हास्य-व्यंग्य >> हुल्लड़ हज़ारा हुल्लड़ हज़ाराहुल्लड़ मुरादाबादी
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हुल्लड़ जी के एक हजार से भी अधिक दोहों का पहला संकलन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘हुल्लड़ हजा़रा’ : अनुभूतियों की सर्चलाइट
हिन्दी-काव्य-परम्परा में दोहा अत्यंत
प्राचीन और सशक्त
विधा के रूप में प्रयुक्त हुआ। वीरगाथा-काल (मध्यकाल) में ‘ढोला
मारूरा दूहा’ प्रसिद्ध है, जिसका एक-एक दोहा वीररसोद्रेक करने
में
प्रेरक का काम करता रहा है।
एक दोहा देखिये–
एक दोहा देखिये–
नाइणि आज न मीडि पग, काल्हि सुणी जय जंग।
धारा लागै गोधणीं, तब दीजौ घन रंग।।
धारा लागै गोधणीं, तब दीजौ घन रंग।।
(अर्थात्, युद्ध-काल में
‘नाइणि’ से एक
सौभाग्यवती नारी कहती है कि आज मेरे पैरों में महावर मत लगा। कल मेरा पति
जब युद्ध में विजय या वीरगति प्राप्त करेगा तब घना रंग लगाना।)
तात्पर्य यह है कि पति के जीत जाने या वीरगति प्राप्त करने पर सती होने के लिए जब मैं सोलह श्रृंगार करूँगी तब मेरे भली प्रकार रंग लगाना। उसके अतिरिक्त उस समय भी (‘पउम चरित’) में भी चौपाई के साथ दोहा का प्रयोग किया गया है।
भक्तिकाल अर्थात् मध्यकाल में दोहों का प्रयोग बहुलता से कबीर की साखियों और रमैनियों में किया गया है। जायसी ने पाद्मावत में चौपाइयों के साथ दोहों का संयोजन बड़े प्रभावशाली ढंग से किया है। महाकवि तुलसी ने ‘रामचरित मानस’ के अतिरिक्त ‘दोहा’ छंद की कृति की रचना पृथक् ‘दोहावली’ काव्य में की है। श्रृंगार काल, (रीतिकाल) के उत्तरमध्य में दोहों का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ महाकवि बिहारी लाल द्वारा ‘बिहारी सतसई’ के रूप में प्रणीत हुआ है। आधुनिक काल के प्रारम्भ में अनेक कवियों ने भी इस छंद की गरिमा बढ़ाई है, जिनमें दुलारेलाल भार्गव, अम्बिकादत्त व्यास आदि के ग्रन्थ प्राप्त होते हैं।
हिन्दू कवियों के अतिरिक्त मुसलमान कवियों ने भी दोहा छंद का श्रृंगार किया है। अमीर खुसरो का एक दोहा अत्यन्त प्रसिद्ध है–
तात्पर्य यह है कि पति के जीत जाने या वीरगति प्राप्त करने पर सती होने के लिए जब मैं सोलह श्रृंगार करूँगी तब मेरे भली प्रकार रंग लगाना। उसके अतिरिक्त उस समय भी (‘पउम चरित’) में भी चौपाई के साथ दोहा का प्रयोग किया गया है।
भक्तिकाल अर्थात् मध्यकाल में दोहों का प्रयोग बहुलता से कबीर की साखियों और रमैनियों में किया गया है। जायसी ने पाद्मावत में चौपाइयों के साथ दोहों का संयोजन बड़े प्रभावशाली ढंग से किया है। महाकवि तुलसी ने ‘रामचरित मानस’ के अतिरिक्त ‘दोहा’ छंद की कृति की रचना पृथक् ‘दोहावली’ काव्य में की है। श्रृंगार काल, (रीतिकाल) के उत्तरमध्य में दोहों का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ महाकवि बिहारी लाल द्वारा ‘बिहारी सतसई’ के रूप में प्रणीत हुआ है। आधुनिक काल के प्रारम्भ में अनेक कवियों ने भी इस छंद की गरिमा बढ़ाई है, जिनमें दुलारेलाल भार्गव, अम्बिकादत्त व्यास आदि के ग्रन्थ प्राप्त होते हैं।
हिन्दू कवियों के अतिरिक्त मुसलमान कवियों ने भी दोहा छंद का श्रृंगार किया है। अमीर खुसरो का एक दोहा अत्यन्त प्रसिद्ध है–
बिरहिन सोवे सेज पे, डारे मुख पै केश।
चल सजनी घर आपने, रैन भई यहि देश।।
चल सजनी घर आपने, रैन भई यहि देश।।
अब्दुर्रहीम खानखाना के दोहे तो अत्यन्त
हृदयाकर्षक, नीतिपरक और जनजीवन को
प्रेरणा देने वाले हैं। हफीज़ुल्ला खाँ के दोहे इस परम्परा में अलग
महत्त्व रखते हैं।
आज के युग में भी अनेक कवियों द्वारा यह छंद स्वीकार किया गया है। और विशिष्ट रूप से सराहनीय दोहे आधुनिक विषयों में समीचीनता लिये हुए सामाजिक व्यवस्था पर कटाक्ष करते हैं। इन दोहों में कहीं-कहीं स्मित तथा स्फुट हास्य का पुट भी मिलता है। जैसे, बिहारी का एक दोहा–
आज के युग में भी अनेक कवियों द्वारा यह छंद स्वीकार किया गया है। और विशिष्ट रूप से सराहनीय दोहे आधुनिक विषयों में समीचीनता लिये हुए सामाजिक व्यवस्था पर कटाक्ष करते हैं। इन दोहों में कहीं-कहीं स्मित तथा स्फुट हास्य का पुट भी मिलता है। जैसे, बिहारी का एक दोहा–
बहुधन लै अहसान सौं, पारो देत सराहि।
बैद-वधू हसि भेद सौं, रही नाहि मुँह चाँहि।।
बैद-वधू हसि भेद सौं, रही नाहि मुँह चाँहि।।
यहाँ समाज की नैतिकता पर व्यंग्य
है–स्वयं वैद्यराज जी नपुंसक हैं
किन्तु ग्राहक को ठगने के लिए पारे की भस्म देकर उसे मर्दानगी देना चाहते
हैं।
वैद्य-पत्नी यह देखकर मन ही मन हँसती है। कानपुर के देहाती जी ने भी दोहों में कहीं-कहीं हास्य उत्पन्न करने का प्रयास किया है। एक अतिशयोक्ति का शब्दचित्र देखिये-
वैद्य-पत्नी यह देखकर मन ही मन हँसती है। कानपुर के देहाती जी ने भी दोहों में कहीं-कहीं हास्य उत्पन्न करने का प्रयास किया है। एक अतिशयोक्ति का शब्दचित्र देखिये-
विरहिन बैठी रेल पै, कढ़ी आह के भाप।
बिन इन्जन के चल पड़ी, गाड़ी आपुई आप।।
बिन इन्जन के चल पड़ी, गाड़ी आपुई आप।।
दोहों में बिहारी की बहुज्ञता तो प्रमाणित ही है, परवर्ती कवियों ने भी
विविध विषयों की अभिव्यक्ति करने में इनका सहारा लिया है।
प्रिय सुशील कुमार चड्ढा उर्फ हुल्लड़ मुरादाबादी ने हास्य-व्यंग्य का एक कीर्तिमान स्थापित किया है। उनकी अनेक पुस्तकें, अनेक कैसेट और फिल्मों में योगदान उनकी सिद्धि के परिचायक हैं। पंचाधिक देशों में भारतीय प्रवासियों और विदेशियों ने उनका सम्मान किया है। उनका रचना-कौशल विविध प्रकार के छंदों में प्रकट हुआ है। अब उनकी नई कृति ‘हुल्लड़ हज़ारा’ दोहा छंद में आपके समक्ष प्रस्तुत है।
‘दोहा’ छंद की मारक शक्ति से ‘हुल्लड़’ भलीभाँति परिचित हैं। उन्हें बिहारी से सम्बन्धित यह उक्ति मालूम है–
प्रिय सुशील कुमार चड्ढा उर्फ हुल्लड़ मुरादाबादी ने हास्य-व्यंग्य का एक कीर्तिमान स्थापित किया है। उनकी अनेक पुस्तकें, अनेक कैसेट और फिल्मों में योगदान उनकी सिद्धि के परिचायक हैं। पंचाधिक देशों में भारतीय प्रवासियों और विदेशियों ने उनका सम्मान किया है। उनका रचना-कौशल विविध प्रकार के छंदों में प्रकट हुआ है। अब उनकी नई कृति ‘हुल्लड़ हज़ारा’ दोहा छंद में आपके समक्ष प्रस्तुत है।
‘दोहा’ छंद की मारक शक्ति से ‘हुल्लड़’ भलीभाँति परिचित हैं। उन्हें बिहारी से सम्बन्धित यह उक्ति मालूम है–
सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर।।
देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर।।
देखने में छोटा लगनेवाला यह छंद मध्यकाल के
राजदरबारों का
तो विजेता ही रहा। जब शायर अरबी-फारसी में शे’र प्रस्तुत करते
थे तो
हिन्दी कवि दोहा-सोरठा के माध्यम से अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति करते थे।
बिहारी के एक दोहे ने तो रास-रंग में निमग्न राजा जयसिंह को चेतना प्रदान करके अपने धर्म का सम्यक् परिपालन किया था। वो दोहा है–
बिहारी के एक दोहे ने तो रास-रंग में निमग्न राजा जयसिंह को चेतना प्रदान करके अपने धर्म का सम्यक् परिपालन किया था। वो दोहा है–
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल।
अली कली सौं ही बँध्यो, आगे कौन हवाल।।
अली कली सौं ही बँध्यो, आगे कौन हवाल।।
यह छन्द श्रोता के हृदय पर तत्क्षण सार्थक प्रभाव डालने में समर्थ है।
किसी उर्दू शायर ने कहा है–
मन्दिर तोड़ो मस्जिद तोड़ो, इसमें नहीं मुनाफ़ा है।
मगर किसी का दिल मत तोड़ो, ये घर ख़ास खुदा का है।।
मगर किसी का दिल मत तोड़ो, ये घर ख़ास खुदा का है।।
इस सन्दर्भ से मिलता-जुलता ‘हुल्लड़’ का एक दोहा
देखिये–
करके पूजा अर्चना, जप-तप तीरथ दान।
दुखा दिया दिल किसी का, तो सब व्यर्थ-समान।।
दुखा दिया दिल किसी का, तो सब व्यर्थ-समान।।
रहीम कहते हैं–
रहिमन विपदा हूँ भली, जो थोड़े दिन होय।
हित जनहित या जगत में, जान परत सब कोय।।
हित जनहित या जगत में, जान परत सब कोय।।
‘हुल्लड़’ का दोहा है–
बुरे वक्त का इसलिए, हरगिज़ बुरा न मान।
ये ही तो करवा गया, अपनों की पहचान।।
ये ही तो करवा गया, अपनों की पहचान।।
कलियुगी प्यार पर एक दोहा देखिये-
आँसू, यादें, वेदना, अब बिल्कुल बेकार।
आगे बढ़े न देह से, इस कलियुग का प्यार।।
आगे बढ़े न देह से, इस कलियुग का प्यार।।
स्मिति का पुट लिये हुए कुछ दोहे देखिये-
कर्ज़ा मत लौटाइये, ताकि मरने के बाद।
वो क्या उसका बाप भी, रखे आपको याद।।
धूप पड़ी जब हीर पर, पिघल गया श्रृंगार।
राँझा उसको छोड़कर, भाग गया हरिद्वार।।
डूबी रेगिस्तान में, नेताओं की नाव।
किन्नर तक से पिट गए, लड़कर आम चुनाव।।
मत मानों अफसर उसे, जो रिश्वत ना खाय।
वो भी कैसा चुटकुला, जिससे हँसी न आय।।
वो क्या उसका बाप भी, रखे आपको याद।।
धूप पड़ी जब हीर पर, पिघल गया श्रृंगार।
राँझा उसको छोड़कर, भाग गया हरिद्वार।।
डूबी रेगिस्तान में, नेताओं की नाव।
किन्नर तक से पिट गए, लड़कर आम चुनाव।।
मत मानों अफसर उसे, जो रिश्वत ना खाय।
वो भी कैसा चुटकुला, जिससे हँसी न आय।।
आज के कवियों की आर्थिक लोलुपता पर एक व्यंग्य देखिये।
कवि भंगेड़ी मंच पर, बैठा-बैठा सोय।
उसे लिफाफे के सिवा, जगा सकै न कोय।।
उसे लिफाफे के सिवा, जगा सकै न कोय।।
उनका मत है–
मंजिल पाने के लिए, बात याद रख एक।
नहीं बैठ उस कार में, फेल हों जिसके ब्रेक।।
नहीं बैठ उस कार में, फेल हों जिसके ब्रेक।।
इस प्रकार विविध विषयों पर
‘हुल्लड़’ के दोहे
अपना लक्ष्य संधान करते हैं। कहीं मनुष्य के अहंकार के विरुद्ध, कहीं
दुःखों से संघर्ष करने का उत्साह देते हुए, कहीं प्रारब्ध का योगफल बताते
हुए, कहीं कुर्सी के चरित्र की परिभाषा करते हुए, कहीं निरर्थक उपदेशों पर
व्यंग्य कसते हुए, कहीं जीवन में प्रेरणा देते हुए, कहीं अर्थप्रधान युग
की मान्यताओं पर चोट करते हुए और कहीं आत्मज्ञान का संदेश देते हुए उनके
दोहों से पूरा ‘हुल्लड़ हज़ारा’ भरा पड़ा है।
दोहों की भाषा परम सरल, भाव गाम्भीर्य लिये हुए प्रभावशाली है। उनकी अन्य पुस्तकों के समान यह कृति भी सुधी पाठकों द्वारा सम्मानित होगी और उन पर ‘हुल्लड़ी शैली’ की छाप छोड़ेगी।
मैं विगत शताब्दी के छठे दशक से हुल्लड़ मुरादाबादी को जानता-पहचानता हूँ। उसने अनेक संघर्ष झेले हैं, लेकिन अपने स्वाभिमान की ध्वजा नीचे नहीं गिरने दी, वो दोहों के बारे में भी कहता है–
दोहों की भाषा परम सरल, भाव गाम्भीर्य लिये हुए प्रभावशाली है। उनकी अन्य पुस्तकों के समान यह कृति भी सुधी पाठकों द्वारा सम्मानित होगी और उन पर ‘हुल्लड़ी शैली’ की छाप छोड़ेगी।
मैं विगत शताब्दी के छठे दशक से हुल्लड़ मुरादाबादी को जानता-पहचानता हूँ। उसने अनेक संघर्ष झेले हैं, लेकिन अपने स्वाभिमान की ध्वजा नीचे नहीं गिरने दी, वो दोहों के बारे में भी कहता है–
भले कटोरा भीख का, दे दो मेरे हाथ।
पर भरती का दोहरा, मत लिखवाना नाथ।।
पर भरती का दोहरा, मत लिखवाना नाथ।।
आज मुरादाबाद से मुम्बई के गोकुल धाम में
अपना आवास बना
लिया है और वहाँ के निवासियों के प्यार का अधिकारी बन गया है। वह विश्व के
किसी पार्श्व में जाए, वहीं मान-सम्मान उसके लिए पलक-पाँवड़े बिछाने को
तैयार मिलेगा। उसका मृदु व्यवहार, बात करने का सलीका, हँसकर जीवन जीने की
कला और प्रतिभा का प्रकाश उसे यशस्वी बनाता रहेगा। आज के गोपन एवं मोहन
युग की मनोग्रन्थियों को आनन्द की अनुभूतियों की
‘सर्चलाइट’
‘हुल्लड़ हज़ारा’ को जागृत करने में समर्थ होगी। उसकी
सर्वांगीण उन्नति के लिए मैं शत-शत शुभाशीष देता हूँ।
शुभैषी
डॉ० ब्रजेन्द्र अवस्थी
डॉ० ब्रजेन्द्र अवस्थी
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