बाल एवं युवा साहित्य >> हितोपदेश की कहानियाँ हितोपदेश की कहानियाँगंगा प्रसाद शर्मा
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बाघ की आपबीती और नीतिपूर्ण बातों को सुनकर पथिक को उसकी विद्वता और अहिंसक प्रवृत्ति पर विश्वास हो गया...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
शताब्दियों से यही मान्यता रही है कि
हितोपदेश को पढ़ने एवं सुनने से व्यक्ति की बुद्घि का विकास होता है। उसके विचारों में
स्पष्टता और बातचीत करने में पूर्णता एवं प्रभावोत्पादकता आती है। जो
व्यक्ति एक बार इस ग्रन्थ का भलीभाँति अध्ययन कर लेता है, उसे विद्वानों
की मंडली में बैठने में संकोच नहीं रहता। इस ग्रन्थ को पढ़कर उसका
नीति-सम्बन्धी ज्ञान असीमित रूप से बढ़ जाता है।
मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह विद्या एवं धन का संचय तो अवश्य करे, किन्तु मृत्यु को भी सदैव याद रखे, क्योंकि मृत्यु की तलवार सदैव सिर पर लटकी ही रहती है। इसलिए उसका यह भी कर्त्तव्य बनता है कि जितनी जल्दी हो सके, अपने धर्म-कार्यों को कर डाले।
विद्या को सब प्रकार के धनों में सर्वश्रेष्ठ धन माना गया है। यह ऐसा धन है, जिसको न तो कोई चुरा सकता है, और ना ही इसका किसी प्रकार बँटवारा ही किया जा सकता है। विद्या-धन ऐसा धन है, जो सदैव ही मनुष्य के काम आता है। जिस प्रकार अनेक छोटी-छोटी नदियां मिलकर एक विशाल सरिता के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं, और बाद में वही सरिता समुद्र में मिलकर एकाकार हो जाती है, उसी प्रकार विद्या का धन पाकर सामान्य व्यक्ति भी श्रेष्ठता को प्राप्त कर लेता है।
विद्या से सम्पन्न मनुष्य विनयशील होता है, और विनयशील व्यक्ति को ही सुपात्र समझा जाता है। सुपात्रता से धन की प्राप्ति होती है। धन से मनुष्य धर्म करता है और ऐसा करके उसे आत्मिक सुख प्राप्त होता है।
संसार में दो ही विद्याएँ ऐसी हैं जिनके ज्ञान से मनुष्य को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। उनमें से एक है शस्त्र विद्या तथा दूसरी शास्त्र विद्या। शस्त्र विद्या का जानकार व्यक्ति बुढ़ापे में कभी-कभी हँसी का कारण भी बन जाया करता है किन्तु शास्त्र विद्या में पारंगत व्यक्ति सदैव समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त करता है। वह व्यक्ति प्रतीक अवस्था में आदर-सत्कार प्राप्त करता है। जिस प्रकार नए बर्तन पर बना चिन्ह सदैव के लिए अंकित हो जाता है, उसी प्रकार कहानियों के माध्यम से नीति और शान की जो बातें सीखी जाती हैं, उनका प्रभाव चिरस्थायी रहता है।
ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ को चार प्रकरणों में विभाजित किया है। यह प्रकरण हैं–मित्र लाभ, सुहृद भेद, विग्रह एवं सन्धि। नीति ग्रन्थों का सम्पूर्ण ज्ञान इन चार प्रकरणों में समाहित है।
मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह विद्या एवं धन का संचय तो अवश्य करे, किन्तु मृत्यु को भी सदैव याद रखे, क्योंकि मृत्यु की तलवार सदैव सिर पर लटकी ही रहती है। इसलिए उसका यह भी कर्त्तव्य बनता है कि जितनी जल्दी हो सके, अपने धर्म-कार्यों को कर डाले।
