बहुभागीय पुस्तकें >> पतंजलि योग सूत्र भाग-3 पतंजलि योग सूत्र भाग-3ओशो
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बुलाते हैं फिर तुम्हें पतंजलि...
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अव्याख्य की व्याख्या करने में पतंजलि की कुशलता अनुपम है।
कभी भी कोई उनसे आगे निकल पाने में समर्थ नहीं हो पाया है। उन्होंने चेतना
के आंतरिक संसार का जितना ठीक संभव हो सकता है, वैसा मानचित्रण कर दिया
है; उन्होंने लगभग असंभव कार्य कर दिखाया है।
भूमिका
योग : परम रूपांतरण का विज्ञान
यदि हम अपने धर्म और अपने विश्वासों के साथ खुश हैं, चाहे
वे किसी भी तरह के हों, तो इस पुस्तक में झांकने की कोई जरूरत नहीं है और
न ही यह जानने की जरूरत है कि ओशो कौन हैं। लेकिन यदि हमारे भीतर का कोई
हिस्सा ऐसा अनुभव करता है या इस बात के प्रति सजग है कि हमारा धर्म हमारा
चुनाव नहीं है, कि हम उस ज्ञान से भरे हुए हैं जिसे हम वस्तुतः जानते
नहीं–और अगर हम इस संभावना के प्रति जागरूक हैं कि इसके विषय में
कुछ किया जा सकता है–तो शायद हम इस पुस्तक में झांकना चाहेंगे, और
जानना चाहेंगे, इस व्यक्ति के बारे में। यहां हमें मिलेगा
मार्ग–प्रत्यक्ष रूप से जानने का। और वह अनुभव हमें वैसा ही नहीं
रहने देगा जैसे कि हम पहले थे।
ओशो और पतंजलि उन लोगों के लिए नहीं हैं, जो कि रहना तो वैसे के वैसे चाहते हैं, लेकिन यूं ही चलते-फिरते कुछ और जानकारी इधर-उधर से इकट्ठी कर लेना चाहते हैं। वे परम रूपांतरण के प्रस्तोता हैं; अंततः हम बिलकुल मिट जाते हैं और कोई नया ही हमारे स्थान पर प्रकट होता है। उनका धर्म है सत्य के आविष्कार में असत्य को छोड़ने का धर्म। और हम, जैसे कि हम हैं, असत्य ही हैं। वे हमें सत्यरूप होने में, प्रामाणिक होने में हमारी मदद करते हैं। वे हमें सप्ताह में एक बार निभा देने वाला औपचारिक धर्म नहीं देते; वे हमें रूपांतरण की विधि देते हैं। हमारा दैनंदिन जीवन प्रभावति होता है उससे।
यदि हम वही होने की आवश्यकता अनुभव करते हैं जो कि हम सत्यतः हैं–यदि हम स्वयं में एक ऐसा स्थल अनुभव करते हैं जहां कि ‘जो हम वस्तुतः है वही होना’ जैसा कथन कोई अर्थ रखता है– तो हमारे लिए पतंजलि उपयोगी हो सकते हैं और हमारे लिए ओशो उपयोगी हो सकते हैं और सत्य की ओर हमारी यात्रा प्रारंभ हो सकती है।
यह पुस्तक पतंजलि के योग-सूत्रों पर है, लेकिन यह उससे बहुत ज्यादा भी है। पहली तो बात, यह कोई दूसरी पांडित्यपूर्ण टीकाओं की भांति नहीं है। ओशो हमारे युग के संबुद्ध रहस्यदर्शी हैं जिन्हें योग का परम लक्ष्य उपलब्ध हुआ है। और वे पतंजलि के अंतर्यात्रा के विज्ञान के प्रति अपने परम शून्य से प्रतिसंवेदित हो रहे हैं। यह प्रतिसंवेदन उस व्यक्ति का प्रतिसंवेदन है जो विधियों के पार चला गया है। उनकी अंतर्दृष्टि ‘समझ के पार के जगत’ की है, जो केवल अतिक्रमण से उपलब्ध होती है। तो यदि हम पतंजलि के मार्ग पर चलना चाहते हैं तो ओशो के ‘पतंजलि : योग-सूत्र’ से बेहतर कुछ भी नहीं पा सकते।
दूसरी बात, इस पुस्तक के आधे हिस्से में ओशो के उत्तर हैं जो उन्होंने पूरी दुनिया से आए संन्यासियों और साधकों के प्रश्नों के उत्तर में दिए हैं। इन प्रश्नों में पतंजलि के योग-सूत्रों से संबंधित प्रश्न भी हैं और अन्य प्रश्न भी हैं। वे साधकों के प्रश्न हैं; उनमें साधारण-असाधारण समस्याएं हैं, जिज्ञासाएं हैं; और जो सत्य की, शांति की, परमात्मा की–या जो भी हम उसे कहना चाहें–उस अज्ञात की खोज में हैं, उनके प्रश्नों के समाधान हैं। यहां हम ओशो को सदगुरु के रूप में अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए देखते हैं; यहां हम ओशो को एक-एक व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से मार्गदर्शन देते हुए देखते हैं।
हम इस पुस्तक का उपयोग पतंजलि के योग-विज्ञान की आत्यंतिक गहराई का स्पर्श करने में कर सकते हैं और हम इस पुस्तक का उपयोग पतंजलि और ओशो की गहराई का स्पर्श करने में भी कर सकते हैं। पतंजलि के विज्ञान को समझ कर हम मार्ग को समझते हैं और पतंजलि एवं ओशो को समझ कर हम मंजिल को समझते हैं।
ओशो और पतंजलि उन लोगों के लिए नहीं हैं, जो कि रहना तो वैसे के वैसे चाहते हैं, लेकिन यूं ही चलते-फिरते कुछ और जानकारी इधर-उधर से इकट्ठी कर लेना चाहते हैं। वे परम रूपांतरण के प्रस्तोता हैं; अंततः हम बिलकुल मिट जाते हैं और कोई नया ही हमारे स्थान पर प्रकट होता है। उनका धर्म है सत्य के आविष्कार में असत्य को छोड़ने का धर्म। और हम, जैसे कि हम हैं, असत्य ही हैं। वे हमें सत्यरूप होने में, प्रामाणिक होने में हमारी मदद करते हैं। वे हमें सप्ताह में एक बार निभा देने वाला औपचारिक धर्म नहीं देते; वे हमें रूपांतरण की विधि देते हैं। हमारा दैनंदिन जीवन प्रभावति होता है उससे।
यदि हम वही होने की आवश्यकता अनुभव करते हैं जो कि हम सत्यतः हैं–यदि हम स्वयं में एक ऐसा स्थल अनुभव करते हैं जहां कि ‘जो हम वस्तुतः है वही होना’ जैसा कथन कोई अर्थ रखता है– तो हमारे लिए पतंजलि उपयोगी हो सकते हैं और हमारे लिए ओशो उपयोगी हो सकते हैं और सत्य की ओर हमारी यात्रा प्रारंभ हो सकती है।
यह पुस्तक पतंजलि के योग-सूत्रों पर है, लेकिन यह उससे बहुत ज्यादा भी है। पहली तो बात, यह कोई दूसरी पांडित्यपूर्ण टीकाओं की भांति नहीं है। ओशो हमारे युग के संबुद्ध रहस्यदर्शी हैं जिन्हें योग का परम लक्ष्य उपलब्ध हुआ है। और वे पतंजलि के अंतर्यात्रा के विज्ञान के प्रति अपने परम शून्य से प्रतिसंवेदित हो रहे हैं। यह प्रतिसंवेदन उस व्यक्ति का प्रतिसंवेदन है जो विधियों के पार चला गया है। उनकी अंतर्दृष्टि ‘समझ के पार के जगत’ की है, जो केवल अतिक्रमण से उपलब्ध होती है। तो यदि हम पतंजलि के मार्ग पर चलना चाहते हैं तो ओशो के ‘पतंजलि : योग-सूत्र’ से बेहतर कुछ भी नहीं पा सकते।
दूसरी बात, इस पुस्तक के आधे हिस्से में ओशो के उत्तर हैं जो उन्होंने पूरी दुनिया से आए संन्यासियों और साधकों के प्रश्नों के उत्तर में दिए हैं। इन प्रश्नों में पतंजलि के योग-सूत्रों से संबंधित प्रश्न भी हैं और अन्य प्रश्न भी हैं। वे साधकों के प्रश्न हैं; उनमें साधारण-असाधारण समस्याएं हैं, जिज्ञासाएं हैं; और जो सत्य की, शांति की, परमात्मा की–या जो भी हम उसे कहना चाहें–उस अज्ञात की खोज में हैं, उनके प्रश्नों के समाधान हैं। यहां हम ओशो को सदगुरु के रूप में अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए देखते हैं; यहां हम ओशो को एक-एक व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से मार्गदर्शन देते हुए देखते हैं।
हम इस पुस्तक का उपयोग पतंजलि के योग-विज्ञान की आत्यंतिक गहराई का स्पर्श करने में कर सकते हैं और हम इस पुस्तक का उपयोग पतंजलि और ओशो की गहराई का स्पर्श करने में भी कर सकते हैं। पतंजलि के विज्ञान को समझ कर हम मार्ग को समझते हैं और पतंजलि एवं ओशो को समझ कर हम मंजिल को समझते हैं।
स्वामी प्रेम चिन्मय
अनुक्रम
१. | योग है परम मिलन |
२. | साधना, बुद्धत्व, और सहभागिता |
३. | ज्ञान नहीं–जागरण |
४. | पहेली : बुद्धत्व में छलांग की |
५. | योग के आठ अंग |
६. | ऊर्जा का रूपांतरण |
७. | पहले शुद्धता–फिर शक्ति |
८. | एक सार्वभौम धार्मिकता की तैयारी |
९. | योग का दूसरा चरण : अंतस शोधन |
१॰. | ध्यान का स्वाद : योग की उड़ान |
११. | योग का आधार–पंच महाव्रत |
१२. | कर्तव्य नहीं–प्रेम |
१३. | शरीर और मन की शुद्धता |
१४. | आत्म सुख से परोपकार का जन्म |
१५. | शुद्धता, शून्यता और समर्पण |
१६. | साक्षी : परम विवेक |
१७. | आसन और प्राणायाम के आत्यंतिक रहस्य |
१८. | ध्यान : अज्ञात सागर का आमंत्रण |
१९. | प्रत्याहार–स्रोत की ओर वापसी |
२॰. | जीवन : अस्तित्व की एक लीला |
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