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ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7286
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


एक पत्थर को भी हम उठाएं तो ऐसे उठा सकते हैं जैसे मित्र को उठा रहे हैं और एक आदमी का हाथ भी हम ऐसे पकड़ सकते हैं जैसे शत्रु का हाथ पकड़े हुए हैं। एक आदमी वस्तुओं के साथ भी व्यवहार कर सकता है, एक आदमी आदमियों के साथ भी ऐसा व्यवहार करता, जैसा वस्तुओं के साथ भी नहीं करना चाहिए। घृणा से भरा हुआ आदमी वस्तुएं समझता है मनुष्यों को! प्रेम से भरा हुआ आदमी वस्तुओं को भी व्यक्तित्व देता है।
एक फकीर से मिलने एक जर्मन यात्री गया हुआ था। वह किसी क्रोध में होगा। उसने दरवाजे पर जोर से जूते खोल दिए जूतों को पटका, धक्का दिया दरवाजे को जोर से।
क्रोध में आदमी जूते भी खोलता है, तो ऐसे जैसे जूते दुश्मन हों। दरवाजे भी खोलता हैं तो ऐसे दरवाजे से कोई झगड़ा हो!
दरवाजे को धक्का देकर वह भीतर गया। उस फकीर से जाकर नमस्कार
किया। उस फकीर ने कहा: नहीं; अभी मैं नमस्कार का उत्तर न दे सकूंगा। पहले तुम दरवाजे से और जूतों से क्षमा मांग आओ। उस आदमी ने कहा आप पागल हो गए हैं? दरवाजों और जूतों से क्षमा। क्या उनका भी कोई व्यक्तित्व है?
उस फकीर ने कहा, तुमने क्रोध करते समय कभी भी न सोचा कि उनका कोई व्यक्तित्व है। तुमने जूते ऐसे पटके जैसे उनमें जान हो, जैसे उनका कोई कसूर हो; तुमने दरवाजा ऐसे खोला जैसे तुम दुश्मन हो। नहीं जब तुमने क्रोध करते वक्त उनका व्यक्तित्व मान लिया, तो पहले जाओ, क्षमा मांग कर आओ, तब मैं तुमसे आगे बात करूंगा, अन्यथा मैं बात करने को नहीं हूं।
अब वह आदमी दूर जर्मनी से उस फकीर को मिलने गया था, इतनी-सी बात पर मुलाकात न हो सकेगी। मजबूरी थी। उसे जाकर दरवाजे पर हाथ जोड़कर क्षमा मांगनी पड़ी कि मित्र क्षमा कर दो। जूतों को कहना पड़ा, माफ करिए भूल हो गई। हमने जो आपको इस भांति गुस्से में खोला।
उस जर्मन यात्री ने लिखा है कि लेकिन जब मैं क्षमा मांग रहा था तो पहले तो मुझे हंसी आई कि मैं क्या पागलपन कर रहा हूं, लेकिन जब मैं क्षमा मांग चुका तो हैरान हुआ। मुझे एक इतनी शांति मालूम हुई, जिसकी मुझे कल्पना नहीं हो सकती थी...कि दरवाजे और जूतों से क्षमा मांगकर शांति मिल सकती है।
मैं जाकर उस फकीर के पास बैठा वह हंसने लगा। उसने कहा अब ठीक, अब कुछ बात हो सकती है। तुमने थोड़ा प्रेम जाहिर किया, अब तुम संबंधित हो सकते हो, समझ भी सकते हो, क्योंकि अब तुम प्रफुल्लित हो, अब तुम आनंद से भर गए हो।
सवाल मनुष्यों के साथ ही प्रेमपूर्ण होने का नही प्रेमपूर्ण होने का है। यह सवाल नहीं है कि मां को प्रेम दो, ये गलत बातें हैं। जब कोई मां अपने बच्चे को कहती है कि मैं तेरी मां हूं इसलिए प्रेम कर, तब वह गलत शिक्षा दे रही है। क्योंकि जिस प्रेम में 'इसलिए' लगा हुआ है 'देयरफोर', वह प्रेम झूठा है। जो कहता है, इसलिए प्रेम करो कि मैं बाप हूं, वह गलत शिक्षा दे रहा है। वह कारण बता रहा है प्रेम का।
प्रेम अकारण होता है, प्रेम कारण सहित नहीं होता है।
मां कहती है, मैं तेरी मां हूं, मैंने तुझे इतने दिन पाला-पोसा बड़ा किया इसलिए प्रेम कर। वह वजह बता रही है, प्रेम खत्म हो गया। अगर वह प्रेम भी होगा तो बच्चा झूठा प्रेम दिखाने की कोशिश करेगा, क्योंकि यह मां है, इसलिए प्रेम दिखाना पड़ रहा है।

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Bakesh  Namdev

mujhe sambhog se samadhi ki or pustak kharidna hai kya karna hoga