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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


जो आदमी भी मत की, सिद्धांत की, शास्त्र की मोमबत्तियों को जलाए बैठे रहते हैं, वे परमात्मा के अनंत प्रकाश से वंचित हो जाते हैं। मत बुझ जाए, तो सत्य प्रवेश कर जाता है। और जो आदमी सब पकड़कर छोड़ देता है, उस पर परमात्मा की पकड़ शुरू हो जाती है। जो आदमी सब सहारे छोड़ देता है, उसे परमात्मा का सहारा उपलब्ध हो जाता है।
बेसहारा हो जाना परमात्मा का सहारा पा लेने का रास्ता है। सब रास्ते छोड़ देना, उसके रास्ते पर खड़े हो जाने की विधि है। सभी शब्दों, सभी सिद्धांतों से मुक्त हो जाना उसकी वाणी को सुनने का अवसर निर्मित करना है।
मैंने एक छोटी-सी कहानी सुनी है। मैंने सुना है, कृष्ण भोजन करने बैठे हैं और रुक्मणि उन्हें पंखा झल रही है। अचानक वे थाली छोड़कर उठ खड़े हुए और द्वार की तरफ भागे। रुक्मणि ने पूछा, ''क्या हुआ है? कहां भागे जा रहे हैं?'' लेकिन, शायद उन्हें इतनी जल्दी थी कि वे उत्तर देने को भी नहीं रुके, द्वार तक गए। फिर द्वार पर जाकर रुक गए। थोड़ी देर में लौट आए और भोजन करने वापस बैठ गए। रुक्मणि ने कहा, ''मुझे बहुत हैरानी में डाल दिया आपने। एक तो पागल की भांति उठकर भागे बीच भोजन में और मैंने पूछा तो उत्तर भी नहीं दिया। फिर द्वार तक जाकर वापस भी लौट आए! क्या था प्रयोजन?''

कृष्ण ने कहा, ''बहुत जरूरत आ गयी थी। मेरा एक प्यारा एक राजधानी से गुजर रहा था। राजधानी के लोग उसे पत्थर मार रहे थे। उसके माथे से खून बह रहा था। उसका सारा शरीर लहू-लुहान हो गया था। उसके कपड़े उन्होंने फाड़ डाले थे। भीड़ उसे घेरकर पत्थरों से मारे डाल रही थी और वह खड़ा हुआ गीत गा रहा था। न वह गालियों के उत्तर दे रहा था न वह पत्थरों के उत्तर दे रहा था। जरूरत पड़ गयी थी कि मैं जाऊं, क्योंकि वह कुछ भी नहीं कर रहा था। वह बिछल बेसहारा खड़ा था। मेरी एकदम जरूरत पड़ गयी।''

रुक्मणि ने पूछा, ''लेकिन आप द्वार तक जाकर वापस लौट आए?'' कृष्ण ने कहा कि' 'जब तक मैं द्वार तक पहुंचा तब तक सब गड़बड़ हो गयी। वह आदमी बेसहारा न रहा। उसने पत्थर अपने हाथ में उठा लिए। अब वह खुद ही पत्थर का
उत्तर दे रहा है। अब मेरी कोई जरूरत नहीं है। इसलिए मैँ वापस लौट आया हूं। अब उस आदमी ने खुद ही अपना सहारा खोज लिया है। अब वह बेसहारा नहीं।"
यह कहानी सच हो कि झूठ। इस कहानी के सच और झूठ होने मे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन एक बात मैँ अपने अनुभव से कहता हूँ कि जिस दिन आदमी बेसहारा हो जाता है, उसी दिन परमात्मा के सारे सहारे उसे उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन इतने कमजोर हैं हम इतने डरे हुए लोग हैं कि हम कोई न कोई सहारा पकड़े रहते हैं। और जब तक हम सहारा पकड़े रहते है तब तक परमात्मा का सहारा उपलब्ध नहीं हो सकता है।
स्वतंत्र हुए बिना सत्य की उपलब्धि नहीं है। और सारी जंजीरों को तोड़े बिना कोई परमात्मा के द्वार पर अंगीकार नही होता है। लेकिन हम कहेंगे-महापुरुषों को कैसे छोड़ दें? गांधी इतने प्यारे हैं? उनको कैसे छोड़ दें...?
कौन कहता हैं, गांधी प्यारे नही हैं? कौन कहता है, महावीर प्यारे नहीं हैं? कौन कहता है, कृष्ण प्यारे नहीं हैं? प्यारे हैं यही तो मुश्किल है। इसलिए छोड़ना मुश्किल हो जाता है। लेकिन प्यारों को भी छोड़ देना पड़ता है, तभी वह जो परम प्यारा है, वह उपलब्ध होता है।
महात्मा, परमात्मा और मनुष्य की आत्मा के बीच मे खड़े है। और ये महात्मा अपनी इच्छा से नहीं खड़े हुए हैं। हमने जिनको महात्मा समझ लिया हैं, उनको खड़ा कर लिया है, और वे हमारे लिए दीवाल बन गए हैं। व्यक्तियों से मक्त होने की जरूरत है, ताकि वह जो अव्यक्ति हैं. वह जो महाव्यक्ति है, उसके और हमारे बीच कोई बाधा न रह जाए। शब्दों और सिद्धांतों से मुक्त होने की जरूरत है ताकि सत्य जैसा है, वैसा उसे हम देख सके। अभी हम सत्य को वैसा ही देखते हैं जैसा हम देखना चाहते हैं जैसी हमारी इच्छा काम करती है, जैसी हमारी मान्यता काम करती है, जैसे हमारे चश्मे काम केरते हैं। अभी हम जो देखना चाहते हैं वही देख लेते है; जो है वह हमें दिखायी नहीं पड़ता और जो है, वही सत्य है।

कौन देख पाएगा उसे, जो है। उसे वही देख पाता है, जिसका अपना देखने का कोई आग्रह नहीं, कोई मत नहीं, कोई पथ नहीं। जिसकी आंखों पर कोई चश्मा नहीं। जो सीधा नग्न, शून्य निर्वस्त्र-बिना सिद्धांतों के खड़ा है। उसे वहो दिखायी पड़ता है, जो है।

और, वह जो है, मुक्तिदायी है। वह जो है, उसी का नाम जीवन है। वह जो है, उसी का नाम परमात्मा है।
यह पहला सूत्र ध्यान में रखना जरूरी है : अपने को बांधें मत, कृपा करें, और जहां-जहां बंधे हों, कृपा करें वहां से छूट जाएं। और यह मत पूछें कि छूटने के लिए क्या करना पड़ेगा। छूटने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि महापुरुष आपको नहीं बांधे हुए हैं कि आपको कुछ करना पड़े। आप ही उनको पकड़े हुए हैं। छोड़ दिया और वह गए। और कुछ भी नहीं करना है। अगर कोई दूसरा आपको बांधे हो, तो कुछ करना पड़ेगा। आप ही अगर पकड़े हों, तो जान लेना पर्याप्त है-और छूटना शुरू हो जाता है।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga