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लेडीज कूपे

अनीता नायर

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7402
आईएसबीएन :0-14-400042-3

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क्या एक औरत अकेली और खुश रह सकती है, या औरत को पूर्ण महसूस करने के लिए पुरुष की ज़रूरत है...

Ladies Coupe - A Hindi Book - by Anita Nair

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अखिलंदेश्वरी से मिलें, संक्षेप में अखिला, पैंतालीस साल की, अकेली, इंकम टैक्स क्लर्क, और एक औरत जिसे कभी अपनी ज़िंदगी जीने की इजाज़त नहीं मिली– हमेशा किसी की बेटी, बहन, मौसी, पालिता रही। फिर एक दिन वह समंदर किनारे बसे शहर कन्याकुमारी के लिए एक ओर का टिकट ले आती है, ज़िंदगी में पहली बार शानदार ढंग से अकेली रहती है और निश्चय करती है कि वह खुद को हर उस बंधन से आज़ाद कर लेगी जिससे रूढ़िवादी तमिल ब्राह्मण ज़िंदगी ने उसे बांध रखा है।

लेडीज़ कूपे में पांच अन्य महिलाओं के साथ अंतरंग वातावरण में, अखिला अपनी साथी यात्रियों को जानती है : जानकी, लाड़ली बीवी और परेशान मां; मारग्रेट शांति, कैमिस्ट्री टीचर जिसकी शादी तत्वों के काव्य और गैरजज़्बाती तानाशाह से होती है; प्रभादेवी, एक पूर्ण बेटी और पत्नी, जिनका जीवन स्विमिंग पूल की झलक देख कर बदल जाता है; चौदह साल की शीला जो वह देख सकती है जो दूसरे नहीं देख पाते; और मारीकोलंतु, जिसकी मासूमियत को हवस की एक रात नष्ट कर देती है।

दूसरी स्त्रियों की कहानी सुनते हुए अखिला उनकी ज़िंदगी के अंतरंग पहलुओं से जुड़ती है, उनके भीतर अपने सवाल का जवाब ढूंढ़ती है जो उसके साथ ज़िंदगी भर जुड़ा रहा है : क्या एक औरत अकेली और खुश रह सकती है, या औरत को पूर्ण महसूस करने के लिए पुरुष की ज़रूरत है ?

1


सब कुछ हमेशा जैसी ही था : रात में घुली रेलवे प्लेटफ़ॉर्म की गंध ने अखिला में भाग जाने की इच्छा जगा दी।
कंक्रीट का लंबा कॉरीडोर जो रात में दूर तक फैला हुआ था, साइनबोर्डों और स्टेशन की बत्तियों की रोशनी और छाया से बंटा हुआ। घड़ी की तेज़ी से बढ़ती सुइयों की टकटक जैसे ऊपर टंगे टीवी, टोकरियों और बोरियों से लदी ट्रॉलियों के शोर से सुर मिला रही थी। रेलगाड़ियों के आवागमन की घोषणा करने वाला लाउडस्पीकर घरघराता हुआ शुरू हो गया। बालों में गुथी चमेली, पसीना, तेल, टेल्कम पाउडर, बासी खाना, भीगी बोरियां और कच्चे हरे बांस के सरकंडों की टोकरियां। अखिला ने सबको अपनी सांसों में भर लिया और एक बार फिर भागने के बारे में सोचा। लोग जाने किस-किस दौलत के पीछे भाग रहे हैं, अखिला को तो पता भी नहीं है।

अखिला अकसर ये सपना देखती है कि वो भी उस लहर का हिस्सा है जो डिब्बों में भरती है, सीटों पर बैठती है, अपने सामान को संभालती, टिकट को हाथ में भींचे। अपनी दुनिया की ओर से पीठ फेर कर बैठी, आंखें भविष्य को देखतीं। सपना छोड़ देने का। दूर चले जाने का। बाहर निकल आने का। भाग जाने का।
पर सच तो ये है, अखिला ने इससे पहले कभी एक्सप्रेस ट्रेन का टिकट नहीं खरीदा था। पहले कभी वह किसी अनजान शहर को जाने वाली रात की रेलगाड़ी में नहीं बैठी थी।

अखिला इसी किस्म की औरत थी। वह वही करती, जिसकी उससे अपेक्षा की जाती थी : बाकी के सपने देखा करती थी। इसलिए वह आशाओं के कंचे जमा करती थी, जैसे बच्चे टिकट के टुकड़े जमा करते हैं। उसके लिए, आशा अपूर्ण इच्छाओं के जाल में गुथी थी।
नीला आकाश, सुनहरी चमक, बादलों का छंटना, अखिला को पता है ये सब गुलाबी छटाओं द्वारा रचे सम्मोहन मात्र हैं। उसने तो बहुत पहले ही अपने गुलाबी कांच के चश्मे को तोड़ कर किरच-किरच कर दिया था और मैटल के फ़्रेम का चश्मा बनवा लिया था जो घर के अंदर सादा और बाहर फ़ोटो-क्रोमेटिक हो जाता है। अखिला के चश्मे के भूरा पड़ते ही सूरज की चमक तक खो जाती है।

ये है अखिला। पैंतालीस साल की। बिना गुलाबी चश्मे की। बिना पति, बच्चों, घर और परिवार की। भागने और अपनी जगह तलाशने का सपना देखती। जीने और ज़िंदगी को अनुभव करने के लिए व्याकुल। जुड़ाव के लिए तरसती।
अखिला सपना देखती है : एक रेलगाड़ी धड़धड़ाती, धुकधुकाती स्टेशन पर आ खड़ी होती है। अखिला खिड़की के पास बैठी है। रेलगाड़ी के अलावा सब कुछ शांत है। उसके कंधे पर टंगा चांद साथ-साथ चल रहा है। वह रात की अनेक तस्वीरों के सामने से गुजरती है, सब की सब खिड़की में जड़ी हैं। किसी घर में रोशनी। आग को घेर कर बैठा एक परिवार। कुत्ता भौंकता हुआ। दूरदराज़ का कोई शहर। नदी का काला तेलिया पानी। जोखिम भरी पहाड़ी। घुमावदार सड़क। एक रेलवे क्रॉसिंग जिसकी स्ट्रीट लाइट की चमक शांत स्कूटर पर सवार एक आदमी के चश्मे पर पड़ रही है। हाथ साइड में झूल रहे हैं, पंजे ज़मीन पर हैं, गर्दन उचकाए, देखता हुआ, इंतजार करता कि रेलगाड़ी गुज़रे। स्टेशन पर, तस्वीरों की जगह भाव-भंगिमा ने ले ली है। पुनर्मिलन, विदाई, मुस्कुराहट, आंसू, गुस्सा, चिढ़, चिंता, ऊब, तटस्थता। अखिला सब देखती है। रेल चलने लगती है।

अखिला वहां होने का सपना देखती है। और वहां नहीं। उस पल की यादों को समेट लेने का।
अखिला आवेगी नहीं थी। पूरा समय लगा कर हर काम करती थी। रात भर उस पर सोचती, समझती, और जब हर कोण और नज़रिए से देख लेती, तभी किसी फ़ैसले पर पहुंचती।

यहां तक कि उसके साड़ियों के चुनाव में भी यह झलकता था। कलफ़ लगी सूती साड़ियां जिनके लिए पहले से ही बहुत योजनाबद्ध हो कर सोचना पड़ता है। महीन शिफ़ॉन, या धोओ और पहनो वाली सिंथेटिक साड़ियों की तरह नहीं। वे तो उन लोगों के लिए हैं जो कपड़े चुनने से पहले हर सुबह कम से कम छह बार मन बदलती हैं। वे लापरवाह और अस्थिर बुद्धि वाली महिलाएं होती हैं। कलफ़ लगी साड़ियां व्यवस्थित दिमाग की मांग करती हैं और अखिला को अपने व्यवस्थित होने पर फ़ख़्र था। पर जब उस सुबह वह सो कर उठी, पारदर्शी पंखों वाली काली नन्ही सी मक्खी ने उसे नींद से जगा दिया था, आवारा, बेचैन सी वह अखिला के मुंह पर मंडराती हुई भिनभिन किए जा रही थी जैसे खो गई हो। अखिला ने अपने भीतर एक अजीब सी चिढ़ महसूस की। उसे लगा इसकी वजह शायद पिछली रात देखा सपना होगा।

एक पल को मक्खी उसकी भौंह पर बैठ गई और तेज़ी से अपनी टांगें रगड़ने लगी। मक्खियां हर समय यही करती हैं, बीमारी और दुखों को उठाती और फिर झाड़ती हैं। पर यह नई-नई जवान हुई थी, इसके पास छोड़ने को बस असंतोष के कीटाणु थे। अखिला ने बांह फटकार कर मक्खी को उड़ा दिया, पर मक्खी तो अपना काम कर चुकी थी। दिमाग और रगों में जैसे कीड़ोंनुमा ख़्याल रेंग गए, फिर अखिला के अंदर किसी रेलगाड़ी में सवार हो जाने की हुड़क जग उठी। चले जाने की। कहीं भी जाने की। धरती के अंतिम छोर तक, शायद कन्याकुमारी।

कन्याकुमारी में तीन समंदर मिलते हैं। बंगाल की खाड़ी, हिंद महासागर और अरब सागर। शांत पुरुष महासागर दो अशांत स्त्री समंदरों से घिरा। अखिला ने सुना था कि किस प्रकार कन्याकुमारी में, पर तब इसका नाम केप कोमोरिन था, विवेकानन्द ठाठें मारते जल में कूद पड़े थे और तैरते हुए एक चट्टान पर पहुंचे, जिस पर संकल्पपूर्ण ध्यान लगा कर उन्होंने उन प्रश्नों के उत्तर खोजे जो अब तक उन्हें छलते रहे थे। उसने यह भी पढ़ा था कि देवी कन्याकुमारी ने उसकी तरह ही त्यागपूर्ण जीवन जिया था। वहां के समुद्र तट की रेत कई रंगों की है, उस विवाह-भोज के अवशेष की तरह जो कभी परोसा और खाया नहीं जा पाया।

अखिला अपने पलंग पर लेटी खिड़की के बाहर देखती रही, उसने तय किया कि वह जाएगी। आज रात ही।
पद्मा को यह अच्छा नहीं लगेगा, अखिला जानती थी। इन दिनों जो भी वह कहती है या करती है, उसकी बहन को उस पर संदेह होता है। अखिला को लगा उसके चेहरे पर लकीर खिंच गई है। पद्मा इसे चिरकुमारी का मुंह करती है। अक्का का मुंह : संजीदा, दृढ़, कोई दखलंदाज़ी बर्दाश्त न करने वाला।

वह उठी और दीवार पर लटके कलैंडर को देखने गई। उसने तारीखों पर नज़र डाली। 19 दिसंबर 1997। जल्द ही साल खत्म हो जाएगा, अखिला ने सोचा, और फिर बेवजह ही कैलेंडर के किनारे पर खुंसी सुई को तलाशने लगी, उसकी आदत थी सुई वहां लगाने की। सफेद धागा पड़ी, ताकि किसी भी पल ज़रूरत पड़ने पर तुरंत मिल जाए-कोई हुक ढीला हो या तुरपाई उधड़ रही हो....। सुई नदारद थी। कोई लड़की ले गई होगी और वापस लगाना भूल गई। वे अकसर यही करती हैं, भले ही वह कितनी बार टोक चुकी हो कि सुई वापस लगा दिया करो। यह और वाशबेसिन के शीशे पर चिपकने वाली मैरून बिंदियों के घेरे, अपने चिपचिपे माथे से उतार कर अगले दिन लगाने के लिए वे लोग बिंदी शीशे पर चिपका देती हैं–इन दोनों बातों ने उसके निश्चय पर मोहर लगा दी। वह जाएगी। उसे जाना ही होगा, वरना वह पागल हो जाएगी, इस घर की चारदीवार में बंद, अपने से अपेक्षित जिंदगी को जीते हुए।

अखिला ने अपनी अलमारी खोली और एक काली और लाल मदुरै चुंग्डी साड़ी निकाली। यह थी तो कलफ़ लगी सूती साड़ी, पर इसके रंग और सुनहरी ज़री को देख पद्मा हैरान हो गई। बहुत समय हुआ अखिला ने चटख रंग पहनना छोड़ दिया था, उसने खुद को शलभ के से नीरस फीके रंगों में छुपा दिया था। पर आज सुबह तो अखिला तितली सी हो रही थी। जादुई रंगों और उमंगों से भरपूर। शलभ कहां है ? तुम्हारे पंख बंद क्यों नहीं हैं ? तुम यह क्यों नहीं दिखाने की कोशिश करतीं कि तुम्हारा और लकड़ी का रंग एक है ? तुम खुद को परदों के पीछे क्यों नहीं छुपा रहीं, पद्मा की आंखों में सवाल थे।
तब पद्मा जान ले कि आज का दिन बाकियों से अलग है, उसके चेहरे पर हैरत उभरते देख अखिला ने सोचा। यह न कहा जाए कि मैंने उसे चेताया नहीं था।

‘‘पर पहले तो कभी तुम्हें काम के सिलसिले में बाहर नहीं जाना पड़ा,’’ नाश्ता करते हुए जब अखिला ने अपने जाने के बारे में बताया, तो पद्मा ने कहा। अखिला ने पहले अपना नाश्ता–तीन इडली, एक छोटी कटोरी सांभर, और एक कप गर्मागर्म कॉफ़ी–खत्म किया, उसके बाद ही उसने अपनी यात्रा का ज़िक्र किया। यह तो तय था कि पद्मा आपत्ति करेगी : बावेला मचाएगी और तमाशा खड़ा करेगी, यह सब देख कर अखिला की भूख मर जाती। अखिला जानती थी और अच्छी तरह जानती थी कि संदेह से पद्मा आंखें सिकोड़ लेगी।

अखिला ने जवाब नहीं दिया, तो पद्मा ने फिर पूछा, ‘‘यह जाना कुछ अचानक नहीं है ?’’
एक पल के लिए, अखिला को होंठों तक झूठ फिसल आया : दफ़्तर का काम है। मुझे कल ही बताया गया।
पर क्यों ? उसने खुद से पूछा। मैं इसे जवाब क्यों दूं ? ‘‘हां, अचानक है,’’ उसने कहा।
‘‘कितने दिन के लिए जाओगी ?’’ अखिला को सामान पैक करते देखती पद्मा की आंखों में संदेह टिमटिमा रहा था। अखिला जानती थी पद्मा क्या सोच रही है। वह अकेले जा रही है या उसके साथ कोई है ? कोई पुरुष, शायद। पद्मा के नथुने फड़के जैसे कि वह किसी अवैध संबंध की बू सूंघ रही हो।
‘‘कुछ दिन के लिए, ‘‘उसने कहा। अस्पष्ट रहने में अलग ही सुख है, पद्मा का चेहरा देख कर अखिला ने तय किया।


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