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पतंजलि योग सूत्र भाग-2

ओशो

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :402
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7277
आईएसबीएन :81-8419-132-4

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Patanjali Yoga Sutra Bhag-2 - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पतंजलि का योग-सूत्र कोई दार्शनिक व्यवस्था नहीं है। यह अनुभवात्मक है। यह एक उपकरण है, जिससे कुछ किया जाना है। लेकिन फिर भी इसमें एक दर्शन समाहित है। यह भी तुम्हें इस बात की बौद्धिक समझ देने के लिए कि तुम कहां जा रहे हो, क्या खोज रहे हो।

भूमिका

अ-मन के संसार में निरंतर गतिमान

पंतजलि पूरब की गूढ़ रहस्यवादिता के सूर्य हैं। वे जीवन को जीने के–समग्रता में जीने के पक्षधर हैं, जीवन-विरोधी नहीं। सच्चे समग्र जीवन को जीने की कला सिखाते हैं। वस्तुतः वे आध्यात्मिक संस्कृति के प्रवक्ता हैं। आध्यात्मिक संस्कृति में मृत्यु पर जीवन समाप्त नहीं होता, बल्कि तब एक और द्वार खुलता है संभावना का। यह द्वार उनके लेखे खुलता है, जो दूसरे आयाम की तैयारी पूरी कर लेते हैं जो इस जीवन में ही इसके पार देखने की दृष्टि पा जाते हैं। बुद्ध, जीसस की भांति पतंजलि भी जीवन में जीवन के प्रति सजग विश्वास में निष्ठा जगाते हैं।

आध्यात्मिक संस्कृति में निष्ठा, विश्वास, प्रेम और चैतन्य जागरण के महासूत्र को ओशो वर्तमान युगबोध के साथ समन्वित करते हुए मानव इतिहास में घटित होने जा रहे महा आध्यात्मिक जागरण को लक्ष्य कर रहे हैं। उनके अनुसार मनुष्य सभ्यता का अगला चरण विनाश में नही आध्यात्मिक विकास में है। और यह आध्यात्मिक विकास–जागरण घटित होगा व्यक्ति की ऊर्जा के रूपांतरण द्वारा। यह ऊर्जा विभिन्न भावदशाओं में अपना स्वरूप बदलती रहती है। एक ही ऊर्जा घृणा, ईर्ष्या, प्रेम, करुणा या काम के रूप में परिवर्तित होती रहती है। अपनी वर्तमान से मुक्त व्यक्ति अपनी ऊर्जा को प्रेम में ढालने की क्षमता रखता है, या उसे करुणा में रुपांतरित कर सकता है। इन्हीं वृहत्तर आयामों में बुद्ध प्रार्थनामयी करुणा के साक्षात रूप हैं।

जीवन के लोभ में वर्तमान युग का व्यक्ति अपने को हर ओर से रक्षित-सुरक्षित कर लेने की चिंताओं में डूबा हुआ है और यह भूल गया है कि वह इन सुरक्षाओं में मृत्यु के सामान जुटा रहा है। यह कथन बाहर से असंगत लग सकता है, किंतु वस्तुतः असंगत है नहीं। ओशो कहते हैं–‘‘खतरे में जीयो : यही है संन्यास का अर्थ।’’ मृत्यु से भय खाना, जीवन से इस कदर चिपकना कि आंतरिक जीवन की घड़कनें रुक जायें, संवेदनाएं चुक जायें–असली मृत्यु है। अन्यथा शारीरिक मृत्यु के भय से पार होना, दूसरे जीवन का–आध्यात्मिक जीवन का आरंभ है। कबीर इसे ‘‘सीस उतारे भुईं धरै, तब पैठे घर मांहि’’ कहते हैं। जीसस इसे पुनर्जन्म मानते हैं। ओशो कहते हैं, ‘‘खतरा जीवन के विरुद्ध नहीं। खतरा तो असली भोजन है, असली रक्त, सही आक्सीजन जीवन के बने रहने के लिए।’’ जीवन के प्रति इस बोध को प्राप्त करने वाले व्यक्ति को पतंजलि ‘विवेकशील व्यक्ति’ मानते हैं।

आध्यात्मिक आयाम में जाने के लिए एक और बड़ी बाधा पार करनी पड़ती है–वह है ‘स्मृति घाव’ से मुक्त होना। इसके लिए पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने कई पद्धतियां ढूंढ़ निकाली हैं तो पूरब में महावीर, पतंजलि ने भी निदान सुझाये हैं। ओशो पतंजलि की पद्धति को ‘प्रति-प्रसव विधि’ कहते हैं और इसे ही श्रेष्ठ मानते हैं। ‘‘उस घटना तक की स्मृति तक लौटो, उसके दंश को पुनः सहो।’’ इस प्रक्रिया से स्मृति में बैठे घाव से मुक्त हुआ जा सकता है।
मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में भौतिक मनोविज्ञान और आध्यात्मिक मनोविज्ञान की दो कोटियां सामने हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान रोग-निदान के फलस्वरूप हुई खोजों के कारण अस्तित्व में आया जबकि पूरब में स्वस्थ मन के विकास-क्रम में विकसित हुआ। पश्चिम में फ्रायड, जुंग, एडलर आदि ने कार्य किया तो पूरब में बुद्ध, महावीर पतंजलि ने।

इन दो धाराओं के अतिरिक्त आज एक तीसरे प्रकार की संभावनाओं को लेकर चलने वाली धारा में पश्चिम में अब्राहीम, एरिकफ्राम, जैनोव आदि ने कार्य को आगे बढ़ाया है। पूरब में बुद्ध, पतंजलि के कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं ओशो। उनके सामने, वर्तमान समय-परिस्थिति को देखते, अत्यंत कठिन कार्य है, ‘‘मैं फिर से कोशिश कर रहा हूं तीसरे आयाम पर कार्य करने की, और मैंने वह जोखिम नहीं उठाया है जो गुरजिएफ ने उठाया। मैं किसी पर निर्भर नहीं; मैं गुरजिएफ और ऑसपेंस्की का जोड़ हूं। दो विभिन्न आयामों में जीना एक कठिन कार्य है, बहुत ही कठिन है यह।... मैं निरंतर गतिमान हो रहा हूं अ-मन के संसार में, और शब्दों के और किताबों के और विश्लेषण के संसार में।’’

पतंजलि के योग-सूत्र के विश्लेषण क्रम में अपने समय तक की योग-परंपरा को आगे बढ़ाते हैं ओशो। वे एक ऐसा प्रकाश-स्तंभ खड़ा करते हैं, जो बड़े-बड़े नाविकों को अंधेरे-अथाह सागरों में दिशा-बोध कराता है। यह दिशा-बोध निश्चय ही आध्यात्मिक आयामों की ओर ले जाता हुआ वर्तमान विश्व के लिए और भी अनिवार्य, और भी प्रासंगिक हो चुका है।
पतंजलि का योग-सूत्र रहस्य का तर्कशास्त्र है। भावना का भी अपना तर्क होता है। इन अर्थों में आध्यात्मिक रहस्यों को तर्कों के सहारे विश्लेषित करते हुए ओशो भाव की ही स्थापना करते हैं।

मनुष्यता का मूल, भाव में निहित है। सूक्ष्म ऐंद्रिक अनुभूतियों के स्तर पर मनुष्य प्रकृति से नाभि-नालबद्ध है। अतः गहरे अहसासों, संवेदनाओं में मनुष्य और प्रकृति की साझा एक ही संस्कृति है। पर्वतों, वृक्षों, नदियों, झरनों, पक्षियों और फूलों की अंतर्लयों को पारदर्शी बना, मानवीय लय में उनकी अंतःसंबद्घता वे दिखाते हैं। फिर इन सब की अन्विति में विराट एक लय को उजागर करने वाली चैतन्य दृष्टि आद्यंत प्रवाहित रही है यहां।
भौतिक आविष्कार और वैज्ञानिकता जैसे सूक्ष्म में सूक्ष्मतर की ओर बढ़ रही है, ऐसे ही आध्यात्मिक मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मतर उच्च आयामों की गवेषणा कर सृष्टि के शाश्वत सत्यों की उपलब्धि कराने वाले युग-पुरुषों की भी अटूट परंपरा है। इस परंपरा में अधुनातन, सशक्त कड़ी हैं ओशो।

वस्तुतः पतंजलि के योग-सूत्र के माध्यम से ओशो ने अपनी स्थापनाओं को आवृत्त नहीं रहने दिया। उन्होंने योग को संपूर्णता में लिया है उनकी कसौटी ‘संबुद्धि’ है; मात्र ‘बुद्धि’ नहीं। ‘सम’ उपसर्ग भारतीय दर्शन को विश्व के सभी दार्शनिक निकायों में भिन्न और पृथक पहचान देता है, जो ‘स्व’ और ‘पर’ की सापेक्षता में ही नहीं, देश, काल और स्थिति से जोड़ देता है और अनुभूति से भी समन्वित करता है। अतः ओशो द्वारा प्रयुक्त ‘संबोधि’, ‘संवेदना’, ‘संभावना’ आदि शब्द पारिभाषिक तो हैं ही, अपने विशिष्ट अर्थों को भी समाहित किये हुए हैं।

फूल के साथ खिलने और सूर्य के साथ उदय होने की सहज आत्मीय अनुभूति को उपलब्ध कर चुके हमारे युग के ऐसे योगी हैं ओशो जो योग को उस की सूक्ष्मतम दिशाओं तक व्याख्यायित कर नये आयामों की संभावनाएं जगा रहे हैं। पतंजलि के योग-सूत्र की उनकी व्याख्या अद्वितीय रूप में सरल, रोचक, बोधगम्य, मन को बांधने वाली ऐसी भाषा में है जो अपनी सहजता में उंगली पकड़ साथ ले चलती है; अपनी आत्मीयता में भिगोती और अपनी तेजस्विता में गूढ़ रहस्य के अंधेरों को छांटती चलती है।

आज ओशो हमारे मध्य अपने शरीरिक वजूद में न होते हुए भी विद्यमान हैं। उन की यश-काया की छाया युगों तक छायी रहेगी। ऐसे विरल व्यक्ति के अस्तित्व को महसूस करने की विधि, कुछ-कुछ, कविता में ही संभव हो सकती है : यहीं से कुछ अनुभव किया, देखा जा सकता है–

देख रहे हो इस पहाड़ को !
इसकी परत-परत को उघाड़ कर
इसके रेशे-रेशे को बीन कर
देखो !
इसके आकार को
आंखों की परिधि में ला कर
समूचे पहाड़ को देखो !
भावना में घुला कर
अपने को पहाड़ की धड़कनों में मिला कर
देखो !
इसकी सदियों लंबी नींद में
झांक कर देखो नयी जागृति को
काल और इतिहास से बाहर
जी रहे इस पहाड़ के सौंदर्य को
इसके अदेखे, अलेखे जीवन के इतिहास में
कई-कई इतिहास नींद ले रहे हैं
कई-कई काल-क्रम
बिखरे पड़े हैं...
इस–
पहाड़ का इतिहास
पहाड़ों का इतिहास है !
यह व्यक्ति या अभिव्यक्ति का इतिहास नहीं
इसने वे सिद्धांत नहीं ओढ़े
इसने मृत भूगोल नहीं गोड़े
कि किन्हीं नियमों में इसकी परतें जमी हों
कि इस के जीवन की सांसें
काल में थमी हों
लगातार जोखिमों, भयों
और खतरों में उठ रहा है
यह एक बाहरी अव्यवस्था में
निजी-आंतरिक व्यवस्था गढ़ रहा है।
मात्र बाहर से नहीं
पहले, और सबसे पहले अपने भीतर
अपने इरादों में बढ़ रहा है
अपने को समूचा, हर ओर से
एक पहाड़ के रूप में गढ़ रहा है
जीवन की पहाड़ी परिभाषा को
मुखर कर रहा
और सबके लिए
ऋतुओं, कालों, भूगोलों, इतिहासों के मध्य खड़ा
तमाम अव्यवस्थाओं में
व्यवस्था की ऋचा पढ़ रहा है
सबको, सबकी निजता में एक साथ
बांध रहा
और यों
मुक्त कर रहा है...

क्योंकि ओशो सबसे पहले और बाद में महा आशयों, भावों और लयों के कवि हैं; अतः उन्होंने योग को भी युग सापेक्ष नयी अर्थ-पत्तियों से भरा है। ‘योग’ का अर्थ व्यक्ति के भीतर की थाह लेने की ओर बढ़ना है, तो भीतर के चैतन्य को वैश्विक चैतन्य से एकात्म करने की सहजता को पाना भी है।

बलदेव वंशी

अनुक्रम


१. निद्राकालीन जागरुकता
२. जागरुकता की कीमिया
३. सवितर्क समाधि : परिधि और केंद्र के बीच
४. प्रयास, अप्रयास और ध्यान
५. सूक्ष्मतर समाधियां : निर्वितर्क, सविचार, निर्विचार
६. योग : छलांग के लिए तैयारी
७. निर्विचार समाधि और ऋतम्भरा प्रज्ञा
८. शिष्य का पकना : गुरु का मिलना
९. निर्विचार समाधि से अंतिम छलांग...
१॰. जीवन को बनाओ एक उत्सव
११. सहजता–स्वाध्याय–विसर्जन
१२. संवेदनशीलता, उत्सव और स्वीकार
१३. दुख का मूल : होश का अभाव और तादात्मय
१४. मन का मिटना और स्वभाव की पहचान
१५. प्रतिप्रसव : पुरातन प्राइमल थैरेपी
१६. पश्चिम को जरूरत है बुद्धों की
१७. जागरण की अग्नि से अतीत भस्मसात
१८. बुद्धों के मनोविज्ञान का निर्माण
१९. दुख मुक्ति–द्रष्टा दृश्य वियोग से
२॰. उत्सव की कीमिया : विरोधाभासों का संगीत


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