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जीवनी/आत्मकथा >> विश्व शान्ति गुरु दलाई लामा

विश्व शान्ति गुरु दलाई लामा

मयंक छाया (अनुवाद अरुण तिवारी)

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :298
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7447
आईएसबीएन :9788173159671

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एक महान व्यक्तित्त्व की शोधपूर्ण जीवनगाथा...

Vishwa Shanti Guru Dalai Lama hindi book by Mayank Chhaya (Translation Arun Tiwari)

महान् आध्यात्मिक धर्मगुरु परम पावन दलाई लामा का जीवन जितना संघर्षपूर्ण रहा है उतना ही प्रेरक और पथ-प्रदर्शक भी रहा। दो वर्ष की आयु में उन्हें तेरहवें दलाई लामा के अवतार के रूप में स्वीकार किया गया और सन् 1940 में उन्हें विधिवत् अपने पूर्ववर्ती दलाई लामा का उत्तराधिकारी माना गया। इस दीर्घकालीन जीवन में दलाई लामा ने निरंतर सैद्धांतिक दृढ़ता और अहिंसा का परिचय दिया है।

विश्व के ऐसे महान् दिव्य पुरुष के बारे में जानने की जिज्ञासा हर व्यक्ति के मन में रहती है। सन् 1997 में भारतीय पत्रकार मयंक छाया को परम पावन दलाई लामा ने अपने जीवन और काल के बारे में लिखने के लिए अधिकृत किया। परम पावन दलाई लामा ने भरपूर सहयोग से लिखी गई इस आकर्षक और अद्यतन जीवनीपरक पुस्तक में व्यक्तिगत वर्णन से बढ़कर काफी कुछ है। उन्होंने तिब्बत और बौद्ध परंपरा के बारे में लिखा, जिसमें दलाई लामा का उदय हुआ। उन विचारों के बारे में बताया, जिसमें उनकी मान्यताएँ, राजनीति और आदर्शों ने आकार ग्रहण किया।

लेखक ने इस शोधपूर्ण जीवनी में दलाई लामा के निर्वासित जीवन का चित्रण किया और उन विभिन्न भूमिकाओं के बारे में बताया है, जो उन्होंने अपने अनुयायियों के लिए निभाईं। चीन और तिब्बत के अत्यंत जटिल विवाद पर उन्होंने प्रकाश डाला और चीनी कब्जे के प्रति दलाई लामा के अहिंसक रवैए से कुंठित तिब्बती युवाओं के बढ़ते असंतोष के बारे में अंदरूनी जानकारी दी है।

दलाई लामा के दर्शन, उनके कार्य और संपूर्ण जीवन पर विहंगम दृष्टि डालती प्रेरणादायक जीवनी।

मयंक छाया


मयंक छाया 25 वर्षों से पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और अब अमेरिका के बारे में व्यापक एवं गहन रिपोर्टिंग की है। नई दिल्ली स्थित इंडो-एशियन न्यूज सर्विस में दक्षिण एशियाई मामलों पर उनके लेख व्यापक रूप से पढ़े जाते हैं। वे एक समाचार और समसामयिक मामलों की वेबसाइट www.dailysub.com भी चलाते हैं। वे शिकागों में रहते हैं और पूरे अमेरिका में नियमित प्रवास करते हैं।

प्रस्तावना


चौदहवें दलाई लामा और तिब्बत मेरे बचपन की कल्पनाओं का सबसे रहस्यमय हिस्सा थे। उस व्यक्ति और उसके देश के बारे में हर बात शानदार थी-13000 फीट की ऊँचाईवाले बर्फीले पहाड़ों की धुंध भरी घाटियों में पुनः जन्म लेने की रहस्यमय कहानियाँ। बर्फ से ढके हिमालय की श्वेत पृष्ठभूमि में गेरुआ चोले पहने, सिर मुँड़ाए भिक्षु मुझे इतना आकर्षित करते थे कि मुझे इस बात की परवाह नहीं थी कि ऐसी दुनिया हकीकत में है या नहीं। जब तक ये कहानियाँ मन को मोहती थीं, मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि वे सच हैं या नहीं। इसकी अच्छी-खासी संभावना थी कि तिब्बत और दलाई लामा दोनों का वाकई अस्तित्व था, लेकिन ’60 के दशक की शुरुआत में मेरे भारतीय बचपन में वे हकीकत से अधिक जादुई लोककथा का हिस्सा लगते थे। जिस देश में हकीकत और रहस्य लगातार एक-दूसरे में समाहित और रूपांतरित होते रहते हैं, इससे क्या फर्क पड़ता था कि उस दुनिया का अस्तित्व है या नहीं ! जो भी हो, मुश्किल से दस वर्ष की उम्र के बच्चों के लिए निश्चित रूप से जादुई दुनिया असली से कहीं अधिक मोहक थी।

वह खयाल हर बार सर्दियों के आने के साथ बदल जाता था और दलाई लामा का अस्तित्व वास्तिवक हो उठता था, जब तिब्बती शरणार्थियों द्वारा बेचे जानेवाले चटख रंगों के स्वेटरों के ढेरों के साथ उनके सैकड़ों चित्र और तसवीरें मेरे शहर की पटरियों पर सज जाते थे। कम-से-कम यह तो सच था कि तिब्बती लोगों का अस्तित्व था। ऐसा संभव लगता था कि आखिरकार दलाई लामा नाम का कोई व्यक्ति है। मुझे याद है कि मैंने एक तिब्बती महिला से पूछा था कि ‘उस तसवीर में बच्चे जैसा दिखनेवाला वह आदमी’ कौन था। ‘वे परम पवित्र हैं। वे जीवित बुद्ध हैं।’ उसने जवाब दिया। मुझे तो परम ‘परम पवित्र’ समझ में आया, ‘जीवित बुद्ध’।

मैं सिर्फ एक बुद्ध को जानता था, जिनकी लगभग 2,500 वर्ष पहले मृत्यु हो चुकी थी। मुझे यह सवाल परेशान कर रहा था कि अगर गौतम बुद्ध की मृत्यु इतने समय पहले हो चुकी है तो वे अब भी जीवित कैसे हैं ? उस राज को सुलझाने में मुझे और पंद्रह वर्ष लगे।

चूँकि मैं ऐसे देश में पला-बढ़ा था, जहाँ औघड़ और संन्यासी बहुतायत में पाए जाते हैं, इस बात की संभावा कम थी कि एक और भिक्षु मुझे आकृष्ट कर पाता। यह उस एक के बारे में सच था, जो उत्तर-पश्चिमी भारत की हिमालय-पूर्व धौलाधार पर्वत श्रृंखला में कुछ हजार मील दूर रहता था। ’60 और ’70 के दशक में स्थानीय भारतीय अखबारों में अकसर दलाई लामा का जिक्र होता था, खासकर 1962 में चीन के साथ देश के भीषण युद्ध के बाद। मेरे पड़ोस में कुछ दिलचस्प रूप से गुमराह लोग थे, जो वाकई मानते थे कि भारत दलाई लामा की तांत्रिक शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए चीन से अपनी हार का बदला ले सकता है। आम लोग ऐसी शक्तियों को किसी तरह का काला जादू या तंत्र-मंत्र मानते थे। उनके साफ-सुथरे, पर दोषपूर्ण सिद्धांत, में मुश्किल से तीन साल पहले हमलावर चीनी सेना द्वारा अपनी जान को गंभीर खतरे के कारण तिब्बत छोड़ने पर मजबूर हुए दलाई लामा उनसे हिसाब बराबर करने के लिए तड़प रहे होंगे। और एक अवतारी बौद्ध भिक्षु के लिए काला जादू से अधिक ताकतवर हथियार और क्या हो सकता है ?

1967 में, भारत और चीन के बीच लड़ाई के पूरे पाँच सालों बाद, मेरे एक पड़ोसी ने मेरे जैसे अनजान व प्रभावित किए जा सकनेवाले बच्चों को इकट्ठा किया और एक गहरी समाधि में जाते तथा पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के खिलाफ विनाशकारी ऊर्जा छोड़ते दलाई लामा की एक छवि पेश की। चूँकि वे हिंदू देवता भगवान् शिव के नाम पर विख्यात कैलाश पर्वत की भूमि से आए थे, उस किस्सागो ने हमें बताया कि दलाई लामा की तीन आँखें हैं, जिनमें एक उनके माथे के मध्य में है। उनकी तीसरी आँख में ही उनकी सारी आलौकिक विनाशकारी शक्ति निहित है। अगर उन्होंने अपनी वह आँख खोली तो चीन के बचने का कोई सवाल नहीं है। उसने बहुत विश्वास के साथ दावा किया कि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दलाई लामा को अपना विनाशकारी कोप दिखाने के लिए तैयार कर लिया है, जो चीनी सेना को क्षण भर में चूर-चूर कर देगा। पड़ोस के कल्पनावादी द्वारा उकसाई गई ऐसी फिजूल की कल्पनाओं ने मेरी इस धारणा को और मजबूत कर दिया कि दलाई लामा हकीकत से कहीं अधिक जादुई हैं।


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