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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


स्त्री आनंदित हो सकती है मुक्त होकर, लेकिन पुरुष होकर नहीं। मुक्त हो जाए और फिर पुरुष जैसे होने लगे, फिर दुःखी हो जाएगी। आज पश्चिम की स्त्री कोई सुखी नहीं है। वह फिर उसने नए दुःख खोज लिए हैं। फिर नए दुःखों से अपने व्यक्तित्व को कस लिया है। फिर समाज वहां एक नए तनाव में भरता चला जाएगा। क्या किया जा सकता है? कौन-सी क्रांति?
मैं एक तीसरा सुझाव देना चाहता हूं। और वह यह...वक्त है, इस वक्त मुल्क के सामने बदलाहट होगी। बदलाहट का समय है। अभी स्त्री की गुलामी ज्यादा दिन नहीं चलेगी। हालांकि स्त्री की अभी भी कोई इच्छा नहीं है बहुत कि गुलामी टूट जाए। वह पुरुष तो चाहेगा। लेकिन सारी दुनिया की हवाएं धक्के दे रही हैं अरि गुलामी टूट रही है। भारत की स्त्रियां यह न सोचें कि उनके कुछ करने से गुलामी टूट रही है।
भारत बहुत अजीब देश है। सारी दुनिया की हवाएं बदली। 1947 में हम आजाद हो गए। हमने समझा कि हमने आजादी ले ली। वह हमने आजादी ली
नहीं। वह दुनिया की हवाएं बदली दुनिया का पूरा मौसम बदला। दुनिया में परिवर्तन का एक वक्त आया। आजादी हमें मिली। हिंदुस्तान के किसी नेता को पता भी नहीं था कि आजादी सन् 1947 में मिल सकती है। कल्पना भी नहीं की। आंदोलन तो हमारा सर 1942 में खत्म हो गया था! और बड़ा भारी आदोलन था! सात दिन में खत्म हो गया था! ऐसी महान् क्रांति दुनिया में कभी नहीं हुई! वह सात दिन में खत्म हो गई थी! उसके बाद हम ठंडे पड़ चुके थे।
अब 20 साल तक कोई दुबारा जाने को जेल में राजी भी नहीं हो सकता था। अचानक आजादी आ गयी, तो हमने कहा हमने आजादी ले ली। ठीक वैसी ही भारत की सी की आजादी भी आ रही है। यह भूल में मत पड़ना कि वह आजादी ले रही है।
और ध्यान रहे जो आजादी आती है, उस आजादी में और जो आजादी ली जाती है, उस आजादी में, जमीन-आसमान का फर्क होता है। जो आजादी मिलती है, वह मुर्दा होती है। वह कभी जिंदा नहीं हो सकती। भीख होती है। और आजादी भी भीख में मिल सकती है। इसलिए इस मुल्क में जो आजादी मिली, वह मुर्दा आजादी, बिल्कुल डैड-उसमें कोई जिंदगी नहीं। पड़ी हुई लाशों वाली आजादी।
इसलिए 20 साल से हम सड़ रहे हैं। उस आजादी से कोई पुलक नहीं आयी जीवन में। न कोई नृत्य आया, न कोई खुशी आयी, न कोई उत्साह आया, न कुछ ऐसा हुआ कि हम बदल दें जिंदगी को। हजारों साल के सिलसिले को तोड़ दें। नया मुल्क बनाएं। नया आदमी पैदा करें। कुछ भी पैदा नहीं हुआ। बस, इतना बस हुआ कि हमने झंडा बदल दिया। दूसरा झंडा फहरा दिया और नेता बदल दिए। हालांकि शरीर बदला नेताओं का। उनकी बुद्धि वही रही, जो पिछले नेताओं की थी, जो पिछले हुकूमत करने वालों की थी। बुद्धि वही की वही रही। कपड़े बदल गए। वह शेरवानी पहनकर खड़े हो गए। उनको लगा कि हम, सब भारतीय हो गए।

ठीक वैसी ही आजादी स्त्रियों के मामले में घटित हो रही है। नहीं, यह ठीक नहीं हो रहा है। हिंदुस्तान की नारी को, हिंदुस्तान की स्त्री को आजादी लेनी है। क्योंकि मूल्य आजादी मिलने का नही है। वह जो लेने की प्रक्रिया है, उसी में आत्मा पैदा होती है। इसको ठीक से समझ लेना चाहिए। वह जो लेने की प्रक्रिया है, वह जो जद्दोजहद है। वह जो संघर्ष है, वह जो स्ट्रगल है, उस स्ट्रगल में, लेने की प्रक्रिया में आत्मा पैदा होती है।
आजादी मिलने से आत्मा पैदा नहीं होती। आजादी लेने की प्रक्रिया में से गुजरना ही आजाद आत्मा का पैदा हो जाना है। आजादी उसका परिणाम है।  

आजादी आती है।
लेकिन भारतीय सी के साथ वही हो रहा है। आजादी उस पर आ रही है। थोपी जा रही है। वह बेमन से उसको स्वीकार करती चली जा रही है। और धीरे-धीरे पश्चिम की हवाएं उसको पश्चिम की तरफ ले जाएगी और एक मौका चूक जाएगा। इस मौके को मैं बहुत क्रांति का अवसर कहता हूं।
भारत की स्त्री को करना यह है कि पहले तो उसे स्पष्ट रूप से यह समझ लेना है कि पुरुष के व्यक्तित्व की शोध और खोज खत्म हो गई। पुरुष ने जो मार्ग पकड़ा था पांच-छः हजार वर्षों मेँ, वह डैड एड पर आ गया, अब उसके आगे कोई। रास्ता नहीं है।
स्त्री को पहली दफा सोचना है, क्या स्त्री भी एक नई संस्कृति को जन्म देने के आधार रख सकती हैं? कोई संस्कृति जहां युद्ध और हिंसा न हो। कोई संस्कृति जहां प्रेम, सहानुभूति और दया हो। कोई संस्कृति जो विजय के लिए बहुत आतुर न हे। जीने के लिए आतुर हो। जीने की आतुरता हो। जीवन को जीने की कला और जीवन को शांति से जीने की आस्था और निष्ठा पर खड़ी किसी संस्कृति को स्त्री जन्म दे सकती है? स्त्री जरूर जन्म दे सकती है।
आज तक चाहे युद्ध में कोई कितना ही मरा हो, स्त्री का मन निरंतर-प्राण उसके दुःख से भरे रहे। उसका भाई मरता है, उसका बेटा मरता है, उसका बाप मरता है, पति मरता है, प्रेमी मरता है। स्त्री का कोई न कोई युद्ध में जाकर मरता है।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga