कविता संग्रह >> सतरंगिनी सतरंगिनीहरिवंशराय बच्चन
|
4 पाठकों को प्रिय 237 पाठक हैं |
अब वे मेरे गान कहाँ हैं! टूट गयी मरकत की प्याली, लुप्त हुई मदिरा की लाली, मेरा व्याकुल मन बहलाने वाले अब सामान कहाँ हैं!...
Satrangini - A Hindi Book - by Harivansh Rai Bachchan
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपने पाठकों से
(चौथे संस्करण के लिए)
मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि मेरी ‘सतरंगिनी’ का चौथा संस्करण मेरे नए प्रकाशक के यहाँ से निकलने जा रहा है। इस संस्करण में कविताओं के मूल-पाठ में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया; केवल एक शब्द बदला गया है (‘नागिन’ शीर्षक कविता के 11वें पद में चिर’ के स्थान पर ‘अति’) और पिछले संस्करण की प्रूफ की गल्तियाँ ठीक कर दी गई हैं। ‘सतरंगिनी’ में 50 कविताएँ हैं। एक प्रवेश गीत है; शेष 49 कविताएँ सात-सात कविताओं के सात खण्डों में विभक्त हैं–पहला खण्ड, दूसरा खण्ड आदि। इस बार प्रेस-कापी तैयार करते हुए ‘खण्ड’ शब्द मुझे कुछ खटका और मैंने ‘रंग’ कर दिया; ‘सतरंगिनी’ के सात रंग, प्रत्येक रंग के सात गीत, उसके सात ‘शेड’–उसकी सात क्रम-कान्तियाँ। आशा है, यह संशोधन आपको पसन्द आएगा।
इन पंक्तियों में जो मैं कहने जा रहा हूँ वह ‘सतरंगिनी’ कविताओं की कोई विस्तृत पूर्व-पीठिका नहीं; पूर्व-पीठिका के रूप में यदि मैं कुछ कहना चाहता हूँ तो वह केवल यह है कि आप ‘सतरंगिनी’ पढ़ने के पूर्व ‘मधुशाला’, मधुबाला’, ‘मधु कलश’ और ‘निशा निमन्त्रण’, ‘एकान्त संगीत’, ‘आकुल अन्तर’ पढ़ लें; यदि आप अधिक सचेत पाठक हों तो मैं कहूँगा कि आप मेरी ‘प्रारम्भिक रचनाएँ’ और ‘खैयाम की मधुशाला’ भी पढ़ लें। रचना-क्रम में पढ़ने से रचयिता के विकास का आभास होता चलता है, साथ ही प्रत्येक रचना उसके बाद आने वाली रचना की पूर्वपीठिका बनती जाती है और उसे ठीक समझने में सहायक सिद्ध होती हैं; यों मैं जानता हूँ कि साधारण पाठक के मन में किसी लेखक की रचनाओं को किसी विशेष क्रम में पढ़ने का आग्रह नहीं होता। मान लीजिए, ‘सतरंगिनी’ मेरी पहली रचना है जो आपके हाथों में आती है, तो आपको यह कल्पना तो करनी ही होगी कि वह जीवन की किस स्थिति, किन मनःस्थिति में है जो ऐसी कविताएँ लिख रहा है। कविताओं की साधारण समझ-बूझ के लिए इससे अधिक आवश्यक नहीं, पर उनका मर्म वही हृदयंगम कर सकेगा जो पूर्व रचनाओं की अनुभूतियों को अपनी सहानुभूति देता हुआ आएगा। सम्भव है ‘सतरंगिनी’ के पहले की अथवा बाद की रचनाएँ कभी आपके हाथों में पड़ जाएँ। उस समय मैं इतना ही चाहूँगा कि उसे आप मेरे क्रम-विकास में ठीक स्थान पर रखकर देखें। ‘आकुल अन्तर’ की स्थिति से ‘सतरंगिनी’ की स्थिति में आना तो स्वाभाविक है, पर ‘सतरंगिनी’ की स्थिति से ‘निशा निमन्त्रण’ अथवा ‘एकान्त संगीत’ की स्थिति में जाना सम्भव नहीं। जो साहित्य के पारखी हैं वे अभिव्यंजना एवं शैली के विकास-क्रम से ही जीवन-क्रम की सही परिकल्पना कर सकते हैं। साधारण पाठकों के लिए रचना-तिथियों को ध्यान में रखना कठिन नहीं होना चाहिए। इतनी प्रत्याशा तो मैं अपने पाठकों से करना ही चाहूँगा कि मेरे भाव-विचारों की जो मूर्ति वे अपने मन में बिठाएँ वह अपने अंगों में सहज, स्वाभाविक और सक्रम हो, न कि उलटी-पुलटी, कृत्रिम और क्रमविहीन, हालाँकि ऐसा करने से हानि उन्हीं की होगी, उन्हीं के दिमाग पर अधिक भार पड़ेगा, उन्हीं के मस्तिष्क को एक विपर्यय का तनाव अनुभव करना होगा। मनुष्य को कला, साहित्य, कविता के प्रति विकृत धारणा रखने का बड़ा महँगा मूल्य चुकाना पड़ता है।
मैं अपने यौवन काल से अपनी अनुभूतियों और कल्पनाओं को निरन्तर मुखरित करता रहा हूँ, इस कारण मेरे जीवन और मेरे वाङ्मय की गति प्रायः समानान्तर चली है। मुझे रचना-क्रम में पढ़ना, मेरे विकास को सहज समझना, मेरे साथ–यदि आप मुझे पूरी सहानुभूति दे सकें तो–एक विकास-क्रम से स्वयं गुज़रना है। शायद कविता इसी प्रक्रिया से संस्कारों को बनाने और उन्हें सँवारने में सहायक होती है।
जो लोग मेरे ‘निशा निमन्त्रण’, ‘एकान्त संगीत’, ‘आकुल अन्तर’ से परिचित हैं वे जानते होंगे कि ये मेरे उस काल की अभिव्यक्तियाँ हैं जब मेरे जीवन की दुर्दम परिस्थितियों ने मुझे पीड़ा, वेदना, निराशा, अवसाद, विषाद, अन्धकार, एकाकीपन, जीवन की लक्ष्यहीनता को प्राणों की तरह अपनाने को विवश कर दिया था :
इन पंक्तियों में जो मैं कहने जा रहा हूँ वह ‘सतरंगिनी’ कविताओं की कोई विस्तृत पूर्व-पीठिका नहीं; पूर्व-पीठिका के रूप में यदि मैं कुछ कहना चाहता हूँ तो वह केवल यह है कि आप ‘सतरंगिनी’ पढ़ने के पूर्व ‘मधुशाला’, मधुबाला’, ‘मधु कलश’ और ‘निशा निमन्त्रण’, ‘एकान्त संगीत’, ‘आकुल अन्तर’ पढ़ लें; यदि आप अधिक सचेत पाठक हों तो मैं कहूँगा कि आप मेरी ‘प्रारम्भिक रचनाएँ’ और ‘खैयाम की मधुशाला’ भी पढ़ लें। रचना-क्रम में पढ़ने से रचयिता के विकास का आभास होता चलता है, साथ ही प्रत्येक रचना उसके बाद आने वाली रचना की पूर्वपीठिका बनती जाती है और उसे ठीक समझने में सहायक सिद्ध होती हैं; यों मैं जानता हूँ कि साधारण पाठक के मन में किसी लेखक की रचनाओं को किसी विशेष क्रम में पढ़ने का आग्रह नहीं होता। मान लीजिए, ‘सतरंगिनी’ मेरी पहली रचना है जो आपके हाथों में आती है, तो आपको यह कल्पना तो करनी ही होगी कि वह जीवन की किस स्थिति, किन मनःस्थिति में है जो ऐसी कविताएँ लिख रहा है। कविताओं की साधारण समझ-बूझ के लिए इससे अधिक आवश्यक नहीं, पर उनका मर्म वही हृदयंगम कर सकेगा जो पूर्व रचनाओं की अनुभूतियों को अपनी सहानुभूति देता हुआ आएगा। सम्भव है ‘सतरंगिनी’ के पहले की अथवा बाद की रचनाएँ कभी आपके हाथों में पड़ जाएँ। उस समय मैं इतना ही चाहूँगा कि उसे आप मेरे क्रम-विकास में ठीक स्थान पर रखकर देखें। ‘आकुल अन्तर’ की स्थिति से ‘सतरंगिनी’ की स्थिति में आना तो स्वाभाविक है, पर ‘सतरंगिनी’ की स्थिति से ‘निशा निमन्त्रण’ अथवा ‘एकान्त संगीत’ की स्थिति में जाना सम्भव नहीं। जो साहित्य के पारखी हैं वे अभिव्यंजना एवं शैली के विकास-क्रम से ही जीवन-क्रम की सही परिकल्पना कर सकते हैं। साधारण पाठकों के लिए रचना-तिथियों को ध्यान में रखना कठिन नहीं होना चाहिए। इतनी प्रत्याशा तो मैं अपने पाठकों से करना ही चाहूँगा कि मेरे भाव-विचारों की जो मूर्ति वे अपने मन में बिठाएँ वह अपने अंगों में सहज, स्वाभाविक और सक्रम हो, न कि उलटी-पुलटी, कृत्रिम और क्रमविहीन, हालाँकि ऐसा करने से हानि उन्हीं की होगी, उन्हीं के दिमाग पर अधिक भार पड़ेगा, उन्हीं के मस्तिष्क को एक विपर्यय का तनाव अनुभव करना होगा। मनुष्य को कला, साहित्य, कविता के प्रति विकृत धारणा रखने का बड़ा महँगा मूल्य चुकाना पड़ता है।
मैं अपने यौवन काल से अपनी अनुभूतियों और कल्पनाओं को निरन्तर मुखरित करता रहा हूँ, इस कारण मेरे जीवन और मेरे वाङ्मय की गति प्रायः समानान्तर चली है। मुझे रचना-क्रम में पढ़ना, मेरे विकास को सहज समझना, मेरे साथ–यदि आप मुझे पूरी सहानुभूति दे सकें तो–एक विकास-क्रम से स्वयं गुज़रना है। शायद कविता इसी प्रक्रिया से संस्कारों को बनाने और उन्हें सँवारने में सहायक होती है।
जो लोग मेरे ‘निशा निमन्त्रण’, ‘एकान्त संगीत’, ‘आकुल अन्तर’ से परिचित हैं वे जानते होंगे कि ये मेरे उस काल की अभिव्यक्तियाँ हैं जब मेरे जीवन की दुर्दम परिस्थितियों ने मुझे पीड़ा, वेदना, निराशा, अवसाद, विषाद, अन्धकार, एकाकीपन, जीवन की लक्ष्यहीनता को प्राणों की तरह अपनाने को विवश कर दिया था :
जानता यह भी नहीं मन,
कौन मेरी थाम गर्दन
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी !
स्वप्न भी छल, जागरण भी !
कौन मेरी थाम गर्दन
है विवश करता कि कह दूँ, व्यर्थ जीवन भी, मरण भी !
स्वप्न भी छल, जागरण भी !
(निशा निमन्त्रण)
एक दिन जो पूरी मधुशाला का मालिक था (‘मैं ही मालिक-मधुशाला हूँ’,), जिसके संकेतों पर मधुबालाओं की कतारें मदिरा की बौछारें कर देती थीं (‘मधुवर्षिणि, मधु बरसाती चल !) जिसकी जादुई उँगलियों को छूकर मृत-मूक-जड़ मधुघट और प्यालों में जीवन लहराने लगता था (‘मुझको छूकर मधुघट छलके, प्याले मधु पीने को ललके।’) जिसे सुन्दर साक़ी और मदमस्त पीने वाले भुजपाशों में भरते न थकते थे (‘एक समय पीने वाले-साक़ी आलिंगन करते थे।’), और जिसके मस्ती के तरानों से जन-जन का अन्तर ध्वनित-प्रतिध्वनित हो रहा था (‘भर दिया अम्बर-अवनि को मत्तता के गीत-गा-गा।’) वही अब कह रहा था :
अब वे मेरे गान कहाँ हैं !
टूट गई मरकत की प्याली,
लुप्त हुई मदिरा की लाली,
मेरा व्याकुल मन बहलाने वाले अब सामान कहाँ हैं !
टूट गई मरकत की प्याली,
लुप्त हुई मदिरा की लाली,
मेरा व्याकुल मन बहलाने वाले अब सामान कहाँ हैं !
(निशा निमन्त्रण)
मधुबाला का राग नहीं अब,
अँगूरों का बाग नहीं अब,
अब लोहे के चने मिलेंगे, दाँतों को अज़माओ !
आगे हिम्मत करके आओ !
अँगूरों का बाग नहीं अब,
अब लोहे के चने मिलेंगे, दाँतों को अज़माओ !
आगे हिम्मत करके आओ !
(एकान्त-संगीत)
इतना ही नहीं–
विष का स्वाद बताना होगा !
ढाली थी मदिरा की प्याली,
चूसी थी अधरों की लाली,
कालकूट आने वाला अब, देख नहीं घबराना होगा।
ढाली थी मदिरा की प्याली,
चूसी थी अधरों की लाली,
कालकूट आने वाला अब, देख नहीं घबराना होगा।
(एकान्त-संगीत)
(इस ‘कालकूट’ की अभिव्यक्ति बाद को मेरी रचना ‘हलाहल’ में हुई।) इस बदली हुई क्रूर, कठोर और भयंकर परिस्थितियों में, जो भारी चट्टान बनकर मेरी छाती पर बैठी हुई थीं, मैंने जो गाया-लिखा उसकी सैकड़ों पंक्तियाँ मेरे कानों में गूँज गई हैं :
अन्तरिक्ष में आकुल-आतुर,
कभी इधर उड़, कभी उधर उड़,
पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछला पंछी एक अकेला !
हँस रहा संसार खग पर
कह रहा जो आह भर-भर–
‘लुट गए मेरे सलोने नीड़ के तृण-पात !’ साथी !
प्रबल झंझावात, साथी !
तम ने जीवन-तरु को घेरा।
टूट गिरीं इच्छा की कलियाँ,
अभिलाषा की कच्ची फलियाँ,
शेष रहा जुगनू की लौ में आशामय उजियाला मेरा।
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ,
स्वप्नलोक से हम निर्वासित,
कब से गृह-सुख को लालायित,
आओ, निद्रा-पथ से छिपकर हम अपने घर जाएँ।
कभी इधर उड़, कभी उधर उड़,
पंथ नीड़ का खोज रहा है पिछला पंछी एक अकेला !
हँस रहा संसार खग पर
कह रहा जो आह भर-भर–
‘लुट गए मेरे सलोने नीड़ के तृण-पात !’ साथी !
प्रबल झंझावात, साथी !
तम ने जीवन-तरु को घेरा।
टूट गिरीं इच्छा की कलियाँ,
अभिलाषा की कच्ची फलियाँ,
शेष रहा जुगनू की लौ में आशामय उजियाला मेरा।
आओ, सो जाएँ, मर जाएँ,
स्वप्नलोक से हम निर्वासित,
कब से गृह-सुख को लालायित,
आओ, निद्रा-पथ से छिपकर हम अपने घर जाएँ।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book