विद्या को सब प्रकार के धनों में सर्वश्रेष्ठ धन माना गया है। यह ऐसा धन है, जिसको न तो कोई चुरा सकता है, और ना ही इसका किसी प्रकार बँटवारा ही किया जा सकता है। विद्या-धन ऐसा धन है, जो सदैव ही मनुष्य के काम आता है। जिस प्रकार अनेक छोटी-छोटी नदियां मिलकर एक विशाल सरिता के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं, और बाद में वही सरिता समुद्र में मिलकर एकाकार हो जाती है, उसी प्रकार विद्या का धन पाकर सामान्य व्यक्ति भी श्रेष्ठता को प्राप्त कर लेता है।
विद्या से सम्पन्न मनुष्य विनयशील होता है, और विनयशील व्यक्ति को ही सुपात्र समझा जाता है। सुपात्रता से धन की प्राप्ति होती है। धन से मनुष्य धर्म करता है और ऐसा करके उसे आत्मिक सुख प्राप्त होता है।
संसार में दो ही विद्याएँ ऐसी हैं जिनके ज्ञान से मनुष्य को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। उनमें से एक है शस्त्र विद्या तथा दूसरी शास्त्र विद्या। शस्त्र विद्या का जानकार व्यक्ति बुढ़ापे में कभी-कभी हँसी का कारण भी बन जाया करता है किन्तु शास्त्र विद्या में पारंगत व्यक्ति सदैव समाज में प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त करता है। वह व्यक्ति प्रतीक अवस्था में आदर-सत्कार प्राप्त करता है। जिस प्रकार नए बर्तन पर बना चिन्ह सदैव के लिए अंकित हो जाता है, उसी प्रकार कहानियों के माध्यम से नीति और शान की जो बातें सीखी जाती हैं, उनका प्रभाव चिरस्थायी रहता है।
ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ को चार प्रकरणों में विभाजित किया है। यह प्रकरण हैं–मित्र लाभ, सुहृद भेद, विग्रह एवं सन्धि। नीति ग्रन्थों का सम्पूर्ण ज्ञान इन चार प्रकरणों में समाहित है।
आमुख
भागीरथी नदी के तट पर पाटलीपुत्र नाम का एक
नगर बसा हुआ था
उस नगर में सुदर्शन नाम का एक राजा राज करता था। राजा सुदर्शन सर्वगुणों
से सम्पन्न राजा था। उसकी राज्यसभा में अनेक विद्वान थे जो समय-समय पर
राजा को विद्वता, नीति एवं ज्ञान की बातें बताते रहते थे। राजा भी उन
विद्वानों का बहुत मान-सम्मान करता था।
एक बार राजा की राज्य सभा में किसी विद्वान ने उसे यह दो श्लोक पढ़कर सुनाए–
एक बार राजा की राज्य सभा में किसी विद्वान ने उसे यह दो श्लोक पढ़कर सुनाए–
अनेक संशयोच्छेदि परीर्क्षास्य दर्शकम।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्लन्ध एव सः।।
यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वम विवेकिता।
एकैकम्प्यनययि किमु यत्र चतुष्टयम्।।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्लन्ध एव सः।।
यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वम विवेकिता।
एकैकम्प्यनययि किमु यत्र चतुष्टयम्।।
‘‘अर्थात् शास्त्र
मनुष्य के नेत्र हैं। इन
नेत्रों की सहायता से वह वस्तु का यथार्थ ज्ञान ही नहीं, परोक्ष ज्ञान भी
कर लेता है। जिसके पास शास्त्र, अर्थात् विद्या रूपी नेत्र नहीं है, उसे
तो अन्धे के समान की समझना चाहिए।’’
‘‘यौवन, धन, अधिकार एवं अविवेक इनमें से कोई भी दोष मनुष्य को पाप के गर्त में गिरा सकता है, फिर जिसके ये चारों ही दोष विद्यमान हों, तो वह व्यक्ति कौन से पाप-गर्त में गिरेगा, इसका अनुमान भी कठिन है।’’
राजा सुदर्शन ने जब यह श्लोक सुने तो उसे अपने पुत्रों का ध्यान हो आया। उसके पुत्र न केवल विद्या-विहीन थे, अपितु वे कुमार्ग पर भी चल पड़े थे। राजा सोचने लगा–‘ऐसे पुत्रों से क्या लाभ, जो न तो विद्वान हों और न धार्मिक ही हों। जिस प्रकार कानी आँख पीड़ा ही देती है, उससे कोई लाभ नहीं होता, यही दशा मेरे पुत्रों के होने की है।’
‘‘पुत्र उत्पन्न ही न हो,. अथवा पुत्र पैदा होकर मर जाए या फिर मूर्ख पुत्र हो। इन तीन प्रकार के पुत्रों में पहले दो प्रकार के पुत्र तो फिर भी अच्छे हैं, क्योंकि इनमें होने से कुछ ही समय दुख पहुँचता है, किन्तु मूर्ख पुत्र तो पग-पग पर आजीवन दुख देता रहता है।’’
‘‘यह संसार परिवर्तनशील है। यहाँ व्यक्ति जन्म लेता है और अपनी आयु भोग कर मर जाता है, किन्तु उसी व्यक्ति का जन्म लेना सार्थक होता है, जिसके अपने वंश की उन्नति होती हो।’’
‘‘जिस समय गुणीजनों की गणना हो रही हो, उस समय आदर के साथ जिसके नाम पर पहले उँगली टिक जाए, उस बालक की माता ही स्वयं को सच्ची पुत्रवती कह सकती है।’’
‘‘दान, तप, वीरता, विद्या तथा धनार्जन करने में जिसका मन न लगे, वह अपनी माता का पुत्र नहीं, उसे तो बस अपनी माता का मल मात्र ही समझना चाहिए।’’
‘‘सौ मूर्ख पुत्रों की अपेक्षा एक गुणी पुत्र होना ही यथेष्ठ है। एक चन्द्रमा रात्रि के अन्धकार को दूर कर देता है, जबकि हजारों तारे मिलकर भी रात्रि का अन्धकार दूर नहीं कर सकते।’’
‘‘जिस मनुष्य ने किसी पवित्र तीर्थ में कठिन तप किए हों, उसी का पुत्र आज्ञाकारी, धनी, धर्मात्मा एवं विद्वान होता है।’’
‘‘इस संसार में छह सुख बताए गए हैं–नित्य धन लाभ, निरोगी काया, प्रिय बोलने वाली और प्रेम करने वाली पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र और धन का लाभ कराने वाली विद्या।’’
‘‘भूसे से मरे कोठार की तरह बहुत से पुत्र होने से कौन मनुष्य धन्य कहलाता है। कुल की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला वो एक पुत्र ही श्रेष्ठ है, जिससे उसके पिता का नाम उज्ज्वल होता है।’’
‘‘कहा गया है कि ऋण करने वाला पिता अपनी सन्तान का शत्रु होता है। व्यभिचारिणी माता शत्रु है। अत्यन्त रूपवान पत्नी शत्रु हो जाया करती है, तथा मूर्ख पुत्र भी शत्रु के समान ही होता है।’’
‘‘अभ्यास के बिना विद्या विष के समान होती है। अजीर्ण होने पर स्वादिष्ट भोजन भी विष समान होता है। दरिद्र व्यक्ति के लिए सभा-समारोह और वृद्ध के लिए उसकी तरुण पत्नी विष के समान होती है।’’
‘‘मनुष्य किसी भी कुल में उत्पन्न क्यों न हुआ हो, यदि वह गुणवान है तो उसकी पूजा होगी ही। उसी प्रकार बाँस की उत्तम श्रेणी का बना हुआ वह धनुष भी व्यर्थ ही सिद्ध होता है, जिस पर डोरी न चढ़ी हो।’’
‘‘मनुष्य जब विद्वानों की सभा में बैठा हो और वहाँ शास्त्रों की चर्चा हो रही हो, तो ऐसे समय में यदि उसने कुछ पढ़ा न हो उसको उसी प्रकार का क्लेश और दुख होता है, जिस तरह कीचड़ में धँसी गाय को।’’
इन बातों का विचार मन में आने से राजा सोचने लगा कि मैं अपने पुत्रों को कैसे गुणवान एवं बुद्धिमान बनाऊँ ?
‘‘आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन। ये सभी बातें मनुष्यों में होती हैं और पशुओं में भी। मनुष्य में यदि कोई विशेष बात है तो वह है–धर्म। इसलिए जो मनुष्य धर्म-विहीन है, उसे तो पशु के समान ही समझना चाहिए।
‘‘धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। इन चार पदार्थ में से जिस मनुष्य के पास एक भी पदार्थ न हो उसका जीवन तो उसी प्रकार व्यर्थ है, जिस प्रकार बकरी के गले में लटका हुआ स्तनरूपी मांस। क्योंकि कहा भी गया है कि आयु, कर्म, धन, विद्या एवं मरण, इन पाँचों का विधान भगवान उसी समय कर देता है, जिन समय प्राणी अपनी माता के गर्भ में होता है।’’
‘‘और भी कहा गया है कि कोई व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, जो होने वाली बात होती है, वह होकर ही रहती है। यह इसी प्रकार अवश्यम्भावी होता है जिस प्रकार नीलकंठ महादेव का औघड़ होना एवं भगवान विष्णु का शेष शैया पर शयन करना।’’
‘‘कहते हैं कि जो बात होनी नहीं है, वह कभी नहीं होगी, और जो होनहार है उसे कभी टाला नहीं जा सकता। यह बात चिन्तारूपी विष को दूर करने वाली औषधि है अतः मनुष्य को चाहिए कि वह इस, औषधि का पान करे।’’
‘‘यौवन, धन, अधिकार एवं अविवेक इनमें से कोई भी दोष मनुष्य को पाप के गर्त में गिरा सकता है, फिर जिसके ये चारों ही दोष विद्यमान हों, तो वह व्यक्ति कौन से पाप-गर्त में गिरेगा, इसका अनुमान भी कठिन है।’’
राजा सुदर्शन ने जब यह श्लोक सुने तो उसे अपने पुत्रों का ध्यान हो आया। उसके पुत्र न केवल विद्या-विहीन थे, अपितु वे कुमार्ग पर भी चल पड़े थे। राजा सोचने लगा–‘ऐसे पुत्रों से क्या लाभ, जो न तो विद्वान हों और न धार्मिक ही हों। जिस प्रकार कानी आँख पीड़ा ही देती है, उससे कोई लाभ नहीं होता, यही दशा मेरे पुत्रों के होने की है।’
‘‘पुत्र उत्पन्न ही न हो,. अथवा पुत्र पैदा होकर मर जाए या फिर मूर्ख पुत्र हो। इन तीन प्रकार के पुत्रों में पहले दो प्रकार के पुत्र तो फिर भी अच्छे हैं, क्योंकि इनमें होने से कुछ ही समय दुख पहुँचता है, किन्तु मूर्ख पुत्र तो पग-पग पर आजीवन दुख देता रहता है।’’
‘‘यह संसार परिवर्तनशील है। यहाँ व्यक्ति जन्म लेता है और अपनी आयु भोग कर मर जाता है, किन्तु उसी व्यक्ति का जन्म लेना सार्थक होता है, जिसके अपने वंश की उन्नति होती हो।’’
‘‘जिस समय गुणीजनों की गणना हो रही हो, उस समय आदर के साथ जिसके नाम पर पहले उँगली टिक जाए, उस बालक की माता ही स्वयं को सच्ची पुत्रवती कह सकती है।’’
‘‘दान, तप, वीरता, विद्या तथा धनार्जन करने में जिसका मन न लगे, वह अपनी माता का पुत्र नहीं, उसे तो बस अपनी माता का मल मात्र ही समझना चाहिए।’’
‘‘सौ मूर्ख पुत्रों की अपेक्षा एक गुणी पुत्र होना ही यथेष्ठ है। एक चन्द्रमा रात्रि के अन्धकार को दूर कर देता है, जबकि हजारों तारे मिलकर भी रात्रि का अन्धकार दूर नहीं कर सकते।’’
‘‘जिस मनुष्य ने किसी पवित्र तीर्थ में कठिन तप किए हों, उसी का पुत्र आज्ञाकारी, धनी, धर्मात्मा एवं विद्वान होता है।’’
‘‘इस संसार में छह सुख बताए गए हैं–नित्य धन लाभ, निरोगी काया, प्रिय बोलने वाली और प्रेम करने वाली पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र और धन का लाभ कराने वाली विद्या।’’
‘‘भूसे से मरे कोठार की तरह बहुत से पुत्र होने से कौन मनुष्य धन्य कहलाता है। कुल की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला वो एक पुत्र ही श्रेष्ठ है, जिससे उसके पिता का नाम उज्ज्वल होता है।’’
‘‘कहा गया है कि ऋण करने वाला पिता अपनी सन्तान का शत्रु होता है। व्यभिचारिणी माता शत्रु है। अत्यन्त रूपवान पत्नी शत्रु हो जाया करती है, तथा मूर्ख पुत्र भी शत्रु के समान ही होता है।’’
‘‘अभ्यास के बिना विद्या विष के समान होती है। अजीर्ण होने पर स्वादिष्ट भोजन भी विष समान होता है। दरिद्र व्यक्ति के लिए सभा-समारोह और वृद्ध के लिए उसकी तरुण पत्नी विष के समान होती है।’’
‘‘मनुष्य किसी भी कुल में उत्पन्न क्यों न हुआ हो, यदि वह गुणवान है तो उसकी पूजा होगी ही। उसी प्रकार बाँस की उत्तम श्रेणी का बना हुआ वह धनुष भी व्यर्थ ही सिद्ध होता है, जिस पर डोरी न चढ़ी हो।’’
‘‘मनुष्य जब विद्वानों की सभा में बैठा हो और वहाँ शास्त्रों की चर्चा हो रही हो, तो ऐसे समय में यदि उसने कुछ पढ़ा न हो उसको उसी प्रकार का क्लेश और दुख होता है, जिस तरह कीचड़ में धँसी गाय को।’’
इन बातों का विचार मन में आने से राजा सोचने लगा कि मैं अपने पुत्रों को कैसे गुणवान एवं बुद्धिमान बनाऊँ ?
‘‘आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन। ये सभी बातें मनुष्यों में होती हैं और पशुओं में भी। मनुष्य में यदि कोई विशेष बात है तो वह है–धर्म। इसलिए जो मनुष्य धर्म-विहीन है, उसे तो पशु के समान ही समझना चाहिए।
‘‘धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। इन चार पदार्थ में से जिस मनुष्य के पास एक भी पदार्थ न हो उसका जीवन तो उसी प्रकार व्यर्थ है, जिस प्रकार बकरी के गले में लटका हुआ स्तनरूपी मांस। क्योंकि कहा भी गया है कि आयु, कर्म, धन, विद्या एवं मरण, इन पाँचों का विधान भगवान उसी समय कर देता है, जिन समय प्राणी अपनी माता के गर्भ में होता है।’’
‘‘और भी कहा गया है कि कोई व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, जो होने वाली बात होती है, वह होकर ही रहती है। यह इसी प्रकार अवश्यम्भावी होता है जिस प्रकार नीलकंठ महादेव का औघड़ होना एवं भगवान विष्णु का शेष शैया पर शयन करना।’’
‘‘कहते हैं कि जो बात होनी नहीं है, वह कभी नहीं होगी, और जो होनहार है उसे कभी टाला नहीं जा सकता। यह बात चिन्तारूपी विष को दूर करने वाली औषधि है अतः मनुष्य को चाहिए कि वह इस, औषधि का पान करे।’’
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