| ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
 | 
			 248 पाठक हैं | |||||||
संभोग से समाधि की ओर...
      तब उन्हें सीक्रेट मिल गया, राज मिल गया कि अगर मन को, विचारों से मुक्त किया
      जा सके किसी और विधि से तो भी इतना ही आनंद मिल सकता है। और तब समाधि और योग
      की सारी व्यवस्थाएं विकसित हुईं, जिनमें ध्यान और सामायिक और मेडिटेशन और
      प्रेयर, इनकी सारी व्यवस्थाएं विकसित हुईं। इन सबके मूल में संभोग का अनुभव
      है। और फिर मनुष्य को अनुभव हुआ कि बिना संभोग में जाए भी चित्त शून्य हो
      सकता है। और जो रस की अनुभूति संभोग में हुई थी, वह बिना संभोग के भी बरस
      सकती है। फिर संभोग क्षणिक हो सकता है, क्योंकि शक्ति और ऊर्जा का वह निकास
      और बहाव है। लेकिन ध्यान सतत हो सकता है।
      तो मैं आपसे कहना चाहता हूं कि एक युगल संभोग के क्षण मे जिस आनंद को अनुभव
      करता है, एक योगी चौबीस घंटे उस आनद को अनुभव कर लेता है। लेकिन इन दोनों
      आनंद में बुनियादी विरोध नहीं है। और इसलिए जिन्होंने कहा कि विषयानंद
      ब्रह्मानंद भाई-भाई हैं उन्होंने जरूर सत्य कहा है। वे सहोदर हैं एक ही उदर
      से पैदा हुए है, एक ही अनुभव से विकसित हुए हैं। उन्होंने निश्चित ही सत्य
      कहा है।
      
      तो पहला सूत्र आपसे कहना चाहता हूं। अगर चाहते हैं कि पता चले कि प्रेम-तत्व
      क्या है-तो पहला सूत्र है काम की पवित्रता दिव्यता, उसकी ईश्वरीय अनभूति की
      स्वीकृति, उसका परम हृदय से, पूर्ण हृदय से अंगीकार। और आप हैरान हो जाएंगे,
      जितने परिपूर्ण हृदय से काम की स्वीकृति होगी, उतने ही काम से मुक्त होते चले
      जाएंगे। जितना अस्वीकार होता है, उतना ही हम बंधते हैं। जैसा वह फकीर कपड़ों
      से बंध गया है।
      
      जितना स्वीकार होता है, उतने हम मुक्त होते हैं।
      
      अगर परिपूर्ण स्वीकार है, टोटल एक्सेप्टेबिलिटी है जीवन की जौ निसर्ग है
      उसकी, तो आप पाएंगे, वह परिपूर्ण स्वीकृति को मैं उगस्तिकता कहता हूं। वही
      आस्तिकता व्यक्ति को मुक्त करती है।
      
      नास्तिक मैं उनको कहता हूं, जो जीवन के निसर्ग को अस्वीकार करते है निषेध
      करते है-यह बुरा है, यह पाप है, यह विष है, यह छोड़ो, यह छोड़ो। जो छोड़ने की
      बात कर रहे हैं वे ही नास्तिक हैं।
      
      जीवन जैसा है, उसे स्वीकार करो और जियो उसकी परिपूर्णता में। वही परिपूर्णता
      रोज-रोज सीढ़ियां-सीढ़ियां ऊपर उठाती जाती है। वही स्वीकृति मनुष्य को ऊपर ले
      जाती है और एक दिन उसके दर्शन होते हैं जिसका काम में पता भी नहीं चलता था।
      काम अगर कोयला था तो एक दिन हीरा भी प्रकट होता है प्रेम का। तो पहला सूत्र
      यह है।
      			
| 
 | |||||

 i
 
i                 





 
 
		 

 
			 
_s.jpg)

