कहानी संग्रह >> मैथिली कथा संचयन मैथिली कथा संचयनशिवशंकर श्रीनिवास (संपादक)
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मैथिली कथा संचयन में संकलित मैथिलीक 38 गोट बीछल कथा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आर्थिक एवं औद्योगिक रूपसँ अत्यंत पिछड़ल,
किंतु बौद्धिक रुपसँ पर्याप्त उन्नत मिथिला क्षेत्रेमे एहेन असंख्य समस्या
सभ अछि, जे संपूर्ण देशेमे नहि अछि;ओ सब मात्र एहि ठामक क्षेत्रीय समस्या
थिक। सामाजिक मान्यता, रूढ़ि, आ पारंपरिक आचारक कैकटा बद्धमूल विडंबना
मिथिलांचलक जन-जीवनमे व्याप्त आछि। कृषि-कर्म पूर्णतया प्रकृति पर निर्भर
अछि, औद्योगिक विकास शून्य अछि, वाणिज्यक बाट बंद अछि, तकनीकी शिक्षाक
संभावना क्षीण अछि, रोजगारक मार्ग अवरुद्ध अछि, धार्मिक आ सांप्रदायिक
पाखंड पराकाष्ठा पर, दहेज आ निर्धनता प्रचुर मात्रामे; यौन विकृति, यौन
शोषण, श्रमक अवमूल्यन, छुआछूत, जाति-विभेद, कौलिक विभेद, मानवीय संबंधक
अवमूल्यन, निठल्लापन, चुगलखोरी, परनिंदा, दियादी डाह, अंधविश्वास...अइ
समस्त परिस्थितिसँ संघर्ष करैत मैथिलजन जाहि तरहें अपन जीवन-यापन करैत अछि
आ अपन भूमिसँ पलायन क’ कए जीवन रक्षाक आधार जुटबैत
अछि–मिथिलांचलमे रचल जाइवाला साहित्य ओही परिदृश्यक जीवंत चित्र
थिक। मैथिली कथा संचयनमे संकलित मैथिलीक 38 गोट बीछल कथा अइ तथ्यक प्रमाण थिक। मिथिलाक सांस्कृतिक चेतना, बौद्धिक उन्मेष, आर्थिक पराभव आ राजनीतिक त्रासदीक संकेत एतए नीक जकाँ अंकित अछि। प्रेम, प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य आ
यौन-वृत्ति पर आजुक साहित्य, आधुनिक संदर्भमें कोन तरहें सावधान अछि, तकर
प्रमाणिक विवरण एतए अछि। मिथिला आ मैथिलीक जीवन-क्रम, आचार-विचार,
शील-संस्कार, शिल्प शैली अपन मौलिक स्वरूपमे एतए अंकित अछि। ई संकलन एक
संगे मैथिली कथाक विकास क्रम आ मैथिली कथाक उपलब्धि देखएबामे सक्षम अछि।
मधुरमनि
कांचीनाथ झा ‘किरण’
‘‘भानस भेलै ?’’
‘‘हाँ ! भानसे टा ? नौ टा तीमन-सचार लागल राखल अए ! काज ने धंधा, तीन रोटी बंधा ! दरबज्जा पर बैसल-बैसल बात गढ़ैत रहता–भानस भेलै ? भानस भेलै ?’’
