ओशो साहित्य >> संभोग से समाधि की ओर संभोग से समाधि की ओरओशो
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संभोग से समाधि की ओर...
पश्चिम में इतने तलाक हो रहे हैं। उनका अनुभव यह है कि दूसरी खी दस-पांच दिन
के बाद फिर पहली स्त्री साबित हो जाती है। दूसरा पुरुष 15 दिन के बाद फिर
पहला पुरुष साबित हो जाता है। इसके कारण गहरे हैं। इसके कारण इसी स्त्री और
इसी पुरुष से संबंधित नहीं हैं। इसके कारण इस बात से संबंधित हैं कि सी और
पुरुष का, पति और पत्नी का संबंध बीच की यात्रा का संबंध है, वह मुकाम नहीं
है, वह अंत नहीं है। अंत तो वही होगा, जहां स्त्री मां बन जाएगी और पुरुष फिर
बेटा हो जाएगा।
तो मैं आपसे कह रहा हूं कि मां और बेटे का संबंध आध्यात्मिक काम का संबंध है
और जिस दिन स्त्री और पुरुष में, पति-पत्नी में भी आध्यात्मिक काम का संबंध
उत्पन्न होगा, उस दिन फिर मां-बेटे का संबंध स्थापित हो जाएगा। और वह स्थापित
हो जाए तो एक तृप्ति, जिसको मैंने कहा, कटेंटमेंट, अनुभव होगा और उस अनुभव से
ब्रह्मचर्य फलित होता है। तो यह मत सोचें कि मां और बेटे के संबंध में कोई
काम नहीं है। आध्यात्मिक काम है। अगर हम ठीक से कहें तो आध्यात्मिक काम को ही
प्रेम कह सकते हैं वह प्रेम...स्प्रिचुअल जैसे ही सेक्स हो जाता है, वह प्रेम
हो जाता है।
एक मित्र ने इस संबंध में और एक बात पूछी है। उन्होंने पूछा है कि आपको हम
सेक्स पर कोई अथारिटी, कोई प्रामाणिक व्यक्ति नहीं मान सकते हैं। हम तो आपसे
ईश्वर के संबंध मे पूछने आए थे और आप सेक्स के संबंध में बताने लगे। हम तो
सुनने आए थे ईश्वर के संबंध में तो आप हमें ईश्वर के संबंध में बताइए।
उन्हें शायद पता नहीं कि जिस व्यक्ति को हम सेक्स के संबंध में भी अथारिटी
नहीं मान सकते, उससे ईश्वर के संबंध में पूछना फिजूल है; क्योंकि जो पहली
सीढ़ी के संबंध में कुछ नहीं जानता, उससे आप अंतिम सीढ़ी के संबंध में पूछना
चाहते हैं? अगर सेक्स के संबंध में जो मैने कहा वह स्वीकार्य ही नहीं है तो
फिर तो भूलकर ईश्वर के संबंध में मुझसे पूछने कभी मत आना, क्योंकि वह बात ही
खत्म हो गई। पहली कक्षा के योग्य भी मैं सिद्ध नहीं हुआ, तो अंतिम कक्षा के
योग्य कैसे सिद्ध हो सकता हूं? लेकिन उनके पूछने का कारण है।
अब तक काम को और राम को दुश्मन की तरह देखा जाता रहा है। सेक्स को और
परमात्मा को दुश्मन की तरह देखा जाता रहा है। अब तक ऐसा समझा जाता रहा है कि
जो राम की खोज करते हैं उनको काम से कोई संबंध नहीं है। और जो लोग काम की
यात्रा करते हैं उनको आध्यात्म से कोई संबंध नहीं है। ये दोनों बातें बेवकूफी
की हैं।
आदमी काम की यात्रा भी राम की खोज के लिए ही करता है। वह काम का इतना तीव
आकर्षण, राम की ही खोज है और इसीलिए काम में कभी तृप्ति नहीं मिलती। कभी ऐसा
नहीं लगता कि सब पूरा हो गया है। वह जब तक राम न मिल जाए, तब तक लग भी नहीं
सकता है।
और जो लोग काम के शत्रु होकर राम को खोजते हैं राम की खोज नहीं है वह। वह
सिर्फ राम के नाम में काम से एस्केप है, पलायन है। काम से बचना है। इधर प्राण
घबराते हैं डर लगता है तो राम की चदरिया ओढ़कर उसमें छिप जाते है और राम राम
राम राम राम जपते रहते हैं कि काम की याद न आए।
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