बहुभागीय पुस्तकें >> महावीर वाणी भाग-1 महावीर वाणी भाग-1ओशो
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आपका हृदय क्या चाहता है आपके ? प्राणों की प्यास क्या है ? आपके श्वासों की तलाश क्या है ?...
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आपका हृदय क्या चाहता है ? आपके प्राणों की प्यास क्या है
? आपके श्वासों की तलाश क्या है ? क्या कभी आपने अपने आपसे ये प्रश्न पूछे
हैं ? यदि नहीं, तो मुझे पूछने दें। यदि आप मुझसे पूछें तो मैं कहूंगा,
उसे पाना चाहता हूं जिसे पाकर फिर कुछ और पाने को नहीं रह जाता। क्या मेरा
ही उत्तर आपकी अंतरात्माओं में भी नहीं उठता है ?
यह मैं आपसे ही नहीं पूछ रहा हूं, और भी हजारों लोगों से पूछता हूं। और पाता हूं कि सभी मानव-हृदय समान हैं और उनकी आत्यंतिक चाह भी समान ही है।
आत्मा आनंद चाहती है–पूर्ण आनंद–क्योंकि तभी सभी चाहों का विश्राम आ सकता है। जहां चाह है, वहां दुख है; क्योंकि वहां अभाव है। आत्मा सब अभावों का अभाव चाहती है। अभाव का पूर्ण अभाव ही आनंद है, और वही स्वतंत्रता भी है, मुक्ति भी। क्योंकि जहां कोई भी अभाव है, वहीं बंधन है, सीमा है और परतंत्रता है। अभाव जहां नहीं है, वहीं परम मुक्ति में प्रवेश है।
आनंद मोक्ष है और मुक्ति आनंद है। निश्चय ही जो परम आकांक्षा है, वह बीजरूप में प्रत्येक में प्रसुप्त होनी ही चाहिए; क्योंकि जिस बीज में वृक्ष न छिपा हो, उसमें अंकुर भी नहीं आ सकता है। हमारी जो चरम कामना है, वही हमारा आत्यंतिक स्वरूप भी है; क्योंकि स्वरूप ही अपने पूर्ण विकास में आनंद और स्वतंत्रता में परिणत हो सकता है। स्वरूप ही सत्य है और उसकी पूर्ण उपलब्धि ही संतोष बनती है।
यह मैं आपसे ही नहीं पूछ रहा हूं, और भी हजारों लोगों से पूछता हूं। और पाता हूं कि सभी मानव-हृदय समान हैं और उनकी आत्यंतिक चाह भी समान ही है।
आत्मा आनंद चाहती है–पूर्ण आनंद–क्योंकि तभी सभी चाहों का विश्राम आ सकता है। जहां चाह है, वहां दुख है; क्योंकि वहां अभाव है। आत्मा सब अभावों का अभाव चाहती है। अभाव का पूर्ण अभाव ही आनंद है, और वही स्वतंत्रता भी है, मुक्ति भी। क्योंकि जहां कोई भी अभाव है, वहीं बंधन है, सीमा है और परतंत्रता है। अभाव जहां नहीं है, वहीं परम मुक्ति में प्रवेश है।
आनंद मोक्ष है और मुक्ति आनंद है। निश्चय ही जो परम आकांक्षा है, वह बीजरूप में प्रत्येक में प्रसुप्त होनी ही चाहिए; क्योंकि जिस बीज में वृक्ष न छिपा हो, उसमें अंकुर भी नहीं आ सकता है। हमारी जो चरम कामना है, वही हमारा आत्यंतिक स्वरूप भी है; क्योंकि स्वरूप ही अपने पूर्ण विकास में आनंद और स्वतंत्रता में परिणत हो सकता है। स्वरूप ही सत्य है और उसकी पूर्ण उपलब्धि ही संतोष बनती है।
महावीर
आदमी जो आज जानता है वह पहली बार जान रहा है,
ऐसी भूल में पड़ने का अब कोई कारण नहीं है। आदमी बहुत बार जान लेता है और भूल जाता है। बहुत बार शिखर छू लिए गए हैं और खो गए है। सभ्यताएं उठती हैं और आकाश को छूती हैं लहरों की तरह और विलीन हो जाती हैं।
महावीर एक बहुत बड़ी संस्कृति के अंतिम व्यक्ति हैं, जिस संस्कृति का विस्तार कम से कम दस लाख वर्ष है। महावीर जैन विचार और परंपरा के अंतिम तीर्थंकर हैं–चौबीसवें। शिखर की, लहर की आखिरी ऊंचाई, और महावीर के बाद वह लहर और वह सभ्यता वह संस्कृति सब बिखर गई। आज उन सूत्रों को समझना इसीलिए कठिन है, क्योंकि वह पूरा का पूरा मिल्यू, वह वातावरण जिसमें वे सूत्र सार्थक थे, आज कहीं भी नहीं है।
न केवल हमारी आंखें उथला देखती हैं, वरन अधिकांशतः तो वे देखती ही नहीं हैं। हम अक्सर उन्हीं रास्तों पर बार-बार चले जाते हैं, जिन पर बहुत बार पूर्व में जाकर भी दुख, पीड़ा और अवसाद को झेल चुके होते हैं। जहां दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया, उसी ओर फिर-फिर जाते हैं। क्यों ? क्योंकि शायद उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग हमें दिखाई नहीं पड़ता है।
इसलिए मैंने कहा कि हम न केवल धुंधला और उथला देखते हैं, बल्कि हम देखते ही नहीं है। बहुत कम लोग हैं जो जीवन में आंखों का उपयोग करते हों। आंखें सबके पास हैं, लेकिन आंखों के होते हुए भी अधिकांश अंधे बने रहते हैं। जिसने स्वयं के भीतर नहीं देखा है, उसने कभी अपनी आंखों का उपयोग ही नहीं किया है। केवल वही कह सकता है कि मैं आंख वाला हूं जिसने स्वयं को देखा है; क्योंकि जो स्वयं को ही नहीं देखता है, वह और क्या देखेगा ?
आंखों की शुरुआत स्वयं को ही देखने से होती है। और जो स्वयं को देखता है,
दूसरे देखते हैं कि उसके चरण सुख की दिशा में नहीं जा रहे हैं। वह व्यक्ति आनंद की दिशा में चलना प्रारंभ कर देता है। सुख की दिशा स्वयं से संसार की ओर है; आनंद की दिशा संसार से स्वयं की ओर है।
महावीर एक बहुत बड़ी संस्कृति के अंतिम व्यक्ति हैं, जिस संस्कृति का विस्तार कम से कम दस लाख वर्ष है। महावीर जैन विचार और परंपरा के अंतिम तीर्थंकर हैं–चौबीसवें। शिखर की, लहर की आखिरी ऊंचाई, और महावीर के बाद वह लहर और वह सभ्यता वह संस्कृति सब बिखर गई। आज उन सूत्रों को समझना इसीलिए कठिन है, क्योंकि वह पूरा का पूरा मिल्यू, वह वातावरण जिसमें वे सूत्र सार्थक थे, आज कहीं भी नहीं है।
न केवल हमारी आंखें उथला देखती हैं, वरन अधिकांशतः तो वे देखती ही नहीं हैं। हम अक्सर उन्हीं रास्तों पर बार-बार चले जाते हैं, जिन पर बहुत बार पूर्व में जाकर भी दुख, पीड़ा और अवसाद को झेल चुके होते हैं। जहां दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया, उसी ओर फिर-फिर जाते हैं। क्यों ? क्योंकि शायद उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग हमें दिखाई नहीं पड़ता है।
इसलिए मैंने कहा कि हम न केवल धुंधला और उथला देखते हैं, बल्कि हम देखते ही नहीं है। बहुत कम लोग हैं जो जीवन में आंखों का उपयोग करते हों। आंखें सबके पास हैं, लेकिन आंखों के होते हुए भी अधिकांश अंधे बने रहते हैं। जिसने स्वयं के भीतर नहीं देखा है, उसने कभी अपनी आंखों का उपयोग ही नहीं किया है। केवल वही कह सकता है कि मैं आंख वाला हूं जिसने स्वयं को देखा है; क्योंकि जो स्वयं को ही नहीं देखता है, वह और क्या देखेगा ?
आंखों की शुरुआत स्वयं को ही देखने से होती है। और जो स्वयं को देखता है,
दूसरे देखते हैं कि उसके चरण सुख की दिशा में नहीं जा रहे हैं। वह व्यक्ति आनंद की दिशा में चलना प्रारंभ कर देता है। सुख की दिशा स्वयं से संसार की ओर है; आनंद की दिशा संसार से स्वयं की ओर है।
प्रस्तावना
ओशो की पुस्तक की प्रस्तावना लिखना ऐसा ही है
जैसे कण से कहा जाए कि ब्रह्मांड के विषय में कुछ कहो। कहां ओशो–परम
ज्ञान-स्वरूप, प्रेम अथवा परमात्मा के पर्यायवाच्य ! और, कहां मेरी लघुता
! जैसे, परमात्मा और प्रेम वर्णनातीत हैं, वैसे ही ओशो भी। इनका अनुभव ही
किया जा सकता है। ओशो के प्रवचनों, जो पुस्तकों के रूप में प्रकाशित होते
हैं, की भी यही स्थिति है। उन्हें पढ़-सुन कर भी पढ़ा-सुना नहीं जा सकता।
उन्हें तो, बस पीया जा सकता है।
जैनों का एक शब्द है ‘सर्वज्ञ’। किसी अन्य परंपरा में यह शब्द नहीं है। संयोगवश, मेरा जन्म एक जैन घर में हुआ। बचपन से सुना करता था कि तीर्थंकर सर्वज्ञ होते थे। लगता था, अतिशयोक्ति है। यदि सीमित अर्थ में ही इस शब्द को लें कि धर्म के विषय में, अध्यात्म के विषय में वे, जानने योग्य जो भी है सब कुछ जानते थे तो भी अतिशयोक्ति मालूम होती थी। फिर ओशो को पढ़ने का अवसर मिला, और जैसे-जैसे ओशो की पुस्तकों को पढ़ता गया विविध प्रज्ञापुरुषों पर, उनके वक्तव्यों पर तथा अन्य विषयों पर, वैसे-वैसे अनुभव में आता गया कि सर्वज्ञता संभव है। तीर्थंकरों को देखा नहीं, सुना नहीं, उनके वक्तव्यों की भाषा से अपरिचित होने से उन्हें सीधा पढ़ा नहीं, इसलिए नहीं कह सकता कि वे सर्वज्ञ थे अथवा नहीं, किंतु, प्रत्यक्षतया ओशो को सुन कर, बोधगम्य भाषा में उन्हें पढ़ कर न केवल ऐसा लगता है कि ओशो, सचमुच सर्वज्ञ हैं बल्कि स्वीकार करना पड़ता है कि वे सीमित अर्थों में नहीं, असीमित अर्थों में सर्वज्ञ हैं। पृथ्वी के कौन से ज्ञान-विज्ञान की कौन सी शाखा-प्रशाखा है, जिसमें ओशो की गति न हो। महावीर वाणी में ही ओशो ने कहा है : जो परम ज्ञान को उपलब्ध होता है, वहां ज्ञान अकारण हो जाता है, कोई सोर्स नहीं होता।’ ओशो भी, कदाचित, इसके अपवाद नहीं। एक बार, दिवंगत श्रद्धेय स्वामी आनंद मैत्रेय से मैंने यों ही चर्चा में कह दिया कि ओशो तो ज्ञान के समुद्र हैं, तो उन्होंने तत्काल मेरी भूल को सुधारते हुए कहा, समुद्र नहीं, आकाश कहो, समुद्र की तो सीमाएं होती हैं। हो सकता है कि मेरे अवचेतन में से उनकी यह उपमा बाद में इस रूप में प्रकट हुई हो।
जैनों का एक शब्द है ‘सर्वज्ञ’। किसी अन्य परंपरा में यह शब्द नहीं है। संयोगवश, मेरा जन्म एक जैन घर में हुआ। बचपन से सुना करता था कि तीर्थंकर सर्वज्ञ होते थे। लगता था, अतिशयोक्ति है। यदि सीमित अर्थ में ही इस शब्द को लें कि धर्म के विषय में, अध्यात्म के विषय में वे, जानने योग्य जो भी है सब कुछ जानते थे तो भी अतिशयोक्ति मालूम होती थी। फिर ओशो को पढ़ने का अवसर मिला, और जैसे-जैसे ओशो की पुस्तकों को पढ़ता गया विविध प्रज्ञापुरुषों पर, उनके वक्तव्यों पर तथा अन्य विषयों पर, वैसे-वैसे अनुभव में आता गया कि सर्वज्ञता संभव है। तीर्थंकरों को देखा नहीं, सुना नहीं, उनके वक्तव्यों की भाषा से अपरिचित होने से उन्हें सीधा पढ़ा नहीं, इसलिए नहीं कह सकता कि वे सर्वज्ञ थे अथवा नहीं, किंतु, प्रत्यक्षतया ओशो को सुन कर, बोधगम्य भाषा में उन्हें पढ़ कर न केवल ऐसा लगता है कि ओशो, सचमुच सर्वज्ञ हैं बल्कि स्वीकार करना पड़ता है कि वे सीमित अर्थों में नहीं, असीमित अर्थों में सर्वज्ञ हैं। पृथ्वी के कौन से ज्ञान-विज्ञान की कौन सी शाखा-प्रशाखा है, जिसमें ओशो की गति न हो। महावीर वाणी में ही ओशो ने कहा है : जो परम ज्ञान को उपलब्ध होता है, वहां ज्ञान अकारण हो जाता है, कोई सोर्स नहीं होता।’ ओशो भी, कदाचित, इसके अपवाद नहीं। एक बार, दिवंगत श्रद्धेय स्वामी आनंद मैत्रेय से मैंने यों ही चर्चा में कह दिया कि ओशो तो ज्ञान के समुद्र हैं, तो उन्होंने तत्काल मेरी भूल को सुधारते हुए कहा, समुद्र नहीं, आकाश कहो, समुद्र की तो सीमाएं होती हैं। हो सकता है कि मेरे अवचेतन में से उनकी यह उपमा बाद में इस रूप में प्रकट हुई हो।
ओशो व्यक्ति नहीं घटना हैं।
विराटम् का नर-तन में आकर सिमटना है।
करुणावश, मुक्ति के किनारे से लौटे, क्योंकि
अमृता वाणी से परमानंद बंटना है।
विराटम् का नर-तन में आकर सिमटना है।
करुणावश, मुक्ति के किनारे से लौटे, क्योंकि
अमृता वाणी से परमानंद बंटना है।
महावीर मात्र महावीर थे। कृष्ण, बुद्ध, जीसस,
मोहम्मद,
लाओत्सु, गुरजिएफ–जितने जो भी उपलब्ध हुए हैं, प्रत्येक वही थे,
जो
वे थे, किंतु मेरा खयाल है कि कदाचित पृथ्वी पर पहली बार ऐसा घटित हुआ है
कि एक ही व्यक्ति ओशो में आज तक की समस्त उपलब्ध चेतनाएं अवतरित हो गई
हैं। एक ओर जहां मेरी यह प्रतीति है, वहीं दूसरी ओर यह एक तथ्य है कि ओशो
किसी तीर्थंकर अथवा अवतार की न तो पुनरुक्ति हैं और न उनमें से किसी के
प्रतिनिधि। वे अद्वितीय, अनूठे और सर्वथा मौलिक हैं। ओशो ने स्वयं भी कहा
है कि मैं किसी की परंपरा में नहीं हूं। मैं अपनी परंपरा का प्रारंभ हूं,
जैसे ऋषभ जैन परंपरा के प्रारंभ थे।
जैसे, कवि अपनी बात को कहने के लिए काव्य को माध्यम बनाते हैं, शायद, इसलिए कि गद्य में उसकी सुनने को कोई तैयार न हो।
जैसे, कवि अपनी बात को कहने के लिए काव्य को माध्यम बनाते हैं, शायद, इसलिए कि गद्य में उसकी सुनने को कोई तैयार न हो।
जब हृदय बोझिल हुआ, कुछ गा लिया।
और मन को इस तरह समझा लिया।
यों न सुनता था कि कवि की बात, जग तू
किंतु, कविता ने तुझे बहला लिया।
और मन को इस तरह समझा लिया।
यों न सुनता था कि कवि की बात, जग तू
किंतु, कविता ने तुझे बहला लिया।
वैसे ही, कदाचित, ओशो भी अतीत के सभी
पैगंबरों, महापुरुषों
और उपलब्ध चेतनाओं में बहुसंख्य को बहाना बना कर अपनी बात कह रहे हैं। ओशो
तो वे भरे हुए बादल हैं, जो बरसते ही। क्योंकि हममें से कोई महावीर से
जुड़ा है, कोई कृष्ण से, कोई बुद्ध से, कोई जीसस से, कोई कबीर से, इसलिए
ओशो अपने लिए नहीं, करुणावश हमारे लिए कभी महावीर को बहाना बना कर बोलते
हैं, कभी कृष्ण, कभी बुद्घ, कभी जीसस और कभी कबीर को। ओशो के वचनामृत को
सीधे-सीधे पान करने में कदाचित हम पूर्वग्रही परंपराओं से बंधे लोग
झिझकते, डरते, इसीलिए उन्होंने जो जिस प्याले से पूर्वपरिचित था, उसे उसके
लिए उसी प्याले के माध्यम से अमृत उपलब्ध करा दिया।
मैं जैन घर में जन्मा अवश्य, किंतु मुझे बचपन से ही ऐसा लगता था कि आदमी मात्र आदमी क्यों नहीं है, वह क्यों तो जैन हो, क्यों हिंदू और क्यों मुसलमान आदिय़। इसी प्रकार, मैं सोचता था कि धर्म के पीछे भी कोई विश्लेषण क्यों लगे। साधु के पीछे विशेषण की बात भी मेरी समझ में नहीं आती थी। फिर, किशोरावस्था की एक घटना ने मुझे जैन साधुओं के प्रति अश्रद्धा से भर दिया। मैं कम उम्र में ही कांग्रेस में सम्मिलित होकर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गया था और सन 1940 में जेल से लौटा ही था कि मेरे घर पर एक जैन मुनि का आहार हुआ, आहार के उपरांत मेरी मां ने उनसे मेरी शिकायत की कि यह लड़का कांग्रेस में काम करता है, अभी जेल से लौटा है, इसे समझा दें कि कांग्रेस में काम न करे; और, वे मुनि मुझे समझाने लग गए। बोले कि हम लोग बनिया हैं। हम लोगों को राजा या राज्य के पक्ष में ही सदैव रहना चाहिए। उन्होंने एक कहावत भी सुनाई, जिसका भावार्थ था कि यदि राजा कहे कि एक बिल्ली एक ऊंट को पकड़ कर ले गई है, तो हमें भी ‘हांजी’ ‘हांजी’ कहना चाहिए।
मैं चकित रह गया। ये दिगंबर मुनि ! ये महावीर के सत्य के व्याख्याता ! अजैन साधुओं के प्रति मुझे पहले भी श्रद्धा नहीं थी। जैन साधुओं को शारीरिक कष्ट सहन करते देख, जो थोड़ी-बहुत श्रद्धा थी, न केवल इस घटना से विलुप्त हो गई, बल्कि मुझे जैन धर्म और जैन तीर्थंकरों के प्रति भी कोई जुड़ाव नहीं रह गया था। इस प्रकार साधारणतया सभी धर्मों और साधुओं के प्रति मैं जो अनादर से भर गया था, धर्म मात्र के प्रति जो बगावत मेरे अवचेतन में प्रविष्ट कर गई थी वह कदाचित जीवन भर बनी रहती, यदि मुझे ओशो को पढ़ने, समझने और उनसे जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त न हुआ होता। यदि, सचमुच, पूर्वजन्म के कोई पुण्य हुआ करते हों और उनके कारण जीवन में शुभ संभावनाएं घटती हों तो मैं अपने को बहुत पुण्यवान मानता हूं। ओशो की ही करुणा है कि मै अब न केवल मात्र आदमी हो गया हूं, बल्कि मुझे सारे तीर्थंकरों, पैगंबरों, उपलब्ध व्यक्तियों–सभी के प्रति, उनकी देशनाओं के प्रति समान श्रद्धा हो गई है।
भारत में जहां-जहां जैन हैं, प्रतिवर्ष में महावीर-जयंती का आयोजन करते हैं, उनमें तथाकथित पंडित और विद्वान प्रवचन करते हैं, महावीर के गुण-गान करते हैं, वही घिसी-पिटी बातें–मुर्दा–कोई जीवंतता नहीं। महावीर के सत्य अहिंसा, अनेकांत, उनका त्याग, तपस्या आदि-आदि पर कोरी लफ्फाजी। न उन्हें महावीर के व्यक्तित्व की गहराई की जानकारी है और न महावीर-वाणी की। किताबों की, शास्त्रों की जूठन, कोई कम, कोई जरा ज्यादा चबा कर उगलते रहते हैं। अवश्य ही इधर कुछ चैन पंडित और जैन, साधु चोरी-छिपे ओशो की महावीर से संबंधित पुस्तकें पढ़ने लगे हैं और ओशो के विचारों को, तर्कों को, व्याख्याओं को इस प्रकार अभिव्यक्ति करने लगे हैं, जैसे ये उन्हीं के मौलिक हों। कुछ समय पहले की बात है, मेरे मित्र, एक जैन-पंडित मेरे पास आए और उन्होंने ‘आचार्य रजनीश’ की (भगवान श्री तो वे कह सकते ही नहीं, जैसा कि उस समय ओशो को संबोधित किया जाता था) ‘महावीर : मेरी दृष्टि में’ पुस्तक मुझसे मांगी; पूछा, उन्हें क्या आवश्यकता पड़ गई। बोले, अब की बार महावीर-जयंती पर कानपुर से निमंत्रण मिला है। मैंने कहा, पुस्तक मैं दिए दे रहा हूं, लेकिन ओशो की किसी बात को अपने प्रवचन में कहो तो उनका हवाला देकर कहना कि उनकी अमुक पुस्तक में मैंने ऐसा पढ़ा है। बोले, ऐसा कैसे कर सकता हूं ? मैंने कारण नहीं पूछा। स्पष्ट था। ओशो का उल्लेख कर देने से एक ओर जहां उनकी मौलिकता का मुखौटा उतर जाता, वहीं दूसरी ओर जिस समाज को ऐसे ही पंडितों ने ओशो के विरुद्ध विषाक्त वक्तव्य दे-देकर ओशो के प्रति निंदक बनाया है, वह समाज, मूढ़ों का वह समूह, ऐसे पंडित को ही नकार देता। अब मैं सोचता हूं, ये पंडित हैं कि चोर है, कायर है, सत्य के दुश्मन हैं। यद्यपि, इस प्रसंग में मैं कुछ कहु हो रहा हूं जबकि ओशो ऐसी अपनी ही बातों की चोरी कर लेने वालों के प्रति भी उदार हैं। जब ओशो का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया गया कि नेपाल रेडियो 60% आपकी पुस्तकों से चुरा रहा है, तो ओशो ने जो उत्तर दिया, उसे ज्यों का त्यों उल्लेख कर देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर सकता। उदारता और निर्लिप्तता की चरम सीमा ! ओशो के स्थान पर यदि महावीर होते तो शायद वे भी यही उत्तर देते ।
‘लोग हैं, जो मेरी पुस्तकों से, मेरे वक्तव्यों से चुराते हैं। यह केवल नेपाल में ही नहीं, पूरी दुनिया में हो रहा है। यह फिल्मों में हो रहा है, टी.वी. में हो रहा है, रेडियों पर हो रहा है, समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में हो रहा है, सभी तरह के लोग चुराने का प्रयास कर रहे हैं। परंतु मुझे इसकी चिंता नहीं है।
‘सत्य तो सत्य है। यह जरूरी नहीं है कि वह मेरे नाम के साथ जुड़ा है। उन्हें चुराने दो। वे सत्य को चुरा रहे हैं, उन्हें अपने नाम के साथ प्रस्तुत करने दो। कोई हानि नहीं–क्योंकि मेरी दिलचस्पी मेरे नाम में नहीं है। मेरी दिलचस्पी मेरे सत्य में है। अगर सत्य लोगों तक पहुंच जाए–जैसे तुमने तुम्हारे प्रश्न में कहा कि नेपाल रेडियो 60% मेरी पुस्तकों से चुरा रहा है–उनकी मदद करो सौ प्रतिशत चोरी करने के लिए। मेरा नाम असंगत है, संगत जो है वह सत्य है। और सत्य किसी की संपत्ति नहीं है–न मेरी, न तुम्हारी।
‘इसलिए चोरी की भाषा में क्यों सोचना ? शायद वे चुरा नहीं रहे हैं, वे प्रभावित हुए हैं, परंतु वे कायर हैं। वे नाम नहीं ले सकते, फिर भी वे मेरा काम कर रहे हैं। यह सब ठीक, उनकी सहायता करो–उनको और परिच्छेद निकाल कर दो चुराने के लिए। किसी तरह लोगों तक संदेश को पहुंचना चाहिए। सत्य सार्वभौम है, यह मेरा नहीं है, यह तुम्हारा नहीं है, इसलिए चोरी का प्रश्न ही नहीं उठता।’
और ओशो के इस वक्तव्य को पढ़ कर मैं सोचता हूं कि मैं कौन हूं जो चोरों को चोर कहूं। जिसकी संपत्ति है, वही जब लूटने वालों को निमंत्रण दे रहा है तो फिर मैं भी जैन साधुओं, तथाकथित जैन विद्वानों, जैन पंडितों को आमंत्रित करता हूं कि वे, सचमुच, यदि वे महावीर के प्रेमी हों और महावीर एवं उनकी वाणी को समझने-हृदयंगम करने की जिज्ञासा उनमें हो तो शास्त्रों को बस्ते में बांध कर रख दें–सदैव के लिए; और, जितनी बार संभव हो, ओशो की ‘महावीर-वाणी’ महावीर : मेरी दृष्टि में’ जिन-सूत्र’ भले ही चोरी-छिपे, पढ़ें और पूर्ववत ओशो की निंदा करने के साथ-साथ उनके द्वारा उदघाटित सत्य को, उनके संदेश को अपने मरणशील नामों के साथ व्यक्त करते रहें, ओशो की ओर से उन्हें आह्वान है।
मैं जैन घर में जन्मा अवश्य, किंतु मुझे बचपन से ही ऐसा लगता था कि आदमी मात्र आदमी क्यों नहीं है, वह क्यों तो जैन हो, क्यों हिंदू और क्यों मुसलमान आदिय़। इसी प्रकार, मैं सोचता था कि धर्म के पीछे भी कोई विश्लेषण क्यों लगे। साधु के पीछे विशेषण की बात भी मेरी समझ में नहीं आती थी। फिर, किशोरावस्था की एक घटना ने मुझे जैन साधुओं के प्रति अश्रद्धा से भर दिया। मैं कम उम्र में ही कांग्रेस में सम्मिलित होकर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गया था और सन 1940 में जेल से लौटा ही था कि मेरे घर पर एक जैन मुनि का आहार हुआ, आहार के उपरांत मेरी मां ने उनसे मेरी शिकायत की कि यह लड़का कांग्रेस में काम करता है, अभी जेल से लौटा है, इसे समझा दें कि कांग्रेस में काम न करे; और, वे मुनि मुझे समझाने लग गए। बोले कि हम लोग बनिया हैं। हम लोगों को राजा या राज्य के पक्ष में ही सदैव रहना चाहिए। उन्होंने एक कहावत भी सुनाई, जिसका भावार्थ था कि यदि राजा कहे कि एक बिल्ली एक ऊंट को पकड़ कर ले गई है, तो हमें भी ‘हांजी’ ‘हांजी’ कहना चाहिए।
मैं चकित रह गया। ये दिगंबर मुनि ! ये महावीर के सत्य के व्याख्याता ! अजैन साधुओं के प्रति मुझे पहले भी श्रद्धा नहीं थी। जैन साधुओं को शारीरिक कष्ट सहन करते देख, जो थोड़ी-बहुत श्रद्धा थी, न केवल इस घटना से विलुप्त हो गई, बल्कि मुझे जैन धर्म और जैन तीर्थंकरों के प्रति भी कोई जुड़ाव नहीं रह गया था। इस प्रकार साधारणतया सभी धर्मों और साधुओं के प्रति मैं जो अनादर से भर गया था, धर्म मात्र के प्रति जो बगावत मेरे अवचेतन में प्रविष्ट कर गई थी वह कदाचित जीवन भर बनी रहती, यदि मुझे ओशो को पढ़ने, समझने और उनसे जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त न हुआ होता। यदि, सचमुच, पूर्वजन्म के कोई पुण्य हुआ करते हों और उनके कारण जीवन में शुभ संभावनाएं घटती हों तो मैं अपने को बहुत पुण्यवान मानता हूं। ओशो की ही करुणा है कि मै अब न केवल मात्र आदमी हो गया हूं, बल्कि मुझे सारे तीर्थंकरों, पैगंबरों, उपलब्ध व्यक्तियों–सभी के प्रति, उनकी देशनाओं के प्रति समान श्रद्धा हो गई है।
भारत में जहां-जहां जैन हैं, प्रतिवर्ष में महावीर-जयंती का आयोजन करते हैं, उनमें तथाकथित पंडित और विद्वान प्रवचन करते हैं, महावीर के गुण-गान करते हैं, वही घिसी-पिटी बातें–मुर्दा–कोई जीवंतता नहीं। महावीर के सत्य अहिंसा, अनेकांत, उनका त्याग, तपस्या आदि-आदि पर कोरी लफ्फाजी। न उन्हें महावीर के व्यक्तित्व की गहराई की जानकारी है और न महावीर-वाणी की। किताबों की, शास्त्रों की जूठन, कोई कम, कोई जरा ज्यादा चबा कर उगलते रहते हैं। अवश्य ही इधर कुछ चैन पंडित और जैन, साधु चोरी-छिपे ओशो की महावीर से संबंधित पुस्तकें पढ़ने लगे हैं और ओशो के विचारों को, तर्कों को, व्याख्याओं को इस प्रकार अभिव्यक्ति करने लगे हैं, जैसे ये उन्हीं के मौलिक हों। कुछ समय पहले की बात है, मेरे मित्र, एक जैन-पंडित मेरे पास आए और उन्होंने ‘आचार्य रजनीश’ की (भगवान श्री तो वे कह सकते ही नहीं, जैसा कि उस समय ओशो को संबोधित किया जाता था) ‘महावीर : मेरी दृष्टि में’ पुस्तक मुझसे मांगी; पूछा, उन्हें क्या आवश्यकता पड़ गई। बोले, अब की बार महावीर-जयंती पर कानपुर से निमंत्रण मिला है। मैंने कहा, पुस्तक मैं दिए दे रहा हूं, लेकिन ओशो की किसी बात को अपने प्रवचन में कहो तो उनका हवाला देकर कहना कि उनकी अमुक पुस्तक में मैंने ऐसा पढ़ा है। बोले, ऐसा कैसे कर सकता हूं ? मैंने कारण नहीं पूछा। स्पष्ट था। ओशो का उल्लेख कर देने से एक ओर जहां उनकी मौलिकता का मुखौटा उतर जाता, वहीं दूसरी ओर जिस समाज को ऐसे ही पंडितों ने ओशो के विरुद्ध विषाक्त वक्तव्य दे-देकर ओशो के प्रति निंदक बनाया है, वह समाज, मूढ़ों का वह समूह, ऐसे पंडित को ही नकार देता। अब मैं सोचता हूं, ये पंडित हैं कि चोर है, कायर है, सत्य के दुश्मन हैं। यद्यपि, इस प्रसंग में मैं कुछ कहु हो रहा हूं जबकि ओशो ऐसी अपनी ही बातों की चोरी कर लेने वालों के प्रति भी उदार हैं। जब ओशो का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया गया कि नेपाल रेडियो 60% आपकी पुस्तकों से चुरा रहा है, तो ओशो ने जो उत्तर दिया, उसे ज्यों का त्यों उल्लेख कर देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर सकता। उदारता और निर्लिप्तता की चरम सीमा ! ओशो के स्थान पर यदि महावीर होते तो शायद वे भी यही उत्तर देते ।
‘लोग हैं, जो मेरी पुस्तकों से, मेरे वक्तव्यों से चुराते हैं। यह केवल नेपाल में ही नहीं, पूरी दुनिया में हो रहा है। यह फिल्मों में हो रहा है, टी.वी. में हो रहा है, रेडियों पर हो रहा है, समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में हो रहा है, सभी तरह के लोग चुराने का प्रयास कर रहे हैं। परंतु मुझे इसकी चिंता नहीं है।
‘सत्य तो सत्य है। यह जरूरी नहीं है कि वह मेरे नाम के साथ जुड़ा है। उन्हें चुराने दो। वे सत्य को चुरा रहे हैं, उन्हें अपने नाम के साथ प्रस्तुत करने दो। कोई हानि नहीं–क्योंकि मेरी दिलचस्पी मेरे नाम में नहीं है। मेरी दिलचस्पी मेरे सत्य में है। अगर सत्य लोगों तक पहुंच जाए–जैसे तुमने तुम्हारे प्रश्न में कहा कि नेपाल रेडियो 60% मेरी पुस्तकों से चुरा रहा है–उनकी मदद करो सौ प्रतिशत चोरी करने के लिए। मेरा नाम असंगत है, संगत जो है वह सत्य है। और सत्य किसी की संपत्ति नहीं है–न मेरी, न तुम्हारी।