मोचनकें दोसर वाक्य बजबाक साहस ने भेलैक। नांगड़। बाम हाथ सुखाएल सन। बोनि-बुत्ता किछु करबाक सामर्थ्य नै। दरबज्जा पर बैसल-बैसल जौड़ बाँटल करए आ कखनो-कखनो बाड़ी-झाड़ीमे खुरपी ल’ क’ कमाए-कोड़ए।
गुजर चलैत छलैक बहुएक बलें। बहु छलैक बड़ मेहनतिया–जँघगरि तेहने। भरि दिन एहि आँगन ओहि आँगन नचिते रहैक। अप्पन कमाइ खा क’ नांगड़-लुल्हक त’रमे किऐक बसैत छलि ओ, सैह सभकें आश्चर्य होइ।
मोचनकें हिस्सख तँ छलैक बहुत बात सुनबाक, मुदा नै जानि ओहि दिन किऐक असहाज भ’ गेलैक। विचारलक...नै काज कएल हएत, तँ धीया-पुताकें खेलाओल-थथमारल होएत कि ने ? आ सेहो ने होएत तँ भीखे मांगब। घरोमे तँ भीखे खाइ छी। आनक कमाइ भीखे थिक कि ने ? मारए मुँह एहन जीवनकें।
मोचन चुप्पे अपन जे फाटल-पुरान छलैक, तकर मोटरी बान्हि काँखमे लटका, लाठी पर दैत बिदा भ’ गेल टीसन पर क’।
मधुरमनि दालिक अदहन चढ़ा, साग झाड़ि रहलि छलि, तखने तँ मोचन टोकने छलैक। मुँहमे जे अएलैक से कहैत हाँइ-हाँइ साग धोलक। दालि लगाक’ मड़ुआ पीस’ बैसलि। सभ दिन जाँतक गतिक संगहि ओकर मुँहसँ लगनी झरना जकाँ बहि चलैक। मुदा आइ ओकर मन थिर कहाँ छलैक ? अपराहान्त भ’ गेल रहैक। ‘एक कोन बासि रोटी भिनसरे मनसाक पेटमे पड़लैक। कखन ने बिलाएल हेतै।’ तें दू झीक पीसए आ उठिकए आँच उसकाबए। दालिकें लाड़िकए सिझलै कि नै से देखए। मसुरीक दालि। आन दिन कराहीमे पड़िते जेना भक्का-भक्का भ’ जाइत छलैक आ पाइ पाथर भ’ गेलैक।
फेर मडुआ पीस’ लागलि। दालि ढहलैक तँ साग ओहिमे ध’ देलकैक, दाबिसँ
लाड़ि-लाड़ि, ढाकनसँ झाँपि, जाँतक हाथड़ पकड़लक। पीस’ लागलि। वैह मधुरमनि थिक, लगनी गीत ओकरा पेटमे उपरौंझ करैत रहैत छलैक मुँहमे आबक लेल, मुदा आइ जे ना सभ गीत मुरझाएल पड़ल रहि गेलैक। चुप्पे पीसैत रहिल।
‘‘मधुरमनि ! मर ! ई की ? आइ चुप्पे ?’’
‘‘आबथु ! बैसथु !’’–मधुरमनि उत्तर देलकैक।
‘‘किछु होइ छ’ ?’’–सतना माइ प्रश्न करैत देहरि लग बैसि गेलि।
‘‘कहाँ किछु होइए ! अपराहान्त भ’ गेलै आ भानसक पुछारी कएलकै तँ उनटले हमहीं झझकारि लेलिऐ। तें हाँइ-हाँइ करै छिऐ।’’
जाँतक गति आरो तेज भ’ उठल। ओना मधुरमनि खूब गप्पी। सभ लपटोरनीए कहैक। मुदा आइ ओकर बस चलितैक तँ अपन मनक संगहि जाँतकें चलबैति।
‘‘बाजलहक तँ कोन बेजाए कएलहक ! कोनो जोकरक तँ ने। कपार पर बथाएल छलहु तोरा ई। नै कमाएल होइ छै तँ भीखो मांगि लाओत, सेहो नै।’’
मधुरमनिकें नै सोहइलैक सतना माइक बात। अपन साँइकें बाजतै, फज्झति करतै, तँ आन किए किछु कहतै ? ओकर देह गरम भ’ गेलैक। डोका सनक आँखि जेना दुगुन्ना पैघ भ’ गेलैक।
‘‘हाँ ! भानसे टा ? नौ टा तीमन-सचार लागल राखल अए ! काज ने धंधा, तीन रोटी बंधा ! दरबज्जा पर बैसल-बैसल बात गढ़ैत रहता–भानस भेलै ? भानस भेलै ?’’
मोचनकें दोसर वाक्य बजबाक साहस ने भेलैक। नांगड़। बाम हाथ सुखाएल सन। बोनि-बुत्ता किछु करबाक सामर्थ्य नै। दरबज्जा पर बैसल-बैसल जौड़ बाँटल करए आ कखनो-कखनो बाड़ी-झाड़ीमे खुरपी ल’ क’ कमाए-कोड़ए।
गुजर चलैत छलैक बहुएक बलें। बहु छलैक बड़ मेहनतिया–जँघगरि तेहने। भरि दिन एहि आँगन ओहि आँगन नचिते रहैक। अप्पन कमाइ खा क’ नांगड़-लुल्हक त’रमे किऐक बसैत छलि ओ, सैह सभकें आश्चर्य होइ।
मोचनकें हिस्सख तँ छलैक बहुत बात सुनबाक, मुदा नै जानि ओहि दिन किऐक असहाज भ’ गेलैक। विचारलक...नै काज कएल हएत, तँ धीया-पुताकें खेलाओल-थथमारल होएत कि ने ? आ सेहो ने होएत तँ भीखे मांगब। घरोमे तँ भीखे खाइ छी। आनक कमाइ भीखे थिक कि ने ? मारए मुँह एहन जीवनकें।
मोचन चुप्पे अपन जे फाटल-पुरान छलैक, तकर मोटरी बान्हि काँखमे लटका, लाठी पर दैत बिदा भ’ गेल टीसन पर क’।
मधुरमनि दालिक अदहन चढ़ा, साग झाड़ि रहलि छलि, तखने तँ मोचन टोकने छलैक। मुँहमे जे अएलैक से कहैत हाँइ-हाँइ साग धोलक। दालि लगाक’ मड़ुआ पीस’ बैसलि। सभ दिन जाँतक गतिक संगहि ओकर मुँहसँ लगनी झरना जकाँ बहि चलैक। मुदा आइ ओकर मन थिर कहाँ छलैक ? अपराहान्त भ’ गेल रहैक। ‘एक कोन बासि रोटी भिनसरे मनसाक पेटमे पड़लैक। कखन ने बिलाएल हेतै।’ तें दू झीक पीसए आ उठिकए आँच उसकाबए। दालिकें लाड़िकए सिझलै कि नै से देखए। मसुरीक दालि। आन दिन कराहीमे पड़िते जेना भक्का-भक्का भ’ जाइत छलैक आ पाइ पाथर भ’ गेलैक।
फेर मडुआ पीस’ लागलि। दालि ढहलैक तँ साग ओहिमे ध’ देलकैक, दाबिसँ
लाड़ि-लाड़ि, ढाकनसँ झाँपि, जाँतक हाथड़ पकड़लक। पीस’ लागलि। वैह मधुरमनि थिक, लगनी गीत ओकरा पेटमे उपरौंझ करैत रहैत छलैक मुँहमे आबक लेल, मुदा आइ जे ना सभ गीत मुरझाएल पड़ल रहि गेलैक। चुप्पे पीसैत रहिल।
‘‘मधुरमनि ! मर ! ई की ? आइ चुप्पे ?’’
‘‘आबथु ! बैसथु !’’–मधुरमनि उत्तर देलकैक।
‘‘किछु होइ छ’ ?’’–सतना माइ प्रश्न करैत देहरि लग बैसि गेलि।
‘‘कहाँ किछु होइए ! अपराहान्त भ’ गेलै आ भानसक पुछारी कएलकै तँ उनटले हमहीं झझकारि लेलिऐ। तें हाँइ-हाँइ करै छिऐ।’’
जाँतक गति आरो तेज भ’ उठल। ओना मधुरमनि खूब गप्पी। सभ लपटोरनीए कहैक। मुदा आइ ओकर बस चलितैक तँ अपन मनक संगहि जाँतकें चलबैति।
‘‘बाजलहक तँ कोन बेजाए कएलहक ! कोनो जोकरक तँ ने। कपार पर बथाएल छलहु तोरा ई। नै कमाएल होइ छै तँ भीखो मांगि लाओत, सेहो नै।’’
मधुरमनिकें नै सोहइलैक सतना माइक बात। अपन साँइकें बाजतै, फज्झति करतै, तँ आन किए किछु कहतै ? ओकर देह गरम भ’ गेलैक। डोका सनक आँखि जेना दुगुन्ना पैघ भ’ गेलैक।
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