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इन सबके बावजूद

मनोहर वंद्योपाध्याय

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7379
आईएसबीएन :9789380146393

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आज की अस्तित्ववादी वास्तविकता को उजागर करता एक मर्मस्पर्शी उपन्यास...

In Sabke Bawazood - A Hindi Book - by Manohar Vandyopadhyay

प्राइवेट कॉलेज के असुरक्षित कार्य को छोड़कर अजय एक संपन्न व्यापारी की ‘भानजी’ रति को ट्यूशन पढ़ाता है। यहाँ उसे प्रॉपर्टी डीलिंग का भी काम मिल जाता है। इस व्यापार के दाँव-पेच सीख वह रति को हथियाकर धनवान बनने के स्वप्न देखता है। इस कोशिश में वह बुरी तरह पिटता ही नहीं अपनी जान भी खतरे में डाल देता है। व्यापारी को उसके शोषण की फिक्र है और लड़की उसे झटककर किसी और की हो जाती है। हताश अजय तब रेनु की ओर मुड़ता है, जिसे वह किसी समय चाहने लगा था।

कहानी वर्तमान युग के नवयुवकों की त्रासदी को उजागर करती है, जिसमें वे वैवाहिक जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए हर जोखिम-संघर्ष में स्वयं को झोंक देते हैं।

इन सबके बावजूद


रति परीक्षा में उत्तीर्ण हुई, इससे अजय की धाक रति के परिवार में जम गई। वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी। प्राइवेट विद्यार्थी की अंग्रेजी विषय में इस सफलता को उसकी माँ और ‘मामा’ ने एक उपलब्धि माना और परीक्षा के संग्राम में इस सफलता के लिए वे अजय की योग्यता के कायल हो गए। यह तो एम०ए० का प्रथम वर्ष था। उन्हें विश्वास हो गया कि यदि वह पूरी लगन से अगले वर्ष रति को पढ़ाए तो वह प्रथम श्रेणी भी पा सकती है। द्वितीय श्रेणी तो पक्की है ही, इस वर्ष उसने केवल दो ही महीने पढ़ाया था। उधर अजय को लगा कि अब इस घर में उसके पाँव पक्के हो गए हैं। वह पूरी शान से रति के घर आने-जाने लगा और रौब से उसे पढ़ाता रहा।

मगर रति अपनी कामयाबी के बारे में कुछ अलग ही धारणा रखती थी। उसके खयाल में उसने अपनी ही योग्यता से परीक्षा पास की थी। इसमें अजय के पढ़ाने न पढ़ाने से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा। हाँ, कुछ आलोचकों के बारे में वह अवश्य अवगत हो गई। अजय की जरूरत उसे पढ़ने से अधिक कंपनी के लिए थी। परीक्षा उत्तीर्ण कर लेने से उसे विश्वास हो गया, अजय कम से कम एक वर्ष तो उसे कंपनी देगा ही। माँ चाहती थी, घर में पढ़ाई कर वह एम०ए० करे, पी-एच०डी०। उसके बाद किसी कॉलेज में नौकरी कर ले। इसके बाद ? इसके बाद वही जो हर भारतीय लड़की के साथ होता है। हाथ पीले और ससुराल। रति इस पिटी-पिटाई राह पर कतई नहीं चलना चाहती थी। वह चाहती थी जिंदगी का रस लूटा जाए, भारत या विदेश में। उसका झुकाव विदेश में ही अधिक था। पर यह सब तो बाद की बात है। फिलहाल तो उसे घर में किताबें पढ़ते-पढ़ते बोरियत महसूस होती है। रुटीन कहीं तो टूटना चाहिए, घर में टूटता रहे तो बेहतर। बाहर कोई बदनामी नहीं और इज्जत-आबरू बरकरार। उसे लगता, इस हकीकत से उसकी माँ और ‘मामा’ दोनों वाकिफ हैं, नहीं तो इस जवान छोकरे की जगह कोई गंजा बुड्ढा न पटक देते मेरे सामने। अजय जवान था और होशियार भी, पर सबसे अधिक माफिक बात यह थी कि अजय का उठना-बैठना, आचार-व्यवहार शिष्ट था। इससे उसके साथ आने-जाने में भी रति को कोई हिचक नहीं थी।

इधर अजय का रति को पढ़ाना मात्र एक साधन था, उसका साध्य तो कुछ और ही था। वह था धन-दौलत और समाज से सम्मान हालिस करना। वह हमेशा इसी ताक में रहता था कि कभी फुरसत से रति के मामा का इस मकसद के लिए लाभ उठाया जाए। आखिर वह शुभ घड़ी एक दिन आ ही गई।

उस दिन अजय को रति को पढ़ाते हुए नियत समय से अधिक हो चुका था। अंत में अपनी बात समाप्त कर वह उठा। अचानक बरसात होने लगी। अजय ने सोचा, बरसात बंद हो तो निकले। मगर बरसात रुकने के बजाय तेज होती गई।

वह उठकर खिड़की के पास गया। बहुत देर तक वह बरसात देखता रहा। आसमान में बादल गहराए हुए थे और बिजली कड़ंक रही थी। यह एक घंटे तक नहीं रुकने वाली, उसने सोचा। इस बीच रति रसोई से चाय बनाकर थर्मस में ले आई, साथ बिस्कुट। टेबल पर रखने के बाद उसने अजय को खिड़की पर गंभीर मुद्रा में बाहर ताकते देखा। वह उसके करीब आई। अजय की बाँह पर अपना हाथ रखती हुई बोली, ‘‘क्या देख रहे हैं, सर ?’’ रति के हाथ के स्पर्श से आसमान की बिजली अजय के भीतर दौड़ गई। उसका दिल धकधकाया। बिजली फिर कड़की। इस बार रति ने उसी बाँह को कुछ कसकर पकड़ा। बोली, ! ‘‘क्या देखे जा रहे हैं ? कुछ बोलते नहीं।’’ वह मुड़कर रति की ओर मुँह करके खड़ा हुआ। बोला, बरसात भी क्या चीज हैं !’’

‘‘क्यों ?’’
‘‘आई भी तो बेसमस।’’
‘‘क्या किसी और समय इसे आना चाहिए था ?’’
‘‘हाँ, घंटे-दो घंटे अगर आती तो रात-भर खिड़की के सहारे इसे देखता रहता और...’’

‘‘और ?’’ रति ने टोकते हुए पूछा। इस बार उसने अजय की बाँह को पकड़कर हिलाया।
‘‘और ? और सारी रात कुछ सोचता रहता।’’
‘‘किस बारे में ?’’
‘‘तुम्हारे बारे में।’’ वह जैसे उसे सरप्राइज देते हुए हँसा।

सुनकर रति ने अपना सिर नीचे झुकाया। दोनों हाथों से चुन्नी के किनारे गाँठ लगाती हुई बोली, ‘‘आप मेरे बारे में क्या सोचते हैं ?’’

अजय को लगा, उसकी अप्रोच गलत थी। शायद उसने अपने दिल की बात कहने में जल्दबाजी कर दी। अगर कहीं उसकी बात से रति को झटक लगा तो ट्यूशन कायम रखना तो दूर, थोड़ी-बहुत जो इज्जत है उससे भी हाथ धो बैठेगा। बेहतर है वह वहीं रुक जाए जहाँ पहुँच गया है। उससे आगे बिलकुल नहीं। बात को पलटने के लिए उसने पूछा, ‘‘मैडम नहीं दिखाई दे रही हैं ?’’ वह रति की माँ को मैडम कहकर ही संबोधित करता था।

रति बोली, ‘‘वह नौकर के साथ सब्जी और फ्रूट खरीदने गई हैं। बरसात की वजह से अब लौटने में देर होगी।’’
‘‘और मामा जी ?’’

‘‘आपको उनकी बड़ी फिक्र रहती है। वे आज यहाँ नहीं हैं।’’ कहती हुई वह मुस्करा दी। उसकी आँखें इस बार अजय की आँखों के भीतर डूब गई। अजय तय न कर पाया आखिर लड़की चाहती क्या है। बात को जारी रखने के लिए उसने पूछा ‘‘कहाँ गए हैं ?’’

‘‘होशियारपुर। कल आएँगे।...ओह...बातों में मैं बताना भूल गई थी कि चाय तैयार है। आइए टेबल पर...’’
चाय का घूँट पीते हुए वह बोला, ‘‘अचानक मैं बरसात और तनहाई देखकर कुछ भावुक हो गया था। मेरे कहने का तुमने बुरा तो नहीं माना ?’’

रति बोली, ‘‘आपने तो बुरा मानने वाला कुछ भी नहीं कहा। बल्कि मुझे अच्छा लगा यह जानकर कि आप भावुक भी हो जाते हैं।’’ वह अजय के पास की कुर्सी पर बैठी हुई थी।
‘‘दरअसल हमारे जैसे संघर्षरत व्यक्तियों को भावुक होना अभिशाप है। भावुक हुए, और फिसले। फिसलकर जाने कहाँ जा गिरें, फिर कभी शायद उठ ही न पाएँ।’’

‘‘वह कैसे ?’’
‘‘देखो न। न नौकरी, न पेशा। इस इकलौती ट्यूशन के सहारे कब तक जीयेंगे। साल-भर बाद तो यहाँ से भी छुट्टी। नाइट कॉलेज में पढ़ाते थे सो वहाँ से पहले ही छुट्टी हो चुकी है।’’

रति सुनकर कुछ चिंतित हुई या ऐसा भाव चेहरे पर लाई। बोली, ‘‘आप हमारे यहाँ काम क्यों नहीं कर लेते ?’’
‘‘कौन-सा काम ?’’

‘‘नीचे हमारी एस्टेट एजेंसी है, और भी बिजनेस हैं। मैं मामा से बात करके देखूँगी आपको कौन-सा सूट करेगा।’’
‘‘बात करके देखना। मैं किसी भी बिजनेस के लिए तैयार हूँ। मैं तुम्हारा आभारी रहूँगा।’’ कहता हुआ अजय खिड़की की ओर बरसात का रुख देखने गया। बरसात अभी ज्यों कि त्यों थी।

रति भी उठकर उसके पास आ गई। बोली, ‘‘आप आज यहीं क्यों नहीं ठहर जाते ? हम लोग भी अकेले हैं। कंपनी मिल जाएगी।’’ इसी बीच बिचजी की चमकाहट खिड़ती से होकर कमरे में आई। उस रोशनी में अजय ने रति को देखा। वह उसके बहुत करीब थी। उसे लगा, वह कुछ चाह रही है। अजय ने सोचा कि यदि वह इस समय चूका तो रति को कभी जीत नहीं पाएगा। ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते। इस अवसर पर यदि उसने रिसपौंड नहीं किया तो उसे हमेशा पछताना पड़ेगा। वह आखिर जितेंद्रिय तो नहीं था कि प्रत्याहार में अपने मन और शरीर को वश में रखकर किसी ब्रह्मपुर में पहुँचने की कल्पना करे। उसके हाथ अनायास उठे। उसने दोनों हाथ रति के कंधों पर रखे। पूछा, ‘‘रति, तुमको मुझसे डर नहीं लगता ?’’

‘‘डर किस बात का ?’’ रति का चेहरा उठा हुआ था। उसकी आँखें फिर अजय की आँखों में डूब गईं। अजय ने उसे अपनी ओर खींचा। उसने कोई प्रतिरोध नहीं किया। काफी देर तक दोनों एक-दूसरे से लिपटे खड़े रहे। दोनों निस्तब्ध थे और उस अपूर्व चुप्पी में वे खिड़की के बाहर से आती बरसात की झम-झम आवाज सुनते रहे। उस आवाज को चीरती हुई कई बार बिजली कड़की। अजय ने सोचा, अभी मौका है कहानी को कुछ आगे खिसकाया जाए, नहीं तो बाँहों में लिपटते-लिपटाते आधी जिंदगी गुजर जाएगी। सोचा, जो कुछ करना है धीरे से कर दिया जाए। अगर लड़की उसी ट्रैक पर है जिस पर मैं हूँ तो रिसपौंड करेगी वरना अपनी बात बादलों की गड़गड़ाहट में समा जाएगी। समा जाने दो। कोई और फॉर्मूला सोचेंगे।

अजय अपना मुँह रति के मुँह की ओर बढ़ाता हुआ अत्यंत धीमे स्वर में बोला–‘‘रति...’’
‘‘हूँ...’’
‘‘आई लव यू।’’

रति ज्यों यह सुनने के लिए बेताब थी, उसने तुरंत गुनगुनाया ‘‘आई लव यू नोलेस।’’
अजय ने उसे दुबारा अपनी बाँहों में भरा। मगर इस बार बिल्ली रास्ता काट गई। नीचे से कॉलबेल की आवाज आई।
रति उछली, ‘‘मम्मी आ गई।’’

दो


रति के मामा पारिवारिक फैसले खाने की टेबल पर ही किया करते थे। उनका खयाल था, खाने की थाली के सामने आदमी खुलता है, अपने माफिक होता है। बात ठीक से सुनता है और अपनी बात खुलकर कहता है। रति ने अजय को अपने काम में रखने की जब से माँग की है, वे पूरी गहराई से उस पर सोचते-विचारते रहे हैं। इस शिक्षित छोकरे को अपने काम में रखना है, इससे अतिरिक्त क्या-क्या फायदे हो सकते हैं, इस पर उन्होंने काफी गौर किया है। अवश्य ही किसी सही निष्कर्ष पर पहुँचे हैं, तभी तो अजय को आज खाने पर बुलाया है।

आज रविवार नहीं, मंगलवार है। मामा जी की एस्टेट एजेंसी का ऑफिस आज बंद है। उन्हें मालूम है, अजय को खाने पर बुलाने की बात एकदम स्टाफ में नहीं फैलेगी। स्टाफ आखिर उनके घर के नीचे ही बैठता है। घर की कई बातें उस ओर तुरंत उड़ाने भरती हैं। अजय के लिए रविवार और मंगलवार में कोई अंतर नहीं। उसे हर दिन रविरार लगता है। यह सच है, सप्ताह के अन्य दिनों में उसे अपनी कमी अधिक अखरने लगती है।

खाने की टेबल पर मामा जी ने ही मुख्य कुर्सी सँभाली हुई है। वे सोच रहे हैं बात कहाँ से शुरू की जाए। उन्हें मालूम है, रति ने अजय को अपने काम में लगाने की सिफारिश की है। वैसे उनके एक-दो छोटे धंधे और भी हैं। पर वे अजय की योग्यता की परीक्षा लेने के लिए अपनी एस्टेट एजेंसी में ही रखना चाहते हैं। इसकी भनक अभी तक रति को भी नहीं है।

‘‘रति, तुम कह रही थीं, अजय साहब हमारे साथ काम करना चाहते हैं।’’
मामा जी ने मौन तोड़ा।
‘‘जी, मामा जी।’’
‘‘अजय साहब, आपको किस काम का तजुर्बा है ?’’
‘‘जी, पढ़ाने के सिवाय मेरा कोई और तजुर्बा नहीं हैं।’’

मामा जी ने रति की माँ की ओर देखा। वे सलाद का एक टुकड़ा मुँह में दबाए थीं। नेपाली नौकर ने गरम फुल्के लाकर प्लेट में रखे। उसने एक उड़ती नजर अजय पर डाली। रति मामा की ओर देख रही थी। अजय जैसे पहले ही दाँव पर गुलाटें खा गया हो। वह हाँफती नजर से मामा जी के अगले शब्दों का इंतजार करने लगा। सबकी नजरें मामा जी पर टिकी हुई थीं।
‘‘अरे भई, खाना खाओ, रुक क्यों गए ?’’

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