते हैं कि वे अत्यन्त व्यथित और दीन होकर चेत गँवा बैठे थे-
यदैव हि वनं प्रायात् सा कन्या तपसे धृता।
तदैव व्यथितो दीनो गतचेता इवाभवम्।।
तदैव व्यथितो दीनो गतचेता इवाभवम्।।
-वही, 186/15
तब उन्हें नारद और व्यास ने समझाया कि अम्बा के इस निर्णय के लिए वे अपने
आपको दोषी न माने। यह तो दैवविधान है जिसे पुरुषार्थ नहीं टाल सकता-
न विषादस्त्वया कार्यों भीष्म काशिसुतां प्रति।
दैवं पुरुषकारेण को निवर्तितुमुत्सहेत्।।
दैवं पुरुषकारेण को निवर्तितुमुत्सहेत्।।
-वही, 18
इसके बाद से भीष्म कभी भी अम्बा से अपने को मुक्त नहीं कर पाये। जितना
प्रभाव उनके जीवन पर उनकी विमाता सत्यवती का रहा, उससे कहीं अधिक अम्बा का
रहा। एक प्रकार से वे आजीवन अम्बा की छाया से ग्रस्त रहे, अम्बा से त्रस्त
रहे। वे उसे भुला नहीं पाये कभी तथा उसके बारे में सूचना पाने हेतु
उन्होंने विशेष गुप्तचर उसके पीछे लगा रखे थे। (वही 186/13-14 इत्यादि)
अम्बा की उपस्थिति- अनुपस्थिति अम्बा के जन्म-मरण, उसकी गतिविधियाँ
चेष्टाएं आदि पर उनकी पैनी दृष्टि सदा बनी रही। कैसी कैसी तपस्या वह कर
रही है, उन्हें सब ज्ञात होता रहता। उसकी कठोर तपस्या को उन्होंने मानवीय
शक्ति से परे बताया-
यमुनातीरमाश्रित्य तपस्तेपेऽतिमानुषम्।
-वही, 19
तबसे न भीष्म चैन की साँस ले पाये, न अम्बा ही चैन की साँस ले पायी। दोनों
एक दूसरे के प्रति वैमन्यस्य के ग्रस्त रहे। दोनों में यह
‘कोल्ड
वॉर’ या शीतयुद्ध सदा बना ही रहा जिस का अन्त कुरुक्षेत्र में
महाभारत युद्ध में तब हुआ जब अम्बा शिखण्डी के रूप में अवतरित हुई।
अम्बा को अपने प्रति हुए अन्याय का प्रतिकार स्वयं ही करना पड़ा, यद्यपि उसे हर स्थान से सहानुभूति व प्रेम मिला। होत्रवाहन, अकृतव्रण और परशुराम जैसे ऋषि-मुनियों का वात्सल्य उस पर बना रहा किन्तु वे भीष्म को सीधा नहीं कर पाये, न ही शाल्व को प्रताड़ित कर पाये। अम्बा की शत्रुता भीष्म से ही थी। उन्होंने उसका जीवन नष्ट किया था, वे ही उसके दु:ख का मूल कारण थे-
अम्बा को अपने प्रति हुए अन्याय का प्रतिकार स्वयं ही करना पड़ा, यद्यपि उसे हर स्थान से सहानुभूति व प्रेम मिला। होत्रवाहन, अकृतव्रण और परशुराम जैसे ऋषि-मुनियों का वात्सल्य उस पर बना रहा किन्तु वे भीष्म को सीधा नहीं कर पाये, न ही शाल्व को प्रताड़ित कर पाये। अम्बा की शत्रुता भीष्म से ही थी। उन्होंने उसका जीवन नष्ट किया था, वे ही उसके दु:ख का मूल कारण थे-
मम तु व्यसनस्यास्य भीष्मो मूलं महाव्रत:।
येनाहं वशमानीता समुत्क्षिप्य बलात् तदा।।
येनाहं वशमानीता समुत्क्षिप्य बलात् तदा।।
-वही, 177/38
भीष्मं जहि महाबाहो यत्कृते दु:खमीदृशम्।
-वही, 39
यही नहीं, अम्बा भीष्म को नीच, लोभी तथा घमण्डी तक ठहरा देती है-
स हि लुब्धश्च नीचश्च जितकाशी च भार्गव।
तस्मात् प्रतिक्रिया कर्तुं युक्ता तस्मै त्वयानघ।।
तस्मात् प्रतिक्रिया कर्तुं युक्ता तस्मै त्वयानघ।।
महाभारत के रचनाकार वेदव्यास इतिहासकार तो थे ही, वे मानव-मनोविज्ञान के
भी महान मर्मज्ञ थे । स्वयं भीष्म के ही मुख से उन्होंने पूरा
अम्बोपाख्यान कहलवाकर बड़ी चतुराई से भीष्म की हृदय-पटी को अनावृत्त कर
दिया है।
वेदव्यास का यह ग्रन्थ इस अर्थ में भी अद्वितीय है कि यह दो युगों के सन्धिकाल का विलक्षण प्रतिनिधित्व करता है। एक ओर युगान्त हो रहा था, दूसरी ओर नये युग का सूत्रपात हो रहा था। द्वापर और कलियुग के इस महान् संक्रमणकाल के विशिष्ट लक्षणों का महाभारत में बड़ा अद्भुत तथा रोमांचकारी रूप से यथार्थ चित्रण मिलता है। यह वह युग था जब प्राचीन मान्यताओं को ठुकराया जा रहा था, नये मूल्य प्रतिष्ठित हो रहे थे। अतीत की परम्पराओं की पुनर्व्याख्या हो रही थी तथा प्राचीन नियम पुनः परिभाषित किये जा रहे थे। कल तक जो कुछ आपत्तिजनक व अनुचित माना गया, उस वैधता की मोहर लगाकर महिमामण्डित किया जा रहा था। इस प्रकार अतीत की कठोरता नवयुग की तरलता और लचीलेपन में विगलित हो रही थी।
यह युग मिसाइलों, प्रक्षेपास्त्रों, टेस्ट-ट्यूब बेबीज़ (परखनली शिशुओं) यौन-परिवर्तन, अज्ञात पितृत्व (अथवा सुप्रानैचुरल), तथा सरोगेट माता (प्रतिनियुक्तजन्मदात्री) का युग था। आध्यात्मिक, दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा वैचारिक और वैयक्तिक क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के संघर्ष द्वन्द्व, तथा अन्तर्द्वन्द्व इस युग की विशेषताएँ हैं। हर संक्रमणकाल की भाँति द्वापर और कलियुग के सन्धिकाल में भी एक विचित्र प्रकार की बेचैनी, आकुलता तथा आन्तरिक छटपटाहट लगभग हर क्षेत्र में दिखती है। व्यक्ति की स्वतन्त्र इच्छा पूरी शक्ति से वैचारिक अभिव्यक्ति तथा आचरण की स्वतन्त्रता हेतु छटपटाहट रही है। हर व्यक्ति की आन्तरिक ऊर्जा परिपूर्णता पाने को व्यग्र है। अपनी प्रकृति, सोच तथा प्रतिभा को हर व्यक्ति परिपूर्णता देने को प्रयत्नरत है। इसलिए व्यक्ति और समष्टि के परस्पर संघर्ष भी सबसे अधिक प्रखर रूप से यहीं उजागर हुए हैं, फिर चाहे वह चार्वाक हो या एकलव्य, कर्ण हो या शिखण्डी अथवा कुन्ती हो या द्रौपदी, हर व्यक्ति अपने मौलिक ढंग से अपने आपको स्थापित करने के लिए कटिबद्ध लगता है। अपने विचार-स्वातन्त्र्य को पूरे प्राणपण से अभिव्यक्ति देता है। यही कारण है कि यह एक से एक श्रेष्ठ जुझारू व्यक्तियों का युग है। किन्तु महाभारत के इन संघर्षशील पात्रों में अम्बा (अथवा शिखण्डी) का अपना पृथक्, विशिष्ट तथा चमत्कारिक रूप से जुझारू व्यक्तित्व उभरा है जिसने कीर्तिमान स्थापित कर दिया है क्योंकि उसने अपनी अन्तिम सांस तक केवल संघर्ष ही नहीं किया, विजय भी पायी।
अम्बा समाज की ओर से निराश अवश्य हुई किन्तु अपनी संकल्पशक्ति पर अटूट विश्वास होने से हारी नहीं। आशावादी बनी रही। स्थूणाकर्ण यक्ष उस काल का अवश्य ही महान वैज्ञानिक तथा शल्य चिकित्सक रहा होगा जिसने उसे पुरुष शरीर प्रदान किया।
भीष्म का वध एक शिखण्डी द्वारा हुआ, किसी महावीर पुरुष द्वारा नहीं, इसका दुःख बहुतों को हुआ। पर शिखण्डी बनाया किसने, शिखण्डी का जन्म किसके कारण हुआ, इस पर किसी ने खेद व्यक्त नहीं किया।
अम्बा की कथा अपने आपमें अद्भुत है, विस्मयकारी है, क्योंकि अन्य कोई ऐसा दृष्टान्त कहीं नहीं मिलता जब एक नितान्त बालिका या किशोरी (‘टीन एज’) ने प्रचण्ड शक्ति से समाज के महाप्रतिष्ठित प्रौढ़ महाबली को ललकारा हो ! उस युग में ऐसी चमत्कारी संकल्पशक्ति सत्रह वर्षीया कन्या में होना अचम्भित करता है क्योंकि किसी बाहुबली को चुनौती देने का साहस तो आज भी नहीं दिखाई पड़ता। मृत्यु भीष्म की मुट्ठी में थी। उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। किन्तु अम्बा की मुट्ठी में तो जन्म और मरण दोनों थे। भीष्म कुल-कल्याण के लिए त्याग-पर-त्याग करते गये, फिर भी उनके सामने ही कुलवंश क्षार-क्षार हो गया। और वे स्वयं ही अन्तिम कुरु बनकर रह गये। इधर अम्बा मर-मरकर जीती रही, जी-जीकर मरती रही। भीष्मवध की प्रतिज्ञा हृदय से लगाये भीष्मा हो गयी।
अम्बा कोई महारानी लक्ष्मीबाई या रानी दुर्गावती न थी। वह तो समाज द्वारा तिरस्कृत मात्र एक साधनहीन अल्पवय किशोरी थी। उसकी दोनों अनुजाओं अम्बिका व अम्बालिका की वय महाभारत में विवाह के समय सोलह वर्ष बतायी गयी है। अम्बा उनसे बड़ी थी इसलिए अधिक से अधिक सत्रह-अठारह की रही होगी स्वयंवर के समय। किन्तु तब भी उसने भविष्य में संघर्ष हेतु नारी के लिए मार्ग प्रशस्त कर चमत्कार कर दिया, जिस पर भीष्म के ही जीवन-काल में द्रौपदी चल पड़ी। यही नहीं मूक न रहकर अम्बा शिखण्डी के रूप में निरन्तर अपनी द्रौपदी का साथ देती रही।
द्रौपदी की पथप्रदर्शक होकर भी अम्बा की गणना पंचकन्याओं में नहीं हो सकी। अहिल्या, तारा, मन्दोदरी, द्रौपदी एवं कुन्ती विलक्षण प्रतिभा, स्वतन्त्र इच्छा, दृढ़ संकल्पशक्ति, स्वयं निर्णय लेने की क्षमता से जिस प्रकार सम्पन्न थीं उसी प्रकार अम्बा भी इन सब गुणों की स्वामिनी थी। वही तेज, वही स्वाभिमान, वही शौर्य होते हुए भी अम्बा ‘कन्या’ के अद्भुत विरुद से सम्मानित नहीं हो पायी। पंचकन्या के प्रतिष्ठित कन्या-समूह में सम्मिलित न होने से ‘महापातकनाशिनी’ भी नहीं हो सकी। पंचकन्याओं में प्रत्येक के शारीरिक सम्बन्ध एक से अधिक पुरुष से रहे थे, इसलिए वे आलोचना की विषय बनीं किन्तु पता नहीं किस अज्ञात बुद्धिमान् व्यक्ति ने उनकी अन्य विलक्षणताओं, उनका समाज, राजनीति तथा इतिहास पर व्यापक प्रभाव आदि का पुनर्मूल्यांकन कर उन्हें ‘कन्या’ कह कर अलंकृत कर दिया। अम्बा भी विपरीत परिस्थितियों से जूझने वाली लौह-महिला थी। जिसने अपनी जीवन की दिशा स्वयं निर्धारित की थी।
अम्बा ने वह इतिहास रच डाला जो वास्तव में मानवातीत था। भीष्म को पराजित करना असम्भव न था। इच्छामृत्यु का वरदान भी उन्हें प्राप्त था। यदि अम्बा अपना संकल्प पूरा करने के लिए शिखण्डी बनकर भीष्म पर प्रहार न करती तो अजेय भीष्म तो चिरंजीवी हो गये होते ! तब तो महाभारत-युद्ध अनन्तकाल तक चलता ही रहता ! दस दिन तक तो वे कौरवों के सेनापति होकर कौरव-पाण्डवों को खेल ही खिलाते रहे, यह सोचकर कि शायद दुर्योधन में सद्बुद्धि प्रस्फुटित हो जाय और कुल को कोई महती क्षति न सहनी पड़े। यदि शिखण्डी उनके सामने न आता तो न जाने कब तक भीष्म यही खिलवाड़ करते रहते और आम सैनिकों का निर्मम वध होता रहता ! अम्बा ने शिखण्डी बनकर निश्चित रूप से महायुद्ध को एक निर्णायक मोड़ पर ला दिया, जहाँ भीष्म को विवश होकर हथियार रख देने पड़े। उनके गिरते ही महाभारत का वह पृष्ठ पलट गया। युद्ध में गति आ गयी तथा युद्ध-रथ अपने अन्त की ओर सरपट दौड़ पड़ा। दीर्घ भीष्म-युग का अन्त कर अम्बा ने इतिहास की धारा मोड़ दी।
महाभारत में इतिहास बदल देने की अम्बा अथवा शिखण्डी की इस निर्णायक भूमिका को जैसे नकार ही दिया गया। अम्बा का महत् योगदान उसका प्रताप आदि सब कौरव-पाण्डव वीरों की तुमुल जय-जयकारों के उन्मत्त घोष से दबा दिया गया।
पंचकन्या में अम्बा को स्थान न मिलने का कारण वही है जो सत्यवती पर भी लागू होता है। सत्यवती भी, स्वतन्त्र निर्णय लेनेवाली, विचार-अभिव्यक्ति तथा आचरण की स्वतन्त्रता में विश्वास रखनेवाली कन्या ही थी। परन्तु यह स्पष्ट है कि पंचकन्याएँ कहीं-न-कहीं से विष्णु-विग्रह की उपासना से जुड़ी हुई थीं। अहल्या, तारा, मन्दोदरी तीनों विष्णु के राम-अवतार की उपासिका थीं तो कुन्ती व द्रौपदी कृष्णावतार की। पंचकन्या की अवधारणा अवतारवाद पर आधारित है अतः अम्बा, सत्यवती तथा माधवी इस परिकल्पना का लाभ उठाने से चूक गयीं।
धन्य हो अम्बा ! तुम्हारी महिमा अपार है ! तुम्हें अपने एक जन्म में अग्निस्नान कर स्वयं को भस्म कर देना पड़ा। दूसरे जन्म में तुमने जलसमाधि लेकर स्वयं को जल में तिरोहित कर दिया। तीसरे जन्म में तुम्हारा जिस प्रकार कारुणिक अन्त हुआ उससे कलेजा दहल जाता है। किसी के कण्ठ में तीर लगा, किसी के वक्ष में बाण लगा, किसी का मस्तक उच्छेद हुआ तो किसी के उदर में खड्ग समा गया। किन्तु तुम !...अश्वत्थामा ने शिखण्डी के तन को अपने फरसे से दो टुकड़े कर दिया ! दो फाँक कर दिया। खण्डित मन ! खण्डित तन ! जैसा आधा-अधूरा जीवन, वैसी ही आधी-अधूरी मृत्यु गति। जीवन की ही भाँति शरीर तक बँट गया दो टुकड़ों में !
अम्बा ! क्या तुम्हारा कोई श्राद्ध करता है ? क्या तुम्हारी आत्मा की शान्ति हेतु कभी किसी ने जलांजलि दी ? स्मरण किया ? यदि अतीत में तुम्हारा कभी श्राद्ध नहीं हुआ तो अब अवश्य होगा। यदि गत सहस्रों वर्षों से तुम तर्पण के जलों के लिए प्यासी रह गयी तो आज तुम्हें तर्पण होगा।
अम्बा ! तुम्हारी विलक्षण संकल्प-शक्ति पर विमुग्ध हम, तुम्हारे अद्वितीय साहस से चकित हम, तुम्हारी इतिहास रच देने की शक्ति से अभिभूत हम नतशिर होकर तुम्हें तर्पण करते हैं।
जैसे गंगा पर गंगाजल ही चढ़ाया जाता है, अम्बा ! वैसे ही तुम्हारे इस कथारूपी अश्रुजलों से तुम्हें तर्पण निवेदित है।
उपर्युक्त विशद चर्चा इसलिए की गयी है क्योंकि कई बार पाठकों को यह भ्रम होता है कि लेखक पूर्वाग्रह-ग्रस्त है। ‘अम्बा नहीं, मैं भीष्मा !’ की विषयवस्तु के सम्बन्ध में श्री प्रदीप भट्टाचार्य, वरिष्ठ आई.ए.एस.(पं.बंगाल) डॉ.कृष्णकान्त चतुर्वेदी, कालिदास अकादमी उज्जैन के पूर्व निदेशक, एवं डॉ.श्रीमती इला घोष, प्राचार्य शा.स्नातकोत्तर महाविद्यालय कटनी, से चर्चा करके पुस्तक को निश्चित रूप से लाभ मिला है। आप सबको हार्दिक धन्यवाद ! अग्रज श्री भरतचन्द्र चतुर्वेदी, अवकाश प्राप्त आई.ई.ए.एस. के सहयोग से मनोबल बना रहा।
मार्मिक पीड़ा और असीम तेज की इस अदभुत गाथा को प्रकाशित करके भारतीय ज्ञानपीठ ने वास्तव में शिखण्डी अथवा अम्बा का उद्धार किया है। मैं भारतीय ज्ञानपीठ
के प्रति, विशेष रूप से ज्ञानपीठ के निदेशक डॉ.प्रभाकर श्रोत्रिय एवं वरिष्ठ प्रकाशन अधिकारी डॉ.गुलाबचन्द्र जैन के प्रति अपना आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने इतनी तत्परता से इसके प्रकाशन में रुचि ली।
वेदव्यास का यह ग्रन्थ इस अर्थ में भी अद्वितीय है कि यह दो युगों के सन्धिकाल का विलक्षण प्रतिनिधित्व करता है। एक ओर युगान्त हो रहा था, दूसरी ओर नये युग का सूत्रपात हो रहा था। द्वापर और कलियुग के इस महान् संक्रमणकाल के विशिष्ट लक्षणों का महाभारत में बड़ा अद्भुत तथा रोमांचकारी रूप से यथार्थ चित्रण मिलता है। यह वह युग था जब प्राचीन मान्यताओं को ठुकराया जा रहा था, नये मूल्य प्रतिष्ठित हो रहे थे। अतीत की परम्पराओं की पुनर्व्याख्या हो रही थी तथा प्राचीन नियम पुनः परिभाषित किये जा रहे थे। कल तक जो कुछ आपत्तिजनक व अनुचित माना गया, उस वैधता की मोहर लगाकर महिमामण्डित किया जा रहा था। इस प्रकार अतीत की कठोरता नवयुग की तरलता और लचीलेपन में विगलित हो रही थी।
यह युग मिसाइलों, प्रक्षेपास्त्रों, टेस्ट-ट्यूब बेबीज़ (परखनली शिशुओं) यौन-परिवर्तन, अज्ञात पितृत्व (अथवा सुप्रानैचुरल), तथा सरोगेट माता (प्रतिनियुक्तजन्मदात्री) का युग था। आध्यात्मिक, दार्शनिक, धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा वैचारिक और वैयक्तिक क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के संघर्ष द्वन्द्व, तथा अन्तर्द्वन्द्व इस युग की विशेषताएँ हैं। हर संक्रमणकाल की भाँति द्वापर और कलियुग के सन्धिकाल में भी एक विचित्र प्रकार की बेचैनी, आकुलता तथा आन्तरिक छटपटाहट लगभग हर क्षेत्र में दिखती है। व्यक्ति की स्वतन्त्र इच्छा पूरी शक्ति से वैचारिक अभिव्यक्ति तथा आचरण की स्वतन्त्रता हेतु छटपटाहट रही है। हर व्यक्ति की आन्तरिक ऊर्जा परिपूर्णता पाने को व्यग्र है। अपनी प्रकृति, सोच तथा प्रतिभा को हर व्यक्ति परिपूर्णता देने को प्रयत्नरत है। इसलिए व्यक्ति और समष्टि के परस्पर संघर्ष भी सबसे अधिक प्रखर रूप से यहीं उजागर हुए हैं, फिर चाहे वह चार्वाक हो या एकलव्य, कर्ण हो या शिखण्डी अथवा कुन्ती हो या द्रौपदी, हर व्यक्ति अपने मौलिक ढंग से अपने आपको स्थापित करने के लिए कटिबद्ध लगता है। अपने विचार-स्वातन्त्र्य को पूरे प्राणपण से अभिव्यक्ति देता है। यही कारण है कि यह एक से एक श्रेष्ठ जुझारू व्यक्तियों का युग है। किन्तु महाभारत के इन संघर्षशील पात्रों में अम्बा (अथवा शिखण्डी) का अपना पृथक्, विशिष्ट तथा चमत्कारिक रूप से जुझारू व्यक्तित्व उभरा है जिसने कीर्तिमान स्थापित कर दिया है क्योंकि उसने अपनी अन्तिम सांस तक केवल संघर्ष ही नहीं किया, विजय भी पायी।
अम्बा समाज की ओर से निराश अवश्य हुई किन्तु अपनी संकल्पशक्ति पर अटूट विश्वास होने से हारी नहीं। आशावादी बनी रही। स्थूणाकर्ण यक्ष उस काल का अवश्य ही महान वैज्ञानिक तथा शल्य चिकित्सक रहा होगा जिसने उसे पुरुष शरीर प्रदान किया।
भीष्म का वध एक शिखण्डी द्वारा हुआ, किसी महावीर पुरुष द्वारा नहीं, इसका दुःख बहुतों को हुआ। पर शिखण्डी बनाया किसने, शिखण्डी का जन्म किसके कारण हुआ, इस पर किसी ने खेद व्यक्त नहीं किया।
अम्बा की कथा अपने आपमें अद्भुत है, विस्मयकारी है, क्योंकि अन्य कोई ऐसा दृष्टान्त कहीं नहीं मिलता जब एक नितान्त बालिका या किशोरी (‘टीन एज’) ने प्रचण्ड शक्ति से समाज के महाप्रतिष्ठित प्रौढ़ महाबली को ललकारा हो ! उस युग में ऐसी चमत्कारी संकल्पशक्ति सत्रह वर्षीया कन्या में होना अचम्भित करता है क्योंकि किसी बाहुबली को चुनौती देने का साहस तो आज भी नहीं दिखाई पड़ता। मृत्यु भीष्म की मुट्ठी में थी। उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। किन्तु अम्बा की मुट्ठी में तो जन्म और मरण दोनों थे। भीष्म कुल-कल्याण के लिए त्याग-पर-त्याग करते गये, फिर भी उनके सामने ही कुलवंश क्षार-क्षार हो गया। और वे स्वयं ही अन्तिम कुरु बनकर रह गये। इधर अम्बा मर-मरकर जीती रही, जी-जीकर मरती रही। भीष्मवध की प्रतिज्ञा हृदय से लगाये भीष्मा हो गयी।
अम्बा कोई महारानी लक्ष्मीबाई या रानी दुर्गावती न थी। वह तो समाज द्वारा तिरस्कृत मात्र एक साधनहीन अल्पवय किशोरी थी। उसकी दोनों अनुजाओं अम्बिका व अम्बालिका की वय महाभारत में विवाह के समय सोलह वर्ष बतायी गयी है। अम्बा उनसे बड़ी थी इसलिए अधिक से अधिक सत्रह-अठारह की रही होगी स्वयंवर के समय। किन्तु तब भी उसने भविष्य में संघर्ष हेतु नारी के लिए मार्ग प्रशस्त कर चमत्कार कर दिया, जिस पर भीष्म के ही जीवन-काल में द्रौपदी चल पड़ी। यही नहीं मूक न रहकर अम्बा शिखण्डी के रूप में निरन्तर अपनी द्रौपदी का साथ देती रही।
द्रौपदी की पथप्रदर्शक होकर भी अम्बा की गणना पंचकन्याओं में नहीं हो सकी। अहिल्या, तारा, मन्दोदरी, द्रौपदी एवं कुन्ती विलक्षण प्रतिभा, स्वतन्त्र इच्छा, दृढ़ संकल्पशक्ति, स्वयं निर्णय लेने की क्षमता से जिस प्रकार सम्पन्न थीं उसी प्रकार अम्बा भी इन सब गुणों की स्वामिनी थी। वही तेज, वही स्वाभिमान, वही शौर्य होते हुए भी अम्बा ‘कन्या’ के अद्भुत विरुद से सम्मानित नहीं हो पायी। पंचकन्या के प्रतिष्ठित कन्या-समूह में सम्मिलित न होने से ‘महापातकनाशिनी’ भी नहीं हो सकी। पंचकन्याओं में प्रत्येक के शारीरिक सम्बन्ध एक से अधिक पुरुष से रहे थे, इसलिए वे आलोचना की विषय बनीं किन्तु पता नहीं किस अज्ञात बुद्धिमान् व्यक्ति ने उनकी अन्य विलक्षणताओं, उनका समाज, राजनीति तथा इतिहास पर व्यापक प्रभाव आदि का पुनर्मूल्यांकन कर उन्हें ‘कन्या’ कह कर अलंकृत कर दिया। अम्बा भी विपरीत परिस्थितियों से जूझने वाली लौह-महिला थी। जिसने अपनी जीवन की दिशा स्वयं निर्धारित की थी।
अम्बा ने वह इतिहास रच डाला जो वास्तव में मानवातीत था। भीष्म को पराजित करना असम्भव न था। इच्छामृत्यु का वरदान भी उन्हें प्राप्त था। यदि अम्बा अपना संकल्प पूरा करने के लिए शिखण्डी बनकर भीष्म पर प्रहार न करती तो अजेय भीष्म तो चिरंजीवी हो गये होते ! तब तो महाभारत-युद्ध अनन्तकाल तक चलता ही रहता ! दस दिन तक तो वे कौरवों के सेनापति होकर कौरव-पाण्डवों को खेल ही खिलाते रहे, यह सोचकर कि शायद दुर्योधन में सद्बुद्धि प्रस्फुटित हो जाय और कुल को कोई महती क्षति न सहनी पड़े। यदि शिखण्डी उनके सामने न आता तो न जाने कब तक भीष्म यही खिलवाड़ करते रहते और आम सैनिकों का निर्मम वध होता रहता ! अम्बा ने शिखण्डी बनकर निश्चित रूप से महायुद्ध को एक निर्णायक मोड़ पर ला दिया, जहाँ भीष्म को विवश होकर हथियार रख देने पड़े। उनके गिरते ही महाभारत का वह पृष्ठ पलट गया। युद्ध में गति आ गयी तथा युद्ध-रथ अपने अन्त की ओर सरपट दौड़ पड़ा। दीर्घ भीष्म-युग का अन्त कर अम्बा ने इतिहास की धारा मोड़ दी।
महाभारत में इतिहास बदल देने की अम्बा अथवा शिखण्डी की इस निर्णायक भूमिका को जैसे नकार ही दिया गया। अम्बा का महत् योगदान उसका प्रताप आदि सब कौरव-पाण्डव वीरों की तुमुल जय-जयकारों के उन्मत्त घोष से दबा दिया गया।
