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अन्तर-धारा

रामकुमार भ्रमर

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :263
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7199
आईएसबीएन :978-81-216-1359

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संपूर्ण श्रीकृष्ण कथा का दूसरा खण्ड अन्तर-धारा...

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अन्तर-धारा वास्तव में श्रीकृष्ण के जीवन पर आधरित दस खण्डों की वृहदाकार उपन्यास-माला का दूसरा भाग है। इसमें 2 उपन्यास ‘कालिन्दी के किनारे’ और ‘कर्मयज्ञ’ समाहित किए गए हैं। ‘कालिन्दी के किनारे’ में श्रीकृष्ण प्रकृति-पुरुष के रूप में उभर कर आते हैं और बाल-लीलाओं के रहस्यों को उद्घाटित कर चकित कर देते हैं। ‘कर्मयज्ञ’ में वह कर्म-पुरुष के जीवट का प्रदर्शन करते हैं और बाहर की दुनिया से साक्षात्कार कर संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ते हैं, जो अंत तक साथ लगा रहता है। श्रीकृष्ण-कथा वास्तव में धर्म-प्राण मानस के लिए एक ऐसी धारावाहिक कथा-श्रृंखला है, जिसे पढ़कर आप भाव-विभोर हो जाएंगे।

कालिंदी के किनारे

जैसे-जैसे रथ राजधानी के पास पहुंच रहा है, वैसे-वैसे अस्ति और प्राप्ति की आंखों में कुछ गड़ने लगा है। पहले रेत की कुछ किरकिरी जैसा और फिर समूचा ही रेगिस्तान।... कैसी विचित्र स्थिति है ! तरल आंसू भी रेगिस्तान की तपन और झुलसन का अहसास देने लगते हैं। कितने-कितने विचित्र और दोहरे अर्थों से भरे होते हैं ये आंसू। कभी हर्षामृत बने हुए, कभी लावे का उफ़ान लिए हुए।

अस्ति और प्राप्ति–दोनों ही बहनों की आँखों मे अनेक बार आए हैं ये आंसू। उस समय भी आए थे, जब इसी मगध देश की राजधानी में मथुराधिपति कंस के साथ विदा होते समय पिता जरासंध से बिलग हुई थीं; किंतु तब अलग अर्थ थे इन आंसुओं के। पतिगृह जाने का उल्लास भी भरा हुआ था इनमें और पितागृह से विदाई का संताप भी। पर आज ?... आज ये आंसू सिर्फ़ पीड़ा, प्रतिशोध और घृणामिश्रित आक्रोश में डूबे हुए ! वर्षाहीन मरुस्थल की तरह तप्त ! अंगारों की तरह झुलसाते हुए। पति-बिछोह के शोक से संतप्त और राजगौरव की गरिमा के धूलि-धूसरित हो जाने की वेदना से छनकते हुए।

बरसों पूर्व जब इसी राजमार्ग से निकलकर मथुराधिपति कंस की महारानियों के रूप में दोनों बहिनें मथुरा की ओर चली थीं, तब इसी रथ की गड़गड़ाहटें पायलों की झंकार जैसी अनुभव हुई थीं और आज जब वैधव्य का उजाड़ बटोरे हुए पितागृह को लौट रही हैं तब लगता है कि रथ उन्हें बिठाले हुए नहीं, प्रतिक्षण उन्हें रौंदते हुए आगे बढ़ रहा है ! अपने ही भीतर लहूलुहान होती हुई अस्ति और प्राप्ति ! अपने ही मर्मान्त में लगे, कभी न भर सकने वाले बदले के घाव की सड़न अनुभव करती हुई !

जानती हैं कि पिता की महाशक्ति का एक थप्पड़ भी नहीं झेल सकेंगे कृष्ण-बलराम ! पर उनके नाश से भी अस्ति और प्राप्ति को सन्तोष नहीं मिलेगा। उस अपमान का हिसाब नहीं चुकाया जा सकेगा जो मथुरा की महारानियों ने झेला है ! उस सिन्दूर की लालिमा उन दोनों के रक्त से भी नहीं लौट सकेगी, जिसे सजाए हुए महाराज कंस की महारानियां गौरव गरिमा से भरी-भरी फूलों लदी बेल की तरह सदा भरी रहती थी।

सोचती हैं तो विश्वास नहीं होता। दृश्य रह-रहकर दृष्टि के सामने धूमकेतु के अशुभ दर्शन की तरह कौंध उठता है। विशालदेह और दुर्जय शक्ति से सम्पन्न अपने पति को उन चपल बालकों द्वारा इस तरह हत होते देखा था उन्होंने जैसे किसी कीट पतंग को मसला जाते देख रही हों। विस्मय से पलकें जहां की तहां थमी रह गई थीं। सभा में भगदड़ मच गई थी। जिसका जहां सींग समाया, भाग निकले। वे, जिनकी शक्ति के स्तम्भों पर महाबली कंस ने अपने विशाल गणसंघ का आतंक बिखरा रखा था। वे, जो राजा के दृष्टिपथ पर उजियाले के सुझाव बिखराए रहते थे। वे जिनकी क्षमता और योग्यता से मथुराधिपति कंस ने वृष्णि, अंधक और यादवों पर अपना दबदबा बनाए रखा था, उन्हीं को कायरों, मतिभ्रमों की तरह भागते-बिखरते-बदहवास होकर गिरते-लड़खड़ाते देखा था दोनों महारानियों ने। और फिर देखा था सभास्थल के बीचोंबीच लहू से सराबोर पड़े अपने वज्रयष्टि पति कंस को। दोनों रानियों के रोम-रोम में फुरहरियां भर गई थीं।

वे गोप बालक ? अविश्सनीय ! पर सत्य सामने था। सेविका ने कहा था, ‘‘देवि !... चलें... यह सब असह्य है !’’ किस तरह उठीं, किस तरह अपनी मूर्च्छा संभाले रहीं–इस पल याद नहीं आता। बस, इतना याद है कि आते ही राजभवन में मृतप्राय-सी गिर गई थीं। धीमे-धीमे एक-एक समाचार आता गया था... गोप बालकों ने महाराज उग्रसेन को कारागृह से मुक्त कर दिया है... देवकी और वसुदेव को भी।... और यह भी कि वे बालक देवकी और वसुदेव की ही सन्तति हैं ! कालगति ! मन ने एक उच्छ्वास भरकर सोचा था। याद आया कि किन-किन उपायों से कंस ने उन गोप-बालकों को समाप्त करने की चेष्टा नहीं की थी ? वत्सासुर, केशी, पूतना, चाणूर कितने ही नाम और कितनों की ही समाप्ति के समाचार ! तब भी निश्चिंत थीं अस्ति और प्राप्ति। महाशक्तिशाली कंस को समाप्त करना उन बालकों के लिए असंभव है ! पर यही असंभव विद्युत् गति से ही संभव हो गया था।

देर बाद सुधि आई थी उन्हें। अस्ति ने पलकें खोलीं तो पाया था कि सेविकाओं से भरा रहनेवाला रनिवास रिक्त पड़ा है। कौंधकर पुकारा था, ‘‘कोई है ?’’ और विश्रांति सामने आ खड़ी हुई थी। आंखों में छलछलाते आंसू चेहरा झुका हुआ, ‘‘आज्ञा, महारानी ?’’ ‘महारानी ?’ लगा था जैसे किसी ने छाती पर घूंसा चला दिया है। अंतड़ियों तक को तोड़ता हुआ। अपने ही भीतर, अपने ही टूटने का स्वर साफ-साफ सुना था उन्होंने। पर शक्ति बटोरी–ऐसे, जैसे, अपना ही छार-छार हो चुका कांच जैसा मन बटोरा हो। कहा था ‘‘जल !...जल दो, विश्रांति !’’ विश्रांति आज्ञापालन में तत्पर हुई।

अस्ति ने छोटी बहन को देखा... सुधि में होकर भी वह अब तक बेसुध-सी थी। बाल बिखरे हुए। दृष्टि भयजनित पीड़ा से भरी हुई। लगता था कि कुछ ही पलों में दमकते रहनेवाले चेहरे को अमावस ने ग्रस लिया है। वैधव्य की अमावस ! पराधीनता की पीड़ा से पीली हो चुकी पुतलियां !
‘‘प्राति !’’ अस्ति ने कहा था। लगा था कि अपनी ओर से बहुत जो़र से बोली है। वह, किंतु स्वर इतना अशक्त हो गया है जैसे स्वयं की आवाज़ को ही किसी गहरे कुंए से ऊपर आते सुना हो उसने।
प्राप्ति ने पलकें झपकीं... पुतलियां अश्रुहीन थीं। इस तरह मुड़ी जैसे किसी यंत्र का अंग चला हो। भाव शून्य और जड। उत्तर नहीं दिया। सिर्फ़ आंखें टिकाए रखीं बड़ी बहन पर।
‘‘सब समाप्त हुआ !’’ अस्ति ने उसी तरह डूबी और धुंधलाई आवाज़ में कहा था ‘‘राजगौरव, गरिमा, महत्व और सम्मान... सब समाप्त हुआ !’’

कुछ पल सन्नाटा रहा। लगा कि अपने ही शब्द कक्ष में गूंज-गूंजकर लौट आए हैं। प्राप्ति ने एकदम कुछ नहीं कहा। विश्रांति जल से आई थी। अस्ति ने कुछ घूंट पिए। जलपात्र वापस सेविका की ओर बढ़ा दिया।
प्राप्ति अनायास ही बोली थी, ‘‘मैं जानती थी बहिन ! यह सब समाप्त होना है !’’
अस्ति विस्मय और अविश्वास से भरी स्तब्ध देखती रही छोटी बहिन को। क्या ठीक ही सुना था उसने ? प्राप्ति ने वही कहा है जो उसने सुना है ? ...प्राप्ति ने पुनः कह दिया था, ‘‘हां, यह सब होना था, आज नहीं तो किसी और दिन ! पर यह होना ही था !’’ और फिर एक गहरा श्वास बिखर गया था उसका, धुंध की तरह !

प्राप्ति के ये शब्द ?... होंठ खुले रह गये थे अस्ति के। नहीं-नहीं, असंभव ! प्राप्ति पति-वध को देखकर मस्तिष्क का संतुलन खो बैठी है। अस्ति को यही लगा था। किंतु प्राप्ति कुछ थमकर आगे भी बोल गई थी, ‘‘सत्तामोह ने मथुराधिपति को असंतुलित कर दिया था बहिन ! कितनी बार कहा था मैंने, पूज्य उग्रसेन को कारावास से मुक्ति दो ! वसुदेव और देवकी के अबोध बालकों का संहार मत करो ! पर कालगति ने उन्हें कभी शुभाशुभ का विचार नहीं करने दिया ! और आज वह सब...’’ सहसा प्राप्ति बिलख पड़ी। ऐसे जैसे किसी पत्थर से झरना बरस पड़ा हो।

अस्ति को अच्छा नहीं लगा। कैसे अच्छा लगता ? पति कंस ने क्या शुभ किया, क्या अशुभ ? किस क्षण पुण्य संजोया, किस पल पाप सहेजा ? यह सब बात पत्नी के लिए विचारणीय नहीं। हो भी, तो कम-से-कम इस क्षण नहीं। यह क्षण तो पति के वध को लेकर प्रतिशोध के ज्वालामुखी में झुलसने का है। यह क्षण केवल उस ज्वाला को निरंतर प्रज्ज्वलित रखने का है। पर जानती थी अस्ति, प्राप्ति के विचारों और उसके विचारों में कभी समानता नहीं हुई। इस समय भी वही स्थिति। विषय को वहीं तोड़ दिया था उसने पूछा, ‘‘अब ? अब क्या करना चाहोगी तुम ? महान् कंस की विधवा के नाते क्या कर्त्तव्य होना चाहिए हमारा ? जिस कुल ने हमें वैधव्य दिया है, उसके आश्रय में रहने से अधिक अपमानजनक मुझे तो कुछ नहीं लगता !’’

प्राप्ति कुछ सहज हुई... पर अपनी बौद्धिकता से पूर्ववत् घिरी हुई। यह स्वभाव था उसका। फिर कब बाध्यता बन गई थी। यह भी याद नहीं। बस इतना याद है कि न कभी किसी विषय पर त्वरित निर्णय लेने की उसे आदत थी, न उस क्षण कर सकी।
अस्ति ने इस बीच अपने-आप को कुछ सहेज-संजो लिया था। थकी सी चाल से चल पड़ी। जाते-जाते कह गई थी बहिन से, ‘‘तुमने जो भी विचार किया हो या करो, पर मैं निर्णय ले चुकी हूँ... पितृगृह लौट जाऊंगी।’’
प्राप्ति ने उत्तर नहीं दिया था, केवल सुना। रिक्त दृष्टि से देखती रही।

यह रिक्तता ही उत्तर था उसका। प्राप्ति हो या अस्ति–यहां रहे या वहां क्या अंतर पड़ने वाला था ?
और मथुरा के राजभवन में रहते हुए भी इस रिक्तता से कहां मुक्ति मिली थी प्राप्ति को ? महाराज थे, किंतु राज-काज के नाम पर प्रतिदिन पारिवारिक षड्यंत्रों में व्यस्त। कभी आशंका रहती थी कि गणसंघ के किसी सामन्त के यहां षड्यंत्र पक रहा है और कभी लगता था जैसे राजनीति केवल अंधकार से पूर्ण लंबी अविराम रात्रि बन गई है !
शूरसेन जनपद के किसी-न-किसी भाग से कोई-न-कोई अशुभ समाचार मिल जाया करता था। आज किसी ने कोई टिप्पणी की, आज किसी ने महाराज उग्रसेन के वंदीगृह मे होने की चर्चा चलाई और कल किसी को देवकी-वसुदेव की संततियों को महाराज के द्वारा क्रूरतापूर्वक मार डालने की स्मृति आई।

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