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कोई भी दिन

पंखुरी सिन्हा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 731
आईएसबीएन :81-263-1148-7

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इस संग्रह की कहानियाँ किसी विशेष अनुभव के पूरेपन की प्रतीति से बेदखल करती पाठक को जीवन प्रवाह में खामोशी से दाखिल कर लेती है..

Koi Bhee Din

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सन्दर्भ बहुल और मितभाषी एक साथ होने का विरल उदाहरण है पंखुरी की कहानियाँ। स्थिति कोई भी हो, प्रश्नाकुलता का तनाव कथाकार को बहुलता की ओर ले जाता है और भाषा के अद्भुत संयम से व्यंग्य की धार को समुचित रूप से प्रयुक्त कर लेने की शक्ति पंखुरी के रचना-रूपायन को सन्तुलित और भेदक बनाती है। व्यंग्य, वक्र कथन, विलक्षण, व्यंजक, अन्तर्निहित के जरिये बोलती और समापन जैसे आस्वाद से बचती इस संग्रह की कहानियाँ किसी विशेष अनुभव के पूरेपन की प्रतीति से बेदखल से दाखिल कर लेती हैं। इनकी शक्ति मित कथन,आश्वस्त भाषा-व्यवहार,गैर-रूमानी मुद्रा में अनुत्तेजित ढंग से पाठक के मर्म को भेदने में है। अपने उपकरणों को लेकर खासी आश्वास्त और सचेत कथाकार पंखुरी सिन्हा पाठक में एक वयस्क,अनुभवी, विचारशील कथाकार के रू-ब-रू होने का एहसास जगाती है। ‘कहिन’ का उनका लहजा एकदम अपना और मौलिक है। कथ्य के चुनाव का अनोखापन,प्रस्तुति में सादगी, सोच का अन्तर्निहित सुलझाव इन कहानियों को पठनीय बनाता है,अकसर उदास भी करता है। स्थिति नियति की करामातों से उपजी मनुष्य की उदासियों को भिड़ते दिखाने और गहराई में विचलित कर देने के कौसल से लैस यह संग्रह,कुछ कहानियों के लिए स्मरणीय माना जायगा।

प्रदूषण

उसे मैंने अन्तत: इसलिए छोड़ा क्योंकि जो कुछ भी मैं कहती थी, वह यही कहता था कि मैंने बहुत ज्यादा किताबें पढ़ लीं हैं और मेरा दिमाग खराब हो गया है। हालाँकि इस हादसे को तीन-साढ़े तीन साल होते होंगे, पर जाने क्यों मुझे लगता है कि इसे घटे सदियाँ गुजर गयीं, पिछले कई दिनों में कई बार उसका खयाल इसलिए आया कि मेरी नयी और पहली नौकरी की खिदमत में जिन एक सज्जन से हर सुबह मेरी मुलाकात बल्कि मुठभेड़ होती है, वे मुझे बेहतर उसकी याद दिलाते हैं।
नौकरी का अलिखित नियम यह है कि सुबह दस बजे तक पहुँच जाना है। अलिखित नियम इसलिए क्योंकि लिखित नियम यह है कि दफ्तर छोड़ने का कोई नियत समय नहीं, जब तक खबरें आती रहेंगी, काम जारी रहेगा। इस लिहाज से दस बजे की पाबन्दी ज्यादती लगती थी।

पर दस बजकर पाँच मिनट पर दफ्तर में दाखिल होने पर मैंने पाया था कि उन सज्जन ने हाजिरी बनानेवाले रजिस्टर में मेरे नाम के आगे लाल स्याही से एक गोल बिन्दु बना दिया था। मैंने उस बिन्दु को देखते हुए अनदेखा कर, काली स्याही की एक कलम से अपने नाम में समेटते हुए हस्ताक्षर कर दिया था।

पर अगले दिन फिर मेरा दाखिला दस बजकर पाँच या सात मिनट पर ही हो पाया। और इस बार रजिस्टर खोलने पर मैंने पाया कि मेरे नाम के आगे लाल स्याही की बिन्दु नहीं, एक लम्बी तिरछी लकीर है जिसे काली स्याही वाली मेरी कलम ढक नहीं सकती। यह अपने केस की अर्जी देने के लिए उन सज्जन के पास मेरा व्यक्तिगत रूप में बुलावा था। उनके द्वारा दिये गये उस कम्पनी के वृहत् बिजनेस के दर्शन, और सिद्धान्तों के व्याख्यान के बावजूद मेरे नाम के आगे बिन्दु और रेखा का खेल चलता रहा, जो नूतन प्राप्त अपनी नौकरी के लिए मुझे विशेष हितकर नहीं जान पड़ता था।
पर समय की पाबन्द और लाल रंग की पसंदवाली मेरी नौकरी में कोई खास आर्थिक माद्दा नहीं था। और चाहे जितने भी घण्टे नौकरी को अर्पित करना श्रेयस्कर हो, रहने को मकान फिर भी चाहिए था।

मेरा तत्कालीन आवास, निरन्तर फैलती दिल्ली के एक सुदूर कोने में इस दफ्तर से दो या ढाई घण्टे की दूरी पर था। डी.टी.सी. बस की कृपा से यह दूरी अकसर तीन घण्टे में तब्दील हो जाती थी। अपने नाम के आगे प्रकट होने वाले लाल रंग को हटाने के लिए, मुझे इस दूरी को मिटाना होगा, यह निश्चय मैंने एक दिन बस में बैठे हुए किया।
फिर उसके बाद के दो रविवार दफ्तर के आसपास के मुहल्लों में भटकने के बाद, वहाँ एक किराये का मकान मैंने तय कर लिया।
पर किराया इतना था कि अकेली मैं भुगतान नहीं कर सकती थी। कोई चाहिए था, नहीं कोई चाहिए थी, जो मकान के दो कमरो में से एक कमरा ले ले और किराया चुकाने में मेरा हाथ बटाएँ।
मेरे मित्रों, सम्बन्धियों, परिचितों के बीच में से अचानक एक ऐसी लड़की उठकर खड़ी हो जाए जिसे शहर के इस कोने में एक दुमंजिले मकान के दूसरे तल्ले वाले घर में एक कमरे की आवश्यकता पड़ जाए, इसकी सम्भावना नगण्य थी। इसलिए मैंने अखबार में विज्ञापन देने का निर्णय लिया।

वैसे भी यह अखबार में विज्ञापन का जमाना था। अखबार के विज्ञापन के सहारे लोग अपना जीवन साथी ढूँढ़ लेते हैं, तो क्या मैं मकान के लिए एक साथी नहीं ढूँढ़ सकती ?
उसपर जीवनसाथी वाले विज्ञापन की, खासकर जो वर पक्ष वधू के लिए देता है, कई शर्तें होती हैं। रंग गेहुआँ से गोरा होना चाहिए से शुरू होकर लड़की की ऊँचाई, नाक की लम्बाई, चेहरे की गोलाई, कान्वेण्ट की पढ़ाई के अतिरिक्त लड़की के पकाने-खिलाने के शौक को लाजिमी बताया जाता है।
जीवन साथी वाले विज्ञापनों की तुलना में मेरा दिया विज्ञापन सीधा-सपाट था। सम्पर्क के लिए मैंने अपने एक मित्र का फोन नम्बर दिया था।

फोन नम्बर बहुत कारगर सिद्ध हुआ था। अखबार का विज्ञापन घर ढूँढ़ती या घर बदलने की ख्वाइश रखती हर लड़की के पास पहुँच गया था। दो दिनों के अन्दर ही मेरे मित्र ने आकर कह दिया था कि फोन उठाते-उठाते वह थक गया है।
उसकी आवाज में पिछले दो दिनों में अनेक लड़कियों से बात करने की खनक थी।
उसी खनक के साथ उसने बताया था कि जिस लड़की ने सबसे पहले फोन किया था वह शनिवार की शाम घर देखने आ रही है, मुझे दुबारा एहसास हुआ था कि घर दिखाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है।

पर खुद को मैंने यह कहकर तसल्ली दे दी कि विज्ञापन घर में रहने के लिए नहीं, मेरे साथ रहने के लिए है। और घर पर कब्जा करने या करने देने का मेरा कोई इरादा नहीं है। इसलिए अगर वह लड़की शक्ल से चोर-उच्चकी नहीं दिखी, तो मुझे उसके साथ रहने में कोई आपत्ति नहीं, मुझे विज्ञापन का जवाब देने वाली किसी लड़की के साथ जीवन नहीं निभाना, इसलिए हर किसी के साथ जन्मपत्री मिलाने की कोई आवश्यकता नहीं।
जैसा कि उसने कहा था शनिवार की शाम को उसने घण्टी बजायी।
उसका नाम सौम्या था। वह एक पुरुष के साथ थी, जो उससे लगभग दस-बारह बरस बड़ा दिखता था। ‘‘ये मेरे कजिन हैं, शिशिर!’’ उसने कहा।
मैं अँग्रेजी के इस कजिन शब्द के व्यापक प्रयोग से भली-भाँति परिचित हूँ। इसलिए उन दोनों को घर का हर कोना, हर दरवाजा दिखाते, जो स्पष्टत: उजागर है उसे भी दुहारते, जैसे बैठक के लिए छोड़ दी गयी छोटी-सी जगह में खड़े होकर यह कहते कि यह बैठक है, मुझे पता था कि यह व्यक्ति उसका कजिन नहीं है।

फिर अपने भावी कमरे का करीब से मुआयना कर जब वह शिशिर के साथ, मेरी गिनी-चुनी कुर्सियों पर, आमने-सामने आ बैठी तो मुझे उसके शिशिर को अपना कजिन कहने में अचानक दिलचस्पी हो आयी। वह खुद पैसे कमाती, अपना खर्च चलाती, पच्चीस-छब्बीस वर्ष की लड़की थी, कॉलेज के पहले साल में पढ़ती बच्ची नहीं।
पर जैसे यह तय था कि वह उसका कजिन नहीं है, वैसे ही यह भी तय था कि मैं उसके वैसा कहने का कारण नहीं पूछूँगी। और पहले से ही यह भी तय था कि पहली लड़की अगर चोर-डाकू नहीं दिखी, तो मैं बात पक्की कर लूँगी, कि ज्यादा मुआयना करने में मेरी दिलचस्पी नहीं।

इसलिए और सिर्फ इसलिए, कुछ जानने के प्रलोभन से नहीं, तय हो गया कि सौम्या जब चाहे सामान सहित चली आये। हम दोनों आधे-आधे पैसे लगाकर दो चाबी वाला एक नया ताला खरीद लेंगे।
ताले के बाद, आधे-आधे पैसे पर हमने दूध, अखबार, कामवाली बाई इत्यादि कई चीजें तय कर लीं। हमारी दोस्ती एक झटके के साथ कुछ ज्यादा ही तेजी से चल निकली।
एक इतवार की सुबह उसने मुझसे कहा कि चूँकि हम अब मित्र हैं इसलिए शिशिर का गलत परिचय मुझे देना अब उसे खल रहा है और मुझ पर पूर्ण विश्वास कर लेने की उसकी इच्छा हो रही है।

शिशिर उसका कजिन नहीं, शिशिर उसका प्रेमी है। किन्तु वह विवाहित है। और फिर उसने शिशिर के दुःखमय नहीं तो बेहद असंतुष्ट जीवन की, तीन साल पहले उन दोनों के दफ्तर में मिलने की और उन दोनों के लाख यह कोशिश करते कि न हो, प्यार के हो जाने की लम्बी सिसकियों भरी कहानी कह सुनायी।
पर शिशिर की दो छोटी बेटियाँ हैं जिनके कारण वह शादी नहीं तोड़ सकता। उसके शादी तोड़ देने से उसकी बेटियों का भविष्य बिगड़ जायगा। स्थिति सुलझन से परे है। सौम्या ने उसे यथावत स्वीकार कर लिया है। शिशिर उसे इस तरह प्यार करता है जैसे पहले कभी किसी से नहीं किया ! उसे अगर इस दुनिया में किसी चीज पर भरोसा है तो शिशिर के प्यार पर।
जब तक इस घोषणा के साथ सौम्या ने अपनी आँखें पोछीं, तब तक मैं भी प्यार नामक उस चीज पर इतना आन्दोलित हो चुकी थी कि सौम्या के साथ कन्धे-से-कन्धा मिलाकर दुनिया का सामना करने को तैयार थी। मैंने जान लिया था कि अपने अनुष्ठानों और रीतियों के बल पर प्यार करने वालों की तौहीन करने वाली यह दुनिया निर्दयी है, क्रूर है।

पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, मैंने पाया कि, प्यार नामक वह चीज बजाए कुछ खूबसूरत होने के, अकसर विस्फोटक झगड़ों में उबल पड़ती थी। झगड़ों के मूल में हमेशा ही शिशिर के परिवार की उपस्थिति होती थी। सबसे ज्यादा दिक्कत की बात यह थी कि सौम्या हमेशा मुझसे मध्यस्थता करने को कहती थी। कई बार रात के बारह बजे।
मेरी अपनी दिनचर्या में जो व्यवधान थे वो तो थे ही, पर मुझे डर था कि मालिक मकान से हमें निकाल बाहर करेंगे।
इस सारी उथल पुथल के बीच एक दिन मुझे बुखार आ गया। आया तो आया, पर गया नहीं।
नयी नौकरी की हिफाजत के खातिर मैंने फौरन खुद को डॉक्टर के हवाले कर दिया। मेरे लिए फ्लू की दवाइयाँ लिखी गयीं, आराम बताया गया।

पर बाकी सारी दौड़-धूप के साथ, सौम्या और शिशिर के कभी बेतहाशा उमड़ते प्यार, कभी बेतहाशा उमड़ते क्रोध के कारण, घर में आराम कर पाना मुश्किल हो रहा था। दवाइयाँ खरीदना ज्यादा आसान था।

बावजूद मँहगी दवाइयों के, जब एक दिन बुखार ज्यादा बढ़ गया तो मैं दोपहर को ही, असमय दफ्तर से घर चली आयी।
घर आकर मैंने पाया कि सौम्या और शिशिर पहले से ही घर में मौजूद हैं। उन दोनों का पता नहीं, पर मुझे बेहद झेंप हुई। मैं सीधी अपने कमरे में जा घुसी लेकिन कमरे में प्रवेश करते ही मेरी झेंप क्रोध में बदल गयी। मेरा बिस्तर सिलवटों से भरा हुआ था। शायद दोनों टेलीविजन ही देख रहे हों। मैंने अपना पोर्टेबल टेलीविजन अपने कमरे में ही रखा था। सौम्या के पास काफी कम सामान था। मेरी गैर हाजिरी में मेरे कमरे में...मेरे बाहर से आने पर मुझे अपने बिस्तर सिलवटों से भरा मिले, यह मुझे कुछ वादा खिलाफी जैसा लगा। पता नहीं बुखार की वजह से क्रोध ज्यादा तमतमा गया, या वैसे भी उनका यह आचरण मुझे उतना ही आपत्तिजनक लगता, मैंने अविलम्ब बिस्तर की चादरें बदलीं और खुद को अपने कमरे में बंद कर लिया। सौम्या से उस दिन मेरी कोई बात नहीं हुई।

बुखार बढ़ता गया। मैंने खुद को डॉक्टर के सामने पेश किया। इस बार लंबी जाँच पड़ताल के बाद पता चला कि टाइफाइड है, और हल्का-फुल्का नहीं। आराम की सलाह नहीं, सख्त हिदायत दी गयी। दफ्तर जाने को मनाही हो गयी। मजबूरन मुझे ‘लीव विदाउट पे’ लेना पड़ा अब यह खयाल की सौम्या और शिशिर के झगड़ों से निजात पाया जा सकता है, असम्भव जान पड़ा।
इन सारी अप्रत्याशित विभीषिकाओं के बीच यदि कुछ आशाजनक दिखता था तो यह कि जल्दी ही अनिर्बान कोलकाता से आ रहा था। आ तो वह वहाँ की नौकरी से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर रहा था, पर योजना थी कि यहाँ वह अपने लिए एक नौकरी ढूँढ़कर कोलकाता वाली नौकरी को त्यागपत्र भेज देगा।
मैं इस उम्मीद से भी कि अनिर्बान किसी तरह या तो सौम्या और शिशिर के अन्तहीन पचड़े से मुझे मुक्ति दिला देगा, या मेरा टायफाइड ठीक कर देगा या फिर मेरी ‘लीव विदाउ पे’ को ‘मेडिकल लीव’ बना देगा।

अनिर्बान आकर पास ही में अपने एक मित्र के साथ टिक गया। दिनभर नौकरी ढूँढ़ने के बाद वह शाम को मेरे लिए खिचड़ी बनाने आता। खिचड़ी बनाने में सौम्या उसकी भरपूर मदद करती, जितनी कि उसने कभी खिचड़ी बनाने में खुद मेरी मदद नहीं की।

एक शाम उसने बताया कि वह ‘कैट’ सरीखी किसी परीक्षा की तैयारी कर रही है जिसका एक बहुत बड़ा हिस्सा गणित का है। उसने गणित के सवाल हल करने में अनिर्बान की मदद माँगी।
अनिर्बान अब मेरी खिचड़ी बनाने के बाद गणित बनाने में उसकी मदद करने लगा।
एक सुबह सौम्या ने आकर मुझसे कहा कि अनिर्बान बहुत भला और नेक इन्सान है। फिर अगले दिन उसने खुद अनिर्बान से ही से कह दिया कि वह बहुत ही भला और नेक इन्सान है। अब भला, और नेक अनिर्बान थोड़ी झिझक के साथ गणित पढ़ाने लगा। सौम्या पूरी लगन के साथ पढ़ने लगी। शिशिर के आने पर गणित की यह पढ़ाई अवरुद्ध हो जाती है।

पढ़ाई का यह नियम चल निकलने के एक-दो शाम बाद ही सौम्या और शिशिर के बीच पुनः कर्ण भेदी लड़ाई हुई। शिशिर और अनिर्बान के अपने-अपने निवास को लौट जाने के बाद, सौम्या के काफी देर तक सशब्द बिलख लेने के बाद, मैं उसके कमरे में गयी और यथासम्भव संयत आवाज में मैंने उससे कहा कि जितनी जल्दी हो सके, वह यह घर छोड़ दे।
उसका सारा रोष जो रो-धोकर कुछ शान्त हुआ था, दुबारा मुझ पर उबल पड़ा। उसने मेरे आगे प्रश्नों की झड़ी लगा दी। वह आक्रामक बहस पर उतर आयी। उसे वैसा ही बोलता छोड़, मैं थककर अपने कमरे में आ गयी।
उस रात के बाद मेरे और सौम्या के बीच बात-चीत बन्द हो गयी। सूचनाओं का आदान-प्रदान अनिर्बान के जरिए होता रहा। अनिर्बान को ही उसने बताया कि उसने अपने लिए नया ठिकाना ढूँढ लिया है और पन्द्रह दिनों में वह यह मकान छोड़ रही है। उन दोनों के बीच गणित की चर्चा फिर नहीं हुई।

इस महीने के किराए में से आधे का भुगतान सौम्या करेगी, पर अगले महीने से पूरा किराया मेरे अकेले सिर पर था और मैं ‘लीव विदाउट पे’ लेकर तकिए पर सिर टिकाये लेटी थी।
मुझमें दुबारा विज्ञापन देकर किसी को ढूँढने का उत्साह और साहस शेष नहीं था। आखिर सारी रात सोचकर मैंने फैसला कर लिया और अनिर्बान से कह दिया कि सौम्या के चले जाने के बाद उसके कमरे में वह ‘शिफ्ट’ कर जाए। अपने चश्मे के पीछे, अपनी आँखें बड़ी-बड़ी करके अनिर्बान ने इन्कार कर दिया। पर अपना प्रस्ताव लेकर मैं डटी रही। आखिरकार मेरे बहुत जिरह करने, अपनी असमर्थताओं का रोना रोने और आखिरकार अपनी ‘लीव विदाउट पे’ का हवाला देने पर वह किसी तरह राजी हुआ।

इस प्रकार, सौम्या के चले जाने पर बड़ा अनमना-सा चेहरा लिए अनिर्बान दूसरे कमरे का निवासी बन गया। इस नयी मिली शान्ती और सम्पूर्ण किराए का बोझ सिर से उतर जाने पर, मैंने अपने टायफाइयड पर अधिक ध्यान देना शुरू किया।
इस परिवर्तन के दो-तीन दिनों के बाद एक शाम लगभग साढ़े सात-आठ बजे घण्टी बजी। इस समय यहाँ कौन हो सकता है, का कुतूहल हम दोनों को एक साथ हुआ। हम अपनी-अपनी खिचड़ी की प्लेट पकड़े कमरे में टेलीविजन के सामने बैठे थे। अनिर्बान उठकर बालकनी में जाने को हुआ ताकि देख सके कि घण्टी बजाने वाला कौन है ?
तभी मेरे चाचाजी की बुलंद लड़खड़ाती हुई आवाज नीचे से ऊपर तक चली आयी, ‘‘रचना राय यहीं रहती हैं ?’’ वे मालिक मकान से पूछ रहे थे।

अनिर्बान को काटो तो खून नहीं। वह खिचड़ी की अपनी प्लेट समेत कहीं विलुप्त हो जाना चाहता था। उसने चादर उठाकर देखा, बिस्तर बहुत नीचा था। उसने फौरन अपनी प्लेट किचन की सिंक में डाली और दौड़ता हुआ बालकनी की तरफ जाने लगा अगर नीचे कूद जाना संभव नहीं हुआ तो कम-से-कम पड़ोसी की बालकनी में कूद जाना तो संभव होगा। वह क्या कर रहा है, क्या वह पागल हो गया है, मेरे दो-तीन बार पूछने पर वह बदहवास-सा घर के बीचो बीच खड़ा हो गया।
‘‘रचना प्लीज !’’ उसने कहना शुरू किया, वह कोई भी है बस अनिर्बान नहीं है, वह बिजली मिस्त्री है, वह मुहल्ले में कपड़े स्त्री करने वाले रामविलास का सहकर्मी है, बस अनिर्बान कतई नहीं है। उसकी ऐसी घबराहट और अनिर्बान न होने का उतावलापन देखकर मुझे हँसी आ रही थी। अगर आज वह बिजली मिस्त्री है तो एक दिन अचानक अनिर्बान कैसे हो जायगा ? आखिर अनिर्बान से चाचाजी कभी-न-कभी तो मिलेंगे ही।

चाचाजी अब दरवाजे की अन्तिम सीढ़ी चढ़ रहे थे। मैंने उन्हें उस छोटी-सी जगह में बिठाया जिसे हम अपना ड्राइंगरूम कहते थे। बैठते हुए उन्होंने गर्दन घुमाकर वहाँ अवाक् खड़े अनिर्बान को देखा।
‘‘चाचाजी, यह अनिर्बान है।’’ मैंने उसका संक्षिप्त परिचय दिया तो उन्होंने दुबारा गर्दन घुमाकर उसे देखा। उनके इस तरह से गर्दन घुमाने से ही स्पष्ट था कि उसका अनिर्बान होना और अनिर्बान होते हुए वहाँ मौजूद होना, दोनों उन्हें सख्त नापसंद थे। चुपचाप ज्यादातर बैठे हुए ही उन्होंने डाक्टर के पुर्जे देखे, टेस्ट के रिपोर्ट देखे, दवाइयाँ देखीं, एक बार थर्मामीटर लगवाकर मेरा बुखार देखा, घर परिवार की एक आध बात की फिर उत्तरी दिल्ली स्थित अपने बड़े से सरकारी आवास को लौट गये।

इस घटना से अनिर्बान कई दिनों तक पूर्ण सकते में रहा। मैं भी थोड़ी सहमी हुई-सी रही।
पर बावजूद इसके कि कुछ समय हम दोनों अपने-अपने कमरे में अलग-अलग ठिठके हुए रहे, मेरी तबीयत सुधरने लगी थी। आखिर डॉक्टर से इजाजत लेकर मैं दफ्तर जाने लगी...।

कुछ और समय बाद जब मेरी हालत नोएडा से उत्तरी दिल्ली की भीषण दूरी तय करने लायक हुई तो मैं चाचाजी से मिलने गयी। सारे रास्ते डरती रही। उनके घर के पास वाले बस स्टाप पर उतरकर थोड़ी देर मैं हिम्मत जुटाती बैठी रही। उस स्टाप पर खोया हुआ-सा बल्कि भटका हुआ-सा एक आदमी बैठा था। इस बीच कई बसें आयीं-गयीं; उसने उनकी तरफ देखा तक नहीं।
आखिरकार अपने हौसले बुलंद कर मैं वहाँ से उठी। चाचाजी घर में ही थे, पर वे मुझसे मिलने नहीं आये। मैं घण्टे भर तक चाचीजी से इधर-उधर की बातें कर बाहर निकल आयी, वापस फिर उसी बस स्टाप से बस लेने। वह आदमी अब भी उसी मुद्रा में वहाँ बैठा था। पर अब उसके हाथ में बड़ा सा पोस्टर था, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, ‘‘अपने शहर को प्रदूषण से बचाएँ !’’

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