‘इसलिए चोरी की भाषा में क्यों सोचना ? शायद वे चुरा नहीं रहे हैं, वे प्रभावित हुए हैं, परंतु वे कायर हैं। वे नाम नहीं ले सकते, फिर भी वे मेरा काम कर रहे हैं। यह सब ठीक, उनकी सहायता करो–उनको और परिच्छेद निकाल कर दो चुराने के लिए। किसी तरह लोगों तक संदेश को पहुंचना चाहिए। सत्य सार्वभौम है, यह मेरा नहीं है, यह तुम्हारा नहीं है, इसलिए चोरी का प्रश्न ही नहीं उठता।’
और ओशो के इस वक्तव्य को पढ़ कर मैं सोचता हूं कि मैं कौन हूं जो चोरों को चोर कहूं। जिसकी संपत्ति है, वही जब लूटने वालों को निमंत्रण दे रहा है तो फिर मैं भी जैन साधुओं, तथाकथित जैन विद्वानों, जैन पंडितों को आमंत्रित करता हूं कि वे, सचमुच, यदि वे महावीर के प्रेमी हों और महावीर एवं उनकी वाणी को समझने-हृदयंगम करने की जिज्ञासा उनमें हो तो शास्त्रों को बस्ते में बांध कर रख दें–सदैव के लिए; और, जितनी बार संभव हो, ओशो की ‘महावीर-वाणी’ महावीर : मेरी दृष्टि में’ जिन-सूत्र’ भले ही चोरी-छिपे, पढ़ें और पूर्ववत ओशो की निंदा करने के साथ-साथ उनके द्वारा उदघाटित सत्य को, उनके संदेश को अपने मरणशील नामों के साथ व्यक्त करते रहें, ओशो की ओर से उन्हें आह्वान है।
सत्य की बस्ती अजीब बस्ती है।
लूटने वालों को तरसती है।
लूटने वालों को तरसती है।
ओशो, जो कवियों के कवि, महाकवियों के महाकवि हैं, जो गद्य में पद्य बोलते
हैं, ने महावीर को एक ही पंक्ति में परिभाषित कर दिया है :
जैसे पर्वतों में हिमालय है या शिखरों में गौरीशंकर, वैसे ही व्यक्तियों में महावीर हैं।’
ओशो ने महावीर की अंतश्चेतना की गहराई पर्त दर पर्त जिस प्रकार अपने विभिन्न प्रवचनों में उदघाटित की है, उनकी वाणी अथवा देशनाओं को वर्तमान तर्क-प्रधान युग में विज्ञान सम्मत प्रमाणों के साथ व्याख्यायित किया है, वह अद्वितीय और अप्रतिम है। मैं नहीं समझता कि अतीत में कभी किसी अन्य ने महावीर के वचनों को वह अर्थवत्ता, वह गरिमा एवं महिमा प्रदान की हो जो ओशो में संभव हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि पच्चीस सौ वर्ष पहले आकाश में विलुप्त महावीर की चेतना, उनकी दिव्यात्मा, उनकी तत्कालीन भाव एवं ध्वनि-तरंगों से सीधे संपर्क कर उन्हें एवं उनकी वाणी को अपने इन प्रवचनों के रूप में ओशो ने समग्रता में पुनरुज्जीवित कर दिया है।
न केवल महावीर की आंतरिकता को ही, बल्कि उनके भीतर जो घटित हुआ तथा उसके फलस्वरूप उनके बाह्यचरण में जो प्रकट हुआ, उसको भी ओशो ने नये आयाम प्रदान किए हैं।
आचरण बड़ा सूक्ष्म है। अब महावीर का नग्न हो जाना इतना निर्दोष आचरण है, जिसका हिसाब लगाना कठिन है–और, हम सबके आचरण के संबंध में बंधे-बंधाए खयाल हैं। ऐसा करो, और जो ऐसा करने को राजी हो जाते हैं, वे करीब-करीब मुर्दा लोग हैं, जो आपकी मान कर आचरण कर लेते हैं, उन मुर्दों को आप काफी पूजा देते हैं।’
‘इस जगत में जिंदा तीर्थंकर का उपयोग नहीं होता। सिर्फ मुर्दा तीर्थंकर के साथ भूलचूक निकालने की सुविधा नहीं रह जाती।’
जैसे पर्वतों में हिमालय है या शिखरों में गौरीशंकर, वैसे ही व्यक्तियों में महावीर हैं।’
ओशो ने महावीर की अंतश्चेतना की गहराई पर्त दर पर्त जिस प्रकार अपने विभिन्न प्रवचनों में उदघाटित की है, उनकी वाणी अथवा देशनाओं को वर्तमान तर्क-प्रधान युग में विज्ञान सम्मत प्रमाणों के साथ व्याख्यायित किया है, वह अद्वितीय और अप्रतिम है। मैं नहीं समझता कि अतीत में कभी किसी अन्य ने महावीर के वचनों को वह अर्थवत्ता, वह गरिमा एवं महिमा प्रदान की हो जो ओशो में संभव हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि पच्चीस सौ वर्ष पहले आकाश में विलुप्त महावीर की चेतना, उनकी दिव्यात्मा, उनकी तत्कालीन भाव एवं ध्वनि-तरंगों से सीधे संपर्क कर उन्हें एवं उनकी वाणी को अपने इन प्रवचनों के रूप में ओशो ने समग्रता में पुनरुज्जीवित कर दिया है।
न केवल महावीर की आंतरिकता को ही, बल्कि उनके भीतर जो घटित हुआ तथा उसके फलस्वरूप उनके बाह्यचरण में जो प्रकट हुआ, उसको भी ओशो ने नये आयाम प्रदान किए हैं।
आचरण बड़ा सूक्ष्म है। अब महावीर का नग्न हो जाना इतना निर्दोष आचरण है, जिसका हिसाब लगाना कठिन है–और, हम सबके आचरण के संबंध में बंधे-बंधाए खयाल हैं। ऐसा करो, और जो ऐसा करने को राजी हो जाते हैं, वे करीब-करीब मुर्दा लोग हैं, जो आपकी मान कर आचरण कर लेते हैं, उन मुर्दों को आप काफी पूजा देते हैं।’
‘इस जगत में जिंदा तीर्थंकर का उपयोग नहीं होता। सिर्फ मुर्दा तीर्थंकर के साथ भूलचूक निकालने की सुविधा नहीं रह जाती।’
हमने मुर्दा भगवान, हमेशा पूजे,
जीवित भगवानों को न जान पाते हैं।
पत्थर की प्रतिमाओं के सम्मुख झुककर
हम अंहकार को शेष बचा लाते हैं।
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे–सभी हमारे,
ये अवतारों के मरघट बने हुए हैं।
ये अपनी नींवों से शिखरों तक सारे
पाखंडों के पापों से सने हुए हैं।
हमने चमड़ी पर मजहब ओढ़ लिया है।
लेकिन भीतर हम प्रभु से कतराते हैं।
जीवित भगवानों को न जान पाते हैं।
पत्थर की प्रतिमाओं के सम्मुख झुककर
हम अंहकार को शेष बचा लाते हैं।
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे–सभी हमारे,
ये अवतारों के मरघट बने हुए हैं।
ये अपनी नींवों से शिखरों तक सारे
पाखंडों के पापों से सने हुए हैं।
हमने चमड़ी पर मजहब ओढ़ लिया है।
लेकिन भीतर हम प्रभु से कतराते हैं।
ओशो हमारे समकालीन हैं, इसलिए हमें बहुत
पीड़ा होती है,
हमारे अहंकार को चोट लगती है, यह स्वीकार करने में कि वे भगवत्ता को
प्राप्त भगवान-स्वरूप हैं, महावीर के साथ भी तत्कालीन समाज ने ऐसा ही किया
था, बहुत कम लोग होंगे तब, जिन्होंने महावीर में समाहित भगवत्ता को पहचाना
होगा।
प्रत्येक नया धर्म अपने समय में प्रचलित और प्रतिष्ठित धर्म के प्रति विद्रोह होता है, महावीर भी तत्कालीन संस्कृति-ब्राह्मण-संस्कृति के प्रति जीवित विद्रोह थे। ईश्वर के नाम पर पंडितों और पुरोहितों द्वारा समाज का शोषण किया जा रहा था। उन्होंने अपने को परमात्मा के ‘एजेंट’ के रूप में स्थापित कर रखा था। तत्कालीन प्रशासन भी उनका पोषक था। परिणामतः स्वाभाविक था कि वे महावीर को सहन नहीं करते। इसलिए महावीर को तरह-तरह से सताया गया। उन्हें गांव में नहीं ठहरने दिया जाता। कदाचित, प्रत्येक प्रज्ञापुरुष की यही नियति होती है, वे चाहे जीसस हों, चाहे सुकरात। और आज तो हम अपने युग को बहुत सुसंस्कृत, सुशिक्षित और सभ्य कहते हैं। किंतु क्या यह सही नहीं कि जहां तक चेतना के विकास की बात है, हम आज भी महावीर और जीसस के बर्बर युग में ही रह रहे हैं। अभी हाल में ओशो सरीखे प्रज्ञापुरुष के प्रति तथाकथित महान लोकतांत्रिक देश अमरीका के प्रशासन ने कितना वहशी और क्रूरतम व्यवहार नहीं किया। और, उनका अपराध क्या ? यही कि वे सत्य के निर्भीक प्रतिपादक हैं। चाहे अमरीका का राष्ट्रपति रीगन हो, चाहे वैटिकन का पोप और चाहे भारत का भू. पू. प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, ओशो ने उनकी चेतना में जैसी कुरुपता देखी, वैसी व्यक्त कर दी। रीगन-प्रशासन ने तो ओशो की जान तक लेने का प्रयत्न किया, उनके कमरे में टाइम बम रख कर। बिना किसी आरोप के 12 दिन विभिन्न जेलों में कैद रखा। उन्हें जहर तक दिया। पोपों के इशारे पर उन्हें आधे घंटे में इटली छोड़ने को विवश किया गया। इंग्लैंड में हवाई अड्डे पर रात भर विश्राम नहीं करने दिया गया। इन रीगनों, इन पोपों और इन थैचरों का कहना था कि ‘ओशो’ खतरनाक हैं।
एक ओर जहां तथाकथित धार्मिक नेता और राजनेता ओशो को निंदित और अपमानित करने में कोई कोर-कसर नहीं रख रहे, वहीं दूसरी ओर सारे विश्व के सृजनशील लोग, चाहे वे कवि, लेखक हों, चाहे संगीतज्ञ, चाहे नृत्य प्रवीण, सभी ओशो को एक मसीहा के रूप में देखते हैं। अस्तु।
महावीर पर अनेक पुस्तकें हैं–तथाकथित विद्वानों और पंडितों की लिखी हुई। किंतु वे सभी दूसरी-दूसरी किताबों की जूठन हैं। उनमें न कहीं महावीर का भाव है न कहीं उनका अर्थ। बल्कि, उनके अर्थों, को यदि सही मानें तो महावीर हास्यास्पद लगने लगते हैं। पंडितों के पास महावीर के शब्दों की लाशें हैं, आत्मा नहीं। जहां तक सत्य है कि महावीर के वचन किसी संप्रदाय विशेष के लिए नहीं हैं, वहां यह भी एक तथ्य है कि जैनों ने अपने को महावीर से जुड़ा हुआ मान लिया है, जैसे कृष्ण से हिंदूओं ने, जैसे जीसस से ईसाइयों ने, जैसे मोहम्मद में मुसलमानों ने। और, संप्रदाय विशेष के द्वारा जब किसी एक प्रज्ञापुरुष को अपने तक सीमित कर लिया जाता है तो अनायास ही दूसरे संप्रदाय फिर या तो उसे समझने का प्रयत्न ही नहीं करते या फिर गलत समझ लेते हैं। महावीर के साथ भी यह घटित हो रहा है। विश्व में पहली बार ओशो के प्रेमी, उनका जन्म चाहे किसी भी देश या संप्रदाय में हुआ हो, प्रत्येक प्रज्ञापुरुष को ओशो के प्रवचनों एवं प्रकाशनों के माध्यम से समझने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस प्रकार एक ऐसा नया समाज निर्मित हो रहा है जिसका न कोई राष्ट्र है, न कोई संप्रदाय। उसके लिए सभी प्रज्ञापुरुष उसके हैं। मुझे तरस आता है विशेषतया तथाकथिक बुद्घिजीवियों पर, जो ओशो को पढ़े या सुने बिना उनकी निंदा में रस लेकर, प्रकारांतर से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करते रहते हैं। ओशो को सम्यक रूप से समझने के लिए साहस और चित्त की सरलता आवश्यक है।
