ऐतिहासिक >> ब्रह्मावर्त ब्रह्मावर्तमाधव साठे
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बाजीराव पेशवा (द्वितीय) के दत्तक पुत्र नानासाहब के जीवन पर आधारित एक ऐतिहासिक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अँग्रजों द्वारा विस्थापित किये गये और पुणे छोड़कर कानपुर के पास
ब्रह्मावर्त (बिठूर) में रहने के लिए विवश किये गये बाजीराव पेशवा
(द्वितीय) के दत्तक पुत्र नानासाहब के जीवन पर आधारित
‘ब्रह्मावर्त’ एक चरित्रप्रधान उपन्यास है। सतारा के
छत्रपति प्रतापसिंह के दीवान रंगो बापूजी गुप्ते की सहायता से नानासाहब ने
क्रान्ति की योजना बनायी जिसमें उनको दिल्ली के बादशाह,बहादुरशाह,लखनऊ की
बेगम, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई,असम के राजा कन्दर्पेश्वर सिंह, सम्बलपुर
के राजकुमार सुरेन्द्र शाही, जगदीश-पुर के कुँवरसिंह और अन्य कई
रियासतदारों और जागीरदारों ने साथ दिया। दुर्भाग्य से क्रान्ति विफल हुई।
अंग्रेजी राज का शिकंजा भारत पर कसता ही चला गया। क्रान्ति में भाग
लेनेवाले शासक और सिपाही ही नहीं, असंख्य निरपराध लोगों को भी अंग्रेजों ने
मौत के घाट उतार दिया। कुछ भूमिगत हुए और अन्त तक अज्ञातवास में रहे।
नानासाहब को गिरफ्तार करने के लिए अँग्रेज शासकों ने भरसक प्रयास
किये,लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। नानासाहब ने नैमिषारण्य में,अपनी
अँग्रेज प्रेयसी और उससे हुए पुत्र सरजुज के विछोह का क्लेष सहते सन् 1903
में प्राण त्यागे। ऐतिहासिक उपन्यास लिखना कठिन काम है। यहाँ लेखक की
कल्पना को पग-पग पर तथ्यों से टकराना पड़ता है। सृजनशीलता पर सत्य का
अंकुश सतत बना रहता है। सफल लेखक वही है,जो सत्य और कल्पना का ऐसा संयोजन करे कि वे अलग से पहचाने न जा सकें। मराठी में प्रकाशित होने पर इस
उपन्यास की भूरि-भूरि प्रशंसा हुई थी, मराठी के प्रसिद्ध पत्र
‘केसरी’ ने लिखा था। उपन्यास में ऐतिहासिक तथ्यों की
रोचक और नवीन प्रस्तुति के लिए लेखक अभिनन्दन के पात्र हैं। ‘नई
दुनिया’ इन्दौर ने लिखा ‘लवलेटर्स आँफ एन इंगलिश
पिअरेस टू एन इण्डियन प्रिंस’ पुस्तक के आधार पर नानासाहब की
प्रेयसी की कल्पना के भावभीने चित्र ह्रदयस्पर्शी हैं।
प्राक्कथन
कुछ वर्ष पूर्व ‘लव लेटर्स ऑफ़ एन इंग्लिश पिअरेस टु
एन इण्डियन प्रिन्स’ नामक प्रेमपत्रों की एक संकलित पुस्तक मेरे
पढ़ने में आयी। ऊपर के पृष्ठ पर पुस्तक के मालिक का नाम उर्दू में था,
उसके नीचे तारीख 7.8.1890- अँग्रेजी में अंकित थी। पुस्तक का मुख्यपृष्ठ
गायब था, इसलिए संकलनकर्ता का नाम मालूम न हो सका। उसने प्रस्तावना में
कहा थाः
‘‘Certain letters were discovered by an Anglo-Indian official amongst the baggages of that fugitive prince Nana Sahib, who was at once renowned for his personal charm and his apparent loyalty to British Rule until such time as the mutiny broke out, when he declared at the head of rebel sepoys’’
ब्रिटिश सरदार घराने की किसी स्त्री और नानासाहब के बीच हुआ यह पत्र व्यवहार केवल प्रियकर-प्रेयसी का विप्रलम्भ श्रृंगार ही नहीं था, उसमें राजनीति, धर्म, समाज इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों पर भी चर्चा की गयी थी। जैसा कि आम लोग नानासाहब को केवल 1857 के स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानी के रूप में ही जानते हैं, मुझे भी बस इतना ही उनके बारे में ज्ञात था। उनके आपाधापी के जीवन-ग्रन्थ में ऐसा भी कोई रंगीन अध्याय होगा, इसकी मुझे कल्पना नहीं थी। इस सम्बन्ध में अधिकाधिक खोज करने की दृष्टि से सन् 1857 एवं नानासाहब से सम्बन्धित मराठी, हिन्दी और अँग्रेजी में जो भी ग्रन्थ उपलब्ध होते गये, मैं पढ़ता गया। इस दौर में मुझे उनके जीवन और स्वभाव के अनेक पहलू दिखाई दिये। फलतः प्रस्तुत उपन्यास का मन में बीजारोपण हुआ।
यद्यपि 1857 की क्रान्ति-योजना रंगो बापूजी ने तैयार की थी, उनके क्रियान्वयन के मुख्य सूत्रधार नानासाहब ही थे। उन्होंने ही क्रान्ति का मंत्र आसेतुहिमालय भारत को, तथा मुख्य रूप से पंजाब से लेकर बंगाल तक के प्रदेश को हिला दिया था। इस विशाल क्रान्ति के लिए लोकसंग्रह करने, व व्यक्तियों को परखकर उन्हें उनकी क्षमता के अनुसार कार्य सौंपने के लिए आवश्यक बुद्धिबल नानासाहब में था। सन् 1857 का संग्राम एक सार्वभौम राजा का अपने ही समान राजा के साथ युद्ध नहीं था, अपितु बलोद्धत, साधनसम्पन्न और प्रस्थापित राज्यसत्ता को उलटने के लिए पीड़ित व शोषित जनता को विश्वास में लेकर किया गया सुनियोजित प्रयास था-इस दृष्टि से नानासाहब का काम कितना कठिन था, इसकी कल्पना हम कर सकते हैं। ऐसे काम में बिल्कुल आखिरी क्षण तक गोपनीयता रखनी पड़ती है, और गोपनीयता 1857 के संग्राम की आश्चर्यजनक विशिष्टता थी। यही कारण है कि 28 मार्च, 1857 को बैरकपुर छावनी में मंगल पाण्डे का विद्रोह भावी प्रचण्ड क्रान्ति का मंगलाचरण है, ऐसा किसी को संशय तक नहीं हुआ। इसके बाद 10 मई को मेरठ तथा 11 मई को दिल्ली भारतीय शासकों के आधिपत्य में आयी, फिर भी अँग्रेज शासकों को ये घटनाएँ मात्र स्थानीय स्वरूप की ही लगीं, यह आश्चर्य है। दिनांक 3 जून तक कानपुर के बारे में सरकार निश्चिन्त थी, और क्रान्ति के शिल्पी नानासाहब के विषय में किसी को संशय नहीं हुआ। इसलिए कानपुर में दंगा होते ही सेनापति ह्यू व्हीलर ने नानासाहब से निवेदन किया, ‘‘हमारी मदद के लिए आइए’’। अँग्रेजों जैसे चालाक शत्रु को भी अन्तिम क्षण तक भनक न लगते हुए नानासाहब के द्वारा बनायी गयी क्रान्ति की प्रचण्ड योजना संसार के इतिहास में अद्वितीय है। इस योजना से ब्रिटिशों का भारत में अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया था।
क्रान्ति असफल होने पर रानी विक्टोरिया का राज्य भारत में स्थिर हुआ। फिर भी, कुछ लाभ न होते हुए भी, सरकार ने केवल पैशाचिक प्रतिशोध लेने की भावना से नानासाहब की बड़ी सख्ती से खोजबीन जारी रखी थी। इतना ही नहीं, उन्हें पकड़कर लानेवाले को एक लाख रुपये इनाम की, और यदि उसने कितना ही बड़ा अपराध किया हो, तो भी क्षमा करने की घोषणा सरकार ने की थी। लेकिन धन के लालच में पड़कर किसी ने भी सरकार की मदद नहीं की, यह बात नानासहब की लोकप्रियता का प्रमाण है। लेकिन सिर्फ भारतीय जनमानस में ही नहीं अपितु ब्रिटिश समाज में भी नानासाहब लोकप्रिय थे। अँग्रेज अधिकारियों द्वारा अपने रिश्तेदारों को इंग्लैण्ड में भेजे पत्रों में नानासाहब के परोपकारी, दयालु और उत्तम स्वभाव के थे, ऐसा मत व्यक्त किया जाता है। नानासाहब के बारे में उनके विचार निर्हेतुक होने से ग्राह्य किए जाने चाहिए। लेकिन सरकार ने नानासाहब के चरित्र पर कालिख अधिकाधिक पोतने का प्रयास किया। हिन्दुस्तान में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी उन्हें कसाई, निर्दयी और अनीति का पुतला कहकर दुष्प्रचार किया गया। उन्हें जीवित पकड़ना ही मानों उनका एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। किन्तु प्रयत्नों के बावजूद नानासाहब हाथ न आने पर, हताश अँग्रेज सरकार ने प्रचारित किया कि नानासाहब नेपाल की गिरिकन्दराओं में ज्वर से मर गये। इस प्रकार प्रकरण का पटाक्षेप कर दिया गया।
ब्रिटिशों द्वारा नानासाहब पर लगाए हुए उपर्युक्त आरोपों को निर्मूल करने का प्रयास (कुछ गिनती के अपवाद छोड़ दिये जाएँ तो), भारतीय इतिहासकारों ने नहीं किया, यह खेद की बात है। यह निर्विवाद सत्य है कि नानासाहब की मृत्यु 1858 में नहीं हुई। लेकिन हमारे इतिहासकार अँग्रेजों का कहना ही सत्य मानकर नानासाहब का मृत्यु वर्ष वही समझते हैं। अँग्रेज इतिहासकारों पर निर्भर न रहते हुए, बिखरे तथ्यों को एकत्र कर, उपलब्ध साक्ष्यों की पड़ताल कर नानासाहब की प्रामाणिक जीवनी लिखी जानी चाहिए। किंवदन्तियों तथा अँग्रेजों द्वारा तैयार किए गये इतिहास पर विश्वास करके हम नानासाहब की वास्तविक जीवनी नहीं लिख सकेंगे।
प्रस्तुत उपन्यास लिखते समय मैंने इस बात पर हमेशा ध्यान दिया है। मेरी दादी का पीहर ब्रह्मावर्त का था। वह 90 वर्ष की आयु में सन् 1953 में स्वर्गवासी हुईं। वह बचपन में सुने बाजीराव, नानासाहब और 1857 के अनेक किस्से-कहानियाँ हमको बताया करती थीं। रोमांचक और नाटकीय प्रसंगों से परिपूर्ण अनेक बातें उनमें थीं, लेकिन वे हमारी बुद्धि को नहीं जँचती थीं। इसलिए उनका उल्लेख करना भी मैंने इस उपन्यास में टाला है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रस्तुत उपन्यास में जिन घटनाओं और प्रसंगों का वर्णन किया गया है वे सब सत्य हैं। लेकिन ऐतिहासिक उपन्यास में नायक के ज्ञात चरित्र को उभारने के लिए काल्पनिक प्रसंगों व पात्रों का निर्माण करना लेखक के लिए अपरिहार्य होता है, इस बात से पाठक सहमत होंगे। 1857 के सम्बन्ध में, जिन्हें मोटे तौर पर जानकारी है, वे पाठक इस उपन्यास में आये काल्पनिक प्रसंग व पात्रों को तत्काल पहचान लेंगे। शेष व्यक्ति और प्रसंगों की सत्यता की जाँच-पड़ताल विश्वसनीय ग्रन्थों एवं दस्तावेजों से मैंने भलीभाँति कर ली है।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार महामहोपाध्याय दत्तो वामन पोतदार ने एक जगह कहा है कि ‘‘मुझे आश्चर्य है कि फुटकर अपवादों को यदि छोड़ दें तो प्रतिभासम्पन्न कथा-लेखकों, उपन्यासकारों व कलाकारों का ध्यान 1857 की ओर क्यों नहीं गया ? 1857 के बारे में कलाकरों को आकर्षित करनेवाली तथा सुन्दर तरीके से चित्रित कर सकने योग्य अनेक घटनाएँ हैं। 1857 मराठी साहित्यकारों के लिए एक चुनौती है।’’ मैं प्रतिभासम्पन्न नहीं हूँ, फिर भी 1857 के एक प्रमुख सेनानी के जीवन पर प्रस्तुत उपन्यास लिखने का प्रयास मैंने किया। मराठी पाठकों ने इसका स्वागत किया। मैं उनका कृतज्ञ हूँ।
हिन्दी में ‘ब्रह्मावर्त’ का प्रकाशन मेरे लिए अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है। इस अनुवाद को सँभालने-सँवारने में सर्वश्री बाबूराव जी शालीय, शशिदत्तजी शुक्ला तथा डॉ. सुश्री चित्रा चतुर्वेदी ने मेरी मदद की। मैं उनका ऋणी हूँ। ‘ब्रह्मावर्त’ का अनुवाद हिन्दी में प्रकाशित करने की अनुमति पुणे के कॉण्टिनेण्टल प्रकाशन के श्री अनिरुद्ध कुलकर्णी जी ने सहर्ष दी। उनके प्रति आभार व्यक्त करना मेरा कर्तव्य है।
भारतीय ज्ञानपीठ जैसी प्रतिष्ठित संस्था द्वारा ‘ब्रह्मावर्त’ का अनुवाद प्रकाशित हो रहा है, इससे अधिक एक लेखक के लिए सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है ! मैं भारतीय ज्ञानपीठ के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।
‘‘Certain letters were discovered by an Anglo-Indian official amongst the baggages of that fugitive prince Nana Sahib, who was at once renowned for his personal charm and his apparent loyalty to British Rule until such time as the mutiny broke out, when he declared at the head of rebel sepoys’’
ब्रिटिश सरदार घराने की किसी स्त्री और नानासाहब के बीच हुआ यह पत्र व्यवहार केवल प्रियकर-प्रेयसी का विप्रलम्भ श्रृंगार ही नहीं था, उसमें राजनीति, धर्म, समाज इत्यादि महत्त्वपूर्ण विषयों पर भी चर्चा की गयी थी। जैसा कि आम लोग नानासाहब को केवल 1857 के स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानी के रूप में ही जानते हैं, मुझे भी बस इतना ही उनके बारे में ज्ञात था। उनके आपाधापी के जीवन-ग्रन्थ में ऐसा भी कोई रंगीन अध्याय होगा, इसकी मुझे कल्पना नहीं थी। इस सम्बन्ध में अधिकाधिक खोज करने की दृष्टि से सन् 1857 एवं नानासाहब से सम्बन्धित मराठी, हिन्दी और अँग्रेजी में जो भी ग्रन्थ उपलब्ध होते गये, मैं पढ़ता गया। इस दौर में मुझे उनके जीवन और स्वभाव के अनेक पहलू दिखाई दिये। फलतः प्रस्तुत उपन्यास का मन में बीजारोपण हुआ।
यद्यपि 1857 की क्रान्ति-योजना रंगो बापूजी ने तैयार की थी, उनके क्रियान्वयन के मुख्य सूत्रधार नानासाहब ही थे। उन्होंने ही क्रान्ति का मंत्र आसेतुहिमालय भारत को, तथा मुख्य रूप से पंजाब से लेकर बंगाल तक के प्रदेश को हिला दिया था। इस विशाल क्रान्ति के लिए लोकसंग्रह करने, व व्यक्तियों को परखकर उन्हें उनकी क्षमता के अनुसार कार्य सौंपने के लिए आवश्यक बुद्धिबल नानासाहब में था। सन् 1857 का संग्राम एक सार्वभौम राजा का अपने ही समान राजा के साथ युद्ध नहीं था, अपितु बलोद्धत, साधनसम्पन्न और प्रस्थापित राज्यसत्ता को उलटने के लिए पीड़ित व शोषित जनता को विश्वास में लेकर किया गया सुनियोजित प्रयास था-इस दृष्टि से नानासाहब का काम कितना कठिन था, इसकी कल्पना हम कर सकते हैं। ऐसे काम में बिल्कुल आखिरी क्षण तक गोपनीयता रखनी पड़ती है, और गोपनीयता 1857 के संग्राम की आश्चर्यजनक विशिष्टता थी। यही कारण है कि 28 मार्च, 1857 को बैरकपुर छावनी में मंगल पाण्डे का विद्रोह भावी प्रचण्ड क्रान्ति का मंगलाचरण है, ऐसा किसी को संशय तक नहीं हुआ। इसके बाद 10 मई को मेरठ तथा 11 मई को दिल्ली भारतीय शासकों के आधिपत्य में आयी, फिर भी अँग्रेज शासकों को ये घटनाएँ मात्र स्थानीय स्वरूप की ही लगीं, यह आश्चर्य है। दिनांक 3 जून तक कानपुर के बारे में सरकार निश्चिन्त थी, और क्रान्ति के शिल्पी नानासाहब के विषय में किसी को संशय नहीं हुआ। इसलिए कानपुर में दंगा होते ही सेनापति ह्यू व्हीलर ने नानासाहब से निवेदन किया, ‘‘हमारी मदद के लिए आइए’’। अँग्रेजों जैसे चालाक शत्रु को भी अन्तिम क्षण तक भनक न लगते हुए नानासाहब के द्वारा बनायी गयी क्रान्ति की प्रचण्ड योजना संसार के इतिहास में अद्वितीय है। इस योजना से ब्रिटिशों का भारत में अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया था।
क्रान्ति असफल होने पर रानी विक्टोरिया का राज्य भारत में स्थिर हुआ। फिर भी, कुछ लाभ न होते हुए भी, सरकार ने केवल पैशाचिक प्रतिशोध लेने की भावना से नानासाहब की बड़ी सख्ती से खोजबीन जारी रखी थी। इतना ही नहीं, उन्हें पकड़कर लानेवाले को एक लाख रुपये इनाम की, और यदि उसने कितना ही बड़ा अपराध किया हो, तो भी क्षमा करने की घोषणा सरकार ने की थी। लेकिन धन के लालच में पड़कर किसी ने भी सरकार की मदद नहीं की, यह बात नानासहब की लोकप्रियता का प्रमाण है। लेकिन सिर्फ भारतीय जनमानस में ही नहीं अपितु ब्रिटिश समाज में भी नानासाहब लोकप्रिय थे। अँग्रेज अधिकारियों द्वारा अपने रिश्तेदारों को इंग्लैण्ड में भेजे पत्रों में नानासाहब के परोपकारी, दयालु और उत्तम स्वभाव के थे, ऐसा मत व्यक्त किया जाता है। नानासाहब के बारे में उनके विचार निर्हेतुक होने से ग्राह्य किए जाने चाहिए। लेकिन सरकार ने नानासाहब के चरित्र पर कालिख अधिकाधिक पोतने का प्रयास किया। हिन्दुस्तान में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी उन्हें कसाई, निर्दयी और अनीति का पुतला कहकर दुष्प्रचार किया गया। उन्हें जीवित पकड़ना ही मानों उनका एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। किन्तु प्रयत्नों के बावजूद नानासाहब हाथ न आने पर, हताश अँग्रेज सरकार ने प्रचारित किया कि नानासाहब नेपाल की गिरिकन्दराओं में ज्वर से मर गये। इस प्रकार प्रकरण का पटाक्षेप कर दिया गया।
ब्रिटिशों द्वारा नानासाहब पर लगाए हुए उपर्युक्त आरोपों को निर्मूल करने का प्रयास (कुछ गिनती के अपवाद छोड़ दिये जाएँ तो), भारतीय इतिहासकारों ने नहीं किया, यह खेद की बात है। यह निर्विवाद सत्य है कि नानासाहब की मृत्यु 1858 में नहीं हुई। लेकिन हमारे इतिहासकार अँग्रेजों का कहना ही सत्य मानकर नानासाहब का मृत्यु वर्ष वही समझते हैं। अँग्रेज इतिहासकारों पर निर्भर न रहते हुए, बिखरे तथ्यों को एकत्र कर, उपलब्ध साक्ष्यों की पड़ताल कर नानासाहब की प्रामाणिक जीवनी लिखी जानी चाहिए। किंवदन्तियों तथा अँग्रेजों द्वारा तैयार किए गये इतिहास पर विश्वास करके हम नानासाहब की वास्तविक जीवनी नहीं लिख सकेंगे।
प्रस्तुत उपन्यास लिखते समय मैंने इस बात पर हमेशा ध्यान दिया है। मेरी दादी का पीहर ब्रह्मावर्त का था। वह 90 वर्ष की आयु में सन् 1953 में स्वर्गवासी हुईं। वह बचपन में सुने बाजीराव, नानासाहब और 1857 के अनेक किस्से-कहानियाँ हमको बताया करती थीं। रोमांचक और नाटकीय प्रसंगों से परिपूर्ण अनेक बातें उनमें थीं, लेकिन वे हमारी बुद्धि को नहीं जँचती थीं। इसलिए उनका उल्लेख करना भी मैंने इस उपन्यास में टाला है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रस्तुत उपन्यास में जिन घटनाओं और प्रसंगों का वर्णन किया गया है वे सब सत्य हैं। लेकिन ऐतिहासिक उपन्यास में नायक के ज्ञात चरित्र को उभारने के लिए काल्पनिक प्रसंगों व पात्रों का निर्माण करना लेखक के लिए अपरिहार्य होता है, इस बात से पाठक सहमत होंगे। 1857 के सम्बन्ध में, जिन्हें मोटे तौर पर जानकारी है, वे पाठक इस उपन्यास में आये काल्पनिक प्रसंग व पात्रों को तत्काल पहचान लेंगे। शेष व्यक्ति और प्रसंगों की सत्यता की जाँच-पड़ताल विश्वसनीय ग्रन्थों एवं दस्तावेजों से मैंने भलीभाँति कर ली है।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार महामहोपाध्याय दत्तो वामन पोतदार ने एक जगह कहा है कि ‘‘मुझे आश्चर्य है कि फुटकर अपवादों को यदि छोड़ दें तो प्रतिभासम्पन्न कथा-लेखकों, उपन्यासकारों व कलाकारों का ध्यान 1857 की ओर क्यों नहीं गया ? 1857 के बारे में कलाकरों को आकर्षित करनेवाली तथा सुन्दर तरीके से चित्रित कर सकने योग्य अनेक घटनाएँ हैं। 1857 मराठी साहित्यकारों के लिए एक चुनौती है।’’ मैं प्रतिभासम्पन्न नहीं हूँ, फिर भी 1857 के एक प्रमुख सेनानी के जीवन पर प्रस्तुत उपन्यास लिखने का प्रयास मैंने किया। मराठी पाठकों ने इसका स्वागत किया। मैं उनका कृतज्ञ हूँ।
हिन्दी में ‘ब्रह्मावर्त’ का प्रकाशन मेरे लिए अत्यन्त प्रसन्नता का विषय है। इस अनुवाद को सँभालने-सँवारने में सर्वश्री बाबूराव जी शालीय, शशिदत्तजी शुक्ला तथा डॉ. सुश्री चित्रा चतुर्वेदी ने मेरी मदद की। मैं उनका ऋणी हूँ। ‘ब्रह्मावर्त’ का अनुवाद हिन्दी में प्रकाशित करने की अनुमति पुणे के कॉण्टिनेण्टल प्रकाशन के श्री अनिरुद्ध कुलकर्णी जी ने सहर्ष दी। उनके प्रति आभार व्यक्त करना मेरा कर्तव्य है।
भारतीय ज्ञानपीठ जैसी प्रतिष्ठित संस्था द्वारा ‘ब्रह्मावर्त’ का अनुवाद प्रकाशित हो रहा है, इससे अधिक एक लेखक के लिए सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है ! मैं भारतीय ज्ञानपीठ के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।
पूर्वार्ध
कानपुर से दो-ढाई कोस पर बसा हुआ, सौ-सवा सौ
टपरों का एक
गाँव। लगता था कि जैसे विधाता ने बड़ी लगन से इस गाँव और उसका परिसर
निर्मित किया हो। गाँव नवनवोन्मेषशाली था। रोज सूर्योदय के पहले वहाँ के
पेड़ पौधे ओस से नहा उठते। फिर सूर्य अपनी किरणों की तूलिका से बीते दिन
के उड़े-झड़े रंगों को ठीक-ठाक करता और गाँव की सुन्दरता को फिर से सँवार
देता। आम, अमरूद, जामुन, सीताफल, बड़, पीपल, और न जाने कितने ही छोटे-बड़े
वृक्ष वहाँ थे। उनकी छाँव तो ऐसी शीतल, कि गर्मी के दिनों में भरी दोपहरी
में भी कोई बाहर निकले तो उसे लू लगने का भय नहीं रहता। चाँदनी रात में
गंगा किनारे की सुन्दरता तो कुछ और ही अधिक लगती। पूरा परिसर चन्द्रमा के
शुभ्र-धवल आलोक से नहा उठता। उसमें गंगा का प्रवाह दूध जैसा और बालू रजत
की-सी हो जाती।
वर्ष की सभी ऋतुएँ अपना वैभव मुक्त हस्त से गाँव पर उँड़ेल देतीं। फागुन के जाते-जाते ही वृक्ष-लताओं के मण्डप सजते। विविध पक्षियों के संवादी सुरों की संगत पर जैसे ही कोयल का पंचम स्वर में गायन शुरू होता तो ऐसा लगता जैसे साक्षात् वसन्त ही वृक्षों पर आ बैठा हो। गर्भवती स्त्री-की-सी मन्थरता आम्रवाटिका को आती। मंजरियों के बोझ से वह झुक जाती। वह हौले से हिलती और हौले से ही डोलती। उस पर उसकी पड़ोसन जम्बुवाटिका उससे ठिठोली करती। फिर आम्रवाटिका उससे कहती, ‘‘ठहर, अब दस-पन्द्रह दिन की तो बात ही है। फिर मैं भी देखूँगी कि तेरा भी यही हाल होता है या नहीं।’’ गाँव का सौन्दर्य अपनी चरम-सीमा पर पहुँचता वर्षा ऋतु में। आकाश से बरसनेवाली जलधाराएँ गंगा के प्रवाह पर भाँति-भाँति के फूल उकेरतीं। ग्रीष्म में ताप असह्य होने के कारण दूर फेंके हरित आभूषण वसुन्धरा फिर से धारण कर लेती। सूर्यास्त के समय किरणों का साफा मस्तक पर बाँधे बड़े बुजुर्ग वृक्ष गर्दन हिला-डुलाकर आपस में बतियाते। लताएँ रंग-बिरंगे कर्णफूल पहनकर इठलातीं, थिरकतीं।
ठण्ड के दिन कुछ तकलीफ के अवश्य होते। लेकिन दिन भर धूप रहती। सूर्यास्त होते ही सन्ध्या देवी कोहरे की मोटी गुदड़ी पूरे गाँव को उढ़ा देती। फिर गंगा माँ सहित पूरा गाँव उसकी स्नेहिल ऊष्मा में बड़े मजे से रात गुजारता।
गाँव चित्रित-सा, जैसे रेखाओं से खिंचा हुआ था। उसमें कुल चार घर ब्राह्मणों के थे। आठ-दस वैश्यों के थे। बाकी सब विभिन्न जातियों के थे। कोई बढ़ई तो, कोई लुहार, कोई जुलाहा, तो कोई चर्मकार। पर ये सभी अपना-अपना धर्म पुश्तैनी धन्धा करते खाली समय में। इन सभी के उदरपोषण का साधन थी-कृषि। धरती माँ उनकी थोड़ी-सी सेवा से ही प्रसन्न होती, चुटकी-भर बोएँ तो मुट्टी भर देती। पूरा वर्ष अमन चैन से बीतता।
गाँव के एक छोर पर शिव मंदिर था। त्रिपुरासुर का नाश करने के उपरान्त जाह्नवी शंकरजी को विश्राम हेतु यहीं लेकर आयी थीं, ऐसी किंवदन्ती इस शिव मंदिर के बारे में गाँव की पंचकोशी में विख्यात थी। इसमें सत्यता भी होगी। क्योंकि गंगा के उद्गम से लेकर उसके समुद्र में विलीन होने तक के भूप्रदेश में इस गाँव जैसा सुन्दर स्थान और नहीं, इस बारे में वह आश्वस्त थी। शिवमंदिर के समीप ही एक धर्मशाला थी। ग्राम पंचायत की सभाएँ यहीं होतीं और आता-जाता बटोही भी यहीं टिक जाता।
गाँव पर प्रकृति का वरदहस्त था, वैसे ही शायद एक अभिशाप भी था। हर चार-पाँच साल में दुर्भाग्य जैसे ग्रामवासियों की परीक्षा लेता। कभी होती अतिवृष्टि तो कभी होती अनावृष्टि। सामान्यतः इस गाँव से कलरव करती बहनेवाली गंगा की अवस्था बाबुल का घर छोड़कर ससुराल जानेवाली किशोरी मुग्धा बाला जैसी रहती थी। ससुराल तो जाना ही पड़ेगा, इसलिए पीछे मुड़कर, गाँव के सृष्टि-सौन्दर्य को पलकों में समेटते हुए वह जैसे अनिच्छा से आगे बढ़ती। लेकिन वर्षा ऋतु में वह कभी-कभी अपना अल्हड़पन छोड़ देती। किसी विक्षिप्त की भाँति तीव्र गति से दौड़ने लगती। किनारों की मर्यादाएँ लाँघकर गाँव को अपनी भुजाओं में जकड़ लेती। पेड़-फसलों को और टपरों को अपने साथ बहाकर ले जाती। लोग गाँव छोड़ देते। अनावृष्टि में भी गाँव तो छोड़ना ही पड़ता। मेहनत-मजदूरी करने लोग शहर में जाते। गाँव पर आयी विपदा टली कि फिर लौट आते। घर के बर्तन-भाँड़े और खेत साहूकार के पास गिरवी रखते। जीवन नये सिरे से शुरू करते।
एक दिन गाँव में एक संन्यासी आया। शिव मंदिर के पास वाली धर्मशाला में वह टिका। यह समाचार मिलते ही कुछ ग्रामीण वहाँ पहुँचे। उन्हें देखकर संन्यासी के चेहरे पर कुछ भी भाव प्रकट नहीं हुए; न खुशी के और न ही नाराजी के।
‘‘किस गाँव में निवास करते हैं महाराज ?’’ एक ने पूछा।
‘‘संन्यासी का कोई गाँव नहीं होता।’’ बस, इतना ही उत्तर।
‘‘आपके माता-पिता ?’’
‘‘रिश्ते-नाते भी नहीं होते संन्यासी के,’’ और मुस्कुराते हुए मंदिर की ओर इशारा कर संन्यासी बोला, ‘‘यह गंगाधर ही मेरा पिता और गंगा मेरी माता !’’
यह सुनकर ग्रामीण निरुत्तर हुए। फिर किसी ने पूछा, ‘‘आपके भोजन की व्यवस्था ?’’
‘‘जगदीश्वर करेगा।’’
संन्यासी आटा-दाल ले आने को कहेगा, इस अपेक्षा से ग्रामीण वहाँ बैठे रहे। लेकिन संन्यासी ने चुप्पी साध रखी थी। कुछ क्षण ऐसे ही बीत जाने पर एक ढीठ ग्रामीण ने पूछा, ‘‘कितने दिन मुकाम रहेगा महाराज का ?’’
यह सुनकर संन्यासी को क्रोध आया। अपनी लाल आँखे शून्य में घुमाते हुए, मानो किसी तंद्रा में हो, वह बोला, ‘‘यज्ञ होगा..बहुत बड़ा यज्ञ ! आग भड़केगी...आहुति दी जाएगी...!’’
इतना कहकर संन्यासी इस प्रकार डोलने लगा जैसे किसी आत्मा ने उसकी काया में प्रवेश किया हो।
यह देख-सुनकर गाँव वाले स्तब्ध रह गये। यह संन्यासी कोई पहुँचा हुआ महात्मा है, इस पर उन्हें कोई शक नहीं रहा। उन्होंने आज तक कई साधु-संन्यासी, सन्त-महात्मा देखे थे। उनका रहस्यमय, सांकेतिक बोलना भी सुना था। फिर भी इस संन्यासी ने जो कहा, वह उनकी समझ से बाहर था। लेकिन हाँ, संन्यासी ने शिवमंदिर की ओर संकेत करते हुए, ‘‘यह गंगाधर मेरा पिता...’ कहा था। इसलिए वे उस संन्यासी को गजानन महाराज के नाम से सबोधित करने लगे। गाँववालों के लिए गजानन महाराज एक पहेली बने हुए थे। साठ-पैंसठ साल की उम्र, ऊँची कद-काठी, विशाल तेजस्वी नेत्र, ग्रीवा के नीचे तक बढ़े काले घने बाल और लम्बी दाढ़ी-मूँछोंवाले महाराज का व्यक्तित्व रोबीला लगता था। वे गेरुए रंग की कफनी पहनते थे, बस इसलिए ही उन्हें संन्यासी कह रहे थे ! लेकिन उनके पास न तो चिमटा था और न चिलम, न कोई चेला था और न ही धूनी ! महाराज जी गाँव में कभी आते ही नहीं थे। भिक्षा न माँगने वाला संन्यासी ग्रामवासियों ने कभी नहीं देखा था। सचमुच जगदीश्वर ही उनके दाल-आटे की व्यवस्था करता होगा। अलस्सुबह उठकर स्नान के लिए गंगा जाते-जाते उनके द्वारा उच्च स्वर में गायी जाने वाली रामायण की चौपाइयाँ और दोहे, और दोपहरी में भोजन बनाने के लिए जलाये गये चूल्हे से उठने वाले धुएँ के अलावा गजानन महाराज का गाँव में उनके अस्तित्व को जतानेवाला और कोई चिह्न गाँव वालों को मालूम नहीं था। धर्मशाला से सटकर महाराज जी ने एक कुटिया भी बना ली थी। उसमें से वे शायद ही कभी बाहर निकलते हों। इसलिए पूरे गाँव के लिए गजानन महाराज एक पहेली बने हुए थे।
महाराजजी के पहेली बनने का एक और भी कारण था। कुटिया से शायद ही कभी बाहर निकलने वाले महाराज कभी-कभी हफ्तों तक कहाँ अज्ञातवास में चले जाते, किसी को मालूम नहीं होता ! कोई कहता कि वे कानपुर, बिठूर जाते हैं, तो कोई कहता मथुरा, दिल्ली की तरफ। एक बार एक गाँववाले के यहाँ महाराष्ट्र से उनका भानजा आया हुआ था। एक दिन वह शिवमंदिर में दर्शन करने गया तो उसने महाराजजी को देख लिया। उसका कौतुहल जागा, और फिर उसे अचानक याद आया कि उसने इन्हीं महाराज को सतारा में देखा था, इस बात की चर्चा पूरे गाँव में दबी जुबान में चली। रहस्य और गहराया। लेकिन इस बारे में उनसे कुछ पूछने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। एक बात जरूर थी कि पूरे गाँव को गजानन महाराज पर अटूट श्रद्धा जरूर उत्पन्न हुई थी।
सन् अठारह सौ पचपन, मई का महीना। लगातार अकाल का यह दूसरा वर्ष !
गत वर्ष आषाढ़ के प्रारम्भ में ही आकाश में छितरे बादलों को देखकर किसानों ने खेत में हल चलाया था। एक-दो बार वर्षा होने पर बुआई भी कर दी थी। लेकिन इसके बाद बादल न जाने कहाँ लापता हो गये। बादल आये भी तो बिना बरसे निकल गये थे। आषाढ़ गया, सावन बीता और उसके पीछे-पीछे भादों भी ! फिर तो किसानों को भविष्य साफ दिखने लगा। वर्षा ऋतु ने अपने कर्तव्य में कोताही की, लेकिन शिशिर ऋतु ने अपना कार्य पूरी लगन से किया; उसने पेड़-पौधों पर एक पत्ता भी रहने नहीं दिया। उसके बाद आया वसन्त ! लेकिन उसने गाँव में मुकाम किया ही नहीं। गाँव की सुन्दरता नष्ट हो गयी।
ऐसे में ही फिर ज्येष्ठ प्रारम्भ हुआ था। सूर्य की सहस्त्रों किरणों की तलवारों के घाव गाँव के उदास घर, निष्पर्ण पेड़ों के अस्थि-पंजर और सूखे खेत सह रहे थे। सभी के चेहरे पर चिन्ता की कजली जमी थी। बीते अकाल में साहूकार के पास गिरवी रखे चाँदी-सोने के जेवर अभी तक छुड़ा भी नहीं पाये थे कि फिर वही आपदा आन पड़ी थी। उसी रेहन पर थोड़ी और रकम न मिली तो कुछ लोग गाँव छोड़ने का विचार कर रहे थे।
उस दिन तो गर्मी पराकाष्ठा पर थी। सूर्य अपनी पूरी शक्ति से गाँव पर टूट पड़ा था। सब दूर मानो अग्निकुण्ड धधक रहा था। अपने-अपने घरों के दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द कर लोग अन्दर बैठे थे। भरी दोपहर में मध्यरात्रि का-सा सन्नाटा छाया हुआ था। बीच-बीच में चील का स्वर या कुत्ते का रुदन सन्नाटे को चीर देता। लेकिन दूसरे ही क्षण जरासन्ध की देह के समान सन्नाटा फिर अभंग हो जाता।
ऐसे समय गिद्धों का एक झुण्ड आकाश में मँडरा रहा था, दाना-पानी के अभाव में मरे मवेशियों का मांस खाने...!
...और गंगा की धारा से समानान्तर रास्ते पर से कानपुर का डिप्टी कलेक्टर गाँव की तरफ जा रहा था, अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ, किसानों से लगान वसूल करने। साहब बग्घी में बैठा था। उसे गर्मी से तकलीफ न हो इसलिए बग्घी के दोनों तरफ लगे चमड़े के पर्दे निकाल दिये गये थे और उनकी जगह खस की टट्टियाँ लगायी गयी थीं। बग्घी के दोनों ओर से चार-छः सेवक भैंसे की पीठ पर मशकें लादे चल रहे थे। मशक में से पानी बग्घी की खस-टट्टियों पर छिड़क रहे थे।
अभी-अभी विलायत से आया वह डिप्टीकलेक्टर अधिक-से-अधिक पच्चीस वर्ष की उम्र का होगा। हिन्दुस्तान पर राज करने की जिम्मेदारी भगवान ने ही गोरे लोगों को सौंपी है, ऐसी उसकी अवधारणा होने के कारण उसका बर्ताव बड़ा ही उद्दण्डता का था। कानपुर से निकलते समय उसके जूतों के फीते नौकर ने ठीक से नहीं बाँधे थे, इसलिए उसने उसकी पीठ पर लात जमायी थी। तिस-पर भी-उसका क्रोध अभी तक शान्त नहीं हुआ था। सामने बैठे जमींदार पर जिस-तिस बहाने वह उबल पड़ रहा था। उस पर गालियों की बौछार तो जारी थी ही ! इन सबको स्वीकार करते हुए साहब की सेवा में किसी प्रकार की कोताही न हो, इस बात की वह खबर ले रहा था। लाचारी दिखाकर साहब का गुस्सा शान्त करने की कोशिश कर रहा था।
लेकिन आज जमींदार की किस्मत उल्टी ही चल रही थी। साहब को खुश करने के लिए बोतल की बियर-प्याले में उँड़ेलकर उसने बड़े अदब से प्याला साहब के समाने किया, लेकिन तभी बग्घी ने छोटा-सा मोड़ लिया और साहब की पतलून पर बियर छिटक गयी। गालियाँ देने के लिए साहब को एक और बहाना मिल गया। वह जोर से दहाड़ते हुए बोला, ‘‘डैम फूल ! सीधा गिलास पकड़ने नहीं आता तुझे ? ईडियट !’’
यह डपट सुनकर जमींदार शर्मिन्दा हुआ। अपने पंजे से साहब की पतलून पोंछने लगा। उसका हाथ झिड़कते हुए साहब और भी बरस पड़ा, ‘‘तेरी नालायकी से हमको तकलीफ उठानी पड़ रही है, समझा ? कहता है, लगान वसूल नहीं हो रहा है ! यह क्या मजाक है ? आगे ठीक ढंग से काम नहीं हुआ तो जमींदारी से तुझे बर्खास्त तो करना होगा ही, इसके अलावा लगान की बकाया रकम तेरे बाप से वसूल कर लेंगे हम। याद रख, यू बेवकूफ !’’
भरपूर रिश्वत देकर मिले जमींदारी के अख्तियार वास्तव में ही छीन लिये गये तो कितना अनर्थ होगा, इस विचार से जमींदार काँप गया। पंखे से साहब को हवा करने का काम थोड़ी देर रोककर, हाथ जोड़कर, बड़ी लाचारी से उसने कहा, ‘‘प्लीज, नो सर ! कसूर माफ हो सरकार ! अगले साल ऐसा नहीं होने दूँगा। उनके घरबार पर गधे का हल चलवा दूँगा और लगान की एक-एक पाई चुका दूँगा, माई बाप !’’ और फिर नीचे झुककर उसने साहब के जूते को छुआ। साहब के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान देखकर उसकी जान में जान आयी। साहब को और अधिक खुश करने की नीयत से जमींदार ने बग्घी का परदा ऊपर उठाया और पानी छींटनेवाले नौकरों पर उबल पड़ा, ‘‘डैम फूल ! यू काला आदमी, जल्दी-जल्दी पानी डालो।’’ और फिर साहब से दाँत निपोरकर बोला, ‘‘साहब, जानवरों से भी बुद्धिहीन लोग हैं ये। गाली खाये बगैर कुछ सुनते ही नहीं। आप जैसा दयालु सामने है इसलिए, नहीं तो लातें जमायी होतीं इन जानवरों की पीठ पर।’’
जानवरों को लातें जमाने की इच्छा जमींदार ने जाहिर की, इसलिए साहब और खुश हुआ। लेकिन ऐसा न दर्शाते हुए, बड़े लोगों को छोटे लोगों पर, मातहतों पर कैसी दया दिखानी चाहिए, इस पर एक छोटा-सा भाषण उसने झाड़ दिया।–
‘‘आज की ही बात लो !’’ साहब कहने लगा, ‘‘जूते का फीता तक बाँधते नहीं बना मेरे नौकर से ! गुड फॉर नथिंग ! उस जानवर को आदमी बनाना मेरा फर्ज होता है, इसलिए मैंने लगायी एक लात उसे ! मेरी जगह कोई दूसरा होता तो सीधे गोली से उड़ा दिया होता उसे...ईडियट !’’ फिर उसने अपने महान इंग्लैण्ड देश और उदात्त ईसाई धर्म पर प्रवचन शुरू कर किया। जमींदार उसे भक्तिभाव से सुनता रहा। बग्घी के पीछे से चलने वाले घुड़सवारों का उल्लेख कर साहब ने कहा, ‘‘दो साल पहले ही क्या हालत थी इनकी ! कोई पाखाना साफ करता था, तो कोई मरे ढोर के मांस पर अपना गुजर-बसर करता था और तुम लोगों की गालियाँ खाता था। लेकिन अब देखो ! क्या रुतबा है इनका ! उनके हमारे धर्म में आते ही कैसा जादू हो गया है, यह देखो। अब है किसी की हिम्मत इनकी तरफ आँख उठाकर देखने की ? नहीं तो पानी छींटनेवाले वे लोग देखो। मशकों का बोझ उठाने वाले भैंसे में और उनमें कोई है फर्क ?’’
साहब का प्रश्न लाचारी से झेलते हुए जमींदार ने नकारात्मक गर्दन हिलायी। साहब के चेहरे पर विजयी मुस्कान फूट पड़ी। हाथ जोड़ते हुए जमींदार ने कहा, ‘‘सच है साहब आपका कहना। इस देश में और इस धर्म में पैदा होने की बड़ी लज्जा हो रही है मुझे। लेकिन क्या किया जाए !’’ और फिर मानो देश और धर्म की लज्जा कम करने के लिए ही उसने पानी छिटकने वालों पर गालियों की बौछार की।
शिव मंदिर के पास, धर्मशाला में सब गाँववासी ठसाठस भरे खड़े थे। हाथ की छड़ी अपनी पतलून पर हलके-से ठोंकते हुए गोरा साहब उनके सामने खड़ा था। जमींदार एक चोपड़ी से प्रत्येक ग्रामीण का नाम व उसकी तरफ बकाया लगान की रकम पढ़कर सुना रहा था। वह सुनकर हर कोई स्तम्भित हो रहा था। इतने पैसे लाएँगे कहाँ से ? यह सवाल हरेक के सामने होने से सभी बेचैन हो गये थे। बूचड़खाने में खड़ी भेड़-बकरियों की तरह सब सद्यःप्रसंग का सामना करने को तत्पर हो गये थे।
लेकिन निर्भयता से खड़ा था तो अकेला रघुनाथ ! बीस-पच्चीस साल का नौजवान ! फौलादी तन का और फौलादी मन का। मूँछों की नोकों को ऊपर तानकर वह खड़ा था। साहब के प्रति उसके मन में क्रोध उबल रहा था। गाँववालों की निरीहता को देखकर वह बहुत चिढ़ भी गया था। चार-पाँच सिपाहियों को साथ लेकर कहाँ से आये किसी साहब के सामने दो-ढाई सौ मर्दों की झुकी हुई गर्दनें देखकर उसे बहुत शर्मिन्दगी महसूस हो रही थी।
लगान के लिए जमींदार एक-एक गाँववासी का नाम ले-लेकर उसे गालियाँ दे रहा था और लगान की रकम की माँग कर रहा था। लेकिन यह बकवास साहब को पसन्द नहीं आ रही थी। काम जल्दी निपटाकर उसे ब्रह्मावर्त पहुँचना था। श्रीमन्त नानासाहब ने उसे आज ब्रह्मावर्त आने का निमंत्रण दिया था। उनका वैभव सम्पन्न महल, वहाँ की दावतें औऱ मौजमस्ती के बारे में उसने काफी कुछ सुना था। अतः काम निपटाकर वहाँ पहुँचने के लिए वह आतुर था। इसलिए जमींदार की गालियों की लम्बी-चौड़ी रट उसे असह्य लगी। उसने हाथ की छड़ी जमींदार की पीठ में चुभाते हुए उसे चुप रहने का संकेत दिया और गाँववासियों से निर्णायक स्वर में कहा, ‘‘तुम लोग सरकार का लगान नहीं देते हो, यह ठीक बात नहीं। हमको यहाँ ज्यादा ठहरने का वक्त नहीं है। यू बास्टर्ड्स, पैसे निकालो जल्दी से, नहीं तो इन सिपाहियों को तुम्हारे घर लूटने का और जलाकर राख करने का हम हुक्म देंगे।...
साहब ने होठों पर जिह्वा घुमायी, यह देखकर जमींदार ने पास खड़े सिपाही को इशारा किया। सिपाही तत्काल पानी लेने दौड़ा। मिट्टी के पात्र में नीचे बारीक छेद करके उसमें बूँद-बूँद पानी शिव पिण्डी पर टपके, ऐसी व्यवस्था श्रद्धालु गाँववासियों ने की थी। धर्मभ्रष्ट सिपाही जूते निकाले बिना ही मंदिर के गर्भगृह में घुसा और शिव-पिण्डी पर टाँगे गये मिट्टी के अभिषेक पात्र में अपनी चमड़े की थैली से गिलास निकालर डुबा दिया। यह कृत्य देखकर गाँववासियों ने मन-ही-मन उसको कोसा। लेकिन उसे रोकने की किसी ने भी हिम्मत नहीं की। इधर साहब की जुबान से धाराप्रवाह अपशब्द जारी थे-
‘‘तुम बेईमान हो। तुम्हारे पास पैसा नहीं है क्या ? हण्टर से एक-एक की चमड़ी उधेड़ूँगा, तब पता चलेगा हरामखोरों को !’’
‘‘लेकिन साहब’’ भीड़ में से एक आवाज गूँज उठी, ‘‘आज तक हर साल हमने लगान नहीं दिया क्या ? लेकिन इस साल लगान देने को पैसा कहाँ से लाएँगे हम लोग ? खेत में कुछ पका तो सरकार को देंगे ही। अपने ही पेट भरने के लाले पड़े हैं। हम लगान नहीं देंगे ?’’ रघुनाथ ने गाँववासियों का पक्ष रखा।
यह सुनकर गोरे साहब को गुस्सा आया, पर उससे अधिक गुस्सा आया जमींदार को ! साहब यानी उसका भगवान ! उसको उलटकर जवाब देना, उसकी माँग नकारना कितना बड़ा अपराध है ! वह होशोहवास खोकर बोला, ‘‘चुप बैठ नालायक। कहता है पैसा नहीं है ! पैसे नहीं हैं तो औरत के गहने गिरवी रख।’’
‘‘गहनों के नाम पर जो भी है उससे पाँच-छः रुपये भी नहीं मिलेंगे साहब !’’ रघुनाथ ने समस्या बतायी।
‘‘तो फिर औरत बेचकर चुका लगान। हट्टी-कट्टी जवान औरत लेने कौन तैयार नहीं होगा...!’’
लेकिन जमींदार आगे बोल ही नहीं पाया। फिर जो हुआ, पलक झपकते ही हुआ। उसकी कनपटी पर तड़ाक से एक झापड़ पड़ने की आवाज सबने सुनी। लोग समझते न समझते, इतने में जमींदार को लड़खड़ाते साहब पर गिरते हुए लोगों ने देखा। खुद को सँभालते-सँभालते साहब भी उसके धक्के से नीचे गिरा। आसपास खड़े सिपाही स्तब्ध होकर उस अनपेक्षित दृश्य को देखते रह गये। साहब का मनमाने हुक्म चलाना, और रैयत को उसका पालन करना, यही सिपाहियों को मालूम था। प्रतिकार की हल्की-सी कल्पना भी उन्हें नहीं थी। इसलिए आज जो कुछ घटित हुआ, वह देखकर वह आश्चर्यचकित हो गये। रघुनाथ ने जमींदार को जम के हाथ जमा दिये थे।
जमींदार के चीखने से सिपाही जैसे होश में आये, पर रघुनाथ का आवेश देखकर किसी को उसके पास जाने की हिम्मत नहीं हुई। अब आगे क्या होने वाला है, इसकी कल्पना रघुनाथ को हो गयी थी। सिपाही हरकत में आते, इसके पूर्व ही उनमें से एक की बंदूक छीनकर रघुनाथ दहाड़ा, ‘‘हाँ, खबरदार ! कोई आगे बढ़ा तो एक-एक को भूनकर रख दूँगा।’’
इतना कहकर रघुनाथ धर्मशाला से तेजी से बाहर निकला। सिपाहियों के घोड़े बाहर खड़े ही थे। उसमें से एक पर सवार होकर रघुनाथ ने एड़ लगायी। पीछे-पीछे साहब, जमींदार और सिपाही बाहर आये। रघुनाथ घोड़ा दौड़ाते हुए दूर भागा जा रहा था। ‘‘शूट हिम् !’’ साहब चिल्लाया। उसी के साथ एक सिपाही की बंदूक गरज उठी। लेकिन चिलचिलाती धूप में रघुनाथ अदृश्य हो गया।
वर्ष की सभी ऋतुएँ अपना वैभव मुक्त हस्त से गाँव पर उँड़ेल देतीं। फागुन के जाते-जाते ही वृक्ष-लताओं के मण्डप सजते। विविध पक्षियों के संवादी सुरों की संगत पर जैसे ही कोयल का पंचम स्वर में गायन शुरू होता तो ऐसा लगता जैसे साक्षात् वसन्त ही वृक्षों पर आ बैठा हो। गर्भवती स्त्री-की-सी मन्थरता आम्रवाटिका को आती। मंजरियों के बोझ से वह झुक जाती। वह हौले से हिलती और हौले से ही डोलती। उस पर उसकी पड़ोसन जम्बुवाटिका उससे ठिठोली करती। फिर आम्रवाटिका उससे कहती, ‘‘ठहर, अब दस-पन्द्रह दिन की तो बात ही है। फिर मैं भी देखूँगी कि तेरा भी यही हाल होता है या नहीं।’’ गाँव का सौन्दर्य अपनी चरम-सीमा पर पहुँचता वर्षा ऋतु में। आकाश से बरसनेवाली जलधाराएँ गंगा के प्रवाह पर भाँति-भाँति के फूल उकेरतीं। ग्रीष्म में ताप असह्य होने के कारण दूर फेंके हरित आभूषण वसुन्धरा फिर से धारण कर लेती। सूर्यास्त के समय किरणों का साफा मस्तक पर बाँधे बड़े बुजुर्ग वृक्ष गर्दन हिला-डुलाकर आपस में बतियाते। लताएँ रंग-बिरंगे कर्णफूल पहनकर इठलातीं, थिरकतीं।
ठण्ड के दिन कुछ तकलीफ के अवश्य होते। लेकिन दिन भर धूप रहती। सूर्यास्त होते ही सन्ध्या देवी कोहरे की मोटी गुदड़ी पूरे गाँव को उढ़ा देती। फिर गंगा माँ सहित पूरा गाँव उसकी स्नेहिल ऊष्मा में बड़े मजे से रात गुजारता।
गाँव चित्रित-सा, जैसे रेखाओं से खिंचा हुआ था। उसमें कुल चार घर ब्राह्मणों के थे। आठ-दस वैश्यों के थे। बाकी सब विभिन्न जातियों के थे। कोई बढ़ई तो, कोई लुहार, कोई जुलाहा, तो कोई चर्मकार। पर ये सभी अपना-अपना धर्म पुश्तैनी धन्धा करते खाली समय में। इन सभी के उदरपोषण का साधन थी-कृषि। धरती माँ उनकी थोड़ी-सी सेवा से ही प्रसन्न होती, चुटकी-भर बोएँ तो मुट्टी भर देती। पूरा वर्ष अमन चैन से बीतता।
गाँव के एक छोर पर शिव मंदिर था। त्रिपुरासुर का नाश करने के उपरान्त जाह्नवी शंकरजी को विश्राम हेतु यहीं लेकर आयी थीं, ऐसी किंवदन्ती इस शिव मंदिर के बारे में गाँव की पंचकोशी में विख्यात थी। इसमें सत्यता भी होगी। क्योंकि गंगा के उद्गम से लेकर उसके समुद्र में विलीन होने तक के भूप्रदेश में इस गाँव जैसा सुन्दर स्थान और नहीं, इस बारे में वह आश्वस्त थी। शिवमंदिर के समीप ही एक धर्मशाला थी। ग्राम पंचायत की सभाएँ यहीं होतीं और आता-जाता बटोही भी यहीं टिक जाता।
गाँव पर प्रकृति का वरदहस्त था, वैसे ही शायद एक अभिशाप भी था। हर चार-पाँच साल में दुर्भाग्य जैसे ग्रामवासियों की परीक्षा लेता। कभी होती अतिवृष्टि तो कभी होती अनावृष्टि। सामान्यतः इस गाँव से कलरव करती बहनेवाली गंगा की अवस्था बाबुल का घर छोड़कर ससुराल जानेवाली किशोरी मुग्धा बाला जैसी रहती थी। ससुराल तो जाना ही पड़ेगा, इसलिए पीछे मुड़कर, गाँव के सृष्टि-सौन्दर्य को पलकों में समेटते हुए वह जैसे अनिच्छा से आगे बढ़ती। लेकिन वर्षा ऋतु में वह कभी-कभी अपना अल्हड़पन छोड़ देती। किसी विक्षिप्त की भाँति तीव्र गति से दौड़ने लगती। किनारों की मर्यादाएँ लाँघकर गाँव को अपनी भुजाओं में जकड़ लेती। पेड़-फसलों को और टपरों को अपने साथ बहाकर ले जाती। लोग गाँव छोड़ देते। अनावृष्टि में भी गाँव तो छोड़ना ही पड़ता। मेहनत-मजदूरी करने लोग शहर में जाते। गाँव पर आयी विपदा टली कि फिर लौट आते। घर के बर्तन-भाँड़े और खेत साहूकार के पास गिरवी रखते। जीवन नये सिरे से शुरू करते।
एक दिन गाँव में एक संन्यासी आया। शिव मंदिर के पास वाली धर्मशाला में वह टिका। यह समाचार मिलते ही कुछ ग्रामीण वहाँ पहुँचे। उन्हें देखकर संन्यासी के चेहरे पर कुछ भी भाव प्रकट नहीं हुए; न खुशी के और न ही नाराजी के।
‘‘किस गाँव में निवास करते हैं महाराज ?’’ एक ने पूछा।
‘‘संन्यासी का कोई गाँव नहीं होता।’’ बस, इतना ही उत्तर।
‘‘आपके माता-पिता ?’’
‘‘रिश्ते-नाते भी नहीं होते संन्यासी के,’’ और मुस्कुराते हुए मंदिर की ओर इशारा कर संन्यासी बोला, ‘‘यह गंगाधर ही मेरा पिता और गंगा मेरी माता !’’
यह सुनकर ग्रामीण निरुत्तर हुए। फिर किसी ने पूछा, ‘‘आपके भोजन की व्यवस्था ?’’
‘‘जगदीश्वर करेगा।’’
संन्यासी आटा-दाल ले आने को कहेगा, इस अपेक्षा से ग्रामीण वहाँ बैठे रहे। लेकिन संन्यासी ने चुप्पी साध रखी थी। कुछ क्षण ऐसे ही बीत जाने पर एक ढीठ ग्रामीण ने पूछा, ‘‘कितने दिन मुकाम रहेगा महाराज का ?’’
यह सुनकर संन्यासी को क्रोध आया। अपनी लाल आँखे शून्य में घुमाते हुए, मानो किसी तंद्रा में हो, वह बोला, ‘‘यज्ञ होगा..बहुत बड़ा यज्ञ ! आग भड़केगी...आहुति दी जाएगी...!’’
इतना कहकर संन्यासी इस प्रकार डोलने लगा जैसे किसी आत्मा ने उसकी काया में प्रवेश किया हो।
यह देख-सुनकर गाँव वाले स्तब्ध रह गये। यह संन्यासी कोई पहुँचा हुआ महात्मा है, इस पर उन्हें कोई शक नहीं रहा। उन्होंने आज तक कई साधु-संन्यासी, सन्त-महात्मा देखे थे। उनका रहस्यमय, सांकेतिक बोलना भी सुना था। फिर भी इस संन्यासी ने जो कहा, वह उनकी समझ से बाहर था। लेकिन हाँ, संन्यासी ने शिवमंदिर की ओर संकेत करते हुए, ‘‘यह गंगाधर मेरा पिता...’ कहा था। इसलिए वे उस संन्यासी को गजानन महाराज के नाम से सबोधित करने लगे। गाँववालों के लिए गजानन महाराज एक पहेली बने हुए थे। साठ-पैंसठ साल की उम्र, ऊँची कद-काठी, विशाल तेजस्वी नेत्र, ग्रीवा के नीचे तक बढ़े काले घने बाल और लम्बी दाढ़ी-मूँछोंवाले महाराज का व्यक्तित्व रोबीला लगता था। वे गेरुए रंग की कफनी पहनते थे, बस इसलिए ही उन्हें संन्यासी कह रहे थे ! लेकिन उनके पास न तो चिमटा था और न चिलम, न कोई चेला था और न ही धूनी ! महाराज जी गाँव में कभी आते ही नहीं थे। भिक्षा न माँगने वाला संन्यासी ग्रामवासियों ने कभी नहीं देखा था। सचमुच जगदीश्वर ही उनके दाल-आटे की व्यवस्था करता होगा। अलस्सुबह उठकर स्नान के लिए गंगा जाते-जाते उनके द्वारा उच्च स्वर में गायी जाने वाली रामायण की चौपाइयाँ और दोहे, और दोपहरी में भोजन बनाने के लिए जलाये गये चूल्हे से उठने वाले धुएँ के अलावा गजानन महाराज का गाँव में उनके अस्तित्व को जतानेवाला और कोई चिह्न गाँव वालों को मालूम नहीं था। धर्मशाला से सटकर महाराज जी ने एक कुटिया भी बना ली थी। उसमें से वे शायद ही कभी बाहर निकलते हों। इसलिए पूरे गाँव के लिए गजानन महाराज एक पहेली बने हुए थे।
महाराजजी के पहेली बनने का एक और भी कारण था। कुटिया से शायद ही कभी बाहर निकलने वाले महाराज कभी-कभी हफ्तों तक कहाँ अज्ञातवास में चले जाते, किसी को मालूम नहीं होता ! कोई कहता कि वे कानपुर, बिठूर जाते हैं, तो कोई कहता मथुरा, दिल्ली की तरफ। एक बार एक गाँववाले के यहाँ महाराष्ट्र से उनका भानजा आया हुआ था। एक दिन वह शिवमंदिर में दर्शन करने गया तो उसने महाराजजी को देख लिया। उसका कौतुहल जागा, और फिर उसे अचानक याद आया कि उसने इन्हीं महाराज को सतारा में देखा था, इस बात की चर्चा पूरे गाँव में दबी जुबान में चली। रहस्य और गहराया। लेकिन इस बारे में उनसे कुछ पूछने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। एक बात जरूर थी कि पूरे गाँव को गजानन महाराज पर अटूट श्रद्धा जरूर उत्पन्न हुई थी।
सन् अठारह सौ पचपन, मई का महीना। लगातार अकाल का यह दूसरा वर्ष !
गत वर्ष आषाढ़ के प्रारम्भ में ही आकाश में छितरे बादलों को देखकर किसानों ने खेत में हल चलाया था। एक-दो बार वर्षा होने पर बुआई भी कर दी थी। लेकिन इसके बाद बादल न जाने कहाँ लापता हो गये। बादल आये भी तो बिना बरसे निकल गये थे। आषाढ़ गया, सावन बीता और उसके पीछे-पीछे भादों भी ! फिर तो किसानों को भविष्य साफ दिखने लगा। वर्षा ऋतु ने अपने कर्तव्य में कोताही की, लेकिन शिशिर ऋतु ने अपना कार्य पूरी लगन से किया; उसने पेड़-पौधों पर एक पत्ता भी रहने नहीं दिया। उसके बाद आया वसन्त ! लेकिन उसने गाँव में मुकाम किया ही नहीं। गाँव की सुन्दरता नष्ट हो गयी।
ऐसे में ही फिर ज्येष्ठ प्रारम्भ हुआ था। सूर्य की सहस्त्रों किरणों की तलवारों के घाव गाँव के उदास घर, निष्पर्ण पेड़ों के अस्थि-पंजर और सूखे खेत सह रहे थे। सभी के चेहरे पर चिन्ता की कजली जमी थी। बीते अकाल में साहूकार के पास गिरवी रखे चाँदी-सोने के जेवर अभी तक छुड़ा भी नहीं पाये थे कि फिर वही आपदा आन पड़ी थी। उसी रेहन पर थोड़ी और रकम न मिली तो कुछ लोग गाँव छोड़ने का विचार कर रहे थे।
उस दिन तो गर्मी पराकाष्ठा पर थी। सूर्य अपनी पूरी शक्ति से गाँव पर टूट पड़ा था। सब दूर मानो अग्निकुण्ड धधक रहा था। अपने-अपने घरों के दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द कर लोग अन्दर बैठे थे। भरी दोपहर में मध्यरात्रि का-सा सन्नाटा छाया हुआ था। बीच-बीच में चील का स्वर या कुत्ते का रुदन सन्नाटे को चीर देता। लेकिन दूसरे ही क्षण जरासन्ध की देह के समान सन्नाटा फिर अभंग हो जाता।
ऐसे समय गिद्धों का एक झुण्ड आकाश में मँडरा रहा था, दाना-पानी के अभाव में मरे मवेशियों का मांस खाने...!
...और गंगा की धारा से समानान्तर रास्ते पर से कानपुर का डिप्टी कलेक्टर गाँव की तरफ जा रहा था, अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ, किसानों से लगान वसूल करने। साहब बग्घी में बैठा था। उसे गर्मी से तकलीफ न हो इसलिए बग्घी के दोनों तरफ लगे चमड़े के पर्दे निकाल दिये गये थे और उनकी जगह खस की टट्टियाँ लगायी गयी थीं। बग्घी के दोनों ओर से चार-छः सेवक भैंसे की पीठ पर मशकें लादे चल रहे थे। मशक में से पानी बग्घी की खस-टट्टियों पर छिड़क रहे थे।
अभी-अभी विलायत से आया वह डिप्टीकलेक्टर अधिक-से-अधिक पच्चीस वर्ष की उम्र का होगा। हिन्दुस्तान पर राज करने की जिम्मेदारी भगवान ने ही गोरे लोगों को सौंपी है, ऐसी उसकी अवधारणा होने के कारण उसका बर्ताव बड़ा ही उद्दण्डता का था। कानपुर से निकलते समय उसके जूतों के फीते नौकर ने ठीक से नहीं बाँधे थे, इसलिए उसने उसकी पीठ पर लात जमायी थी। तिस-पर भी-उसका क्रोध अभी तक शान्त नहीं हुआ था। सामने बैठे जमींदार पर जिस-तिस बहाने वह उबल पड़ रहा था। उस पर गालियों की बौछार तो जारी थी ही ! इन सबको स्वीकार करते हुए साहब की सेवा में किसी प्रकार की कोताही न हो, इस बात की वह खबर ले रहा था। लाचारी दिखाकर साहब का गुस्सा शान्त करने की कोशिश कर रहा था।
लेकिन आज जमींदार की किस्मत उल्टी ही चल रही थी। साहब को खुश करने के लिए बोतल की बियर-प्याले में उँड़ेलकर उसने बड़े अदब से प्याला साहब के समाने किया, लेकिन तभी बग्घी ने छोटा-सा मोड़ लिया और साहब की पतलून पर बियर छिटक गयी। गालियाँ देने के लिए साहब को एक और बहाना मिल गया। वह जोर से दहाड़ते हुए बोला, ‘‘डैम फूल ! सीधा गिलास पकड़ने नहीं आता तुझे ? ईडियट !’’
यह डपट सुनकर जमींदार शर्मिन्दा हुआ। अपने पंजे से साहब की पतलून पोंछने लगा। उसका हाथ झिड़कते हुए साहब और भी बरस पड़ा, ‘‘तेरी नालायकी से हमको तकलीफ उठानी पड़ रही है, समझा ? कहता है, लगान वसूल नहीं हो रहा है ! यह क्या मजाक है ? आगे ठीक ढंग से काम नहीं हुआ तो जमींदारी से तुझे बर्खास्त तो करना होगा ही, इसके अलावा लगान की बकाया रकम तेरे बाप से वसूल कर लेंगे हम। याद रख, यू बेवकूफ !’’
भरपूर रिश्वत देकर मिले जमींदारी के अख्तियार वास्तव में ही छीन लिये गये तो कितना अनर्थ होगा, इस विचार से जमींदार काँप गया। पंखे से साहब को हवा करने का काम थोड़ी देर रोककर, हाथ जोड़कर, बड़ी लाचारी से उसने कहा, ‘‘प्लीज, नो सर ! कसूर माफ हो सरकार ! अगले साल ऐसा नहीं होने दूँगा। उनके घरबार पर गधे का हल चलवा दूँगा और लगान की एक-एक पाई चुका दूँगा, माई बाप !’’ और फिर नीचे झुककर उसने साहब के जूते को छुआ। साहब के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान देखकर उसकी जान में जान आयी। साहब को और अधिक खुश करने की नीयत से जमींदार ने बग्घी का परदा ऊपर उठाया और पानी छींटनेवाले नौकरों पर उबल पड़ा, ‘‘डैम फूल ! यू काला आदमी, जल्दी-जल्दी पानी डालो।’’ और फिर साहब से दाँत निपोरकर बोला, ‘‘साहब, जानवरों से भी बुद्धिहीन लोग हैं ये। गाली खाये बगैर कुछ सुनते ही नहीं। आप जैसा दयालु सामने है इसलिए, नहीं तो लातें जमायी होतीं इन जानवरों की पीठ पर।’’
जानवरों को लातें जमाने की इच्छा जमींदार ने जाहिर की, इसलिए साहब और खुश हुआ। लेकिन ऐसा न दर्शाते हुए, बड़े लोगों को छोटे लोगों पर, मातहतों पर कैसी दया दिखानी चाहिए, इस पर एक छोटा-सा भाषण उसने झाड़ दिया।–
‘‘आज की ही बात लो !’’ साहब कहने लगा, ‘‘जूते का फीता तक बाँधते नहीं बना मेरे नौकर से ! गुड फॉर नथिंग ! उस जानवर को आदमी बनाना मेरा फर्ज होता है, इसलिए मैंने लगायी एक लात उसे ! मेरी जगह कोई दूसरा होता तो सीधे गोली से उड़ा दिया होता उसे...ईडियट !’’ फिर उसने अपने महान इंग्लैण्ड देश और उदात्त ईसाई धर्म पर प्रवचन शुरू कर किया। जमींदार उसे भक्तिभाव से सुनता रहा। बग्घी के पीछे से चलने वाले घुड़सवारों का उल्लेख कर साहब ने कहा, ‘‘दो साल पहले ही क्या हालत थी इनकी ! कोई पाखाना साफ करता था, तो कोई मरे ढोर के मांस पर अपना गुजर-बसर करता था और तुम लोगों की गालियाँ खाता था। लेकिन अब देखो ! क्या रुतबा है इनका ! उनके हमारे धर्म में आते ही कैसा जादू हो गया है, यह देखो। अब है किसी की हिम्मत इनकी तरफ आँख उठाकर देखने की ? नहीं तो पानी छींटनेवाले वे लोग देखो। मशकों का बोझ उठाने वाले भैंसे में और उनमें कोई है फर्क ?’’
साहब का प्रश्न लाचारी से झेलते हुए जमींदार ने नकारात्मक गर्दन हिलायी। साहब के चेहरे पर विजयी मुस्कान फूट पड़ी। हाथ जोड़ते हुए जमींदार ने कहा, ‘‘सच है साहब आपका कहना। इस देश में और इस धर्म में पैदा होने की बड़ी लज्जा हो रही है मुझे। लेकिन क्या किया जाए !’’ और फिर मानो देश और धर्म की लज्जा कम करने के लिए ही उसने पानी छिटकने वालों पर गालियों की बौछार की।
शिव मंदिर के पास, धर्मशाला में सब गाँववासी ठसाठस भरे खड़े थे। हाथ की छड़ी अपनी पतलून पर हलके-से ठोंकते हुए गोरा साहब उनके सामने खड़ा था। जमींदार एक चोपड़ी से प्रत्येक ग्रामीण का नाम व उसकी तरफ बकाया लगान की रकम पढ़कर सुना रहा था। वह सुनकर हर कोई स्तम्भित हो रहा था। इतने पैसे लाएँगे कहाँ से ? यह सवाल हरेक के सामने होने से सभी बेचैन हो गये थे। बूचड़खाने में खड़ी भेड़-बकरियों की तरह सब सद्यःप्रसंग का सामना करने को तत्पर हो गये थे।
लेकिन निर्भयता से खड़ा था तो अकेला रघुनाथ ! बीस-पच्चीस साल का नौजवान ! फौलादी तन का और फौलादी मन का। मूँछों की नोकों को ऊपर तानकर वह खड़ा था। साहब के प्रति उसके मन में क्रोध उबल रहा था। गाँववालों की निरीहता को देखकर वह बहुत चिढ़ भी गया था। चार-पाँच सिपाहियों को साथ लेकर कहाँ से आये किसी साहब के सामने दो-ढाई सौ मर्दों की झुकी हुई गर्दनें देखकर उसे बहुत शर्मिन्दगी महसूस हो रही थी।
लगान के लिए जमींदार एक-एक गाँववासी का नाम ले-लेकर उसे गालियाँ दे रहा था और लगान की रकम की माँग कर रहा था। लेकिन यह बकवास साहब को पसन्द नहीं आ रही थी। काम जल्दी निपटाकर उसे ब्रह्मावर्त पहुँचना था। श्रीमन्त नानासाहब ने उसे आज ब्रह्मावर्त आने का निमंत्रण दिया था। उनका वैभव सम्पन्न महल, वहाँ की दावतें औऱ मौजमस्ती के बारे में उसने काफी कुछ सुना था। अतः काम निपटाकर वहाँ पहुँचने के लिए वह आतुर था। इसलिए जमींदार की गालियों की लम्बी-चौड़ी रट उसे असह्य लगी। उसने हाथ की छड़ी जमींदार की पीठ में चुभाते हुए उसे चुप रहने का संकेत दिया और गाँववासियों से निर्णायक स्वर में कहा, ‘‘तुम लोग सरकार का लगान नहीं देते हो, यह ठीक बात नहीं। हमको यहाँ ज्यादा ठहरने का वक्त नहीं है। यू बास्टर्ड्स, पैसे निकालो जल्दी से, नहीं तो इन सिपाहियों को तुम्हारे घर लूटने का और जलाकर राख करने का हम हुक्म देंगे।...
साहब ने होठों पर जिह्वा घुमायी, यह देखकर जमींदार ने पास खड़े सिपाही को इशारा किया। सिपाही तत्काल पानी लेने दौड़ा। मिट्टी के पात्र में नीचे बारीक छेद करके उसमें बूँद-बूँद पानी शिव पिण्डी पर टपके, ऐसी व्यवस्था श्रद्धालु गाँववासियों ने की थी। धर्मभ्रष्ट सिपाही जूते निकाले बिना ही मंदिर के गर्भगृह में घुसा और शिव-पिण्डी पर टाँगे गये मिट्टी के अभिषेक पात्र में अपनी चमड़े की थैली से गिलास निकालर डुबा दिया। यह कृत्य देखकर गाँववासियों ने मन-ही-मन उसको कोसा। लेकिन उसे रोकने की किसी ने भी हिम्मत नहीं की। इधर साहब की जुबान से धाराप्रवाह अपशब्द जारी थे-
‘‘तुम बेईमान हो। तुम्हारे पास पैसा नहीं है क्या ? हण्टर से एक-एक की चमड़ी उधेड़ूँगा, तब पता चलेगा हरामखोरों को !’’
‘‘लेकिन साहब’’ भीड़ में से एक आवाज गूँज उठी, ‘‘आज तक हर साल हमने लगान नहीं दिया क्या ? लेकिन इस साल लगान देने को पैसा कहाँ से लाएँगे हम लोग ? खेत में कुछ पका तो सरकार को देंगे ही। अपने ही पेट भरने के लाले पड़े हैं। हम लगान नहीं देंगे ?’’ रघुनाथ ने गाँववासियों का पक्ष रखा।
यह सुनकर गोरे साहब को गुस्सा आया, पर उससे अधिक गुस्सा आया जमींदार को ! साहब यानी उसका भगवान ! उसको उलटकर जवाब देना, उसकी माँग नकारना कितना बड़ा अपराध है ! वह होशोहवास खोकर बोला, ‘‘चुप बैठ नालायक। कहता है पैसा नहीं है ! पैसे नहीं हैं तो औरत के गहने गिरवी रख।’’
‘‘गहनों के नाम पर जो भी है उससे पाँच-छः रुपये भी नहीं मिलेंगे साहब !’’ रघुनाथ ने समस्या बतायी।
‘‘तो फिर औरत बेचकर चुका लगान। हट्टी-कट्टी जवान औरत लेने कौन तैयार नहीं होगा...!’’
लेकिन जमींदार आगे बोल ही नहीं पाया। फिर जो हुआ, पलक झपकते ही हुआ। उसकी कनपटी पर तड़ाक से एक झापड़ पड़ने की आवाज सबने सुनी। लोग समझते न समझते, इतने में जमींदार को लड़खड़ाते साहब पर गिरते हुए लोगों ने देखा। खुद को सँभालते-सँभालते साहब भी उसके धक्के से नीचे गिरा। आसपास खड़े सिपाही स्तब्ध होकर उस अनपेक्षित दृश्य को देखते रह गये। साहब का मनमाने हुक्म चलाना, और रैयत को उसका पालन करना, यही सिपाहियों को मालूम था। प्रतिकार की हल्की-सी कल्पना भी उन्हें नहीं थी। इसलिए आज जो कुछ घटित हुआ, वह देखकर वह आश्चर्यचकित हो गये। रघुनाथ ने जमींदार को जम के हाथ जमा दिये थे।
जमींदार के चीखने से सिपाही जैसे होश में आये, पर रघुनाथ का आवेश देखकर किसी को उसके पास जाने की हिम्मत नहीं हुई। अब आगे क्या होने वाला है, इसकी कल्पना रघुनाथ को हो गयी थी। सिपाही हरकत में आते, इसके पूर्व ही उनमें से एक की बंदूक छीनकर रघुनाथ दहाड़ा, ‘‘हाँ, खबरदार ! कोई आगे बढ़ा तो एक-एक को भूनकर रख दूँगा।’’
इतना कहकर रघुनाथ धर्मशाला से तेजी से बाहर निकला। सिपाहियों के घोड़े बाहर खड़े ही थे। उसमें से एक पर सवार होकर रघुनाथ ने एड़ लगायी। पीछे-पीछे साहब, जमींदार और सिपाही बाहर आये। रघुनाथ घोड़ा दौड़ाते हुए दूर भागा जा रहा था। ‘‘शूट हिम् !’’ साहब चिल्लाया। उसी के साथ एक सिपाही की बंदूक गरज उठी। लेकिन चिलचिलाती धूप में रघुनाथ अदृश्य हो गया।
2
‘‘आइए तात्या !’’
अन्दर आते ही तात्या टोपे का स्वागत करते हुए नानासाहब बोले, ‘‘आज इतनी सुबह आना हुआ ?’’
सुबह के आठ बजे थे। सन्ध्या-पूजा के बाद स्वल्पाहार करके नानासाहब अपने कक्ष में पत्र-व्यवहार देख रहे थे। कुछ विशेष काम के बिना तात्या इस समय कभी नहीं आते थे। इसलिए उनके आगमन पर नानासाहब को आश्चर्य हुआ।
तात्या बैठक पर अदब से बैठ गये। पास रखे पानदान के साथ यूँ ही छेड़छाड़ करते हुए, मन-ही-मन कुछ कहने का निश्चय जुटा रहे थे। लेकिन वे निश्चय पर दृढ़ नहीं हो रहे थे, यह उनके चेहरे से साफ झलक रहा था। एक-दो क्षण बीतने पर नीचे देखते हुए वे बोले, ‘‘श्रीमन्त, आपको कुछ कहूँ, ऐसा मेरा अधिकार नहीं है। लेकिन फिर भी...!’’
नानासाहब समझ गये। रोज की तरह आज भी सुबह ज
अन्दर आते ही तात्या टोपे का स्वागत करते हुए नानासाहब बोले, ‘‘आज इतनी सुबह आना हुआ ?’’
सुबह के आठ बजे थे। सन्ध्या-पूजा के बाद स्वल्पाहार करके नानासाहब अपने कक्ष में पत्र-व्यवहार देख रहे थे। कुछ विशेष काम के बिना तात्या इस समय कभी नहीं आते थे। इसलिए उनके आगमन पर नानासाहब को आश्चर्य हुआ।
तात्या बैठक पर अदब से बैठ गये। पास रखे पानदान के साथ यूँ ही छेड़छाड़ करते हुए, मन-ही-मन कुछ कहने का निश्चय जुटा रहे थे। लेकिन वे निश्चय पर दृढ़ नहीं हो रहे थे, यह उनके चेहरे से साफ झलक रहा था। एक-दो क्षण बीतने पर नीचे देखते हुए वे बोले, ‘‘श्रीमन्त, आपको कुछ कहूँ, ऐसा मेरा अधिकार नहीं है। लेकिन फिर भी...!’’
नानासाहब समझ गये। रोज की तरह आज भी सुबह ज
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