जीवनी/आत्मकथा >> महाराणा कुंभा महाराणा कुंभाराजेंद्र शंकर भट्ट
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कुंभा का संपूर्ण 35 वर्ष का शासनकाल युद्धों एवं विजयों से भरा है, फिर भी उसने जो सर्वोच्च रूप का साहित्य, संगीत, नाट्य, शिल्प शास्त्र (मंदिर, भवन, किले) का अद्भुत असीम भंडार हमें दिया है वह अवर्णनीय है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महाराणा कुंभा राजस्थान के शासकों में सर्वश्रेष्ठ थे।
मेवाड़ के आसपास जो उद्धत राज्य थे, उन पर उन्होंने अपना आधिपत्य स्थापित
किया। 35 वर्ष की अल्पायु में उनके द्वारा बनवाए गए बत्तीस दुर्गों में
चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, अचलगढ़ जहां सशक्त स्थापत्य में शीर्षस्थ हैं वहीं
इन पर्वत-दुर्गों में चमत्कृत करने वाले देव भवन भी हैं। उनकी विजयों का
गुणगान करता विश्वविख्यात कीर्ति (विजय) स्तंभ राष्ट्र की अमूल्य धरोहर
है। लेखक ने कुंभा के इतिहास को केवल युद्धों की विजय तक सीमित नहीं किया
बल्कि बहुत विस्तार से महाराणा की शक्ति और संगठन क्षमता के साथ-साथ उनकी
रचनात्मकता का विशद परिचय भी दिया है। ‘संगीत राज’ उनकी महान
रचना है जिसे साहित्य का कीर्ति स्तंभ माना जाता है।
13 जून, 1822 को सूर्योदय के पहले छः बजे जेम्स टॉड जब अग्नि कुंड से अचलगढ़ पर चढ़ा, अतीत उसके सामने साक्षात हो गया : ‘‘टूटी-फूटी छतरियां हमारे चारों ओर घिरे हुए बादलों में डूबी हुई थीं।’’ ‘‘किसी जमाने के राजकीय आवास में जब उसके हनुमान दरवाजे से प्रवेश किया,’’ ‘‘टूटी-फूटी दीवारें इस विषम चढ़ाई में कहीं-कहीं दिखाई दीं।’’ यहाँ उसे राणा कुंभा की याद आई : ‘‘यहीं अनाज के वे भी कोठे हैं जो कुंभाराणा के भंडार कहलाते हैं, इनके भीतर की तरफ बहुत मजबूत सीमेंट पुता हुआ है, परंतु छत गिर गई है। पास ही, बाईं तरफ उनकी रानी का महल है, जो हिंदुओं के जगत कूंट ‘ओक मंडल’ (आख्या) मंडल की होने के कारण ‘ओका राणी’ कहलाती थी। दुर्ग में एक छोटी-सी झील भी है जिसको सावन-भादों कहते हैं, जून मास के मध्य में भी पानी से भरी रहने के कारण यह पावस के इन दोनों प्रमुख महीनों के नाम को सार्थक करती है। पूर्व की ओर सबसे ऊंची टेकरी पर परमारों की भय-सूचिका बुर्ज (अलार्म टावर) के खंडहर हैं, जो अब तक कुंभा राणा के नाम से प्रसिद्ध हैं, यहां से तेज दौड़ने वाले बादलों को यदा-कदा चीरती हुई दृष्टि उस वीर जाति की बलि वेदी और महलों पर पड़ती है जिसने उस स्थल पर, जहां से मैंने निरीक्षण किया था, आत्मरक्षा के लिए अपना खून बहाया था। सम्मिश्रण सम्मोहित करता है सुंदरताओं, जल प्रवाहों और कंदराओं का, फल, पल्लव, पाषाण खंड, वनस्थली, अन्नदाता खेत, शेल शिखर, अंगूरी वल्लारी, और अधिपतिहीन दुर्ग, जो निर्ममता से विदाई स्फुरित करते हैं, वहां से जहां पुरानी पड़ी दीवारें पत्तों से भरी हैं, जहां विनाश प्राणवाण होकर प्रस्तुत है।
जेम्स टॉड ने ‘‘हजारों शरदकालीन हवा के निर्मम झोंके खा-खाकर काली पड़ गई ‘‘चट्टानों पर अपने प्रतिभा-प्रसून चढ़ाकर, गद्य को पद्य बनाया है, और पद्य की ज्योति प्रदान की है, परंतु तथ्य उसके समय में इतने उजागर नहीं हुए थे कि सत्य का भी साथ मिल जाता। या यों कहीं चट्टानों पर सूर्य की पहली किरणों की चकाचौंध में वह आ गया, जिससे उसकी कलम से निकल गया : ‘‘अचलगढ़ के किले को राणा कुंभा ने बनवाया था’’ यहाँ तक वह सही है, लेकिन इसके आगे के शब्द इतिहास स्वीकार नहीं करता : ‘‘जब उसको मेवाड़ के ‘चौरासी किलों’ से निकाल दिया गया था।’’ अचलगढ़ का निर्माता कुंभा अपने बनवाए किलों से कभी निकाला नहीं गया, उनसे सेना लेकर उसने आबू का शीर्षस्थ स्थल जीता था, और वहाँ अपनी स्मृति ऐसी सुरक्षित की कि 370 साल बाद भी टॉड को यही कुंभा के लिए कहना पड़ा : ‘‘मेवाड़ के सुयोग्य वीरों के प्रतिनिधि राणा कुंभा,’’ जिनकी अश्वाधिष्ठित पीतल की प्रतिमा को उसने उतराई में ‘‘नमस्कार किया–इस राणा ने इन्हीं दीवारों में बहुत-सी लड़ाइयों में लोहा लिया था।’’
टॉड ऊंचाई से उतरा था और पुराने पद उसकी आंखों पर आ रहे थे : ‘‘इन भग्नावशेषों के ढेरों के बीच खड़े होकर किसका मन भारी (दुःखी) न हो जाएगा ? इन गहरे हरे पत्थरों में, जिन पर तुम चल रहे हो, उन टूटी, फूटी चट्टानों के टुकड़ों में, जिन पर घनी जंगली बेलें फैल गईं हैं और जहां कभी झंडा फहराया जाता था, कितने गौरवपूर्ण इतिहास छुपे हैं ? ये अनावृत छत्रविहीन प्रासाद जिनमें आज हम विनीत किंतु आशापूर्ण होकर निकलते हैं और मृतकों एवं जीवित व्यक्तियों के प्रति उदार भाव धारण करते हैं, (हमारी) विचारशील दृष्टि के लिए कितने उत्कृष्ट विषय एवं विचारों के लिए कितने पवित्र आधार उपस्थित कर देते हैं ?’’
13 जून, 1822 को सूर्योदय के पहले छः बजे जेम्स टॉड जब अग्नि कुंड से अचलगढ़ पर चढ़ा, अतीत उसके सामने साक्षात हो गया : ‘‘टूटी-फूटी छतरियां हमारे चारों ओर घिरे हुए बादलों में डूबी हुई थीं।’’ ‘‘किसी जमाने के राजकीय आवास में जब उसके हनुमान दरवाजे से प्रवेश किया,’’ ‘‘टूटी-फूटी दीवारें इस विषम चढ़ाई में कहीं-कहीं दिखाई दीं।’’ यहाँ उसे राणा कुंभा की याद आई : ‘‘यहीं अनाज के वे भी कोठे हैं जो कुंभाराणा के भंडार कहलाते हैं, इनके भीतर की तरफ बहुत मजबूत सीमेंट पुता हुआ है, परंतु छत गिर गई है। पास ही, बाईं तरफ उनकी रानी का महल है, जो हिंदुओं के जगत कूंट ‘ओक मंडल’ (आख्या) मंडल की होने के कारण ‘ओका राणी’ कहलाती थी। दुर्ग में एक छोटी-सी झील भी है जिसको सावन-भादों कहते हैं, जून मास के मध्य में भी पानी से भरी रहने के कारण यह पावस के इन दोनों प्रमुख महीनों के नाम को सार्थक करती है। पूर्व की ओर सबसे ऊंची टेकरी पर परमारों की भय-सूचिका बुर्ज (अलार्म टावर) के खंडहर हैं, जो अब तक कुंभा राणा के नाम से प्रसिद्ध हैं, यहां से तेज दौड़ने वाले बादलों को यदा-कदा चीरती हुई दृष्टि उस वीर जाति की बलि वेदी और महलों पर पड़ती है जिसने उस स्थल पर, जहां से मैंने निरीक्षण किया था, आत्मरक्षा के लिए अपना खून बहाया था। सम्मिश्रण सम्मोहित करता है सुंदरताओं, जल प्रवाहों और कंदराओं का, फल, पल्लव, पाषाण खंड, वनस्थली, अन्नदाता खेत, शेल शिखर, अंगूरी वल्लारी, और अधिपतिहीन दुर्ग, जो निर्ममता से विदाई स्फुरित करते हैं, वहां से जहां पुरानी पड़ी दीवारें पत्तों से भरी हैं, जहां विनाश प्राणवाण होकर प्रस्तुत है।
जेम्स टॉड ने ‘‘हजारों शरदकालीन हवा के निर्मम झोंके खा-खाकर काली पड़ गई ‘‘चट्टानों पर अपने प्रतिभा-प्रसून चढ़ाकर, गद्य को पद्य बनाया है, और पद्य की ज्योति प्रदान की है, परंतु तथ्य उसके समय में इतने उजागर नहीं हुए थे कि सत्य का भी साथ मिल जाता। या यों कहीं चट्टानों पर सूर्य की पहली किरणों की चकाचौंध में वह आ गया, जिससे उसकी कलम से निकल गया : ‘‘अचलगढ़ के किले को राणा कुंभा ने बनवाया था’’ यहाँ तक वह सही है, लेकिन इसके आगे के शब्द इतिहास स्वीकार नहीं करता : ‘‘जब उसको मेवाड़ के ‘चौरासी किलों’ से निकाल दिया गया था।’’ अचलगढ़ का निर्माता कुंभा अपने बनवाए किलों से कभी निकाला नहीं गया, उनसे सेना लेकर उसने आबू का शीर्षस्थ स्थल जीता था, और वहाँ अपनी स्मृति ऐसी सुरक्षित की कि 370 साल बाद भी टॉड को यही कुंभा के लिए कहना पड़ा : ‘‘मेवाड़ के सुयोग्य वीरों के प्रतिनिधि राणा कुंभा,’’ जिनकी अश्वाधिष्ठित पीतल की प्रतिमा को उसने उतराई में ‘‘नमस्कार किया–इस राणा ने इन्हीं दीवारों में बहुत-सी लड़ाइयों में लोहा लिया था।’’
टॉड ऊंचाई से उतरा था और पुराने पद उसकी आंखों पर आ रहे थे : ‘‘इन भग्नावशेषों के ढेरों के बीच खड़े होकर किसका मन भारी (दुःखी) न हो जाएगा ? इन गहरे हरे पत्थरों में, जिन पर तुम चल रहे हो, उन टूटी, फूटी चट्टानों के टुकड़ों में, जिन पर घनी जंगली बेलें फैल गईं हैं और जहां कभी झंडा फहराया जाता था, कितने गौरवपूर्ण इतिहास छुपे हैं ? ये अनावृत छत्रविहीन प्रासाद जिनमें आज हम विनीत किंतु आशापूर्ण होकर निकलते हैं और मृतकों एवं जीवित व्यक्तियों के प्रति उदार भाव धारण करते हैं, (हमारी) विचारशील दृष्टि के लिए कितने उत्कृष्ट विषय एवं विचारों के लिए कितने पवित्र आधार उपस्थित कर देते हैं ?’’
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