प्रत्येक नया धर्म अपने समय में प्रचलित और प्रतिष्ठित धर्म के प्रति विद्रोह होता है, महावीर भी तत्कालीन संस्कृति-ब्राह्मण-संस्कृति के प्रति जीवित विद्रोह थे। ईश्वर के नाम पर पंडितों और पुरोहितों द्वारा समाज का शोषण किया जा रहा था। उन्होंने अपने को परमात्मा के ‘एजेंट’ के रूप में स्थापित कर रखा था। तत्कालीन प्रशासन भी उनका पोषक था। परिणामतः स्वाभाविक था कि वे महावीर को सहन नहीं करते। इसलिए महावीर को तरह-तरह से सताया गया। उन्हें गांव में नहीं ठहरने दिया जाता। कदाचित, प्रत्येक प्रज्ञापुरुष की यही नियति होती है, वे चाहे जीसस हों, चाहे सुकरात। और आज तो हम अपने युग को बहुत सुसंस्कृत, सुशिक्षित और सभ्य कहते हैं। किंतु क्या यह सही नहीं कि जहां तक चेतना के विकास की बात है, हम आज भी महावीर और जीसस के बर्बर युग में ही रह रहे हैं। अभी हाल में ओशो सरीखे प्रज्ञापुरुष के प्रति तथाकथित महान लोकतांत्रिक देश अमरीका के प्रशासन ने कितना वहशी और क्रूरतम व्यवहार नहीं किया। और, उनका अपराध क्या ? यही कि वे सत्य के निर्भीक प्रतिपादक हैं। चाहे अमरीका का राष्ट्रपति रीगन हो, चाहे वैटिकन का पोप और चाहे भारत का भू. पू. प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, ओशो ने उनकी चेतना में जैसी कुरुपता देखी, वैसी व्यक्त कर दी। रीगन-प्रशासन ने तो ओशो की जान तक लेने का प्रयत्न किया, उनके कमरे में टाइम बम रख कर। बिना किसी आरोप के 12 दिन विभिन्न जेलों में कैद रखा। उन्हें जहर तक दिया। पोपों के इशारे पर उन्हें आधे घंटे में इटली छोड़ने को विवश किया गया। इंग्लैंड में हवाई अड्डे पर रात भर विश्राम नहीं करने दिया गया। इन रीगनों, इन पोपों और इन थैचरों का कहना था कि ‘ओशो’ खतरनाक हैं।
एक ओर जहां तथाकथित धार्मिक नेता और राजनेता ओशो को निंदित और अपमानित करने में कोई कोर-कसर नहीं रख रहे, वहीं दूसरी ओर सारे विश्व के सृजनशील लोग, चाहे वे कवि, लेखक हों, चाहे संगीतज्ञ, चाहे नृत्य प्रवीण, सभी ओशो को एक मसीहा के रूप में देखते हैं। अस्तु।
महावीर पर अनेक पुस्तकें हैं–तथाकथित विद्वानों और पंडितों की लिखी हुई। किंतु वे सभी दूसरी-दूसरी किताबों की जूठन हैं। उनमें न कहीं महावीर का भाव है न कहीं उनका अर्थ। बल्कि, उनके अर्थों, को यदि सही मानें तो महावीर हास्यास्पद लगने लगते हैं। पंडितों के पास महावीर के शब्दों की लाशें हैं, आत्मा नहीं। जहां तक सत्य है कि महावीर के वचन किसी संप्रदाय विशेष के लिए नहीं हैं, वहां यह भी एक तथ्य है कि जैनों ने अपने को महावीर से जुड़ा हुआ मान लिया है, जैसे कृष्ण से हिंदूओं ने, जैसे जीसस से ईसाइयों ने, जैसे मोहम्मद में मुसलमानों ने। और, संप्रदाय विशेष के द्वारा जब किसी एक प्रज्ञापुरुष को अपने तक सीमित कर लिया जाता है तो अनायास ही दूसरे संप्रदाय फिर या तो उसे समझने का प्रयत्न ही नहीं करते या फिर गलत समझ लेते हैं। महावीर के साथ भी यह घटित हो रहा है। विश्व में पहली बार ओशो के प्रेमी, उनका जन्म चाहे किसी भी देश या संप्रदाय में हुआ हो, प्रत्येक प्रज्ञापुरुष को ओशो के प्रवचनों एवं प्रकाशनों के माध्यम से समझने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस प्रकार एक ऐसा नया समाज निर्मित हो रहा है जिसका न कोई राष्ट्र है, न कोई संप्रदाय। उसके लिए सभी प्रज्ञापुरुष उसके हैं। मुझे तरस आता है विशेषतया तथाकथिक बुद्घिजीवियों पर, जो ओशो को पढ़े या सुने बिना उनकी निंदा में रस लेकर, प्रकारांतर से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करते रहते हैं। ओशो को सम्यक रूप से समझने के लिए साहस और चित्त की सरलता आवश्यक है।
अनुक्रम
१. | मंत्र दिव्य-लोक की कुंजी | (पंच-नमोकार-सूत्र) |
२. | मंगल व लोकोत्तर की भावना | (मंगल-भाव-सूत्र) |
३. | शरणागति : धर्म का मूल आधार | (शरणागति-सूत्र) |
४. | धर्म : स्वभाव में होना | (धम्म-सूत्र) |
५. | अहिंसा : जीवेषणा की मृत्यु | (धम्म-सूत्र : अहिंसा) |
६. | संयम : मध्य में रुकना | (धम्म-सूत्र : संयम-१) |
७. | संयम की विधायक दृष्टि | (धम्म-सूत्र : संयम-२) |
८. | तप : ऊर्जा-शरीर का दिशा-परिवर्तन | (धम्म-सूत्र : तप-१) |
९. | तप : ऊर्जा-शरीर का अनुभव | (धम्म-सूत्र : तप-२) |
१॰. | अनशन : मध्य के क्षण का अनुभव | (धम्म-सूत्र : बाह्य-तप-१) |
११. | ऊणोदरी एवं वृत्ति-संक्षेप | (धम्म-सूत्र : बाह्य-तप-२,३) |
१२. | रस-परित्याग और काया-क्लेश | (धम्म-सूत्र : बाह्य-तप-४,५) |
१३. | संलीनता : अंतर-तप का प्रवेश द्वार | (धम्म-सूत्र : बाह्य-तप-६) |
१४. | प्रायश्चित्त : पहला अंतर-तप | (धम्म-सूत्र : अंतर-तप-१) |
१५. | विनय : परिणति निरअहंकारिता की | (धम्म-सूत्र : अंतर-तप-२) |
१६. | वैयावृत्य और स्वाध्याय | (धम्म-सूत्र : अंतर-तप-३,४) |
१७. | सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना | (धम्म-सूत्र : अंतर-तप-५) |
१८. | कायोत्सर्ग : शरीर से विदा लेने की क्षमता | (धम्म-सूत्र : अंतर-तप-६) |
१९. | धर्म : एक मात्र शरण | (धम्म-सूत्र : २) |
२॰. | धर्म का मार्ग : सत्य का सीधा साक्षात् | (धम्म-सूत्र : ३) |
२१. | सत्य सदा सार्वभौम है | (सत्य-सूत्र) |
२२. | कामवासना है दूसरे की खोज | (ब्रह्मचर्य-सूत्र : १) |
२३. | ब्रह्मचर्य : कामवासना से मुक्ति | (ब्रह्मचर्य-सूत्र : २) |
२४. | संग्रह : अंदर के लोभ की झलक | (अपरिग्रह-सूत्र) |
२५. | अरात्रि-भोजन : शरीर-ऊर्जा का संतुलन | (अरात्रि-भोजन-सूत्र) |
२६. | विनय शिष्य का लक्षण है | (विनय-सूत्र) |
२७. | मनुष्यत्व : बढ़ते हुए होश की धारा | (चतुरंगीय-सूत्र) |
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