उपन्यास >> विभाजित सवेरा विभाजित सवेरामनु शर्मा
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मनु शर्मा के तीन उपन्यासों की श्रृंखला की यह तीसरी और अंतिम कड़ी है। इसका कालखंड आजादी के बाद का है।...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पुरोवाक्
तीन उपन्यासों की श्रृंखला का यह तीसरा और अंतिम उपन्यास है। कथा
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की है।
परतंत्रता के बाद देश ने आजादी का सवेरा देखा, पर यह सवेरा विभाजित था। देश दो भागों में बँट गया–भारत और पाकिस्तान। यह सब अंग्रेजों की कूटनीति का परिणाम था। अंग्रेज चाहते थे कि दोनों राष्ट्र हमेशा एक-दूसरे के विरोधी बने रहें। एक ओर वे पाकिस्तान के स्वप्नद्रष्टा मि. जिन्ना की पीठ ठोंकते रहे और दूसरी ओर ‘अमन सभाइयों’ को भी उत्साहित करते रहे। ‘अमन सभाई’ सीधे-सीधे सुराजियों के विरोधी थे। अंग्रेज सरकार ने इन लोगों का संगठन ही इस उद्देश्य से किया था। अमन सभाई प्रत्यक्षतः अंग्रेजों के खैरख्वाह थे। अंग्रेज अफसरों के यहाँ वे ‘डालियाँ’ भिजवाते रहे। वे सुराजियों की गुप्त सूचनाएँ भी उन्हें देते रहे। इस दृष्टि से छोटा ही सही, अपने काम के सहयोगियों का एक अच्छा संगठन उन्होंने बना लिया था।
इस उलझन में भारतीय राजनीति आगे बढ़ रही थी कि एक पागल हिंदू ने गांधीजी को गोली मार दी। अहिंसा का एक पुजारी हिंसा के घाट उतारा गया।
देश पर यह भयंकर और अप्रत्याशित वज्रपात था। गांधी का चला जाना, देश सह नहीं पाया। उसको ऐसा लगा कि देश के हर घर का कोई मर गया है। हर आँख टपकने लगी, फिर थमने का नाम नहीं ले रही थी। यह तो स्वराज्य के बाद हुआ था। इसके कारणों पर भी यह उपन्यास विचार करता है।
स्वराज्य के पहले की स्थिति काफी उलझन भरी थी। ब्रिटिश संसद में चर्चिल बराबर दहाड़ रहे थे कि भारतीय स्वराज्य के काबिल नहीं हैं। ज्यों ही इन्हें स्वशासन सौंपा जाएगा, ये आपस में ही लड़ मरेंगे।
यह तो कहिए कि अचानक बंबई में ‘नेवी विद्रोह’ हो गया, तब अंग्रेजों ने समझ लिया कि अब भारतीयों को गुलाम नहीं रखा जा सकता। दूसरी ओर इंग्लैंड के आम चुनाव में कंजर्वेटिव पार्टी हार गई। ‘लेबर पाटी’ आई। लॉर्ड एटली प्रधानमंत्री बने। इन सबका परिणाम था हमारी आजादी। रातोरात अमन सभाई मानसिकता के लोगों ने अपना रंग बदला और आजादी का जमकर स्वागत करने वालों में बिना हिचक आगे आए।
इस प्रकार की परिस्थिति में इस उपन्यास के पंख खुलते हैं और यही प्रकृति आरंभ से अंत तक बनती रहती है। ‘टू नेशन थ्योरी’ के आधार पर सांप्रदायिकता का जो नग्न नृत्य हुआ, उसका भी जीवंत चित्र इस उपन्यास में है।
पिछले उपन्यास के पात्रों के साथ अनेक नए पात्रों की उपस्थिति से पात्रों की बहुलता तो हो गई है, पर उनकी उपस्थिति कहीं पर भी बोझिल नहीं लगती। उपन्यास खंडित भारत का सार्थक, संवेदनापूर्ण और यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है। इस दृष्टि से इसे यदि कोई वर्तमान का ऐतिहासिक उपन्यास माने तो मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर लेखक की कल्पना-प्रवणता और यथार्थ-बोध इसे वैसा होने नहीं देते। कथा अंत तक विभाजित सवेरे का दंश भोगती रहती है।
परतंत्रता के बाद देश ने आजादी का सवेरा देखा, पर यह सवेरा विभाजित था। देश दो भागों में बँट गया–भारत और पाकिस्तान। यह सब अंग्रेजों की कूटनीति का परिणाम था। अंग्रेज चाहते थे कि दोनों राष्ट्र हमेशा एक-दूसरे के विरोधी बने रहें। एक ओर वे पाकिस्तान के स्वप्नद्रष्टा मि. जिन्ना की पीठ ठोंकते रहे और दूसरी ओर ‘अमन सभाइयों’ को भी उत्साहित करते रहे। ‘अमन सभाई’ सीधे-सीधे सुराजियों के विरोधी थे। अंग्रेज सरकार ने इन लोगों का संगठन ही इस उद्देश्य से किया था। अमन सभाई प्रत्यक्षतः अंग्रेजों के खैरख्वाह थे। अंग्रेज अफसरों के यहाँ वे ‘डालियाँ’ भिजवाते रहे। वे सुराजियों की गुप्त सूचनाएँ भी उन्हें देते रहे। इस दृष्टि से छोटा ही सही, अपने काम के सहयोगियों का एक अच्छा संगठन उन्होंने बना लिया था।
इस उलझन में भारतीय राजनीति आगे बढ़ रही थी कि एक पागल हिंदू ने गांधीजी को गोली मार दी। अहिंसा का एक पुजारी हिंसा के घाट उतारा गया।
देश पर यह भयंकर और अप्रत्याशित वज्रपात था। गांधी का चला जाना, देश सह नहीं पाया। उसको ऐसा लगा कि देश के हर घर का कोई मर गया है। हर आँख टपकने लगी, फिर थमने का नाम नहीं ले रही थी। यह तो स्वराज्य के बाद हुआ था। इसके कारणों पर भी यह उपन्यास विचार करता है।
स्वराज्य के पहले की स्थिति काफी उलझन भरी थी। ब्रिटिश संसद में चर्चिल बराबर दहाड़ रहे थे कि भारतीय स्वराज्य के काबिल नहीं हैं। ज्यों ही इन्हें स्वशासन सौंपा जाएगा, ये आपस में ही लड़ मरेंगे।
यह तो कहिए कि अचानक बंबई में ‘नेवी विद्रोह’ हो गया, तब अंग्रेजों ने समझ लिया कि अब भारतीयों को गुलाम नहीं रखा जा सकता। दूसरी ओर इंग्लैंड के आम चुनाव में कंजर्वेटिव पार्टी हार गई। ‘लेबर पाटी’ आई। लॉर्ड एटली प्रधानमंत्री बने। इन सबका परिणाम था हमारी आजादी। रातोरात अमन सभाई मानसिकता के लोगों ने अपना रंग बदला और आजादी का जमकर स्वागत करने वालों में बिना हिचक आगे आए।
इस प्रकार की परिस्थिति में इस उपन्यास के पंख खुलते हैं और यही प्रकृति आरंभ से अंत तक बनती रहती है। ‘टू नेशन थ्योरी’ के आधार पर सांप्रदायिकता का जो नग्न नृत्य हुआ, उसका भी जीवंत चित्र इस उपन्यास में है।
पिछले उपन्यास के पात्रों के साथ अनेक नए पात्रों की उपस्थिति से पात्रों की बहुलता तो हो गई है, पर उनकी उपस्थिति कहीं पर भी बोझिल नहीं लगती। उपन्यास खंडित भारत का सार्थक, संवेदनापूर्ण और यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है। इस दृष्टि से इसे यदि कोई वर्तमान का ऐतिहासिक उपन्यास माने तो मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर लेखक की कल्पना-प्रवणता और यथार्थ-बोध इसे वैसा होने नहीं देते। कथा अंत तक विभाजित सवेरे का दंश भोगती रहती है।
: एक :
मैं जयनाथ उर्फ जग्गू एक बार फिर आप से
मुखातिब हूँ और
आपबीती को जगबीती के साथ मिलाकर वह सुनाना चाहता हूँ, जिसमें टूटे हुए
हमारे सपने हैं और मरी हुई हमारी आशाएँ।
स्वराज के पहले हमने कैसे-कैसे सपने देखे थे, कैसी-कैसी कल्पनाएँ की थीं। जैसे परी देश का जल मिल जाएगा, जिसे छिड़कते ही सारा दुःख-दारिद्रय दूर हो जाएगा, किसी प्रकार का अभाव नहीं रहेगा। ट्रेनों में यात्रा करने के लिए टिकट नहीं लेना पड़ेगा, क्योंकि ट्रेने तो अपनी हो जाएँगी। न कोई पेट भूखा रहेगा और न कोई खेत सूखा। गाँव की बूढ़ी रमदेई काकी तो अजीब ‘खयाली पुलाव’ पकाती थी–‘कोठिला अनाज रही, पूरन हर काज रही। सोरह रुपया क नथ रही, झुलनी झुलत रही।’
हमें क्या मालूम था कि सपने ही सपने रह जाएँगे, हमें क्या मालूम था कि आजादी के पहले जैसा था वैसा ही रह जाएगा। वैसे ही सग्गड़वाले सग्गड़ खींचते रहेंगे और रिक्शेवाले रिक्शे। वैसे ही सुमेर चाचा दिन भर ‘नून, तेल, लकड़ी’ बेचता रहेगा। पीपा वैसे ही सीढ़ी कंधे पर लेकर और मिट्टी के तेल का कनस्तर हाथ में लटकाए गली के सरकारी लैपों को शाम को जलाता और सुबह बुझाता रहेगा।
अगर कुछ बदलेगा तो केवल सरकारें, यदि बदलेंगे, तो छोटे सरकार और लाला जगजीवन लाल ऐसे अमन सभाई लोगों के चेहरों के मुखौटे। उनके सिरों पर गाँधी टोपियाँ सवार हो जाएँगी। पहले वे ‘लॉन्ग लिव द किंग’ बोलते थे, अब गांधी-जवाहर की जय बोलने लगेंगे।
अब गाँधी-आजाद, नेहरू-पटेल की कांग्रेस की गंगा में इन अमन सभाइयों की कर्मनाशा ऐसी मिली कि उसका नाम-निशान भी नहीं रहा।
प्रभात-फेरियाँ अब भी निकलती थीं, पर अब उनमें वह उत्साह नहीं रह गया था। उनमें गाए जाने वाले गाने या तो व्यर्थ हो गए थे या बेकार लगने लगे थे।
पर सपने अब भी थे, तरह-तरह के सपने। दारोगा बनने के सपने, इंस्पेक्टर बनने के सपने, कलक्टर बनने के सपने। आम आदमी की सोच का यही शिखर था। इसके आगे वह जा नहीं पाता था।
हर वार्ड में कांग्रेस कमेटियाँ बनाई जा रही थीं। हमारे वार्ड की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रामकिशुन चाचा थे। हमारे वही नेता थे। हमको जो कहना होता था, हम उन्हीं से कहते थे।
इस बार की वार्ड कांग्रेस कमेटी की बैठक मध्यमेश्वर मंदिर पर बुलाई गई थी। रामकिशुन चाचा ने उसमें आने के लिए मुहल्ले के एक-एक आदमी से मिलकर कहा था, क्योंकि कांग्रेस कमेटी की खुली बैठक थी। इसमें वार्ड का हर व्यक्ति अपने विचार रख सकता था। फिर भी इसको लेकर विवाद था।
इसी विवाद को समझाने सुमेर चाचा की दुकान पर कल शाम को रामकिशुन चाचा आए थे। उन्होंने कहा था, ‘‘यह बैठक वास्तव में कांग्रेस की नहीं है, बल्कि कांग्रेस कमेटी की ओर से मुहल्ले के सभी लोगों की है।’’
‘‘क्या होगा इसमें ?’’ उसी समय पीपा आ गया था। सीढ़ी कंधे से उतारकर दीवार के सहारे खड़ी करते हुए उसने पूछा।
‘‘उसमें विचार होगा कि आजादी तो मिल गई, अब देश के विकास के लिए क्या किया जाए ? अब हमारे सामने भारत को बनाने का सपना है। दुनिया के देश प्रगति में हमसे कितना आगे बढ़ गए हैं। हमें सोचना है कि हम अपने पिछड़ेपन का रास्ता कैसे तय करें।’’
‘‘बड़ी-बड़ी बातों में फँसोगे तो उलझते ही जाओगे, रामकिशुन भैया।’’ सुमेर चाचा बोला, ‘‘हमें छोटी-छोटी समस्याएँ लेनी चाहिए, जो हमारे जीवन के करीब हों, जैसे–सामने की गली ऊँची हो जाती है तो दरवाजे पर बरसात का पानी नहीं लगता। कभी-कभी तो हालत यह होती है कि पानी हमारी दुकान के भीतर तक चला आता है।’’
‘‘ये सारी बातें आप कल की मीटिंग में कहिएगा। इसी सब जानकारी के लिए ही तो मुहल्ले की मीटिंग बुलाई गई है।’’ रामकिशुन चाचा जल्दी में था। वह चला गया।
दूसरे दिन शाम होते-होते मध्यमेश्वर मंदिर के ऊँचे चबूतरे पर अच्छा-खासा जमावड़ा हो गया। रामकिशुन चाचा ने कुछ बाहरी लोगों को भी बुलाया था। उनकी भी संख्या पाँच-सात से कम नहीं थी।
सभा आरंभ होने के पहले रामकिशुन चाचा ने कहा, ‘‘हमें सूचना मिली है कि आज के प्रस्तावित अध्यक्ष राय उमानाथ चौधरी, छोटे सरकार कुछ विलंब से आएँगे। तब तक कांग्रेस के तपस्वी नेता, जिनके जीवन का एक लंबा अरसा जेल में बीता है, हमारे सौभाग्य से आज इस सभा में उपस्थित हैं। वे हैं–श्री गोकुल पाठक। मैं उन्हीं को अध्यक्ष बनाकर आज की सभा प्रारंभ करना चाहता हूँ।’’
बाहर से ही आए दो व्यक्तियों ने उनके नाम का समर्थन किया। तालियाँ बजीं और वे बाकायदा अध्यक्ष के आसन पर विराजमान हुए। सभा आरंभ हुई।
सबसे पहले रामकिशुन चाचा ने आज की सभा के प्रयोजन और उद्देश्य पर विस्तृत प्रकाश डाला, तब तक छोटे सरकार और जगजीवनदास अपने लाव-लश्कर के साथ पधारे। मसनद तो दो ही थे, उसी को टेकते हुए सब एक-दूसरे से सटकर बैठ गए।
‘‘हम लोग तो आपकी समस्याएँ सुनने आए हैं।’’ छोटे सरकार ने बोलना शुरू किया। उन्हें यह भी नहीं पता था कि बैठक आरंभ हो चुकी है और एक अध्यक्ष चुना जा चुका है। वे अपने रौव में बोलते रहे, ‘‘अभी तक तो हमारे सामने एक ही समस्या थी–देश को आजाद कराने की। वह आजादी तो हम लोगों को मिल गई। अब हम लोगों को देश को बनाने और सँवारने का काम करना है। इस काम में बिना आपकी समस्याओं को जाने और बिना आपका सहयोग लिये हम सफल नहीं हो सकते।’’
उनके भाषण की मुख्य बात तो यही थी। बाकी तो नेहरू गांधी और अन्य बड़े नेताओं से अपने संपर्क आदि की बकवास भी, जिससे हम लोगों पर उनका रोब गालिब हो सके।
तब तक मेरी दृष्टि पूर्व से आनेवाली गली पर पड़ी। देखा, चार बीड़ी एक साथ पीते, दानिस का सहारा लिये गोल-मटोल सुवारत साव चले आ रहे हैं। दानिस पर मुझे हँसी आ रही थी, क्योंकि सुवारत साव की छड़ी उसके हाथ में थी और वह खुद सुवारत साव की छड़ी बना था।
किसी तरह वे पीछे से सभा-स्थल तक आए, क्योंकि उनके भारी-भरकम शरीर को सामने से एक ऊँचे चबूतरे पर चढ़ाना उतना ही मुश्किल था जितना हाथी को पहाड़ चढ़ाना।
आते ही वे ‘धम’ से सभा के बीच में बैठ गए। कुछ देर तक तो हाँफते रहे, फिर उन्होंने चारों बीड़ियों का एक जोरदार कश लिया और घुसकते-घुसकते जहाँ तक हो सका, आगे आए।
अब राय साहब के भाषण से हटकर लोगों का ध्यान उनकी ओर था। फिर सावजी ने पान और सिगरेट की तश्तरी, जो उनसे दूर पड़ रही थी, को उठाने के लिए सुमेर चाचा को इशारा किया और उन्होंने वह तश्तरी उन तक पहुँचा दी।
अब सुवारत साव ने बाएँ हाथ से उसमें से सारी सिगरेटें बीन लीं और उन्हें मसलकर गली की ओर फेंक दिया। फिर दाएँ हाथ की अँगुलियों के बीच सुलगती बीड़ियों को भी बिना बुझाए उसी ओर फेंका। इसके बाद जेब से बीड़ियों के कई बंडल निकाले। उन्हें खोलकर तश्तरी में करीने से सजा दिया। फिर उसी स्थान पर तश्तरी रखवा दी।
स्वराज के पहले हमने कैसे-कैसे सपने देखे थे, कैसी-कैसी कल्पनाएँ की थीं। जैसे परी देश का जल मिल जाएगा, जिसे छिड़कते ही सारा दुःख-दारिद्रय दूर हो जाएगा, किसी प्रकार का अभाव नहीं रहेगा। ट्रेनों में यात्रा करने के लिए टिकट नहीं लेना पड़ेगा, क्योंकि ट्रेने तो अपनी हो जाएँगी। न कोई पेट भूखा रहेगा और न कोई खेत सूखा। गाँव की बूढ़ी रमदेई काकी तो अजीब ‘खयाली पुलाव’ पकाती थी–‘कोठिला अनाज रही, पूरन हर काज रही। सोरह रुपया क नथ रही, झुलनी झुलत रही।’
हमें क्या मालूम था कि सपने ही सपने रह जाएँगे, हमें क्या मालूम था कि आजादी के पहले जैसा था वैसा ही रह जाएगा। वैसे ही सग्गड़वाले सग्गड़ खींचते रहेंगे और रिक्शेवाले रिक्शे। वैसे ही सुमेर चाचा दिन भर ‘नून, तेल, लकड़ी’ बेचता रहेगा। पीपा वैसे ही सीढ़ी कंधे पर लेकर और मिट्टी के तेल का कनस्तर हाथ में लटकाए गली के सरकारी लैपों को शाम को जलाता और सुबह बुझाता रहेगा।
अगर कुछ बदलेगा तो केवल सरकारें, यदि बदलेंगे, तो छोटे सरकार और लाला जगजीवन लाल ऐसे अमन सभाई लोगों के चेहरों के मुखौटे। उनके सिरों पर गाँधी टोपियाँ सवार हो जाएँगी। पहले वे ‘लॉन्ग लिव द किंग’ बोलते थे, अब गांधी-जवाहर की जय बोलने लगेंगे।
अब गाँधी-आजाद, नेहरू-पटेल की कांग्रेस की गंगा में इन अमन सभाइयों की कर्मनाशा ऐसी मिली कि उसका नाम-निशान भी नहीं रहा।
प्रभात-फेरियाँ अब भी निकलती थीं, पर अब उनमें वह उत्साह नहीं रह गया था। उनमें गाए जाने वाले गाने या तो व्यर्थ हो गए थे या बेकार लगने लगे थे।
पर सपने अब भी थे, तरह-तरह के सपने। दारोगा बनने के सपने, इंस्पेक्टर बनने के सपने, कलक्टर बनने के सपने। आम आदमी की सोच का यही शिखर था। इसके आगे वह जा नहीं पाता था।
हर वार्ड में कांग्रेस कमेटियाँ बनाई जा रही थीं। हमारे वार्ड की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रामकिशुन चाचा थे। हमारे वही नेता थे। हमको जो कहना होता था, हम उन्हीं से कहते थे।
इस बार की वार्ड कांग्रेस कमेटी की बैठक मध्यमेश्वर मंदिर पर बुलाई गई थी। रामकिशुन चाचा ने उसमें आने के लिए मुहल्ले के एक-एक आदमी से मिलकर कहा था, क्योंकि कांग्रेस कमेटी की खुली बैठक थी। इसमें वार्ड का हर व्यक्ति अपने विचार रख सकता था। फिर भी इसको लेकर विवाद था।
इसी विवाद को समझाने सुमेर चाचा की दुकान पर कल शाम को रामकिशुन चाचा आए थे। उन्होंने कहा था, ‘‘यह बैठक वास्तव में कांग्रेस की नहीं है, बल्कि कांग्रेस कमेटी की ओर से मुहल्ले के सभी लोगों की है।’’
‘‘क्या होगा इसमें ?’’ उसी समय पीपा आ गया था। सीढ़ी कंधे से उतारकर दीवार के सहारे खड़ी करते हुए उसने पूछा।
‘‘उसमें विचार होगा कि आजादी तो मिल गई, अब देश के विकास के लिए क्या किया जाए ? अब हमारे सामने भारत को बनाने का सपना है। दुनिया के देश प्रगति में हमसे कितना आगे बढ़ गए हैं। हमें सोचना है कि हम अपने पिछड़ेपन का रास्ता कैसे तय करें।’’
‘‘बड़ी-बड़ी बातों में फँसोगे तो उलझते ही जाओगे, रामकिशुन भैया।’’ सुमेर चाचा बोला, ‘‘हमें छोटी-छोटी समस्याएँ लेनी चाहिए, जो हमारे जीवन के करीब हों, जैसे–सामने की गली ऊँची हो जाती है तो दरवाजे पर बरसात का पानी नहीं लगता। कभी-कभी तो हालत यह होती है कि पानी हमारी दुकान के भीतर तक चला आता है।’’
‘‘ये सारी बातें आप कल की मीटिंग में कहिएगा। इसी सब जानकारी के लिए ही तो मुहल्ले की मीटिंग बुलाई गई है।’’ रामकिशुन चाचा जल्दी में था। वह चला गया।
दूसरे दिन शाम होते-होते मध्यमेश्वर मंदिर के ऊँचे चबूतरे पर अच्छा-खासा जमावड़ा हो गया। रामकिशुन चाचा ने कुछ बाहरी लोगों को भी बुलाया था। उनकी भी संख्या पाँच-सात से कम नहीं थी।
सभा आरंभ होने के पहले रामकिशुन चाचा ने कहा, ‘‘हमें सूचना मिली है कि आज के प्रस्तावित अध्यक्ष राय उमानाथ चौधरी, छोटे सरकार कुछ विलंब से आएँगे। तब तक कांग्रेस के तपस्वी नेता, जिनके जीवन का एक लंबा अरसा जेल में बीता है, हमारे सौभाग्य से आज इस सभा में उपस्थित हैं। वे हैं–श्री गोकुल पाठक। मैं उन्हीं को अध्यक्ष बनाकर आज की सभा प्रारंभ करना चाहता हूँ।’’
बाहर से ही आए दो व्यक्तियों ने उनके नाम का समर्थन किया। तालियाँ बजीं और वे बाकायदा अध्यक्ष के आसन पर विराजमान हुए। सभा आरंभ हुई।
सबसे पहले रामकिशुन चाचा ने आज की सभा के प्रयोजन और उद्देश्य पर विस्तृत प्रकाश डाला, तब तक छोटे सरकार और जगजीवनदास अपने लाव-लश्कर के साथ पधारे। मसनद तो दो ही थे, उसी को टेकते हुए सब एक-दूसरे से सटकर बैठ गए।
‘‘हम लोग तो आपकी समस्याएँ सुनने आए हैं।’’ छोटे सरकार ने बोलना शुरू किया। उन्हें यह भी नहीं पता था कि बैठक आरंभ हो चुकी है और एक अध्यक्ष चुना जा चुका है। वे अपने रौव में बोलते रहे, ‘‘अभी तक तो हमारे सामने एक ही समस्या थी–देश को आजाद कराने की। वह आजादी तो हम लोगों को मिल गई। अब हम लोगों को देश को बनाने और सँवारने का काम करना है। इस काम में बिना आपकी समस्याओं को जाने और बिना आपका सहयोग लिये हम सफल नहीं हो सकते।’’
उनके भाषण की मुख्य बात तो यही थी। बाकी तो नेहरू गांधी और अन्य बड़े नेताओं से अपने संपर्क आदि की बकवास भी, जिससे हम लोगों पर उनका रोब गालिब हो सके।
तब तक मेरी दृष्टि पूर्व से आनेवाली गली पर पड़ी। देखा, चार बीड़ी एक साथ पीते, दानिस का सहारा लिये गोल-मटोल सुवारत साव चले आ रहे हैं। दानिस पर मुझे हँसी आ रही थी, क्योंकि सुवारत साव की छड़ी उसके हाथ में थी और वह खुद सुवारत साव की छड़ी बना था।
किसी तरह वे पीछे से सभा-स्थल तक आए, क्योंकि उनके भारी-भरकम शरीर को सामने से एक ऊँचे चबूतरे पर चढ़ाना उतना ही मुश्किल था जितना हाथी को पहाड़ चढ़ाना।
आते ही वे ‘धम’ से सभा के बीच में बैठ गए। कुछ देर तक तो हाँफते रहे, फिर उन्होंने चारों बीड़ियों का एक जोरदार कश लिया और घुसकते-घुसकते जहाँ तक हो सका, आगे आए।
अब राय साहब के भाषण से हटकर लोगों का ध्यान उनकी ओर था। फिर सावजी ने पान और सिगरेट की तश्तरी, जो उनसे दूर पड़ रही थी, को उठाने के लिए सुमेर चाचा को इशारा किया और उन्होंने वह तश्तरी उन तक पहुँचा दी।
अब सुवारत साव ने बाएँ हाथ से उसमें से सारी सिगरेटें बीन लीं और उन्हें मसलकर गली की ओर फेंक दिया। फिर दाएँ हाथ की अँगुलियों के बीच सुलगती बीड़ियों को भी बिना बुझाए उसी ओर फेंका। इसके बाद जेब से बीड़ियों के कई बंडल निकाले। उन्हें खोलकर तश्तरी में करीने से सजा दिया। फिर उसी स्थान पर तश्तरी रखवा दी।
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