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चाणक्य और चन्द्रगुप्त

हरिनारायण आप्टे

प्रकाशक : शिक्षा भारती प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7407
आईएसबीएन :9788174831033

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हरिनारायण आप्टे का एक अत्यन्त रोचक ऐतिहासिक उपन्यास...

Chanakya Aur Chandragupta - A Hindi Book - by Harinarayan Apte

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

चाणक्य और चन्द्रगुप्त ऐसे नाम हैं जिनके बिना भारतीय इतिहास और राजनीति का वर्णन अधूरा है। भारत में तो चाणक्य नीति को ही वास्तविक राजनीति माना जाता है और मगध नरेश के महामंत्री कौटिल्य की कूटनीति जगप्रसिद्ध है। चाणक्य ने मगध के राजदरबार में हुए अपमान के कारण नंदवंश का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा की, और षड्यंत्र रच कर मगध नरेश धनानन्द एवं उसके आठ पुत्रों की हत्या कराने के पश्चात् चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र के सिंहासन पर विराजमान करा दिया।

हरिनारायण आप्टे ने अपने इस उपन्यास में इतिहास के इस काल का दर्शन कराते हुए चाणक्य और चन्द्रगुप्त के बारे में कई ऐसे तथ्य प्रस्तुत किये हैं जिनसे इस पुस्तक की रोचकता बढ़ी है।

पहला परिच्छेद

प्रमाण

गहन अरण्य-हिमालय का गहन अरण्य–गगनचुम्बी वृक्ष, सो भी कितने प्रकार के ? कुछ कहा नहीं जा सकता। हिमालय को सब औषधियों और वनस्पतियों का घर कहते हैं, यह झूठ नहीं। हिमालय पर हर प्रकार के वृक्ष-वनस्पतियाँ और लताएँ हैं। इस के अरण्य एकदम गहन होंगे, यह बताने में कोई नवीनता नहीं। ऐसे ही एक अरण्य में एक सुव्यवस्थित आश्रम था। इस आश्रम को ‘चाणक्य आश्रम’ कहते थे। ब्रह्मपुत्र से जाकर मिलने वाली एक छोटी-सी नदी के किनारे यह आश्रम था। इस आश्रम में अनेक ब्राह्मण और विद्याध्ययन के लिए आये हुए विद्यार्थी आकर टिके हुए थे। चाणक्य को चारों वेद और उनकी शाखाओं और उपशाखाओं का ज्ञान था। कुलपति बनने-योग्य यदि कोई व्यक्ति था तो वह चाणक्य ही था, यह बात निर्विवाद है। उसके शिष्य नाना प्रकार की शिक्षा के लिए आये हुए थे। उनमें सब ब्राह्मण ही न होकर अस्त्र-विद्या सीखने वाले क्षत्रिय भी थे। सारांश यह कि चाणक्य का आश्रम वाल्मीकि, विश्वामित्र, वशिष्ठ के आश्रमों के समान था। चाणक्य के मन में इस बात का दृढ़ निश्चय था कि मुझमें वशिष्ठ के समान योग्यता है। विश्वामित्र की तरह मैं किसी क्षत्रिय वीर को शिक्षा दूँगा और उससे रामायण में वर्णित पराक्रम करवाऊँगा। एक बड़ा और स्वतन्त्र राज्य स्थापित करवाऊँगा। पृथ्वी-विजय के हेतु अश्वमेध यज्ञ करवाऊँगा और असंख्य हीरे-मोतियों से जड़ित राजमुकुट पहनाऊँगा। राजा राम को विश्वामित्र ने ही इतना योग्य बनाया था कि वे राम-राज्य स्थापित कर सके। पर मैं तो एक ऐसे क्षत्रिय-पुत्र को हाथ में लेकर शिक्षा दूँगा जिसका कोई रहने तक का ठिकाना नहीं तथा जिसके लिए अन्य कोई साधन नहीं–और ऐसे ही क्षत्रिय-पुत्र से एक महान् राज्य स्थापित करवाकर उस पर उसे बिठाऊँगा। जिस मगधराज ने मेरा अपमान किया है, मेरे गुणों की परवाह नहीं की और एक कपटी ब्राह्मण के कहने में आकर मुझे अपमानित करके निकाल दिया, उसका समूल नाश करके इस क्षत्रिय किशोर को गद्दी पर बैठाऊँगा।’’ इसी प्रकार के उद्गार इस आश्रम के ब्राह्मण के मुँह से सदा निकलते रहते। अपनी बुद्धि के अनुसार ही उसने एक तेजस्वी क्षत्रिय बालक को ढूँढ़ निकाला और उसके साथ-साथ ही हिमालय के भील-कुमारों को भी शस्त्र-विद्या और धनुर्वेद की शिक्षा देने लगा। बालक भी अपने गुरु से प्रेम के साथ शिक्षा ग्रहण करते, और उन बालकों की दिन-प्रतिदिन की प्रगति देख उनके गुरु को भी आनन्द प्राप्त होता। दिन-प्रतिदिन अपना उद्देश्य निकल आता जा रहा है, यह जानकर उसे विशेष प्रकार का आनन्द आता था। अब अगला कार्यक्रम क्या होना चाहिए–इसकी तरफ उसका ध्यान गया। रणांगन में शत्रु के सामने खड़े होकर ये शिष्य किसी भी हालत में जीत नहीं सकते। उसे इस बात का निश्चय था कि मेरे शिष्यों में शैर्य-बल की कमी नहीं है; पर वे संख्या की दृष्टि से बहुत कम थे। मगधदेश का राजा बड़ा पराक्रमी था और उसके सैन्यबल का कुछ ठिकाना न था। उसके कितने ही सहायक राजा भी थे। इतना सैन्यबल इन वीर-पुत्रों में कहाँ से आये ? एक यही विचार उस ब्राह्मण के मन में सदा चक्कर लगाता रहता। नदी-किनारे बैठा वह यही बातें सोचता रहता। आश्रम में इतनी भीड़ रहती कि उसे नदी-किनारे अलग स्थान पर रहना पड़ता। जहाँ गुरु एकान्त में रहते वहाँ जाकर उनसे बातें करना शिष्यों के लिए सम्भव न था। पर गुरु का एक अत्यन्त प्यारा शिष्य, जिसका नाम चन्द्रगुप्त था, जब चाहता तब जाकर गुरु से बातें करता, चाहे वे समाधि की अवस्था में ही क्यों न होते। जिस तरह माँ-बाप के यदि दस पुत्र हैं तो उनमें से एक पर ही उनका विशेष प्रेम होता है और उसके अपराध को अपराध नहीं समझते; और अगर समझते भी हैं तो उसको सामान्य समझ क्षमा कर देते हैं, इसी प्रकार का सम्बन्ध चाणक्य और चन्द्रगुप्त का था। गुरु के पास कितने ही शिष्य थे और वे कितनी ही प्रकार की शिक्षा ग्रहण करते थे, पर चन्द्रगुप्त पर चाणक्य का बहुत प्रेम था।

पाठक तो समझ ही गये होंगे कि पहले बताये हुए दरिद्र ब्राह्मण और हिमालय पर मिला हुआ बालक यही है। चाँदनी रात में मिले हुए उस बालक का नाम उस दरिद्र गुराखी ने चन्द्रगुप्त रखा। उसे विश्वास था कि वह बालक मेरे हाथों पल कर अवश्य कोई बड़ा काम करेगा। उस ब्राह्मण ने भी यह निश्चित कर लिया कि जब तक मैं मगधराज से बदला न ले लूँगा तब तक के लिए अपना पुराना नाम छोड़ दूँगा। और जब हिरण्यगुप्त अर्थात् धनानन्द का नाश कर लूँगा तब पुराने नाम को ग्रहण करूँगा। ब्राह्मण में कार्य करने की शक्ति थी और वह दृढ़ निश्चयी था। उस गुराखी से बालक को माँग लेने के पश्चात् वह ब्राह्मण तक्षशिला न लौटा तथा वहीं हिमालय पर एक पर्णकुटी बनाकर बालक को शस्त्रास्त्र-विद्या सिखाने लगा। उसने उस बालक को बहुत-सी शिक्षाएँ दीं, पर अकेले बालक से मैं क्या कर सकूँगा–यह चाणक्य के मन में आया। परन्तु क्या वह उत्साही ब्राह्मण निराश हो सकता था ? जिस तरह भगवान् रामचन्द्रजी ने वानरों की सेना से लंका का नाश किया था, उसी प्रकार उसने हिमालय पर रहने वाले भील, मातंक और चाण्डाल आदि नीच जातियों द्वारा मगध देश के राजा को, जो कि चाण्डालों से भी गया बीता था, हराना निश्चित किया। उसने उन जातियों का हीनत्व मन से निकाल दिया और उन्हें भी शिक्षा देने लगा। उसकी ख्याति चारों तरफ फैल गई और कितने ही ब्राह्मणपुत्र भी शिक्षा के लिये उसके पास आने लगे। इसी प्रकार कुछ दिन बीतते-न-बीतते उस चाणक्याश्रम और उसके संचालक की ख्याति हिमालय के सब प्रदेशों में फैल गई।

वह नदी की ओर जा रहा था। आगे का कार्यक्रम निश्चित करने के लिए चाणक्य व्याकुल रहने लगा। विचार करते हुए बैठे रहने से क्या लाभ ? प्रतिज्ञा और कार्यसिद्ध करना हो तो तुरन्त काम में लग जाना चाहिए।–ऐसे ही विचार उस दिन उसके मस्तिष्क में मँडराते रहे। क्या किया जाए ? प्रारम्भ कैसे हो ?–ये दो विचार विष रूप से उसके मस्तिष्क को दुःख पहुँचा रहे थे। चन्द्रगुप्त प्रातःकाल ही उठकर आखेट की खोज में गया था। समय शांत, पर तेजपूर्ण था। सूर्य भगवान् आकाश के एकदम मध्य में विराज रहे थे। ऐसे समय में पशु-पक्षी अपनी-अपनी माँदो अथवा घौसलों में विश्राम कर रहे थे। ऊपर से ब्राह्मण भी शांत ही दिख रहा था; पर उसके दिल में तूफान उठ रहा था। जब तक कार्य सिद्धि न हो तब तक उसे शांति कहाँ ? चाणक्य विचारों में डूबा था कि एकाएक प्रसन्नता की लहर उसके मुख पर दौड़ गई। उल्लसित हो उसने ताली बजाई और एक-दो बार गर्दन हिलाकर अपने-आप बोला–‘‘ठीक है, यही करना चाहिए; इसको छोड़कर दूसरा मार्ग भी नहीं है। बिना मेरे गये वैसी व्यवस्था नहीं हो सकती, और बिना व्यवस्था हुए आगे बढ़ना भी कठिन है। यहाँ बैठने से क्या लाभ ? जो होना होगा, वहीं जाकर हो सकता है। चन्द्रगुप्त ने एक वर्ष में कम विद्या नहीं ग्रहण की है। जिस समय मैं पाटलिपुत्र गया था और जैसी अवस्था वहाँ तब थी, यदि वैसी ही अब भी हुई तो कार्यसिद्धि में अधिक कठिनाई नहीं होगी। एक वर्ष के भीतर ही वहाँ जाऊँ ? यह तो अच्छा नहीं मालूम होता। पर बुरा लगने की बात ही क्या ? जब इतना विचित्र-व्यूह रचने की तैयारी में हूँ तो पहले ही से शंका कैसी ? राजनीति में सब कुछ चलता है। जो मन में निश्चय कर लिया, अगर वही काम नहीं करूँगा तो सिद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ?’’

इसी तरह नाना प्रकार की बातें सोचता हुआ चाणक्य स्नान के लिए नदी में घुस गया। वह श्लोकों का उच्चारण करता जा रहा था; पर उन श्लोकों में उसका मन नहीं था। वह तो अपने अगले कार्यक्रम के बारे में सोच रहा था। मंत्र तो नित्य का अभ्यास होने के कारण अपने-आप मुंह से निकलते जा रहे थे। स्नान करने के बाद वह सन्ध्या करने के लिए एक लकड़ी पर मगृचर्म डालकर बैठा। अर्चना करके वह प्राणायाम करने ही वाला था कि उसका प्रिय शिष्य चन्द्रगुप्त आ गया। चन्द्रगुप्त गुरु को नम्रता से प्रणाम कर सुनाने लगा कि उसने वन में क्या-क्या पराक्रम किये। जब वह जंगली सुअर और मृग को मारने का हाल कह रहा था तो उसके साथ वाला राजपुत्र बोला–‘‘और गुरुजी, जब यह अकेले ही उस जंगली सुअर के पीछे दौ़ड़ने लगा तो हमें सचमुच अर्जुन की याद हो आई। अर्जुन की परीक्षा करने के लिए जब श्री शंकर भगवान् ने किरात का रूप धारण किया होगा और अर्जुन उसके पीछे दौड़े होंगे तो ठीक इसी की तरह।’’ इतने में ही एक भील भी उसी उत्सुकता के साथ बोला–‘‘गुरुजी ! यदि आप सुअर को देखेंगे तो इसकी अवश्य ही प्रशंसा करेंगे।’’

‘‘इतना बड़ा सुअर आज तक इस अरण्य में किसी ने न देखा होगा। पर इसने उसकी ज़रा भी परवाह न की। जैसे लोग कुत्ते-बिल्ली को मार डालते हैं, वैसे ही इसने उस जंगली सुअर को मार डाला। आप उस सुअर को देखने अवश्य चलें।’’
अपने इकलौते पुत्र का पराक्रम सुन जिस प्रकार माता-पिता को आनन्द होता है उतना ही, बल्कि उससे भी अधिक आनन्द चाणक्य को प्राप्त हुआ। जिसे शिक्षा देने के लिए उन्होंने इतना प्रयत्न किया था उसकी इतना प्रगति तो हुई। पर जो काम अभी होना है वह तो आगे है। काम अभी नहीं हुआ, यह सोचकर चाणक्य को दुःख हुआ, पर क्षणमात्र के लिए। दूसरे ही क्षण वह चन्द्रगुप्त की ओर देखकर बोला–‘‘चन्द्रगुप्त ! तेरा पराक्रम सुनकर मुझे सचमुच आनन्द हुआ। दिन-प्रतिदिन ऐसे ही पराक्रम करता जा। पर मुझे इस समय तुझसे दूसरी बातों के सम्बन्ध में कुछ कहना है। लड़कों, तुम ज़रा दूर चले जाओ, बुलाऊँ तब आना।’’

लड़के गुरु की आज्ञा सुन तुरन्त दूर चले गये। तब चाणक्य चन्द्रगुप्त से बोला–‘‘प्रिय पुत्र चन्द्रगुप्त ! मैं तुझे कुछ समय के लिए छोड़कर जाने वाला हूँ। यद्यपि तू अभी छोटा है; पर तेरे हाथों जो काम मुझे करवाना है उसका उपक्रम अभी से आरम्भ करना है। पीछे के लिए टालना उचित नहीं है। मैं तेरे हाथों में यहाँ की व्यवस्था चार मास के लिए दूँगा। जिसे एक बड़े राज्य पर शासन करना है उसे अभी से कार्यभार का अनुभव होना चाहिए। तुझे तो ज्ञात ही है कि एक बार मैं जो काम करने का निश्चय कर लेता हूँ, वह अवश्य करता हूँ; अपने निश्चय पर अटल रहता हूँ। अगर अपने काम में सिद्धि लेनी होगी तो मैं जैसा कहता हूँ वैसा होना ही चाहिए। तू दुखी मत हो। मुँह लाल-पीला करने की बात नहीं है। मैं जा रहा हूँ तो अपने आगे के कार्यक्रम को ठीक करने के लिए, व्यर्थ ही नहीं। क्या-क्या मुझे करना है, तुझे अभी से बतला देने का कोई उपयोग नहीं है। वत्स ! मगध के सिंहासन पर तुझे बैठा देखूँगा तभी मेरे नेत्रों को शांति मिलेगी, इसके पूर्व नहीं–यह तू निश्चित समझ। और कुछ मुझे तुझसे कहना नहीं है। मैं यहाँ सबसे कह देता हूँ, पर तेरी दृष्टि सबके ऊपर रहनी चाहिए। तू इस आश्रम का स्वामी है, यहाँ का राजा है। आगे का राज्य तू कैसे चलायेगा, वह इन्हीं चार मास के भीतर मेरी दृष्टि के सम्मुख आ जायेगा।’’

बेचारा चन्द्रगुप्त ! सुचमुच बहुत उदास हो चाणक्य की बातें सुन रहा था। गुरुजी उसे यहाँ छोड़कर जायेंगे, यह उसे पसन्द न आया। एकदम लड़कपन से जिस गुराखी के साथ रहा, उससे अधिक प्रेम उसे इस चाणक्य से था। वह अपने गुरु से बोला–‘‘महाराज ! अभी मेरी शिक्षा भी पुरी नहीं हुई और आप मुझे छोड़कर जाने के लिए कहते हैं। मुझे भी साथ क्यों नहीं ले चलते ? जहाँ आप, वहाँ मैं। अगर आप सोचते हों कि मैं संकट से डर जाऊँगा, तो इस तरफ से निश्चिन्त रहिये। पर आप मुझे अगर यहाँ छोड़कर जायेंगे, तो मेरी अवस्था ठीक न रहेगी। साथ रहने पर कोई भी कष्ट आयेगा तो कोई बात नहीं।’’
इस पर चाणक्य बोला–‘‘तू मेरे साथ चलने पर संकट से डर जायेगा, यह सोचकर मैं तुझे नहीं छोड़ रहा हूँ। इस काम के लिए मुझे अकेले जाना चाहिए। अब आने-जाने के बारे में अधिक न बोल। जैसे मैं कहता हूँ वैसा कर। तेरे कल्याण को छोड़कर मेरे मन में अन्य कोई बात हो, यह कहने की बात नहीं है। इसमें क्या है, सो तू समझ !’’

इतना सुनने के बाद चन्द्रगुप्त और क्या बोल सकता था ? परन्तु उसे मन-ही-मन दुःख हो रहा था, वह चाणक्य ने स्पष्ट देखा। पर चाणक्य जितना मनोविकारी था, उतना ही निश्चयी भी था। उसने अपना निश्चय अणु भर भी बदलने नहीं दिया। उसके मन में यह बात आ गई कि जैसा सोचा है उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए। कार्य की उपेक्षा अनुचित है। यह ऐसा कार्य है कि कितना समय लगेगा, कुछ पता नहीं। इसलिए कार्य-सिद्धि के लिए जितना जल्दी हो सके, कार्यारम्भ कर देना चाहिए।

निश्चयी पुरुष निश्चय करने में कभी भी देरी नहीं लगाते। उसी रात उसने चार मास के लिए व्यवस्था की और दूसरे दिन बड़े तड़के ही अपने प्रिय शिष्य को छोड़कर चला गया।


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