पंचकन्या में अम्बा को स्थान न मिलने का कारण वही है जो सत्यवती पर भी लागू होता है। सत्यवती भी, स्वतन्त्र निर्णय लेनेवाली, विचार-अभिव्यक्ति तथा आचरण की स्वतन्त्रता में विश्वास रखनेवाली कन्या ही थी। परन्तु यह स्पष्ट है कि पंचकन्याएँ कहीं-न-कहीं से विष्णु-विग्रह की उपासना से जुड़ी हुई थीं। अहल्या, तारा, मन्दोदरी तीनों विष्णु के राम-अवतार की उपासिका थीं तो कुन्ती व द्रौपदी कृष्णावतार की। पंचकन्या की अवधारणा अवतारवाद पर आधारित है अतः अम्बा, सत्यवती तथा माधवी इस परिकल्पना का लाभ उठाने से चूक गयीं।
धन्य हो अम्बा ! तुम्हारी महिमा अपार है ! तुम्हें अपने एक जन्म में अग्निस्नान कर स्वयं को भस्म कर देना पड़ा। दूसरे जन्म में तुमने जलसमाधि लेकर स्वयं को जल में तिरोहित कर दिया। तीसरे जन्म में तुम्हारा जिस प्रकार कारुणिक अन्त हुआ उससे कलेजा दहल जाता है। किसी के कण्ठ में तीर लगा, किसी के वक्ष में बाण लगा, किसी का मस्तक उच्छेद हुआ तो किसी के उदर में खड्ग समा गया। किन्तु तुम !...अश्वत्थामा ने शिखण्डी के तन को अपने फरसे से दो टुकड़े कर दिया ! दो फाँक कर दिया। खण्डित मन ! खण्डित तन ! जैसा आधा-अधूरा जीवन, वैसी ही आधी-अधूरी मृत्यु गति। जीवन की ही भाँति शरीर तक बँट गया दो टुकड़ों में !
अम्बा ! क्या तुम्हारा कोई श्राद्ध करता है ? क्या तुम्हारी आत्मा की शान्ति हेतु कभी किसी ने जलांजलि दी ? स्मरण किया ? यदि अतीत में तुम्हारा कभी श्राद्ध नहीं हुआ तो अब अवश्य होगा। यदि गत सहस्रों वर्षों से तुम तर्पण के जलों के लिए प्यासी रह गयी तो आज तुम्हें तर्पण होगा।
अम्बा ! तुम्हारी विलक्षण संकल्प-शक्ति पर विमुग्ध हम, तुम्हारे अद्वितीय साहस से चकित हम, तुम्हारी इतिहास रच देने की शक्ति से अभिभूत हम नतशिर होकर तुम्हें तर्पण करते हैं।
जैसे गंगा पर गंगाजल ही चढ़ाया जाता है, अम्बा ! वैसे ही तुम्हारे इस कथारूपी अश्रुजलों से तुम्हें तर्पण निवेदित है।
उपर्युक्त विशद चर्चा इसलिए की गयी है क्योंकि कई बार पाठकों को यह भ्रम होता है कि लेखक पूर्वाग्रह-ग्रस्त है। ‘अम्बा नहीं, मैं भीष्मा !’ की विषयवस्तु के सम्बन्ध में श्री प्रदीप भट्टाचार्य, वरिष्ठ आई.ए.एस.(पं.बंगाल) डॉ.कृष्णकान्त चतुर्वेदी, कालिदास अकादमी उज्जैन के पूर्व निदेशक, एवं डॉ.श्रीमती इला घोष, प्राचार्य शा.स्नातकोत्तर महाविद्यालय कटनी, से चर्चा करके पुस्तक को निश्चित रूप से लाभ मिला है। आप सबको हार्दिक धन्यवाद ! अग्रज श्री भरतचन्द्र चतुर्वेदी, अवकाश प्राप्त आई.ई.ए.एस. के सहयोग से मनोबल बना रहा।
मार्मिक पीड़ा और असीम तेज की इस अदभुत गाथा को प्रकाशित करके भारतीय ज्ञानपीठ ने वास्तव में शिखण्डी अथवा अम्बा का उद्धार किया है। मैं भारतीय ज्ञानपीठ
के प्रति, विशेष रूप से ज्ञानपीठ के निदेशक डॉ.प्रभाकर श्रोत्रिय एवं वरिष्ठ प्रकाशन अधिकारी डॉ.गुलाबचन्द्र जैन के प्रति अपना आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने इतनी तत्परता से इसके प्रकाशन में रुचि ली।
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