बहुभागीय पुस्तकें >> पतंजलि योग सूत्र भाग-4 पतंजलि योग सूत्र भाग-4ओशो
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
तुम पानी की एक बूंद के समान हो। यदि तुम पानी की एक बूंद
को जान लो तो तुमने अतीत, वर्तमान और भविष्य के सभी महासागरों को जान लिया
है। पानी की एक बूंद में ही सागर का पूरा स्वभाव उपस्थित है।
भूमिका
योग : एक विज्ञान
पतंजलि और ओशो, जीवन के बाबत या ईश्वर के
बाबत कोई
सिद्धांत की चर्चा नहीं करते। उस अर्थ में योग कोई धर्म नहीं है और पतंजलि
तथा ओशो कोई ‘धार्मिक’ व्यक्ति नहीं हैं।
उन दोनों ने कुछ जाना है–वे दोनों कुछ हो गए हैं–और वे केवल दूसरों की मदद करते हैं कि वे भी उसे जान लें। वे नहीं चाहते कि आप कोई बात मान लें; वे ऐसी विधियां देते हैं ताकि आप स्वयं देख सकें।
पतंजलि के योग के संबंध में ओशो कहते हैं :
‘योग एक संपूर्ण विज्ञान है। यह विश्वास करना नहीं सिखाता; यह जानना सिखाता है। यह तुमसे नहीं कहता कि अंधे अनुयायी हो जाओ; यह कहता है कि अपनी आंखें खोलो। यह सत्य के संबंध में कुछ भी नहीं कहता, यह सिर्फ तुम्हारी दृष्टि की चर्चा करता है : दृष्टि कैसे मिले, देखने की क्षमता कैसे मिले, आंखें कैसे उपलब्ध हों, ताकि जो है वह तुम्हारे सामने उद्घाटित हो जाए...
‘और इस बात की कल्पना करना भी कठिन लगता है कि एक व्यक्ति ने अकेले पूरा विज्ञान निर्मित किया ! कुछ भी छूटा नहीं है। लेकिन विज्ञान प्रतीक्षा में है कि मनुष्यता थोड़ा करीब आए ताकि विज्ञान को ठीक से समझा जा सके।’
पतंजलि और ओशो उन लोगों के लिए हैं जो सत्य की खोज में हैं, और जो समझते हैं कि वे अंधेरे में टटोल रहे हैं, और जो समझते हैं कि बुद्धपुरुष का प्रकाश–ऐसे व्यक्ति का प्रकाश जो स्वयं जानता है और जो जानने में तुम्हारी मदद कर सकता है–मार्ग में बहुत सहयोगी हो सकता है। योग-सूत्र भी अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। कोई बुद्धपुरुष चाहिए जो उनके मर्म को उद्घाटित कर सके, जो उन्हें हमारी भाषा में, हमारी समझ में आ सकने वाली अभिव्यक्ति में कह सके।
ओशो ऐसे ही बुद्धपुरुष हैं।
और ओशो केवल योग तक ही सीमित नहीं हैं। योग सत्य तक पहुंचने का एक मार्ग है, और इसलिए ओशो उस पर चर्चा करते हैं, लेकिन वे उस पर ही रुक नहीं जाते। ओशो की वही सुस्पष्ट अंतर्दृष्टि आपको उनकी अन्य पुस्तकों में मिलेगी जिनमें उन्होंने तंत्र, बौद्ध धर्म, झेन, ताओ, हसीद धर्म, सूफी धर्म, जीसस और अन्य बहुत से मार्गों पर एवं उन्हें निर्मित करने वालों पर चर्चा की है। ओशो किसी परंपरा के हिस्से नहीं हैं :
‘मुझ पर कोई लेबल मत लगाओ; मुझे किसी खांचे में बिठाने की कोशिश मत करो। मन चाहेगा कि मुझे किसी खांचे में बिठा दे, ताकि तुम कह सको कि यह आदमी यह है और तुम मुझसे छुटकारा पा जाओ। इतना आसान नहीं है मामला। यह मैं तुम्हें न करने दूंगा। मैं पारे की तरह ही रहूंगा : जितना तुम मुझे पकड़ने की कोशिश करोगे, उतना ही मैं छितर-छितर जाऊंगा। या तो मैं सब हूं या मैं कोई भी नहीं हूं–इन दो में से तुम कुछ भी चुन सकते हो...’
तो ओशो कोई योगी नहीं हैं और यह पुस्तक कोई योग के संबंध में नहीं है। यह पुस्तक उस परम सत्य के संबंध में है जहां योग आपको पहुंचा सकता है, उस परम सत्य के संबंध में है जिससे ओशो एक हो गए हैं।
उन दोनों ने कुछ जाना है–वे दोनों कुछ हो गए हैं–और वे केवल दूसरों की मदद करते हैं कि वे भी उसे जान लें। वे नहीं चाहते कि आप कोई बात मान लें; वे ऐसी विधियां देते हैं ताकि आप स्वयं देख सकें।
पतंजलि के योग के संबंध में ओशो कहते हैं :
‘योग एक संपूर्ण विज्ञान है। यह विश्वास करना नहीं सिखाता; यह जानना सिखाता है। यह तुमसे नहीं कहता कि अंधे अनुयायी हो जाओ; यह कहता है कि अपनी आंखें खोलो। यह सत्य के संबंध में कुछ भी नहीं कहता, यह सिर्फ तुम्हारी दृष्टि की चर्चा करता है : दृष्टि कैसे मिले, देखने की क्षमता कैसे मिले, आंखें कैसे उपलब्ध हों, ताकि जो है वह तुम्हारे सामने उद्घाटित हो जाए...
‘और इस बात की कल्पना करना भी कठिन लगता है कि एक व्यक्ति ने अकेले पूरा विज्ञान निर्मित किया ! कुछ भी छूटा नहीं है। लेकिन विज्ञान प्रतीक्षा में है कि मनुष्यता थोड़ा करीब आए ताकि विज्ञान को ठीक से समझा जा सके।’
पतंजलि और ओशो उन लोगों के लिए हैं जो सत्य की खोज में हैं, और जो समझते हैं कि वे अंधेरे में टटोल रहे हैं, और जो समझते हैं कि बुद्धपुरुष का प्रकाश–ऐसे व्यक्ति का प्रकाश जो स्वयं जानता है और जो जानने में तुम्हारी मदद कर सकता है–मार्ग में बहुत सहयोगी हो सकता है। योग-सूत्र भी अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। कोई बुद्धपुरुष चाहिए जो उनके मर्म को उद्घाटित कर सके, जो उन्हें हमारी भाषा में, हमारी समझ में आ सकने वाली अभिव्यक्ति में कह सके।
ओशो ऐसे ही बुद्धपुरुष हैं।
और ओशो केवल योग तक ही सीमित नहीं हैं। योग सत्य तक पहुंचने का एक मार्ग है, और इसलिए ओशो उस पर चर्चा करते हैं, लेकिन वे उस पर ही रुक नहीं जाते। ओशो की वही सुस्पष्ट अंतर्दृष्टि आपको उनकी अन्य पुस्तकों में मिलेगी जिनमें उन्होंने तंत्र, बौद्ध धर्म, झेन, ताओ, हसीद धर्म, सूफी धर्म, जीसस और अन्य बहुत से मार्गों पर एवं उन्हें निर्मित करने वालों पर चर्चा की है। ओशो किसी परंपरा के हिस्से नहीं हैं :
‘मुझ पर कोई लेबल मत लगाओ; मुझे किसी खांचे में बिठाने की कोशिश मत करो। मन चाहेगा कि मुझे किसी खांचे में बिठा दे, ताकि तुम कह सको कि यह आदमी यह है और तुम मुझसे छुटकारा पा जाओ। इतना आसान नहीं है मामला। यह मैं तुम्हें न करने दूंगा। मैं पारे की तरह ही रहूंगा : जितना तुम मुझे पकड़ने की कोशिश करोगे, उतना ही मैं छितर-छितर जाऊंगा। या तो मैं सब हूं या मैं कोई भी नहीं हूं–इन दो में से तुम कुछ भी चुन सकते हो...’
तो ओशो कोई योगी नहीं हैं और यह पुस्तक कोई योग के संबंध में नहीं है। यह पुस्तक उस परम सत्य के संबंध में है जहां योग आपको पहुंचा सकता है, उस परम सत्य के संबंध में है जिससे ओशो एक हो गए हैं।
स्वामी प्रेम चिन्मय
अनुक्रम
१. | प्रश्न पूछो स्वकेंद्र के निकट का |
२. | मन चालाक है |
३. | आंतरिकता का अंतरंग |
४. | बीज हो जाओ |
५. | अस्तित्व के शून्यों का एकत्रीकरण |
६. | तुम यहां से वहां नहीं पहुंच सकते |
७. | उदासीन ब्रह्मांड में |
८. | नहीं और हां के गहनतम तल |
९. | अनूठे अस्तित्व में |
१॰. | खतरे में जीओ |
११. | मृत्यु और कर्म का रहस्य |
१२. | मैं एक पूर्ण झूठ हूं |
१३. | अंतर-ब्रह्मांड के साक्षी हो जाओ |
१४. | अहंकार अटकाने को खूंटा नहीं |
१५. | सूर्य और चंद्र का सम्मिलन |
१६. | धन्यवाद की कोई आवश्यकता नहीं |
१७. | परमात्मा की भेंट ही अंतिम भेंट |
१८. | जागरूकता की कोई विधि नहीं है |
१९. | बंधन के कारण की शिथिलता |
२॰. | जाना कहां है |
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