कहानी संग्रह >> अपना अपना अन्तरंग अपना अपना अन्तरंगजयकान्तन
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प्रस्तुत है जयकान्तन की उत्कृष्ट कहानियाँ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बीसवीं सदी के उतरार्द्ध में तमिल कथा-साहित्य के क्षितिज पर उज्ज्वल तारे
के समान उदित दण्डपाणि जयकान्तन तमिल कहानी के पुरातन एवं नव युग को
जोड़नेवाली श्रृंखला के रूप में युग-सन्धि पर खड़े हैं-
‘युगसन्धि’ शीर्षक से आपकी एक प्रसिद्ध कहानी भी है।
प्रशस्त
साहित्यकार प्रपंचन के शब्दों में, ‘‘जयकान्तन की
साहित्य-साधना इतिहास में शिलालेख-सदृश स्थायी महत्त्व रखती है। उनकी यह
साधना अनन्य-साधारण है, अपने आपमें एक आदर्श है। इसकी पृष्ठभूमि में है
पिछले पाँच दशकों का संघर्षपूर्ण इतिहास, जिसके दौरान समूचा भारत आर्थिक,
सामाजिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों से गुजरा था और जिसके प्रत्येक चरण में
देश का आम आदमी संक्रान्ति-काल से तालमेल बिठाने में असमर्थ होकर अपने को
अलग-थलग महसूस करता था। ऐसी संकटपूर्ण हर घड़ी में अपनी लेखनी के माध्यम
से आम आदमी को परिस्थितियों से जूझने का मनोबल प्रदान करने वाले गिने-चुने
लेखकों में जयकान्तन अग्रणी है।’’
तमिल साहित्य-कोश में जयकान्तन के अवदान का सही मूल्यांकन करने के लिए तथा तमिल कहानीकारों में जयकान्तन के सही स्थान को निर्धारण करने के निमित्त तमिल कथा-साहित्य की विकास-यात्रा के इतिहास का परिचय पाना आवश्यक है।
हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाँति तमिल साहित्य में सुब्रह्मण्य भारती (1882-1921) ने ‘निजभाषा-उन्नति’ के मूलमन्त्र के साथ नवजागरण का शंखनाद किया था। भारतेन्दु के समान ही भारती कविता, निबन्ध, गद्यकाव्य, पत्रकारिता, अनुवाद आदि साहित्य की प्रत्येक विधा के पुरोधा रहे। उनकी पहली कहानी ‘छठा भाग’ अछूतों के जीवन पर केन्द्रित है। विदेशी सत्ता से देश को स्वाधीन करने के संकल्प के साथ दलितों को उत्पीड़न से मुक्त करने का आह्वान इस कहानी में मुखरित है; फिर भी यह कहानी स्वयं उनके दावे के अनुसार कहानी के अभिलक्षणों पर खरी नहीं उतर पायी। इसके बाद तमिल कहानी की बागडोर भारती के ही साथी व. वे. सु. अय्यर के हाथों आयी। उनकी कहानी ‘अरशभरत्तिन् कदै’ (पीपलदादा की कथा) इस तथ्य का ज्वलन्त प्रमाण है कि अय्यर कहानी की निश्चित एवं विशिष्ट रूप-कल्पना के प्रति सचेत थे।
तीस और चालीस के दशक राष्ट्रीय चेतना और सृजनात्मक प्रतिभा की दृष्टि से तमिल साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में एक लघु नवजागरण कालके रूप में उभरे। इस युग में संगीत, नृत्य और साहित्य के क्षेत्र में सृजनात्मक प्रतिभा की धनी अनेक विभूतियों का प्रादुर्भाव हुआ। साहित्य के क्षेत्र में सिरमौर माने जानेवाले पुदुमैपित्तन (1906-1948) ने एक छोटे-से अरसे में सौ से अधिक कहानियाँ रच डालीं- कथ्य और शिल्प, मुहावरा और प्रवाह, तकनीक और शैली हर लिहाज से उत्कृष्ट कहानियाँ। साथ ही यह भी सच है कि पुदुमैपित्तन के सम्पूर्ण लेखन में कड़ुवाहट और निराशावाद का अन्त:स्वर सुनाई देता है।
इसी युग में कु. प. राजगोपालन ने नारी की वेदना को अपनी कहानियों में अंकित किया। न. पिच्चमूर्त्ति की कहानियों परिवार की चारदीवारियों में चित्रण है। ल. सा. रामामृतम की कहानियाँ परिवार की चारदीवारियों में सिमट जाती हैं। चिदम्बर सुब्रह्मण्यन ने जीवन के उदात्त एवं कोमल पक्षों पर प्रकाश डाला। सि. सु. चेल्लप्पा में किसी भी वातावरण के सूक्ष्म विवरण के साथ पुन: सृजन करने की दक्षता है। ‘मणिक्कोडी’ पत्रिका के माध्यम से अनेक कथाकारों की प्रेरक शक्ति रहे बी.एस. रामय्या स्वयं प्रतिभावान साहित्यकार थे। ति.जानकीरामन की कहानियों में एक सम्मोहक आकर्षण है। कल्कि की कहानियों में जनरंजकता के साथ हास्य का पुट है। कु अलगिरि सामी में घिसी-पिटी और मामूली बातों को सीधी सरल भाषा में वर्णित करने की अद्भुत क्षमता है। जयकान्तन की विशेषता यह है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती कथाकारों की खूबियों को आत्मसात् करते हुए उन्हें परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत करने में कामयाबी हासिल की है।
जयकान्तन के पचास के दशक में, जब तमिल कहानी के प्रांगण में पदार्पण किया, साहित्य-जगत् संकटपूर्ण घड़ी में गुजर रहा था। विशाल पाठक-वर्ग का दावा करनेवाली भीमकाय पत्रिकाओं का साम्राज्य स्थापित हो गया और सर्जनात्मक प्रतिभाएँ इस कुहरे से आच्छादित हो गयीं। ये व्यवसायिक पत्रिकाएँ तथा कथित जनरुचि की आड़ लेते हुए विज्ञापनबाजी की होड़ में सस्ते मनोरंजन की सामग्री छापने लगीं। फलत: सच्चे साहित्यकारों ने इन पत्रों को छोड़कर लघु-पत्रिकाओं में लिखना पसन्द किया। यह अलग बात है कि उन्हें अपने लेखन के बदले में कुछ भी नहीं मिला। अगले दशक तक आते-आते व्यावसायिक पत्रों ने लघु-पत्रिकाओं को नेस्तनाबूत कर दिया। सृजनात्मक लेखन के क्षेत्र में एक तरह की स्थिरता आ गयी।
ऐसी विषम परिस्थिति में उल्टी धारा में तैरते हुए जिन लेखकों ने कथा-साहित्य में अपनी पहचान बनायी, उनमें अखिलन और जयकान्तन के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। अखिलन के लेखन में रोमांस लिये हुए आदर्शवाद का पलड़ा भारी दिखता है जबकि जयकान्तन की कहानियों में कथानकों की विविधता, समस्याओं का यथार्थ चित्रण और प्रस्तुतीकरण की तकनीक नयी बुलन्दियाँ छू रही हैं। अखिलन और जयकान्तन में एक समानता यह पायी जाती है कि दोनों ने व्यावसायिक पत्रिकाओं में लिखते हुए कभी भी अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता नहीं किया। जयकान्तन इस विषय में एक कदम आगे ही रहे। जिन व्यावसायिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ छपती थीं, मंच पर खड़े होकर उनके विरुद्ध सात्त्विक रोष से गर्जन करते थे। वामपन्थी विचारधारा की पत्रिका में जिस समस्या पर लिखते, उसी को और अधिक तीखे शब्दों में व्यावसायिक पत्र में लिखने का साहस उनमें है।
तमिल कथा-साहित्य में जयकान्तन के वर्चस्व के नैरन्तर्य को समझने के लिए उनके परवर्ती युग के इतिहास की चर्चा आवश्यक है। सुन्दर रामस्वामी (जन्म 1931) जयकान्तन के समकालीन हैं। समीक्षक वेंकट स्वामिनाथन के शब्दों में, ‘‘दोनों ही कथाकार स्वाध्याय के धनी थे और प्रारम्भिक लेखन में वामपन्थी विचारधारा से प्रभावित थे। अब वामपन्थी सिद्धान्त के साथ उनकी पहचान नहीं की जाती, ऐसे में उनकी समानता यहीं समाप्त हो जाती है। सुन्दर रामस्वामी की कृतियाँ स्पृहणीय हास्य के साथ अधिक परिष्कृत हैं; किन्तु वे कभी-कभार ही लिखते हैं। जयकान्तन मुखर, गम्भीर और आक्रामक तेवर के लेखक हैं जो प्रचुर मात्रा में लिखते हैं। साठ-सत्तर के दशकों में जयकान्तन तमिल लेखकों में सव्यसाची माने जाते थे। उनकी भाषा सशक्त है और चयनित विषय मुखर साहसिकता से ओतप्रोत।’’
तीस के दशक में मुखरित दो सृजनात्मक स्वर पचास के दशक में आलोचक स्वर बनने को बाध्य हुए। ये स्वर क.ना. सुब्रह्मण्यम और सि.सु. चेल्लप्पा थे। चेल्लप्पा प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए अपनी लघु-पत्रिका ‘एष़ुन्तु’ (1959-1970) के माध्यम से सशक्त पाठक-मण्डल का सृजन करने में सफल रहे। साठ के दशक के अन्त तक ‘एष़ुन्तु’ द्वारा दिखाये मार्ग का अनुसरण करते हुए लघु-पत्रिकाओं का एक आन्दोलन-सा शुरू हो गया। इन पत्रिकाओं के पन्नों से साठोत्तर दशक से लेकर बीसियों कहानी-लेखक उभरे, जो तीस-चालीस के दशकों के लेखकों के उत्तराधिकारी बने। इनमें उल्लेखनीय नाम हैं- प्रपंचन, कि. राजनारायणन, अशोक मित्रन, एन.मुत्तुस्वामी, चार्वाकन, सुजाता, पूमणि, पावण्णन, दिलीप कुमार, सा.कन्दस्वामी, इन्दिरा पार्थसारथी, वण्ण निलवन, तिलकवती, नांजिल नाडन, वण्ण दासन आदि। इन सभी को रूप और तकनीक विरासत में मिल गयी, जिसे अपने ढंग से विकसित करना मात्र इनका काम था।
अस्सी और नब्बे के दशकों में पहुँचते-पहुँचते प्रतिभा-सम्पन्न रचनाकारों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई। इस अवधि में रचित साहित्य में तदनुरूप गुणात्मक श्रेष्ठता परिलक्षित होती है। तमिल साहित्य की पूर्ववर्ती दुनिया ब्राह्मणों और उनके निचले स्तर के उच्च वर्ण के हिन्दुओं की थी। इसके विपरीत साक्षर निचले तबकों में से एक पीढ़ी छोड़कर अगली पीढ़ी से आये लेखकों ने अपने जीवन के अनुभवों और दृष्टिकोण से वर्तमान तमिल लेखन को विशाल अनुभव-विश्व से परिचित कराया है; ऐसे रंग-वैविध्य एवं रोष-आक्रोश के तेवर दिखलाये हैं जो अभूतपूर्व हैं।
इस तरह बदलते युग के साथ युगधर्म बदलता गया और लेखकों की नयी-नयी पीढ़ियाँ अखाड़े में आती रहीं; किन्तु एक व्यक्तित्व जो अपनी निजी इयत्ता के बलबूते पर ध्रुवतारे के समान कथा-साहित्य के आकाश में अडिग रहा-वह है कालजयी कथाकार जयकान्तन का व्यक्तित्व। प्रपंचन कहते हैं-तेरह साल के किशोर वय में ही वामपन्थी शिविर में दीक्षित जयकान्तन ने मानवोत्थान के निमित्त जिस आदर्श पद को चुना था, उसमें इतने दृढ़ रहे कि आँधी-तूफानों के बीच भी उन्होंने कभी अपने लक्ष्यों और आदर्शों को तिलांजलि नहीं दी; कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी समझौता किये बिना पाँच दशकों से निरन्तर अपना धर्मयुद्ध लड़ते आ रहे हैं। मानवता की विजय पर उनकी अडिग आस्था है। अपनी इस अनवरत लड़ाई के दौरान वे अनेक बार घायल भी हुए। लेकिन इस मुहिम के चलते उन्होंने नकली, मुखौटे हटाकर तथाकथित अनेक महारथियों को बेनकाब किया है।
जयकान्तन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने को आम आदमी से विशिष्ट नहीं मानते। उनके पैर सदा ही धरती पर जमें होते हैं। धूल-मिट्टी के ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्तों पर चलकर, झोपड़पट्टियों में जीने वाले लोगों के सुख-दु:ख में शरीक होते हुए वे उनकी समस्याओं की तह तक पहुँचते हैं और अपनी रचनाओं में उनका समाधान ढूँढ़ते हैं। अपनी कहानियों और उपन्यासों में जयकान्तन ने हमेशा ‘दलित’ और शोषित जन की वकालत की।
जयकान्तन की एक विशेषता यह है कि उन्होंने अपने साहित्य में सदा ही नारी का सम्मानपूर्वक चित्रण किया है। अपनी कहानियों के विषय में जयकान्तन का कथन है-मेरी कहानियाँ खाली समय बिताने या समय नष्ट करने का साधन नहीं हैं। उनका यह कथन सौ-फीसदी सत्य है। उनकी कहानियाँ मात्र मनोविनोद नहीं करतीं, पाठक के हृदय में उथल-पुथल मचाती हैं और उसे सोचने के लिए मजबूर करती हैं।
‘हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता’- की तरह तमिल के माध्यम से भारतीय साहित्य के कोष में एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ रचनाओं के अवदान के लिए यशस्वी कथाकार का जितना अभिनन्दन किया जाए, कम है। अतएव भारतीय ज्ञानपीठ ने उनकी श्रेष्ठ कहानियों का एक संग्रह निकालने का निर्णय किया। परन्तु उनकी दो सौ की करीब कहानियों में बारह-पन्द्रह कहानियों का चयन करना वास्तव में दुस्साध्य कार्य प्रतीत हुआ। अन्त में स्वयं जयकान्तन ने प्रस्तुत संग्रह ‘अपना अपना अन्तरंग’ के लिए अपनी पसन्द की चौदह कहानियाँ चुनकर हमारे कार्य को सुकर बना दिया।
जयकान्तन की ये कहानियाँ उनकी रचना के काल-क्रमानुसार रखी गयी हैं तमिल से हिन्दी में पुन: सृजन करने में तमिल-हिन्दी के वरिष्ठ अनुवादक र. शौरिराजन ने मेरे साथ समान रूप से हाथ बँटाया है। इस सारस्वत कार्य के लिए उनके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करना मेरा कर्तव्य है।
कहानियों की चयन-प्रक्रिया से लेकर संग्रह के नामकरण तक प्रत्येक स्तर पर परामर्श देने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय को हार्दिक धन्यवाद।
तमिल साहित्य-कोश में जयकान्तन के अवदान का सही मूल्यांकन करने के लिए तथा तमिल कहानीकारों में जयकान्तन के सही स्थान को निर्धारण करने के निमित्त तमिल कथा-साहित्य की विकास-यात्रा के इतिहास का परिचय पाना आवश्यक है।
हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाँति तमिल साहित्य में सुब्रह्मण्य भारती (1882-1921) ने ‘निजभाषा-उन्नति’ के मूलमन्त्र के साथ नवजागरण का शंखनाद किया था। भारतेन्दु के समान ही भारती कविता, निबन्ध, गद्यकाव्य, पत्रकारिता, अनुवाद आदि साहित्य की प्रत्येक विधा के पुरोधा रहे। उनकी पहली कहानी ‘छठा भाग’ अछूतों के जीवन पर केन्द्रित है। विदेशी सत्ता से देश को स्वाधीन करने के संकल्प के साथ दलितों को उत्पीड़न से मुक्त करने का आह्वान इस कहानी में मुखरित है; फिर भी यह कहानी स्वयं उनके दावे के अनुसार कहानी के अभिलक्षणों पर खरी नहीं उतर पायी। इसके बाद तमिल कहानी की बागडोर भारती के ही साथी व. वे. सु. अय्यर के हाथों आयी। उनकी कहानी ‘अरशभरत्तिन् कदै’ (पीपलदादा की कथा) इस तथ्य का ज्वलन्त प्रमाण है कि अय्यर कहानी की निश्चित एवं विशिष्ट रूप-कल्पना के प्रति सचेत थे।
तीस और चालीस के दशक राष्ट्रीय चेतना और सृजनात्मक प्रतिभा की दृष्टि से तमिल साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में एक लघु नवजागरण कालके रूप में उभरे। इस युग में संगीत, नृत्य और साहित्य के क्षेत्र में सृजनात्मक प्रतिभा की धनी अनेक विभूतियों का प्रादुर्भाव हुआ। साहित्य के क्षेत्र में सिरमौर माने जानेवाले पुदुमैपित्तन (1906-1948) ने एक छोटे-से अरसे में सौ से अधिक कहानियाँ रच डालीं- कथ्य और शिल्प, मुहावरा और प्रवाह, तकनीक और शैली हर लिहाज से उत्कृष्ट कहानियाँ। साथ ही यह भी सच है कि पुदुमैपित्तन के सम्पूर्ण लेखन में कड़ुवाहट और निराशावाद का अन्त:स्वर सुनाई देता है।
इसी युग में कु. प. राजगोपालन ने नारी की वेदना को अपनी कहानियों में अंकित किया। न. पिच्चमूर्त्ति की कहानियों परिवार की चारदीवारियों में चित्रण है। ल. सा. रामामृतम की कहानियाँ परिवार की चारदीवारियों में सिमट जाती हैं। चिदम्बर सुब्रह्मण्यन ने जीवन के उदात्त एवं कोमल पक्षों पर प्रकाश डाला। सि. सु. चेल्लप्पा में किसी भी वातावरण के सूक्ष्म विवरण के साथ पुन: सृजन करने की दक्षता है। ‘मणिक्कोडी’ पत्रिका के माध्यम से अनेक कथाकारों की प्रेरक शक्ति रहे बी.एस. रामय्या स्वयं प्रतिभावान साहित्यकार थे। ति.जानकीरामन की कहानियों में एक सम्मोहक आकर्षण है। कल्कि की कहानियों में जनरंजकता के साथ हास्य का पुट है। कु अलगिरि सामी में घिसी-पिटी और मामूली बातों को सीधी सरल भाषा में वर्णित करने की अद्भुत क्षमता है। जयकान्तन की विशेषता यह है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती कथाकारों की खूबियों को आत्मसात् करते हुए उन्हें परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत करने में कामयाबी हासिल की है।
जयकान्तन के पचास के दशक में, जब तमिल कहानी के प्रांगण में पदार्पण किया, साहित्य-जगत् संकटपूर्ण घड़ी में गुजर रहा था। विशाल पाठक-वर्ग का दावा करनेवाली भीमकाय पत्रिकाओं का साम्राज्य स्थापित हो गया और सर्जनात्मक प्रतिभाएँ इस कुहरे से आच्छादित हो गयीं। ये व्यवसायिक पत्रिकाएँ तथा कथित जनरुचि की आड़ लेते हुए विज्ञापनबाजी की होड़ में सस्ते मनोरंजन की सामग्री छापने लगीं। फलत: सच्चे साहित्यकारों ने इन पत्रों को छोड़कर लघु-पत्रिकाओं में लिखना पसन्द किया। यह अलग बात है कि उन्हें अपने लेखन के बदले में कुछ भी नहीं मिला। अगले दशक तक आते-आते व्यावसायिक पत्रों ने लघु-पत्रिकाओं को नेस्तनाबूत कर दिया। सृजनात्मक लेखन के क्षेत्र में एक तरह की स्थिरता आ गयी।
ऐसी विषम परिस्थिति में उल्टी धारा में तैरते हुए जिन लेखकों ने कथा-साहित्य में अपनी पहचान बनायी, उनमें अखिलन और जयकान्तन के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। अखिलन के लेखन में रोमांस लिये हुए आदर्शवाद का पलड़ा भारी दिखता है जबकि जयकान्तन की कहानियों में कथानकों की विविधता, समस्याओं का यथार्थ चित्रण और प्रस्तुतीकरण की तकनीक नयी बुलन्दियाँ छू रही हैं। अखिलन और जयकान्तन में एक समानता यह पायी जाती है कि दोनों ने व्यावसायिक पत्रिकाओं में लिखते हुए कभी भी अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता नहीं किया। जयकान्तन इस विषय में एक कदम आगे ही रहे। जिन व्यावसायिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ छपती थीं, मंच पर खड़े होकर उनके विरुद्ध सात्त्विक रोष से गर्जन करते थे। वामपन्थी विचारधारा की पत्रिका में जिस समस्या पर लिखते, उसी को और अधिक तीखे शब्दों में व्यावसायिक पत्र में लिखने का साहस उनमें है।
तमिल कथा-साहित्य में जयकान्तन के वर्चस्व के नैरन्तर्य को समझने के लिए उनके परवर्ती युग के इतिहास की चर्चा आवश्यक है। सुन्दर रामस्वामी (जन्म 1931) जयकान्तन के समकालीन हैं। समीक्षक वेंकट स्वामिनाथन के शब्दों में, ‘‘दोनों ही कथाकार स्वाध्याय के धनी थे और प्रारम्भिक लेखन में वामपन्थी विचारधारा से प्रभावित थे। अब वामपन्थी सिद्धान्त के साथ उनकी पहचान नहीं की जाती, ऐसे में उनकी समानता यहीं समाप्त हो जाती है। सुन्दर रामस्वामी की कृतियाँ स्पृहणीय हास्य के साथ अधिक परिष्कृत हैं; किन्तु वे कभी-कभार ही लिखते हैं। जयकान्तन मुखर, गम्भीर और आक्रामक तेवर के लेखक हैं जो प्रचुर मात्रा में लिखते हैं। साठ-सत्तर के दशकों में जयकान्तन तमिल लेखकों में सव्यसाची माने जाते थे। उनकी भाषा सशक्त है और चयनित विषय मुखर साहसिकता से ओतप्रोत।’’
तीस के दशक में मुखरित दो सृजनात्मक स्वर पचास के दशक में आलोचक स्वर बनने को बाध्य हुए। ये स्वर क.ना. सुब्रह्मण्यम और सि.सु. चेल्लप्पा थे। चेल्लप्पा प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझते हुए अपनी लघु-पत्रिका ‘एष़ुन्तु’ (1959-1970) के माध्यम से सशक्त पाठक-मण्डल का सृजन करने में सफल रहे। साठ के दशक के अन्त तक ‘एष़ुन्तु’ द्वारा दिखाये मार्ग का अनुसरण करते हुए लघु-पत्रिकाओं का एक आन्दोलन-सा शुरू हो गया। इन पत्रिकाओं के पन्नों से साठोत्तर दशक से लेकर बीसियों कहानी-लेखक उभरे, जो तीस-चालीस के दशकों के लेखकों के उत्तराधिकारी बने। इनमें उल्लेखनीय नाम हैं- प्रपंचन, कि. राजनारायणन, अशोक मित्रन, एन.मुत्तुस्वामी, चार्वाकन, सुजाता, पूमणि, पावण्णन, दिलीप कुमार, सा.कन्दस्वामी, इन्दिरा पार्थसारथी, वण्ण निलवन, तिलकवती, नांजिल नाडन, वण्ण दासन आदि। इन सभी को रूप और तकनीक विरासत में मिल गयी, जिसे अपने ढंग से विकसित करना मात्र इनका काम था।
अस्सी और नब्बे के दशकों में पहुँचते-पहुँचते प्रतिभा-सम्पन्न रचनाकारों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई। इस अवधि में रचित साहित्य में तदनुरूप गुणात्मक श्रेष्ठता परिलक्षित होती है। तमिल साहित्य की पूर्ववर्ती दुनिया ब्राह्मणों और उनके निचले स्तर के उच्च वर्ण के हिन्दुओं की थी। इसके विपरीत साक्षर निचले तबकों में से एक पीढ़ी छोड़कर अगली पीढ़ी से आये लेखकों ने अपने जीवन के अनुभवों और दृष्टिकोण से वर्तमान तमिल लेखन को विशाल अनुभव-विश्व से परिचित कराया है; ऐसे रंग-वैविध्य एवं रोष-आक्रोश के तेवर दिखलाये हैं जो अभूतपूर्व हैं।
इस तरह बदलते युग के साथ युगधर्म बदलता गया और लेखकों की नयी-नयी पीढ़ियाँ अखाड़े में आती रहीं; किन्तु एक व्यक्तित्व जो अपनी निजी इयत्ता के बलबूते पर ध्रुवतारे के समान कथा-साहित्य के आकाश में अडिग रहा-वह है कालजयी कथाकार जयकान्तन का व्यक्तित्व। प्रपंचन कहते हैं-तेरह साल के किशोर वय में ही वामपन्थी शिविर में दीक्षित जयकान्तन ने मानवोत्थान के निमित्त जिस आदर्श पद को चुना था, उसमें इतने दृढ़ रहे कि आँधी-तूफानों के बीच भी उन्होंने कभी अपने लक्ष्यों और आदर्शों को तिलांजलि नहीं दी; कठिन-से-कठिन परिस्थितियों में भी समझौता किये बिना पाँच दशकों से निरन्तर अपना धर्मयुद्ध लड़ते आ रहे हैं। मानवता की विजय पर उनकी अडिग आस्था है। अपनी इस अनवरत लड़ाई के दौरान वे अनेक बार घायल भी हुए। लेकिन इस मुहिम के चलते उन्होंने नकली, मुखौटे हटाकर तथाकथित अनेक महारथियों को बेनकाब किया है।
जयकान्तन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने को आम आदमी से विशिष्ट नहीं मानते। उनके पैर सदा ही धरती पर जमें होते हैं। धूल-मिट्टी के ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्तों पर चलकर, झोपड़पट्टियों में जीने वाले लोगों के सुख-दु:ख में शरीक होते हुए वे उनकी समस्याओं की तह तक पहुँचते हैं और अपनी रचनाओं में उनका समाधान ढूँढ़ते हैं। अपनी कहानियों और उपन्यासों में जयकान्तन ने हमेशा ‘दलित’ और शोषित जन की वकालत की।
जयकान्तन की एक विशेषता यह है कि उन्होंने अपने साहित्य में सदा ही नारी का सम्मानपूर्वक चित्रण किया है। अपनी कहानियों के विषय में जयकान्तन का कथन है-मेरी कहानियाँ खाली समय बिताने या समय नष्ट करने का साधन नहीं हैं। उनका यह कथन सौ-फीसदी सत्य है। उनकी कहानियाँ मात्र मनोविनोद नहीं करतीं, पाठक के हृदय में उथल-पुथल मचाती हैं और उसे सोचने के लिए मजबूर करती हैं।
‘हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता’- की तरह तमिल के माध्यम से भारतीय साहित्य के कोष में एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ रचनाओं के अवदान के लिए यशस्वी कथाकार का जितना अभिनन्दन किया जाए, कम है। अतएव भारतीय ज्ञानपीठ ने उनकी श्रेष्ठ कहानियों का एक संग्रह निकालने का निर्णय किया। परन्तु उनकी दो सौ की करीब कहानियों में बारह-पन्द्रह कहानियों का चयन करना वास्तव में दुस्साध्य कार्य प्रतीत हुआ। अन्त में स्वयं जयकान्तन ने प्रस्तुत संग्रह ‘अपना अपना अन्तरंग’ के लिए अपनी पसन्द की चौदह कहानियाँ चुनकर हमारे कार्य को सुकर बना दिया।
जयकान्तन की ये कहानियाँ उनकी रचना के काल-क्रमानुसार रखी गयी हैं तमिल से हिन्दी में पुन: सृजन करने में तमिल-हिन्दी के वरिष्ठ अनुवादक र. शौरिराजन ने मेरे साथ समान रूप से हाथ बँटाया है। इस सारस्वत कार्य के लिए उनके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करना मेरा कर्तव्य है।
कहानियों की चयन-प्रक्रिया से लेकर संग्रह के नामकरण तक प्रत्येक स्तर पर परामर्श देने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय को हार्दिक धन्यवाद।
दाम्पत्य
दिहाड़ी, कुली मरुदमुत्तु और रंजितम का विवाह उनके
‘भाग्य’
में लिखे ‘अनुसार’ उस दिन गोधूली वेला में सम्पन्न
हुआ था।
‘भाग्य में लिखे अनुसार’ का खुलासा यह है कि दो पैसों
का
गजरा, इकन्नी में मंगलसूत्र की पीली डोर, एक पैसे की हल्दी, इकन्नी में
मूँगफली का तेल, दुअन्नी में काँच की चूडियाँ और तीन रुपये की
साड़ी—यों पाँच रुपये में कुलियों-रिक्शा चालकों के
‘सड़क-छाप’ मंदिर के ‘गरीब
देवता’ गणेश जी की
सन्निधि में मरुदमुत्तु ने रंजितम का हाथ पकड़ा।
पाँच रुपये जोड़ने के लिए मरुदमुत्तु को महीने भर जी तोड़ मेहनत करनी पड़ी थी। बोझा उठाकर कमायी मजदूरी में से हर रोज दु्अन्नी या तीन आने बचाता, पैसा हाथ में रहने पर खर्च हो जाता, इसी डर के मारे उसे ‘सायबू’ (साहब) के पास जमा करता। इस तरह महीने भर में मुश्किल से पाँच रुपये जुड़ पाये। मगर रंजितम को इतने समय तक सब्र करना बड़ा दुश्वार लग रहा था।
मरुदमुत्तु शादी की रस्म को गैरजरूरी समझता था, इसीलिए पहले इसके लिए राजी नहीं हुआ था। इतना ही नहीं, उस फुटपाथ-पुरी के वाशिन्दे शादी के बारे में अमूमन यही राय रखते थे—पारंपरिक प्रथा के कारणों से नहीं, बल्कि जीवन शैली की मजबूरी की वजह से।
लेकिन देहात के परिवेश में पत्नी रंजितम की ऐसे संबंध के लिए स्वीकृति नहीं थी। उसने अपने मँगेतर मरुदमुत्तु के सामने यह दलील रखी--‘‘गाजे बाजे न हों तो कोई बात नहीं, मगर नई साड़ी और मंगलसूत्र तो अवश्य होना चाहिए। पंडित बुला न सको तो जाने दो, भगवान की मूर्ती के सामने खड़े होकर शपथ लेना जरूरी है। अगर इतनी भी रस्म अदा न हो तो वह शादी कैसी ? बिना रस्म की शादी और रखैल करने में फ़र्क ही क्या है, बोलो न ?
मरुदमुत्तु को भी उसकी दलील जायज लगी, इसीलिए उसने शादी को मंजूरी दे दी। अपने मँगेतर के मान जाने पर रंजितम फूली न समायी। आखिर बेचारी कब तक बेसहारा और अनाथ रह सकती थी।
जब वह इस शहर में आयी थी, बेसहारा नहीं थी, उसका बाप यहाँ रेहड़ी खींचकर पेट पालता था। रंजितम तिण्डिवनम के पास मुण्डियमपाक्कम गाँव में अपनी माँ के साथ खेतीहर मजदूर के रूप में काम करती थी। माँ के मर जाने की खबर सुनकर बाप पूरे एक हफ्ते के बाद गाँव आया। लौटते हुए वह रंजितम को अपने साथ यहाँ ले आया।
शहर में बाप बेटी के रहने और गुजारा करने के लिए आवास और साज सामान की कोई कमी थी ? वाह! सड़क का लंबा फुटपाथ, फटी पुरानी चटाइयाँ, मिट्टी के बरतन-भाँडे ! रेहड़ी के चलने के साथ उनका जीवन सरक रहा था। एक दिन उस तरह सरक नहीं पाया, रुक गया।
रेहड़ी खींचने वाला एक दिन नहीं सरका तो क्या शहर का चलना बंद हो जायगा ? रोज की चहल-पहल के साथ शहर बदस्तूर चलता रहा—फुटपाथ पर पड़ी गरीब कुली की लाश मुड़कर देखने के लिए क्षणभर रुके बिना आगे बढ़ता रहा।
उस चौड़ी सड़क पर जहाँ नगर की सभ्यता सीना ताने झूम रही थी—चार जनों के कंधे पर सवार होकर बुड्ढा अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गया। बाप के बिछोह को बरदाश्त करने की शक्ति न होने से रंजितम छाती पीट-पीटकर रो रही थी। रोते-रोते सड़क पर लुढ़क रही थी।
‘‘हाय मैं बेसहारा हो गई हूँ...अनाथ हो गयी हूँ’’। यों दहाड़ मार कर रो रही रंजितम के कानों में अमृत घोलता एक स्वर सुनाई दिया--‘‘रो मत, रंजितम ! मैं हूँ ना ! चौंककर रंजितम ने मुड़कर देखा। पीछे खड़ा था मरुदमुत्तु—उसके रिश्ते का ‘मच्चान’ (मँगेतर)।
उसे देख कर वह फिर दहाड़ पड़ी, मरुदमुत्तु ने उसे दिलासा दिया।
कुछ ही दिन हुए कि उसने बाप की याद में रोना बंद कर दिया। उसकी जरूरत ही खत्म कर दी मरुदमुत्तु की एक बात ने। ऐसी क्या बात कह दी उसने, संजीवनी मंत्र जैसी बात ? उसने कहा था--‘‘चिंता न कर रंजितम ! मैं तुझसे शादी करूँगा, रो मत।’’ बिलखती रंजितम ने आँख उठाकर उसकी ओर देखा। उसके नयन प्रफुल्लित होकर चमक उठे। मरुदमुत्तु ने अपने संकल्प को दुहराया--‘‘तेरी कसम रंजितम, तुझे मैं अपनी पत्नी बनाउँगा।’’ और मुस्कराया। रंजितम के होंठ हर्षातिरेक से फड़क उठे। लज्जा से उसका सिर झुक गया।
उस दिन के बाद रंजितम ने अपने ‘मच्चान’ (मँगेतर) को रोज खाना पकाकर परोसने लगी। आस-पास की चूल्हेवालियाँ (फटुपाथ पर रहने वाले परिवारों को एक दूसरे से अलग करने वाली चीज दीवार नहीं, चूल्हा होता है; इसलिए ‘पड़ोसन’ शब्द यहाँ नहीं चल सकता) धीमी आवाज में एक दूसरे से कहने लगीं कि ये दोनों शादी करने वाले हैं।
मरुदमुत्तु चेन्नै की कोतवाल मंडी में बोझ ढोने वाला मजदूर था। रोज की कमायी अठन्नी दस आने में से दो तीन आने बचाने के बाद बाकी रंजितम के हाथ में रख देता था। दिन भर की मेहनत मशक्कत; शाम के समय रंजितम के साथ थोड़ी देर हँसी-मजाक; फिर रात को लेटता तो सो नहीं पाता, उसी की याद में करवटें बदलता रहता; दाम्पत्य सुख को पहले से ही पा लेने की तड़प। लेकिन अपने उसूल की पक्की रंजितम टस से मस नहीं होती थी, क्योंकि उसे शहर आये ज्यादा दिन नहीं हुए थे। अभी तक उसके अंदर वही देहातीपन बरकरार था।
उसने दृढ़ता से कह दिया ‘‘भगवान की मूर्ति के सामने शपथ लेने के बाद ही..’’
आखिर किसी तरह पैसा जमा ही हो गया।
भात बेचने वाली एक बुढिया ने मरुदमुत्तु और रंजितम को आशीष दी--‘खुशी रहो। पूतों फलो..’’
जिगरी दोस्तों में एक ने मजाक-मजाक में पूछा, ‘‘बोलो यार शादी की दावत कब दोगे ?’’
‘‘फुटपाथ के कुछ बच्चों ने इनाम माँगा। उसने भी हँसते हुए उन्हें दो-दो पैसे दे दिये।’’
लोन स्क्वायर पार्क के तारों वाली बाड़ के पास कबूतरखाने जितने ‘विशाल’ मंदिर में विराजे गणेश जी की ‘महासन्निधि’ में मरुदमुत्तु ने जो दीया जलाया उसकी ज्योति प्रचंड रूप धरकर प्रज्वलित होने लगी—विवाह मण्डप के हवन कुण्ड की लपटों की भाँति। क्यों न हो, उसने पूरी इकन्नी का मूँगफली का तेल जो डाल रखा था।
पार्क के सामने गिरजाघर की दीवार के पास रेहड़ी, रिक्शा, कूड़ादान आदि के साथ नित्य संबंध जोड़ कर जल रहे चूल्हे में मछली की तरी खौल रही थी। चरख चढ़ने के कारण सरसराती साड़ी की तहों को पैरों के बीच समेटे, झुककर कलछी चला रही थी रंजितम।
उसके हाथों में खनकती चूड़ियाँ, गले से लटकते मंगलसूत्र की पीली डोर, हल्दी के सुनहले रंग से चमकते गाल और माथे पर लगाये कुंकुम तिलक की चमकियाँ धू-धू कर जल रही लपटों की अरुणिम आभा में जगमगा उठीं।
रंजितम चूल्हे को—सुलगकर जल रही ज्वाला को—देखती खड़ी थी। उसकी आँखों में लपटों की ललाई झलक रही थी। कुल मिलाकर उसके मुख-मण्डल पर एक अपूर्व एवं अवर्णनीय तेज..एक नशा, खास तरह की एक खुमारी थी। उसके अपूर्व सौंदर्य का पान करते हुए पास में उकड़ूँ बैठे मरुदमुत्तु के मन में न जाने क्या पक रहा था, उसके होठों पर मुस्कान का नर्तन था। अपने अधर को दाँतों से भींचते हुए तिरछी निगाह से उसने लंबी साँस भरी।
‘‘ऐ छोरी..जरा अंगार इधर बढ़ा दे !’’ हाथ में बीड़ी लेते हुए मरुदमुत्तु ने कहा।
‘‘देखो तो, कैसे पुकार रहे हैं ये, अजी मैं छोरी दिखती हूँ ?’’ बुदबुदाते हुए रंजितम ने चूल्हे में से एक जलती लकड़ी उठाकर उसकी ओर बढ़ा दी। जलती लकड़ी लेते हुए मरुदमुत्तु ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसकी काँच की चूड़ियों के साथ खेलते हुए मीठी आवाज में बोला--‘‘शादी-शादी की रट लगाते और शादी का नाम लेते-लेते अभी तक टाल रही थी न, अब क्या कहोगी बताओ तो..!’’ कहते हुए उसने उसे पास खींचकर कान में कुछ फुसफुसाया। सुनते ही काँच की चूड़ियों की खनक और हँसी की खिलखिलाहट के बीच में उसकी पकड़ से अपने को छुड़ाते हुए जरा तुनकती आवाज में मचली, ‘‘छोड़ो न..मच्चान ! चूल्हे से तरी उतारना है।’’ और आँचल में मुँह छिपाए अंदर ही अंदर हँस पड़ी। पता नहीं, इतना शर्माने के लिए उसने क्या पूछा होगा।
‘‘उहुँ..जवाब दो न..।’’
‘‘अब मुझसे काहे पूछना है ?..’’ कहकर रंजितम पलट कर चूल्हे पर ध्यान देने लगी। उसकी पीठ पर कुछ सुरसुरी-सी हुई। समूची देह में सिहरन..
भात मछली की तरी और सालन बनाकर अपने मर्द को दावत खिलाने के बाद खुद भी भोजन करने बैठी—सारा कुछ खुली सड़क पर ! ‘‘रंजी, मैं पार्क में उस कोने वाली बेंच पर लेटा हूँ।’’ धीमी आवाज में रहस्य की यह बात कहकर मरुदमुत्तु चला गया।
भात और तरी जायके दार बनी थी, लेकिन न जाने क्यों रंजितम खा नहीं पा रही थी।
समय दस बजे के ऊपर हो गया था। पार्क की कोने वाली बेंच पर मरुदमुत्तु करवट लेता हुआ लेट रहा था। बेंच के नीचे फटी चटाई और पुरानी चादर पड़ी थी। उसकी उँगलियों के बीच बीड़ी सुलग रही थी। अभी भी गली में चहलपहल थमी नहीं थी।
रंजितम झिझक-झिझकर धीरे-धीरे चलते हुए पार्क के अंदर दाखिल हुई। उसके पास सिरहाने पर—चुपके से आ खड़ी हुई। अपने समीप में उसकी मौजूदगी जानते हुए भी अनजान बनकर मरुदमुत्तु आँखें बंद किये लेटा था। यही नहीं, बल्कि हल्की आवाज में खर्राटे भरने लगा ताकि वह सोच ले कि बेचारा सो गया है। लेकिन उसके हाथ में सुलग रही बीड़ी ने कलई खोल दी। रंजितम को हँसी आ गयी। हँसी को रोकते हुए वह चुपचाप खड़ी रही। उसे गरदन की नसों के अंदर एक गुदगुदी सी उठकर सारी देह में व्यापित महसूस हुई। वहाँ छाये मौन ने मरुदमुत्तु के अंदर भी हँसी के बीज बो दिये। चुप रहने की सारी कोशिशें नाकाम हुईं तो उसके चेहरे पर हँसी की लकीरें धमा-चौकड़ी भरने लगीं और एकाएक हँसी का फव्वारा फूट गया। दोनों एक दूसरे को देखते हुए अकारण ही या कारण सहित हँसने लगे, हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये। हँसी का ताँता किसी तरह थम गया तो रंजितम बेंच के एक कोने पर लज्जा से सहमी सिकुड़ी बैठ गयी।
‘‘रंजी पान-सुपारी लायी है ? देना..’
रंजितम ने बीड़ा बनाकर उसकी हथेली पर रख दिया। मरुदमुत्तु ने मजे से बीड़ा चबाते हुए उसके पास सटकर बैठ गया।
दूध की चादर बिछी-सी चाँदनी..
चाँदनी की ऐसी रोशनी उस प्रेमी युगल को हितकर नहीं बल्कि बाधक लग रही थी।
बेंच पर बैठी रंजितम के चेहरे पर विशाल बरगद की शाखा-प्रशाखाओं से छनकर आ रही चाँदनी आभा बिखेर रही थी, जिसमें उसकी आँखों की पुतलियाँ चमक रहीं थीं। ताम्बूल-रंजित अधरों की दमक से मरुदमुत्तु के होठों में सुरसुरी पैदा हुई। वह अपने होंठ भींचते हुए रंजितम को देखता रहा, उसकी छाती में मंगलसूत्र की पीली डोर काले मनकों के संग बलखाती पड़ी थी। खिसक रहे आँचल के बीच में झिलमिल झाँकता देह-लावण्य, आबनूस के तराशे शिल्प जैसे उरोज..मरुदमुत्तु उन्मत्त हुआ जा रहा था।
‘‘रंजी…’’
उसने गहरी साँस भरी।
क्षण-क्षण स्फीत हो रहे स्तन-भार ने मरुदमुत्तु के संयम के बाँध को तोड़ दिया और उसने अपनी प्रिया को अंक में भर लिया।
‘‘छोड़ो भी..’’ उसके आलिंगन पाश से अपने को बलपूर्वक छुड़ाने के बाद रंजितम आँचल सहेजते हुए अलग बैठ गयी।
मरुदमुत्तु ने भी तभी गौर किया कि सामने वाला मुस्लिम रेस्तराँ अभी भी बंद नहीं हुआ है।
सफेद धोतीधारी किसी राहगीर ने उस जोड़े को देखकर अपने साथी को सुनाते हुए यह टिप्पणी कसी--‘‘धत्तेरे की.. आज कल यह पार्क बड़ा नैस्टी हो गया है।’’ यह सुनकर मरुदमुत्तु लज्जा से गड़ गया। रंजितम दयनीय ढंग से आँखें फाड़ कर देखती रह गयी।
‘‘काश, अपने गाँव में ही शादी कर लेते..’’ रंजितम से आगे बोला नहीं गया; उसका गला रुँध गया।
मरुदमुत्तु ने लंबी साँस छोड़ी, कहने लगा—
पाँच रुपये जोड़ने के लिए मरुदमुत्तु को महीने भर जी तोड़ मेहनत करनी पड़ी थी। बोझा उठाकर कमायी मजदूरी में से हर रोज दु्अन्नी या तीन आने बचाता, पैसा हाथ में रहने पर खर्च हो जाता, इसी डर के मारे उसे ‘सायबू’ (साहब) के पास जमा करता। इस तरह महीने भर में मुश्किल से पाँच रुपये जुड़ पाये। मगर रंजितम को इतने समय तक सब्र करना बड़ा दुश्वार लग रहा था।
मरुदमुत्तु शादी की रस्म को गैरजरूरी समझता था, इसीलिए पहले इसके लिए राजी नहीं हुआ था। इतना ही नहीं, उस फुटपाथ-पुरी के वाशिन्दे शादी के बारे में अमूमन यही राय रखते थे—पारंपरिक प्रथा के कारणों से नहीं, बल्कि जीवन शैली की मजबूरी की वजह से।
लेकिन देहात के परिवेश में पत्नी रंजितम की ऐसे संबंध के लिए स्वीकृति नहीं थी। उसने अपने मँगेतर मरुदमुत्तु के सामने यह दलील रखी--‘‘गाजे बाजे न हों तो कोई बात नहीं, मगर नई साड़ी और मंगलसूत्र तो अवश्य होना चाहिए। पंडित बुला न सको तो जाने दो, भगवान की मूर्ती के सामने खड़े होकर शपथ लेना जरूरी है। अगर इतनी भी रस्म अदा न हो तो वह शादी कैसी ? बिना रस्म की शादी और रखैल करने में फ़र्क ही क्या है, बोलो न ?
मरुदमुत्तु को भी उसकी दलील जायज लगी, इसीलिए उसने शादी को मंजूरी दे दी। अपने मँगेतर के मान जाने पर रंजितम फूली न समायी। आखिर बेचारी कब तक बेसहारा और अनाथ रह सकती थी।
जब वह इस शहर में आयी थी, बेसहारा नहीं थी, उसका बाप यहाँ रेहड़ी खींचकर पेट पालता था। रंजितम तिण्डिवनम के पास मुण्डियमपाक्कम गाँव में अपनी माँ के साथ खेतीहर मजदूर के रूप में काम करती थी। माँ के मर जाने की खबर सुनकर बाप पूरे एक हफ्ते के बाद गाँव आया। लौटते हुए वह रंजितम को अपने साथ यहाँ ले आया।
शहर में बाप बेटी के रहने और गुजारा करने के लिए आवास और साज सामान की कोई कमी थी ? वाह! सड़क का लंबा फुटपाथ, फटी पुरानी चटाइयाँ, मिट्टी के बरतन-भाँडे ! रेहड़ी के चलने के साथ उनका जीवन सरक रहा था। एक दिन उस तरह सरक नहीं पाया, रुक गया।
रेहड़ी खींचने वाला एक दिन नहीं सरका तो क्या शहर का चलना बंद हो जायगा ? रोज की चहल-पहल के साथ शहर बदस्तूर चलता रहा—फुटपाथ पर पड़ी गरीब कुली की लाश मुड़कर देखने के लिए क्षणभर रुके बिना आगे बढ़ता रहा।
उस चौड़ी सड़क पर जहाँ नगर की सभ्यता सीना ताने झूम रही थी—चार जनों के कंधे पर सवार होकर बुड्ढा अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गया। बाप के बिछोह को बरदाश्त करने की शक्ति न होने से रंजितम छाती पीट-पीटकर रो रही थी। रोते-रोते सड़क पर लुढ़क रही थी।
‘‘हाय मैं बेसहारा हो गई हूँ...अनाथ हो गयी हूँ’’। यों दहाड़ मार कर रो रही रंजितम के कानों में अमृत घोलता एक स्वर सुनाई दिया--‘‘रो मत, रंजितम ! मैं हूँ ना ! चौंककर रंजितम ने मुड़कर देखा। पीछे खड़ा था मरुदमुत्तु—उसके रिश्ते का ‘मच्चान’ (मँगेतर)।
उसे देख कर वह फिर दहाड़ पड़ी, मरुदमुत्तु ने उसे दिलासा दिया।
कुछ ही दिन हुए कि उसने बाप की याद में रोना बंद कर दिया। उसकी जरूरत ही खत्म कर दी मरुदमुत्तु की एक बात ने। ऐसी क्या बात कह दी उसने, संजीवनी मंत्र जैसी बात ? उसने कहा था--‘‘चिंता न कर रंजितम ! मैं तुझसे शादी करूँगा, रो मत।’’ बिलखती रंजितम ने आँख उठाकर उसकी ओर देखा। उसके नयन प्रफुल्लित होकर चमक उठे। मरुदमुत्तु ने अपने संकल्प को दुहराया--‘‘तेरी कसम रंजितम, तुझे मैं अपनी पत्नी बनाउँगा।’’ और मुस्कराया। रंजितम के होंठ हर्षातिरेक से फड़क उठे। लज्जा से उसका सिर झुक गया।
उस दिन के बाद रंजितम ने अपने ‘मच्चान’ (मँगेतर) को रोज खाना पकाकर परोसने लगी। आस-पास की चूल्हेवालियाँ (फटुपाथ पर रहने वाले परिवारों को एक दूसरे से अलग करने वाली चीज दीवार नहीं, चूल्हा होता है; इसलिए ‘पड़ोसन’ शब्द यहाँ नहीं चल सकता) धीमी आवाज में एक दूसरे से कहने लगीं कि ये दोनों शादी करने वाले हैं।
मरुदमुत्तु चेन्नै की कोतवाल मंडी में बोझ ढोने वाला मजदूर था। रोज की कमायी अठन्नी दस आने में से दो तीन आने बचाने के बाद बाकी रंजितम के हाथ में रख देता था। दिन भर की मेहनत मशक्कत; शाम के समय रंजितम के साथ थोड़ी देर हँसी-मजाक; फिर रात को लेटता तो सो नहीं पाता, उसी की याद में करवटें बदलता रहता; दाम्पत्य सुख को पहले से ही पा लेने की तड़प। लेकिन अपने उसूल की पक्की रंजितम टस से मस नहीं होती थी, क्योंकि उसे शहर आये ज्यादा दिन नहीं हुए थे। अभी तक उसके अंदर वही देहातीपन बरकरार था।
उसने दृढ़ता से कह दिया ‘‘भगवान की मूर्ति के सामने शपथ लेने के बाद ही..’’
आखिर किसी तरह पैसा जमा ही हो गया।
भात बेचने वाली एक बुढिया ने मरुदमुत्तु और रंजितम को आशीष दी--‘खुशी रहो। पूतों फलो..’’
जिगरी दोस्तों में एक ने मजाक-मजाक में पूछा, ‘‘बोलो यार शादी की दावत कब दोगे ?’’
‘‘फुटपाथ के कुछ बच्चों ने इनाम माँगा। उसने भी हँसते हुए उन्हें दो-दो पैसे दे दिये।’’
लोन स्क्वायर पार्क के तारों वाली बाड़ के पास कबूतरखाने जितने ‘विशाल’ मंदिर में विराजे गणेश जी की ‘महासन्निधि’ में मरुदमुत्तु ने जो दीया जलाया उसकी ज्योति प्रचंड रूप धरकर प्रज्वलित होने लगी—विवाह मण्डप के हवन कुण्ड की लपटों की भाँति। क्यों न हो, उसने पूरी इकन्नी का मूँगफली का तेल जो डाल रखा था।
पार्क के सामने गिरजाघर की दीवार के पास रेहड़ी, रिक्शा, कूड़ादान आदि के साथ नित्य संबंध जोड़ कर जल रहे चूल्हे में मछली की तरी खौल रही थी। चरख चढ़ने के कारण सरसराती साड़ी की तहों को पैरों के बीच समेटे, झुककर कलछी चला रही थी रंजितम।
उसके हाथों में खनकती चूड़ियाँ, गले से लटकते मंगलसूत्र की पीली डोर, हल्दी के सुनहले रंग से चमकते गाल और माथे पर लगाये कुंकुम तिलक की चमकियाँ धू-धू कर जल रही लपटों की अरुणिम आभा में जगमगा उठीं।
रंजितम चूल्हे को—सुलगकर जल रही ज्वाला को—देखती खड़ी थी। उसकी आँखों में लपटों की ललाई झलक रही थी। कुल मिलाकर उसके मुख-मण्डल पर एक अपूर्व एवं अवर्णनीय तेज..एक नशा, खास तरह की एक खुमारी थी। उसके अपूर्व सौंदर्य का पान करते हुए पास में उकड़ूँ बैठे मरुदमुत्तु के मन में न जाने क्या पक रहा था, उसके होठों पर मुस्कान का नर्तन था। अपने अधर को दाँतों से भींचते हुए तिरछी निगाह से उसने लंबी साँस भरी।
‘‘ऐ छोरी..जरा अंगार इधर बढ़ा दे !’’ हाथ में बीड़ी लेते हुए मरुदमुत्तु ने कहा।
‘‘देखो तो, कैसे पुकार रहे हैं ये, अजी मैं छोरी दिखती हूँ ?’’ बुदबुदाते हुए रंजितम ने चूल्हे में से एक जलती लकड़ी उठाकर उसकी ओर बढ़ा दी। जलती लकड़ी लेते हुए मरुदमुत्तु ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसकी काँच की चूड़ियों के साथ खेलते हुए मीठी आवाज में बोला--‘‘शादी-शादी की रट लगाते और शादी का नाम लेते-लेते अभी तक टाल रही थी न, अब क्या कहोगी बताओ तो..!’’ कहते हुए उसने उसे पास खींचकर कान में कुछ फुसफुसाया। सुनते ही काँच की चूड़ियों की खनक और हँसी की खिलखिलाहट के बीच में उसकी पकड़ से अपने को छुड़ाते हुए जरा तुनकती आवाज में मचली, ‘‘छोड़ो न..मच्चान ! चूल्हे से तरी उतारना है।’’ और आँचल में मुँह छिपाए अंदर ही अंदर हँस पड़ी। पता नहीं, इतना शर्माने के लिए उसने क्या पूछा होगा।
‘‘उहुँ..जवाब दो न..।’’
‘‘अब मुझसे काहे पूछना है ?..’’ कहकर रंजितम पलट कर चूल्हे पर ध्यान देने लगी। उसकी पीठ पर कुछ सुरसुरी-सी हुई। समूची देह में सिहरन..
भात मछली की तरी और सालन बनाकर अपने मर्द को दावत खिलाने के बाद खुद भी भोजन करने बैठी—सारा कुछ खुली सड़क पर ! ‘‘रंजी, मैं पार्क में उस कोने वाली बेंच पर लेटा हूँ।’’ धीमी आवाज में रहस्य की यह बात कहकर मरुदमुत्तु चला गया।
भात और तरी जायके दार बनी थी, लेकिन न जाने क्यों रंजितम खा नहीं पा रही थी।
समय दस बजे के ऊपर हो गया था। पार्क की कोने वाली बेंच पर मरुदमुत्तु करवट लेता हुआ लेट रहा था। बेंच के नीचे फटी चटाई और पुरानी चादर पड़ी थी। उसकी उँगलियों के बीच बीड़ी सुलग रही थी। अभी भी गली में चहलपहल थमी नहीं थी।
रंजितम झिझक-झिझकर धीरे-धीरे चलते हुए पार्क के अंदर दाखिल हुई। उसके पास सिरहाने पर—चुपके से आ खड़ी हुई। अपने समीप में उसकी मौजूदगी जानते हुए भी अनजान बनकर मरुदमुत्तु आँखें बंद किये लेटा था। यही नहीं, बल्कि हल्की आवाज में खर्राटे भरने लगा ताकि वह सोच ले कि बेचारा सो गया है। लेकिन उसके हाथ में सुलग रही बीड़ी ने कलई खोल दी। रंजितम को हँसी आ गयी। हँसी को रोकते हुए वह चुपचाप खड़ी रही। उसे गरदन की नसों के अंदर एक गुदगुदी सी उठकर सारी देह में व्यापित महसूस हुई। वहाँ छाये मौन ने मरुदमुत्तु के अंदर भी हँसी के बीज बो दिये। चुप रहने की सारी कोशिशें नाकाम हुईं तो उसके चेहरे पर हँसी की लकीरें धमा-चौकड़ी भरने लगीं और एकाएक हँसी का फव्वारा फूट गया। दोनों एक दूसरे को देखते हुए अकारण ही या कारण सहित हँसने लगे, हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये। हँसी का ताँता किसी तरह थम गया तो रंजितम बेंच के एक कोने पर लज्जा से सहमी सिकुड़ी बैठ गयी।
‘‘रंजी पान-सुपारी लायी है ? देना..’
रंजितम ने बीड़ा बनाकर उसकी हथेली पर रख दिया। मरुदमुत्तु ने मजे से बीड़ा चबाते हुए उसके पास सटकर बैठ गया।
दूध की चादर बिछी-सी चाँदनी..
चाँदनी की ऐसी रोशनी उस प्रेमी युगल को हितकर नहीं बल्कि बाधक लग रही थी।
बेंच पर बैठी रंजितम के चेहरे पर विशाल बरगद की शाखा-प्रशाखाओं से छनकर आ रही चाँदनी आभा बिखेर रही थी, जिसमें उसकी आँखों की पुतलियाँ चमक रहीं थीं। ताम्बूल-रंजित अधरों की दमक से मरुदमुत्तु के होठों में सुरसुरी पैदा हुई। वह अपने होंठ भींचते हुए रंजितम को देखता रहा, उसकी छाती में मंगलसूत्र की पीली डोर काले मनकों के संग बलखाती पड़ी थी। खिसक रहे आँचल के बीच में झिलमिल झाँकता देह-लावण्य, आबनूस के तराशे शिल्प जैसे उरोज..मरुदमुत्तु उन्मत्त हुआ जा रहा था।
‘‘रंजी…’’
उसने गहरी साँस भरी।
क्षण-क्षण स्फीत हो रहे स्तन-भार ने मरुदमुत्तु के संयम के बाँध को तोड़ दिया और उसने अपनी प्रिया को अंक में भर लिया।
‘‘छोड़ो भी..’’ उसके आलिंगन पाश से अपने को बलपूर्वक छुड़ाने के बाद रंजितम आँचल सहेजते हुए अलग बैठ गयी।
मरुदमुत्तु ने भी तभी गौर किया कि सामने वाला मुस्लिम रेस्तराँ अभी भी बंद नहीं हुआ है।
सफेद धोतीधारी किसी राहगीर ने उस जोड़े को देखकर अपने साथी को सुनाते हुए यह टिप्पणी कसी--‘‘धत्तेरे की.. आज कल यह पार्क बड़ा नैस्टी हो गया है।’’ यह सुनकर मरुदमुत्तु लज्जा से गड़ गया। रंजितम दयनीय ढंग से आँखें फाड़ कर देखती रह गयी।
‘‘काश, अपने गाँव में ही शादी कर लेते..’’ रंजितम से आगे बोला नहीं गया; उसका गला रुँध गया।
मरुदमुत्तु ने लंबी साँस छोड़ी, कहने लगा—
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