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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


भारत ने प्रकृति को जीतने की कोई कोशिश नहीं की। असल में भारत ने कभी भी किसी को जीतने की कोई कोशिश नहीं की। जीतने की धारणा ही भारत के चित्त में बहुत गहरे नही जा सकी। कभी किन्हीं ने छोटे-छोटे प्रयास किए तो भारत की आत्मा उनके साथ खड़ी नहीं हो सकी।
स्वभावतः इस दुनिया में सारे लोग जीतने में आतुर हों, उसमें भारत पिछड़ता चला गया। यह भी दिखाई पड़ेगा कि इस पिछड़ जाने में अब तक तो दुर्भाग्य रहा। लेकिन आगे सौभाग्य हो सकता है। क्योंकि ने जो जीत की दौड़ में आगे गए थे, वे अपनी जीत के अंतिम परिणाम में वहां पहुंच गए हैं जहां आत्मघात के सिवा और कुछ भी नहीं हो सकता।
बुद्ध ने कहा था बैर को बैर से नहीं जीता जा सकता, हिंसा से हिंसा भी नहीं जीती जा सकती। लेकिन यह किसी ने भी सुना नहीं। सुना भी नहीं जा सकता था, समय भी नही था परिपक्व सुनने के लिए। आज यह बात सुनी जा सकती है। आज यह समझ में आना शुरू हो गया कि आज तो हिंसा का अर्थ है : सार्वजनिक विनाश।
पिछले महायुद्ध में हिरोशिमा और नागासाकी पर जो एटम गिराया गया था, उस समय विचारशील लोगों ने सोचा था, इससे खतरनाक अस्त्र अब पैदा नहीं हो सकेगा। लेकिन 20 ही वर्षों में विचारशीलों को पता चला कि आज हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए एटम बम बच्चों के खिलौने मालूम पड़ते हैं। इतने 20 वर्षों में हमने बड़े अस्त्र पैदा कर लिए!

एक उदजन बम चालीस हजार वर्गमील में किसी तरह के जीवन को नहीं बचने देगा। और पृथ्वी पर पचास हजार उदजन बम तैयार हैं। ये पचास हजार उदजन बम जरूरत से ज्यादा हैं सरप्लस हैं। अगर हम पूरी पृथ्वी को नष्ट करना चाहें तो थोड़े से बम से काम हो जाएगा। इतने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी।

लेकिन राजनीतिक बहुत होशियार हैं। वे सोचते हैं कि भूल-चूक न हो जाए इसलिए पूरा-और जरूरत से ज्यादा-इंतजाम करना उचित है। पचास हजार उदजन बम इस तरह की सात पृथ्वियों को नष्ट करने के लिए काफी हैं। यह पृथ्वी बहुत छोटी है। या हम ऐसा समझ सकते हैं कि अब मनुष्य-जाति की कुल संख्या साढ़े तीन अरब है, पच्चीस अरब लोगों को मारने के लिए हमने इंतजाम कर लिया। या हम ऐसा भी समझ सकते हैं कि एक आदमी को सात-सात बार मरना पड़े तो हमारे पास सुविधा और व्यवस्था है। हालांकि आदमी एक ही बार में मर जाता है। दुबारा मारने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन भूल-चूक न हो जाए इसलिए इंतजाम कर लेना ठीक से उचित और जरूरी है।
एक-एक आदमी को सात-सात बार मारने के इंतजाम का अर्थ क्या है? प्रयोजन क्या है? यह क्या है? पागल दौड़ है। क्या मनुष्य जाति का मन विक्षिप्त हो गया है? मनुष्य जाति का मन निश्चित विक्षिप्त हो गया है। क्योंकि मनुष्य जाति का पूरा का पूरा अब तक का विकास अकेले पुरुष का विकास है। पुरुष आधा है-पुरुष जाति का। आधी स्त्री जाति का उस विकास में कोई हाथ नहीं! इसलिए संतुलन खो गया है। बैलेंस खो गया है।
यह दुनिया करीब-करीब ऐसी है, जैसे एक देश में स्त्रियां बिल्कुल न हों! सिर्फ पुरुष ही पुरुष रह जाएं तो वह देश पागल हो जाएगा। ठीक इससे उल्टा भी
हो जाएगा। अगर किसी देश में खियां ही स्त्रियां हों और पुरुष न हों तो वह देश पागल हो जाएगा। स्त्री और पुरुष परिपूरक हैं। वे दोनों साथ हैं तभी पूरे हैं। लेकिन सभ्यता के मामले में जो सभ्यता आज तक निर्मित हुई है, वह अकेले पुरुष की सभ्यता है, उसमें स्त्री का कोई योगदान नहीं है! स्त्री से कोई मांग भी नहीं की गई। स्त्री ने आगे बढ़कर कोई योगदान किया भी नहीं। यह पुरुष की सभ्यता पागल होने के करीब आ गई।

एक छोटी-सी कहानी से मैं समझाने की कोशिश करूं, जो मुझे बहुत प्रीतिकर रही है।

एक झूठी कहानी है। मैंने सुना है कि ईश्वर दूसरे महायुद्ध के बाद बहुत परेशान हो गया। ईश्वर तो तभी से परेशान है, जब से उसने आदमी को बनाया। जब तक आदमी नहीं था, बड़ी शांति थी दुनिया में। जब से आदमी को बनाया, तब से ईश्वर बहुत परेशान है। सुना तो मैंने यह है कि तबसे वह ठीक से सो नहीं सका बिना नींद की दवा लिए। सो भी नहीं सकता। आदमी सोने दे तब न! आदमी खुद न सोता है, न किसी और को सोने देता है। और इतने आदमी हैं कि ईश्वर को सोने कैसे देंगे! इसलिए आदमी को बनाने के बाद ईश्वर ने फिर और कुछ नहीं बनाया। बनाने का काम ही बंद कर दिया। इतना घबड़ा गया होगा कि बस अब क्षमा चाहते हैं अब आगे बनाना ठीक नहीं। दूसरे महायुद्ध के बाद वह घबड़ा गया होगा।

ऐसे तो इतने युद्ध हुए कि ईश्वर की छाती पर कितने घाव पड़े होंगे कि कहना मुश्किल है। सबसे मजा तो यह है कि हर घाव पहुंचाने वाला ईश्वर की प्रार्थना करके ही घाव पहुंचाता है। और मजा तो यह है कि हर युद्ध करने वाला ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हमें विजेता बनाना। चर्चों में घंटियां बजाई जाती हैं, मंदिरों में प्रार्थनाएं की जाती हैं युद्धों में जीतने के लिए! पोप आशीर्वाद देते हैं युद्धों में जीतने के लिए! ईश्वर की छाती पर जो घाव लगते होंगे, उन घावों का हिसाब लगाना मुश्किल है।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga