बहुभागीय पुस्तकें >> ताओ उपनिषद भाग-3 ताओ उपनिषद भाग-3ओशो
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ओशो द्वारा लाओत्से के ‘ताओ तेह किंग’ पर दिए गए 127 प्रवचनों में से 21 (चवालिस से चौंसठ) अद्भुत प्रवचनों का अपूर्व संकलन...
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पृथ्वी पर जितने जानने वाले लोग हुए हैं, उन सब में लाओत्से बहुत अद्वितीय
है।
चीन की रहस्यमयी ताओ परंपरा के उद्गाता लाओत्से के वचनों पर ओशो के इन प्रस्तुत प्रवचनों के मुख्य विषय-बिंदु :
*झुकने, खाली होने व मिटने की कला।
*अस्तित्व के बेबूझ व अनकहे रहस्य।
*संस्कृति से गुजर कर निसर्ग में वापसी।
*युद्ध अनिवार्य हो तो क्या करें ?
हम देख कर भी अनदेखा छोड़ सकते हैं। हम सुन कर भी अनसुनी हालत में रह सकते हैं। क्योंकि सुनना अगर सिर्फ कान का ही काम होता तो बड़ा आसान हो जाता। कान के साथ भीतर प्राणों का तादात्मय भी चाहिए। अन्यथा कान सुन लेंगे यंत्रवत और प्राणों का कोई तालमेल भीतर न हो तो बात कहीं भी उतरेगी नहीं। आंख अगर देख लेती तो काफी था। हम परमात्मा को कभी का देख लेते, अगर आंख अकेली देखने में समर्थ होती। आंख के साथ प्राणों का तालमेल चाहिए।
संतो ने मौन से बहुत कुछ कहा है। लेकिन सभी से मौन से नहीं कहा जा सकता; उनसे ही कहा जा सकता है जो अपनी समस्त इंद्रियों के पीछे अपने प्राणों को एकजुट करने को तैयार हों। शिष्य का इतना ही अर्थ है। कि जो अपनी इंद्रियों के पीछे अपने प्राणों को जोड़ कर सीखने को तैयार है।
चीन की रहस्यमयी ताओ परंपरा के उद्गाता लाओत्से के वचनों पर ओशो के इन प्रस्तुत प्रवचनों के मुख्य विषय-बिंदु :
*झुकने, खाली होने व मिटने की कला।
*अस्तित्व के बेबूझ व अनकहे रहस्य।
*संस्कृति से गुजर कर निसर्ग में वापसी।
*युद्ध अनिवार्य हो तो क्या करें ?
हम देख कर भी अनदेखा छोड़ सकते हैं। हम सुन कर भी अनसुनी हालत में रह सकते हैं। क्योंकि सुनना अगर सिर्फ कान का ही काम होता तो बड़ा आसान हो जाता। कान के साथ भीतर प्राणों का तादात्मय भी चाहिए। अन्यथा कान सुन लेंगे यंत्रवत और प्राणों का कोई तालमेल भीतर न हो तो बात कहीं भी उतरेगी नहीं। आंख अगर देख लेती तो काफी था। हम परमात्मा को कभी का देख लेते, अगर आंख अकेली देखने में समर्थ होती। आंख के साथ प्राणों का तालमेल चाहिए।
संतो ने मौन से बहुत कुछ कहा है। लेकिन सभी से मौन से नहीं कहा जा सकता; उनसे ही कहा जा सकता है जो अपनी समस्त इंद्रियों के पीछे अपने प्राणों को एकजुट करने को तैयार हों। शिष्य का इतना ही अर्थ है। कि जो अपनी इंद्रियों के पीछे अपने प्राणों को जोड़ कर सीखने को तैयार है।
भूमिका
लाओत्से का जन्म आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व हुआ, लेकिन वे एक ऐसे विलक्षण
प्रज्ञापुरुष हैं कि आज उन्हें पढ़कर ऐसा लगता है कि कभी भविष्य में
उन्हें समझा जा सकेगा। इन पच्चीस सौ वर्षों में उनकी अंतर्दृष्टि उपलब्ध
थी, फिर भी उसे आज तक समझा नहीं गया, उसका उपयोग करना तो बाद की बात है।
हां, आज बहुत छोटे स्तर पर विश्व में उनके सूत्रों की चर्चा होती है,
लेकिन वह कभी मेन स्ट्रीम नहीं बन पाती, वह मुख्य धारा से बहुत दूर है।
आने वाले भविष्य में लाओत्से बहुत जगमगाएंगे। इसके दो कारण हैं। एक कारण यह है, जो कि प्रमुख कारण है, कि आने वाले भविष्य में ओशो को सर्वाधिक पढ़ा-सुना जाएगा–भारत ही नहीं, समूचे विश्व में। निश्चित ही लाओत्से भी सदियों के कुहरे से बाहर आएंगे, क्योंकि ओशो के साहित्य में ताओ का स्थान बहुत अद्वितीय है।
दूसरा कारण है स्वयं लाओत्से का नैसर्गिक जीवन-दर्शन। आज वैज्ञानिक प्रगति के प्रवाह में जीवन बहुत प्लास्टिक और जटिल हो गया है–आधुनिक मनुष्य प्रकृति से इतना दूर चला गया है कि उसे शुद्घ प्राणवायु मिलनी मुश्किल हो गयी है, और अगर उपलब्ध है भी तो उसे सांस तक लेने का समय नहीं है। मनुष्य अपने मस्तिष्क में इतना अटका है कि अपनी जड़ों से कटता जा रहा है। यह स्थिति निश्चित ही जीवन के अनुकूल नहीं है और न रसपूर्ण है। आदमी का सारा कार्य टेक्नालाजी कर रही है। और आदमी बुरी तरह उस पर आश्रित हो गया है। प्रकृति के प्रतिकूल जीते-जीते आदमी के जीवन में ऐसी अति विकसित बीमारियां आ गयी हैं जिनका कभी पहले नाम भी नहीं सुना गया था। इन बीमारियों की वजह है आदमी का असंतुलित जीवन, उसका स्वयं में स्थित न होना।
लाओत्से का जीवन-दर्शन मनुष्य को पुनः स्वस्थ करता है, पुनः उसको प्रकृति से जोड़ता है। जैसे पानी से बाहर आकर मछली पानी के महत्व को समझती है, ऐसे ही आज का मनुष्य जो प्रकृति से कट गया है, उसके महत्व को आनेवाले समय में निश्चित ही तीव्रता से महसूस करेगा, वह पुनः प्रकृति की रसधारा से जुड़ेगा, अन्यथा आत्मविनाश सुनिश्चित है।
लाओत्से के जीवन-दर्शन में प्रकृति ही परमात्मा है। इस संबंध में ओशो कहते हैं :
‘प्रकृति शब्द बहुत कीमती है। प्रकृति का मतलब होता है : बनने के भी पूर्व जो था। दैट व्हिच वाज़ बिफोर क्रिएशन। प्र और कृति यानी निर्माण के पहले जो था, सब होने के पहले जो था, सब बना उसके पहले जो था। सबके होने के मूल में जो आधार है, वह प्रकृति है। रूप जब मिट जाते है, तब जिसमें गिरते हैं और रूप जब उठते हैं, तब जिसमें उठते हैं, वह है प्रकृति। प्रकृति का अर्थ है वह तत्व जो रूप लने के पहले था।
‘लाओत्से कहता है : वही मां है, वही मूल स्रोत है; मैं उसी से जीता हूं। मेरा अपना कोई लक्ष्य नहीं है। उस प्रकृति का कोई लक्ष्य मुझसे हो तो पूरा हो जाए, न हो तो कोई एतराज नहीं है।’
लाओत्से की अंतर्दृष्टि के अनुसार प्राकृतिक होना यानी अपनी जड़ों से संयुक्त होना है। ओशो इस अंतर्दृष्टि को समझाते हुए कहते हैं कि ‘लाओत्से कहता है : खोपड़ी की फिक्र छोड़ो, नाभि की फिक्र करो। नाभि मजबूत हो, जड़ें गहरी हों प्रकृति में, तो तुम कहीं पहुचे या न पहुंचे, इससे फर्क नहीं पड़ता। पहुंचे तो, न पहुंचे तो, हर हालत में आनंद है। और अगर तुम मस्तिष्क से जीए, पहुंचे तो, न पहुंचे तो, हर हालत में दुख है। इसलिए वह कहता है, एक अकेला मैं भिन्न हूं अन्यों से, क्योंकि देता हूं मूल्य उस पोषण को जो मिलता है सीधा माता प्रकृति से।’
ताओ उपनिषद अपने ही निकट होने का, अपनी ही प्रकृति में लौटने का, स्वस्थ होने का, सहज होने का निमंत्रण है। और प्रज्ञापुरुष ओशो के शब्दों में यह निमंत्रण और भी मधुर और रसपूर्ण हो गया है। ताओ के मधुर फलों का रसास्वादन करें और स्वस्थ हों।
आने वाले भविष्य में लाओत्से बहुत जगमगाएंगे। इसके दो कारण हैं। एक कारण यह है, जो कि प्रमुख कारण है, कि आने वाले भविष्य में ओशो को सर्वाधिक पढ़ा-सुना जाएगा–भारत ही नहीं, समूचे विश्व में। निश्चित ही लाओत्से भी सदियों के कुहरे से बाहर आएंगे, क्योंकि ओशो के साहित्य में ताओ का स्थान बहुत अद्वितीय है।
दूसरा कारण है स्वयं लाओत्से का नैसर्गिक जीवन-दर्शन। आज वैज्ञानिक प्रगति के प्रवाह में जीवन बहुत प्लास्टिक और जटिल हो गया है–आधुनिक मनुष्य प्रकृति से इतना दूर चला गया है कि उसे शुद्घ प्राणवायु मिलनी मुश्किल हो गयी है, और अगर उपलब्ध है भी तो उसे सांस तक लेने का समय नहीं है। मनुष्य अपने मस्तिष्क में इतना अटका है कि अपनी जड़ों से कटता जा रहा है। यह स्थिति निश्चित ही जीवन के अनुकूल नहीं है और न रसपूर्ण है। आदमी का सारा कार्य टेक्नालाजी कर रही है। और आदमी बुरी तरह उस पर आश्रित हो गया है। प्रकृति के प्रतिकूल जीते-जीते आदमी के जीवन में ऐसी अति विकसित बीमारियां आ गयी हैं जिनका कभी पहले नाम भी नहीं सुना गया था। इन बीमारियों की वजह है आदमी का असंतुलित जीवन, उसका स्वयं में स्थित न होना।
लाओत्से का जीवन-दर्शन मनुष्य को पुनः स्वस्थ करता है, पुनः उसको प्रकृति से जोड़ता है। जैसे पानी से बाहर आकर मछली पानी के महत्व को समझती है, ऐसे ही आज का मनुष्य जो प्रकृति से कट गया है, उसके महत्व को आनेवाले समय में निश्चित ही तीव्रता से महसूस करेगा, वह पुनः प्रकृति की रसधारा से जुड़ेगा, अन्यथा आत्मविनाश सुनिश्चित है।
लाओत्से के जीवन-दर्शन में प्रकृति ही परमात्मा है। इस संबंध में ओशो कहते हैं :
‘प्रकृति शब्द बहुत कीमती है। प्रकृति का मतलब होता है : बनने के भी पूर्व जो था। दैट व्हिच वाज़ बिफोर क्रिएशन। प्र और कृति यानी निर्माण के पहले जो था, सब होने के पहले जो था, सब बना उसके पहले जो था। सबके होने के मूल में जो आधार है, वह प्रकृति है। रूप जब मिट जाते है, तब जिसमें गिरते हैं और रूप जब उठते हैं, तब जिसमें उठते हैं, वह है प्रकृति। प्रकृति का अर्थ है वह तत्व जो रूप लने के पहले था।
‘लाओत्से कहता है : वही मां है, वही मूल स्रोत है; मैं उसी से जीता हूं। मेरा अपना कोई लक्ष्य नहीं है। उस प्रकृति का कोई लक्ष्य मुझसे हो तो पूरा हो जाए, न हो तो कोई एतराज नहीं है।’
लाओत्से की अंतर्दृष्टि के अनुसार प्राकृतिक होना यानी अपनी जड़ों से संयुक्त होना है। ओशो इस अंतर्दृष्टि को समझाते हुए कहते हैं कि ‘लाओत्से कहता है : खोपड़ी की फिक्र छोड़ो, नाभि की फिक्र करो। नाभि मजबूत हो, जड़ें गहरी हों प्रकृति में, तो तुम कहीं पहुचे या न पहुंचे, इससे फर्क नहीं पड़ता। पहुंचे तो, न पहुंचे तो, हर हालत में आनंद है। और अगर तुम मस्तिष्क से जीए, पहुंचे तो, न पहुंचे तो, हर हालत में दुख है। इसलिए वह कहता है, एक अकेला मैं भिन्न हूं अन्यों से, क्योंकि देता हूं मूल्य उस पोषण को जो मिलता है सीधा माता प्रकृति से।’
ताओ उपनिषद अपने ही निकट होने का, अपनी ही प्रकृति में लौटने का, स्वस्थ होने का, सहज होने का निमंत्रण है। और प्रज्ञापुरुष ओशो के शब्दों में यह निमंत्रण और भी मधुर और रसपूर्ण हो गया है। ताओ के मधुर फलों का रसास्वादन करें और स्वस्थ हों।
स्वामी चैतन्य कीर्ति
अनुक्रम
४४ | धार्मिक व्यक्ति अजनबी व्यक्ति है | १ |
४५ | संत की वक्रोक्तियां : संत की विलक्षणताएं | २३ |
४६ | क्षुद्र आचरण नीति है, परम आचरण धर्म | ४१ |
४७. | ताओ है झुकने, खाली होने व मिटने की कला | ६१ |
४८. | समर्पण है सार ताओ का | ८१ |
४९. | ताओ है परम स्वतंत्रता | १॰१ |
५॰. | न नया, न पुराना; सत्य सनातन है | ११७ |
५१. | सदगुण के तलछट और फोड़े | १३५ |
५२. | वर्तुलाकार अस्तित्व में यात्रा प्रतियात्रा भी है | १५५ |
५३. | स्वभाव की उपलब्धि अयात्रा में है | १७५ |
५४. | अद्वैत की अनूठी दृष्टि लाओत्से की | १९३ |
५५. | प्रकाश का चुराना ज्ञानोपलब्धि है | २११ |
५६. | शिष्य होना बड़ी बात है | २३१ |
५७. | श्रद्धा, संस्कार, पुनर्जन्म, कीर्तन व भगवत्ता | २५१ |
५८. | सनातन शक्ति, जो कभी भूल नहीं करती | २७३ |
५९. | संस्कृति से गुजर कर निसर्ग में वापसी | २९१ |
६॰. | प्रकृति व स्वभाव के साथ अहस्तक्षेप | ३॰७ |
६१. | खेदपूर्ण आवश्यकता से अधिक हिंसा का निषेध | ३३१ |
६२. | युद्ध अनिवार्य हो तो शांत प्रतिरोध ही नीति है | ३५१ |
६३. | विजयोत्सव ऐसे मना जैसे कि वह अंत्येष्टि हो | ३७३ |
६४. | मार्ग है बोधपूर्वक निसर्ग के अनुकूल जीना | ३९३ |
धार्मिक व्यक्ति अजनबी व्यक्ति है
गुरजिएफ ने मनुष्य को दो विभागों में बांटा है। एक, जिसे वह कहता है
व्यक्तित्व, पर्सनैलिटी; और दूसरा जिसे वह कहता है आत्मा, एसेंस।
व्यक्तित्व वह हिस्सा है, जो हम सीखते हैं। और आत्मा वह हिस्सा है, जो
अनसीखा हमारे साथ है। एक तो हमारे जीवन का वह पहलू है, जो हमने दूसरों से
सीखा है। और एक हमारे जीवन की वह गहराई है, जो हम लेकर पैदा हुए हैं। एक
तो मैं हूं, अंतरतम में छिपा हुआ। और एक मेरी बाहरी परिधि है, मेरे वस्त्र
हैं, जो मैंने दूसरों से उधार लिए हैं। व्यक्तित्व उधार घटना है, बारोड;
आत्मा अपनी है।
लाओत्से का यह सूत्र आत्मा और व्यक्तित्व के संबंध में है।
लाओत्से कहता है पांडित्य छोड़ो तो मुसीबतें समाप्त हो जाती हैं। बैनिश लर्निंग, वह जो सीखा है, उसे छोड़ो; वह जो अनसीखा है, उसे पा लो।
बड़ी कठिनाई होगी लेकिन। क्योंकि हम अगर अपने संबंध में विचार करने जाएं तो पाएंगे कि सभी कुछ सीखा हुआ है। आप जो भी अपने संबंध में जानते हैं, वह सभी कुछ सीखा हुआ है। किसी ने आपको बताया है, वही आपका ज्ञान है। और जो दूसरे ने बताया है, जो दूसरे ने सिखाया है, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता।
स्वयं को जानने के लिए किसी दूसरे की किसी भी शिक्षा की जरूरत नहीं है। हां, स्वयं को ढांकना हो, छिपाना हो, तो दूसरे की शिक्षा जरूरी और अनिवार्य है। स्वयं का होना तो एक आंतरिक, आत्मिक नग्नता है, दिगंबरत्व है। वस्त्र तो उसे छिपाने के काम आते हैं। हमारी सारी जानकारी ज्ञान को छिपाने के काम आती है। लेकिन जो जानकारी को ही ज्ञान मान लेते हैं, वे फिर सदा के लिए ज्ञान से वंचित हो जाते हैं।
एक बच्चा पैदा होता है; जो भी एसेंस है, जो सार है, जो आत्मा है, लेकर पैदा होता है; लेकिन एक कोरी किताब की तरह। फिर हम उस पर लिखना शुरू करते हैं–शिक्षा, समाज, संस्कृति, सभ्यता। फिर हम उस पर लिखना शुरू करते हैं। थोड़े ही दिनों में कोरी किताब अक्षरों से भर जाएगी। स्याही के काले धब्बे पूरी किताब को घेर लेंगे। और क्या कभी आपने खयाल किया है कि जब आप किताब पढ़ते हैं, तो आपको सिर्फ स्याही के काले अक्षर ही दिखाई पड़ते हैं, पीछे का वह जो सफेद कागज है, कोरा, वह दिखाई नहीं पड़ता ?
एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक इस पर काम कर रहा था, डाक्टर पल्स इस संबंध में काम कर रहा था। उसने अपने विद्यार्थियों की कक्षा के सामने एक दिन आकर ब्लैक बोर्ड पर एक बड़ा सफेद कागज टांगा, ब्लैक बोर्ड के बराबर। फिर उस बड़े सफेद कागज पर एक छोटा सा स्याही का काला गोल बनाया, एक बिंदु बनाया, अति छोटा। गौर से देखें तो ही दिखाई पड़े। और फिर उसने अपने विद्यार्थियों से पूछा कि तुम्हें क्या दिखाई पड़ता है ?
तो उन्होंने कहा, एक काला गोल बिंदु दिखाई पड़ता है। उस पूरी कक्षा में एक भी विद्यार्थी ने न कहा कि बोर्ड पर टंगा हुआ सफेद कागज का टुकड़ा भी दिखाई पड़ता है।
बहुत बड़ा था सफेद कागज का टुकड़ा, पर वह किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा है। दिखाई पड़ रहा है एक काला बिंदु। उसका कारण है। कोरापन हमें दिखाई ही नहीं पड़ता; कोई दाग हो तो दिखाई पड़ता है। जितना स्वच्छ और कोरपन हो, उतना ही अदृश्य हो जाता है। शायद परमात्मा इसीलिए दिखाई हमें नहीं पड़ता। वह जगत का कोरापन है, इनोसेंस है। वह जगत की निर्दोषिता है। लेकिन दाग हमें दिखाई पड़ते हैं। दाग देखने से हमारी कुशलता का कोई अंत नहीं है।
एक बच्चा तो कोरा पैदा होता है। फिर हम उस पर लिखना शुरू करते हैं। जरूरी है कि हम उस पर कुछ लिखें। जीवन के संघर्ष के लिए उपयोगी है। शायद कोरे कागज की तरह तो वह जी भी न पाएगा। कोरे कागज की तरह शायद वह एक क्षण भी इस जीवन के संघर्ष में सफल न हो पाएगा। लिखना जरूरी है। कहें कि एक जरूरी बुराई है, नेसेसरी ईविल है। फिर हम लिखते जाएंगे। उसका नाम देंगे, उसका रूप देंगे।
आप कहेंगे कि नाम तो ठीक है, रूप तो हर आदमी लेकर पैदा होता है।
वह भी खयाल गलत है। नाम भी हम देते हैं, रूप भी हम देते हैं। क्यों ? क्योंकि जो शक्ल एक मुल्क में सुंदर समझी जाती है, दूसरे मुल्क में असुंदर समझी जाती है। एक ढंग का चेहरा चीन में सुंदर समझा जाता है, ठीक वैसे ही ढंग का चेहरा भारत में सुंदर नहीं समझा जाएगा। चपटी नाक चीन में असुंदर नहीं है, सारी दुनिया में असुंदर हो जाएगी। बड़े और लटके हुए ओंठ नीग्रो के लिए असुंदर नहीं हैं, सारी दुनिया में असुंदर जाएंगे। नीग्रो लड़कियां अपने ओंठ को बड़ा करने का सब कुछ उपाय करेंगी। पत्थर बांध कर लटकाएंगी, ताकि ओंठ चौड़ा हो जाए, बड़ा हो जाए। हमारे मुल्क में या जहां भी आर्यों का प्रभाव है, पश्चिम में, पतला ओंठ।
कहना मुश्किल है कि कौन सुंदर है। दोनों के पक्ष और विपक्ष में बातें कही जा सकती हैं। क्योंकि नीग्रो कहते हैं कि ओंठ जितना चौड़ा हो, चुंबन उतना ही विस्तीर्ण हो जाता है । हो ही जाएगा। लेकिन पतले ओंठ को मानने वाले लोग कहते हैं कि ओंठ जितना चौ़डा हो, चुंबन तो विस्तीर्ण हो जाता है, लेकिन फीका हो जाता है। क्योंकि जब भी कोई चीज बहुत जगह फैल जाती है, तो उसका प्रभाव फीका हो जाता है, इंटेंसिटी कम हो जाती है। लेकिन क्या सुन्दर है, पतला ओंठ या मोटा ओंठ ? समाज सिखाएगा कि क्या सुंदर है।
रूप भी हम देते हैं। नाम भी हम देते हैं, रूप भी हम देते हैं, विचार भी हम देते हैं। फिर व्यक्तित्व की पर्त बननी शुरु हो जाती है। आखिर में जब आप अपने को पाते हैं, तो आपको खयाल भी नहीं होता कि एक कोरापन लेकर आप पैदा हुए थे, जो पीछे छिप गया है–बहुत सी पर्तों में। वस्त्र इतने हो गए हैं कि आपको अब अपने को खोजना कठिन है। और आप भी इन वस्त्रों के जोड़ को ही अपनी आत्मा समझ कर जी लेते हैं। यही अधार्मिक आदमी का लक्षण है। जो वस्त्रों को ही समझ लेता है कि मैं हूं, वही आदमी अर्धामिक है। जो वस्त्रों के भीतर उसको खोजता है, जो समस्त सिखावन के पहले मौजूद था, और जो समस्त वस्त्रों को छीन लिया जाए तो भी मौजूद रहेगा, उस स्वभाव को, वही व्यक्ति धार्मिक है।
लाओत्से कहता है, छोड़ो सिखावन। जो-जो सीखा है, छोड़ दो, तो तुम स्वयं को जान सकोगे। खोना हो, तो दूसरे से सीखना अनिवार्य है। स्वयं को जानना हो तो दूसरों की समस्त शिक्षाओं को छोड़ देना जरूरी है। जगत में कुछ भी जानना हो अपने को छोड़ कर तो शिक्षा जरूरी है। और जगत में स्वयं को जानना हो तो समस्त शिक्षा का त्याग जरूरी है। क्योंकि जगत में कुछ और जानना हो तो बाहर जाना पड़ता है और स्वयं को जानना हो तो भीतर आना पड़ता है। यात्राएं उलटी हैं।
लाओत्से का यह सूत्र आत्मा और व्यक्तित्व के संबंध में है।
लाओत्से कहता है पांडित्य छोड़ो तो मुसीबतें समाप्त हो जाती हैं। बैनिश लर्निंग, वह जो सीखा है, उसे छोड़ो; वह जो अनसीखा है, उसे पा लो।
बड़ी कठिनाई होगी लेकिन। क्योंकि हम अगर अपने संबंध में विचार करने जाएं तो पाएंगे कि सभी कुछ सीखा हुआ है। आप जो भी अपने संबंध में जानते हैं, वह सभी कुछ सीखा हुआ है। किसी ने आपको बताया है, वही आपका ज्ञान है। और जो दूसरे ने बताया है, जो दूसरे ने सिखाया है, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता।
स्वयं को जानने के लिए किसी दूसरे की किसी भी शिक्षा की जरूरत नहीं है। हां, स्वयं को ढांकना हो, छिपाना हो, तो दूसरे की शिक्षा जरूरी और अनिवार्य है। स्वयं का होना तो एक आंतरिक, आत्मिक नग्नता है, दिगंबरत्व है। वस्त्र तो उसे छिपाने के काम आते हैं। हमारी सारी जानकारी ज्ञान को छिपाने के काम आती है। लेकिन जो जानकारी को ही ज्ञान मान लेते हैं, वे फिर सदा के लिए ज्ञान से वंचित हो जाते हैं।
एक बच्चा पैदा होता है; जो भी एसेंस है, जो सार है, जो आत्मा है, लेकर पैदा होता है; लेकिन एक कोरी किताब की तरह। फिर हम उस पर लिखना शुरू करते हैं–शिक्षा, समाज, संस्कृति, सभ्यता। फिर हम उस पर लिखना शुरू करते हैं। थोड़े ही दिनों में कोरी किताब अक्षरों से भर जाएगी। स्याही के काले धब्बे पूरी किताब को घेर लेंगे। और क्या कभी आपने खयाल किया है कि जब आप किताब पढ़ते हैं, तो आपको सिर्फ स्याही के काले अक्षर ही दिखाई पड़ते हैं, पीछे का वह जो सफेद कागज है, कोरा, वह दिखाई नहीं पड़ता ?
एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक इस पर काम कर रहा था, डाक्टर पल्स इस संबंध में काम कर रहा था। उसने अपने विद्यार्थियों की कक्षा के सामने एक दिन आकर ब्लैक बोर्ड पर एक बड़ा सफेद कागज टांगा, ब्लैक बोर्ड के बराबर। फिर उस बड़े सफेद कागज पर एक छोटा सा स्याही का काला गोल बनाया, एक बिंदु बनाया, अति छोटा। गौर से देखें तो ही दिखाई पड़े। और फिर उसने अपने विद्यार्थियों से पूछा कि तुम्हें क्या दिखाई पड़ता है ?
तो उन्होंने कहा, एक काला गोल बिंदु दिखाई पड़ता है। उस पूरी कक्षा में एक भी विद्यार्थी ने न कहा कि बोर्ड पर टंगा हुआ सफेद कागज का टुकड़ा भी दिखाई पड़ता है।
बहुत बड़ा था सफेद कागज का टुकड़ा, पर वह किसी को दिखाई नहीं पड़ रहा है। दिखाई पड़ रहा है एक काला बिंदु। उसका कारण है। कोरापन हमें दिखाई ही नहीं पड़ता; कोई दाग हो तो दिखाई पड़ता है। जितना स्वच्छ और कोरपन हो, उतना ही अदृश्य हो जाता है। शायद परमात्मा इसीलिए दिखाई हमें नहीं पड़ता। वह जगत का कोरापन है, इनोसेंस है। वह जगत की निर्दोषिता है। लेकिन दाग हमें दिखाई पड़ते हैं। दाग देखने से हमारी कुशलता का कोई अंत नहीं है।
एक बच्चा तो कोरा पैदा होता है। फिर हम उस पर लिखना शुरू करते हैं। जरूरी है कि हम उस पर कुछ लिखें। जीवन के संघर्ष के लिए उपयोगी है। शायद कोरे कागज की तरह तो वह जी भी न पाएगा। कोरे कागज की तरह शायद वह एक क्षण भी इस जीवन के संघर्ष में सफल न हो पाएगा। लिखना जरूरी है। कहें कि एक जरूरी बुराई है, नेसेसरी ईविल है। फिर हम लिखते जाएंगे। उसका नाम देंगे, उसका रूप देंगे।
आप कहेंगे कि नाम तो ठीक है, रूप तो हर आदमी लेकर पैदा होता है।
वह भी खयाल गलत है। नाम भी हम देते हैं, रूप भी हम देते हैं। क्यों ? क्योंकि जो शक्ल एक मुल्क में सुंदर समझी जाती है, दूसरे मुल्क में असुंदर समझी जाती है। एक ढंग का चेहरा चीन में सुंदर समझा जाता है, ठीक वैसे ही ढंग का चेहरा भारत में सुंदर नहीं समझा जाएगा। चपटी नाक चीन में असुंदर नहीं है, सारी दुनिया में असुंदर हो जाएगी। बड़े और लटके हुए ओंठ नीग्रो के लिए असुंदर नहीं हैं, सारी दुनिया में असुंदर जाएंगे। नीग्रो लड़कियां अपने ओंठ को बड़ा करने का सब कुछ उपाय करेंगी। पत्थर बांध कर लटकाएंगी, ताकि ओंठ चौड़ा हो जाए, बड़ा हो जाए। हमारे मुल्क में या जहां भी आर्यों का प्रभाव है, पश्चिम में, पतला ओंठ।
कहना मुश्किल है कि कौन सुंदर है। दोनों के पक्ष और विपक्ष में बातें कही जा सकती हैं। क्योंकि नीग्रो कहते हैं कि ओंठ जितना चौड़ा हो, चुंबन उतना ही विस्तीर्ण हो जाता है । हो ही जाएगा। लेकिन पतले ओंठ को मानने वाले लोग कहते हैं कि ओंठ जितना चौ़डा हो, चुंबन तो विस्तीर्ण हो जाता है, लेकिन फीका हो जाता है। क्योंकि जब भी कोई चीज बहुत जगह फैल जाती है, तो उसका प्रभाव फीका हो जाता है, इंटेंसिटी कम हो जाती है। लेकिन क्या सुन्दर है, पतला ओंठ या मोटा ओंठ ? समाज सिखाएगा कि क्या सुंदर है।
रूप भी हम देते हैं। नाम भी हम देते हैं, रूप भी हम देते हैं, विचार भी हम देते हैं। फिर व्यक्तित्व की पर्त बननी शुरु हो जाती है। आखिर में जब आप अपने को पाते हैं, तो आपको खयाल भी नहीं होता कि एक कोरापन लेकर आप पैदा हुए थे, जो पीछे छिप गया है–बहुत सी पर्तों में। वस्त्र इतने हो गए हैं कि आपको अब अपने को खोजना कठिन है। और आप भी इन वस्त्रों के जोड़ को ही अपनी आत्मा समझ कर जी लेते हैं। यही अधार्मिक आदमी का लक्षण है। जो वस्त्रों को ही समझ लेता है कि मैं हूं, वही आदमी अर्धामिक है। जो वस्त्रों के भीतर उसको खोजता है, जो समस्त सिखावन के पहले मौजूद था, और जो समस्त वस्त्रों को छीन लिया जाए तो भी मौजूद रहेगा, उस स्वभाव को, वही व्यक्ति धार्मिक है।
लाओत्से कहता है, छोड़ो सिखावन। जो-जो सीखा है, छोड़ दो, तो तुम स्वयं को जान सकोगे। खोना हो, तो दूसरे से सीखना अनिवार्य है। स्वयं को जानना हो तो दूसरों की समस्त शिक्षाओं को छोड़ देना जरूरी है। जगत में कुछ भी जानना हो अपने को छोड़ कर तो शिक्षा जरूरी है। और जगत में स्वयं को जानना हो तो समस्त शिक्षा का त्याग जरूरी है। क्योंकि जगत में कुछ और जानना हो तो बाहर जाना पड़ता है और स्वयं को जानना हो तो भीतर आना पड़ता है। यात्राएं उलटी हैं।
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