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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


यह युवक गया है-तभी मैंने जाना है कि वह कुछ और ही होकर जा रहा है। अब कोई लड़ाई नहीं है। जो हो सकता है, और जिससे बचाव का कोई उपाय नहीं है, और जिसके बचाव का कोई अर्थ नहीं है और जिसने लड़ने की मानसिक तैयारी बेमानी है। वह हलका होकर गया है।

वह सुबह आया है और उसने कहा कि तीन साल में मैं पहली दफे सोया हूं। आश्चर्य, कि यह बात स्वीकार कर लेने से हल हो जाती है कि मैं अंधा हो सकता
हूं। ठीक है, हो सकता हूं।
मैंने कहा, तुम डरते क्यों हो अंधे होने से? उसने कहा कि डरता इसलिए हूं कि फिर चित्र न बना पाऊंगा। तो मैंने कहा, जब तक अंधे नहीं हो, चित्र बनाओ, व्यर्थ में समय क्यों खोते हो। जब अंधे हो जाओगे, नहीं बना पाओगे, पक्का है। इसलिए बना लो, जब तक आंख-हाथ है, बना लो। जब आंख विदा हो जाए तब कुछ और करना।

लेकिन आंख विदा हो सकती है। सारा जीवन ही विदा होगा एक दिन सब विदा हो सकता है। किसी की सब चीजें इकट्ठी विदा होती हैं, किसी की फुटकर-फुटकर विदा होती हैं, इसमें झंझट क्या है? एक आदमी होलसेल चला जाता है, एक आदमी पार्ट-पार्ट में जाता है, टुकड़े-टुकड़े में जाता है। किसी की आंख चली गई तो कुछ और, फिर कुछ और गया। कोई आदमी इकट्ठे हा चला गया।

इकट्ठे जाने वाले समझते हैं कि जिनके थोड़े-थोड़े हिस्से जा रहे हैं वे अभागे हैं। बड़ी मुश्किल बात है। इतना ही क्या कम सौभाग्य है कि सिर्फ आंख गई हैँ। अभी पैर नहीं गया, अभी पूरा नहीं गया। इतना ही क्या कम सौभाग्य है कि सिर्फ पैर गए हैं अभी पूरा आदमी नही गया है।
बुद्ध का एक शिष्य था...उस युवक से मैंने यह कहानी कही थी, वह मैं आपको अभी कहता हूं। उस युवक से मैंने कहा कि अब तू भय के बाहर हो गया है।

इनसिक्योरिटी को जिसने स्वीकार कर लिया है, वह भय के बाहर हो जाता है, वह अभय हो जाता है।
बुद्ध का एक शिष्य है पूर्ण। और बुद्ध ने उसकी शिक्षा पूरी कर दी है और उससे कहा है, अब तू जा और खबर पहुंचा लोगों तक। पूर्ण ने कहा, मैं जाना चाहता हूं, सूखा नाम के एक इलाके में।
बुद्ध ने कहा, वहां मत जाना, वहां के लोग बहुत बुरे है। मैंने सुना है, वहां कोई भिक्षु कभी भी गया तो अपमानित होकर लौटा है, भाग आया है डरकर। बड़े दुष्ट लोग है, वही मत जाना।
उस पूर्ण ने कहा, लेकिन वहां कोई नहीं जाएगा, तो उन दुष्टों का क्या होगा? बड़े भले लोग हैं सिर्फ गालियाँ ही देते हैं अपमानित ही करते है मारते नहीं। मार भी सकते थे, कितने भले लोग है, कितने सज्जन हैं?
बुद्ध ने कहा समझा। यह भी हो सकता है कि वे तुझे मारें भी, पीटें भी। पीड़ा भी पहुंचाए, कांटें भी छेदें, पत्थर भी मारें, फिर क्या होगा?

तो पूर्ण ने कहा, यही होगा भगवान कितने भले लोग हैं कि सिर्फ मारते हैं, मार ही नहीं डालते हैं। मार भी डाल सकते थे।
बुद्ध ने कहा, आखिरी सवाल। वे तुझे मार भी डाल सकते हैं, तो मरते क्षण में तुझे क्या होगा?
पूर्ण ने कहा, अंतिम क्षण में धन्यवाद देते विदा हो जाऊंगा कि कितने अच्छे लोग हैं कि इस जीवन से मुक्ति दिला दी, जिसमें भूल-चूक हो सकती थी।
बुद्ध ने कहा, अब तू जा। अब तू अभय हो गया। अब तुझे कोई भय न रहा। तूने जीवन की सारी असुरक्षा को, सारे भय को स्वीकार कर लिया। तूने निर्भय बनने की कोशिश ही छोड़ दी।
ध्यान रहे, भयभीत आदमी निर्भय बनने की कोशिश करता है। उस कोशिश से भय कभी नहीं मिटता है। अभय उसको उपलब्ध होता है-जो भय है, ऐसी जीवन की स्थिति है-इसे जानता है, स्वीकार कर लेता है। वह भय के बाहर हो जाता है। और युवा चित्त उसके भीतर पैदा होता है, जो भय के बाहर हो जाता है।
एक सूत्र युवा चित्त के जन्म के लिए, भय के बाहर हो जाने के लिए अभय है।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga