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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


वह थोपने की कोशिश करता है। और वह जो भी मानता है, उसे थोपने की कोशिश करता है। वह कहता है, जो मैं कहता हूं, वह ठीक है। वह इल्डिंग नहीं है। वह झुक नहीं सकता। वह विनम्र नहीं हो सकता। ह्मुमिलिटी नहीं है। हंबलनेस नहीं है। शिक्षक अगर जरा भी थोपने वाला है तो दूसरी तरफ के मस्तिष्क को बुनियादी रूप से नुकसान पहुंचाता है।
और नुकसान पहुंचाता है सारी मनुष्य जाति को। क्योंकि शिक्षक कैसे व्यवहार कर रहा है। निश्चित ही सारी दुनिया में शिक्षा का करीब-करीब सारा काम-करीब-करीब कहता हूं सारा काम स्त्रियों के हाथ में चला ही जाना चाहिए। यह बिल्कुल ही हितकर होगा। उचित होगा। महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि शिक्षा तब एक रूखी-सूखी बात नहीं रह जाएगी। उसके साथ एक रस और एक पारिवारिक वातावरण जुड़ जाएगा और संबंधित हो जाएगा।

बहुत काम ऐसे हो सकते हैं, जो कि स्त्रियों को पूरी तरह उपलब्ध हो जाने चाहिए। और बहुत काम जो स्त्रियां कर सकती हैं, उन्हें सब तरफ से निमंत्रण मिलने चाहिए और बहुत दिशाएं जो हमेशा से अधूरी पड़ी हुई हैं, जिनका कभी छुआ नहीं गया है, खोली जानी चाहिए। उन दिशाओं के दरवाजे तोड़े जाने चाहिए, ताकि एक और तरह की चितना-स्त्री की चितना सी को भावना बिल्कुल और तरह की है।
उसमें कुछ डायनामिकलो अपोजिट है। कुछ बुनियादी रूप से उल्टे तत्त्व हैं। वह ज्यादा इनटयूटिव है, इंटलेक्चुअल नहीं है। वह बहुत बुद्धि और तर्क की नहीं है ज्यादा अंतर अनुभूति की है। मनुष्य अंतर अनुभूति से शून्य हो गया है, बिल्कुल शून्य है।
स्त्रियां अगर सब दिशाओं में फैल जाए और जीवन घरों में बंद न रह जाए, क्योंकि घरों का काम इतना उबाने वाला है, इतना बोरिंग है, इतना बोर्डम से भरा
हुआ है कि उसे तो मशीन के हाथ में धीरे-धीरे छोड़ देना चाहिए। आदमी को करने की-न स्त्रियों को, न पुरुषों को-कोई जरूरत नहीं है। रोज सुबह वही काम, रोज दोपहर वही काम रोज सांझ वही काम!
एक स्त्री चालीस-पचास वर्ष तक एक मशीन की तरह सुबह से सांझ यंत्र की तरह घूमती रहती है और वही काम करती रहती है। और इसका परिणाम क्या होता है? इसका परिणाम है कि मनुष्य के पूरे जीवन में विष घुल जाता है।
एक स्त्री जब चौबीस घंटे ऊब जाने वाला काम करती है। रोज बर्तन मलती है-वही बर्तन, वही मलना; वही रोटी, वही खाना; वही उठना, वही कपड़े धोना, वही बिस्तर लगाना, रोज एक चक्कर में सारा काम चलता है। थोड़े दिन में वह इस सबसे ऊब जाती है। लेकिन करना पड़ता है।
और जिस काम से कोई ऊब गया हो और करना पड़े तो उसका बदला वह किसी न किसी से लेगी। इसलिए स्त्रियां हर पुरुष से हर तरह का बदला ले रही हैं। हर तरह का बदला, पुरुष घर आया कि स्त्री तैयार है टूटने के लिए। इसलिए पुरुष घर के बाहर-बाहर घूमते फिरते हैं। क्लब बनाते हैं। सिनेमा जाते हैं, पच्चीस उपाय सोचते हैं। घर से बचने की सारी कोशिश करते हैं। जब नहीं बचते, तब घर पहुंचते हैं।

मैं शिक्षक था तो जिस युनिवर्सिटी में शिक्षक था, मैं हैरान हुआ। युनिवर्सिटी की क्लासेस मुश्किल से एक बजे शुरू होती थीं। लेकिन प्रोफेसर्स, मैं देखता कि 11 बजे ही आकर कामन रूम में बैठ जाते। युनिवर्सिटी क्लासेस चार बजे खत्म हो जाती। मैं देखता कि पांच साढ़े पांच बजे तक वे वहीं जमे हुए हैं! मैंने उनसे पूछा, बात क्या है? इतनी जल्दी क्यों आते हो, इतनी देर से क्यों लौटते हो? उन्होंने कहा जितनी देर घर के बाहर रह जाएं, उतनी ही शांति समझनी चाहिए। घर पहुंचे कि तैयारी है। और इस सबको, सारे पुरुषों को यह खयाल आता है कि स्त्रियों में कुछ गड़बड़ है, इससे वे कष्ट दे रही हैं!

नहीं स्त्रियों का सारा काम बोर्डम का है। वह इतनी ऊब जाती है कि ऊब का बदला किससे ले; और आपके लिए वह ऊब रही हैं और आपके लिए सारा काम कर रही है तो निश्चित ही आपसे बदला लिया जाने वाला है। अपने बच्चों को पीट रही हैं उनसे बदला ले सकती हैं। पतियों से लड़ रही है, उनसे बदला ले रही हैं। और फिर एक व्हिशियस सर्किल शुरू होता है, जिसमें सब कलह और सब दुःख हो जाता है। नहीं स्त्रियां तो जो भी काम घरों में कर रही हैं वैज्ञानिक सुविधाएं उपलब्ध हो जाने पर वह सारा काम धीरे-धीरे यंत्रों के हाथ में चला जाना चाहिए। 

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga