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उपन्यास >> वह सांवली लड़की

वह सांवली लड़की

पुष्पा सक्सेना

प्रकाशक : यात्री प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7186
आईएसबीएन :0

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अंजलि की अलग सोच है। वह किसी के विकल्प रूप में अपने को स्वीकार नहीं कर सकती। कोई सिर्फ़ उसके लिए ही उसे चाहे, शायद तभी वह अपनी स्वीकृति दे सके।...

Vah Sanwli Ladki - A Hindi Book - by Pushpa Saxena

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मेरी बात

‘नेह-बंध’ शीर्षक से शुरू इस उपन्यास को ‘वह साँवली लड़की’ नाम देने का श्रेय ‘मनोरमा’ पत्रिका परिवार को जाता है।
उपन्यास की नायिका एक साधारण परिवार की सामान्य लड़की है। मध्यवर्गीय परिवारों की यह त्रासदी है कि इनमें बहुत-सी अंजू जैसी लड़कियाँ जन्म लेती हैं और अनाम जीवन-यात्रा पूर्ण कर, खो जाती हैं। उनकी बुद्धि-प्रतिभा अक्सर अपनी पहचान बनाए बिना ही घर-गृहस्थी में मर-खप जाती है। आज भी भारतीय परिवारों में लड़की का विवाह उसकी अंतिम नियति है।

अंजू यानी अंजलि मेहरोत्रा का जन्म एक ऐसे ही परिवार में हुआ था। पहली सगाई टूटने की त्रासदी अंजू को स्तब्ध कर जाती है, पर पिता की आकांक्षा कि वह चार्टर्ड अकाउंटैंट बने, उसे एक नया जीवन जीने की प्रेरणा देती है। अपने से अपनी पहचान करा, पाना, सबको शायद ही संभव हो पाता हो। अंजलि ने एक अलग पहचान बनाई है, इसीलिए उसका पूर्व मँगेतर विनीत उसे फिर पाने को आकुल हो उठता है, दूसरी ओर सुजय... नारी के दूसरे ही रूप का साक्षी है। उसके विचार में लड़कियों के अन्तर की थाह पाना असंभव है। अंजू से सुजय की भेंट अनायास ही होती है और फिर होती रहती है।
मालती सिन्हा का एक अतीत है। उनका अतीत उनके वर्तमान में आड़े भले ही न आता, पर उन पर हावी रहता है। माँ, मालती सिन्हा, अंजलि, सुजय, पूनम, अतुल और विनीत अलग-अलग पात्र होते हुए भी एक केन्द्र-बिन्दु, अंजलि के इर्द-गिर्द घूमते हैं।

‘मनोरमा’ पत्रिका के चार अंकों में प्रकाशित यह उपन्यास लघु रूप में कुछ पाठकों तक पहुँचा है। उनमें से जिन्होंने पत्रों द्वारा अपनी उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाएँ भेजीं, उनके प्रति आभारी हूँ। आपकी प्रतिक्रियाएँ मेरा संबल हैं। पत्र भेजते रहें, सम्पर्क का यही तो सबसे सशक्त सूत्र है न ?
–पुष्पा सक्सेना

एक


सूटकेस में कपड़े रखती अंजू को देख पूनम पास आ खड़ी हुई थी।
‘‘कहीं बाहर जा रही है अंजू ?’’
‘‘ऑल इंडिया कॉन्फ्रेंस के लिए मुझे नॉमिनेट किया है भाभी।’’
‘‘कहाँ जाना है, सो तो बताया ही नहीं ?’’
‘‘त्रिवेन्द्रम...।’’
‘‘त्रिवेन्द्रम... शायद वहीं तो विनीत...’’
बात अधूरी छोड़ पूनम सब कुछ कह गई थी।
निरुत्तरित अंजू कपड़े रखने-सहेजने में व्यस्त बनी रही।

‘‘सुना है त्रिवेन्द्रम का कोवलम ‘सी-बीच’ बड़ी रोमांटिक जगह है, कहीं खो न जाना।’’ पूनम के चेहरे पर शरारती मुस्कराहट थी।
‘‘मेरी इतनी ही चिन्ता है तो साथ चली चलो भाभी, माँ भी निश्चिन्त रहेगी।’’
‘‘तो चिन्ता करने वाला खोज क्यों नहीं लेती अंजू ? कब तक उसके नाम की माला जपती रहेगी।’’
‘‘भाभी, प्लीज। तुम जानती हो, मुझे इन बातों से सख्त नफरत है।’’
‘‘जिससे नफरत करनी चाहिए, उससे तो कर नहीं पाती... भगवान तुझे सद्बुद्धि दे। ला मैं कपड़े रखती हूँ, तू जाकर चाय पी ले, कैसा तो मुँह सूख रहा है।’’

‘‘थैंक्स भाभी। सच, तुमने मेरी आदत खराब कर दी है, तुम्हारी पैकिंग भी तो कितनी अच्छी होती है, कोशिश करके भी मैं तुम्हारी जैसी पैंकिग नहीं कर पाती।’’
‘‘अच्छा-अच्छा, अब ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं, पर देख, अम्माँ जी को मत बताना कि तू त्रिवेन्द्रम जा रही है, वर्ना वह बेकार शोर मचाएँगी।’’
‘‘पर झूठ बोलना तो सम्भव नहीं है भाभी।’’
‘‘अच्छा तू जा, वो सब मैं सम्हाल लूँगी।’’ अंजू को जबरन उठा, पूनम उसके सूटकेस में कपड़े सजाने लगी।

अपनी इस छोटी ननद के प्रति पूनम के मन में बहुत प्यार था। दोनों बड़ी ननदें जब भी घर आतीं, पूनम असहज हो उठती। घर के काम निबटाती, ननदों की फर्माइशों पर दौड़ती पूनम, पागल हो उठती थी।
रेवा दीदी मायके आते ही बीमार हो जातीं और माला दीदी अपनी ससुराल की थकान उतारने ही मायके आतीं।
‘‘वहाँ तो सुबह पाँच बजे से रात के बारह बजे तक एक पाँव पर खड़े, सबके हुक्म बजाने पड़ते हैं। एक पल का आराम नहीं आता, इसीलिए यहाँ काम में मदद नहीं दे पाती।’’ माला दीदी भोला-सा मुँह बना, विवशता जतातीं।
‘‘अरे चार दिन को मायके आई है, कम-से-कम चार दिन तो आराम कर ले। अरे बहू, आज रात जरा माला के सिर में तेल डाल देना, न जाने कब से तेल नहीं डाल पाई है बेचारी।’’
बेटी का दुलार करती अम्माँ भूल ही जातीं कि दिन-रात मशीन की तरह काम में जुटी पूनम को भी दो घड़ी आराम की जरूरत पड़ सकती है।

ऐसे समय पूनम का हाथ बँटाती अंजू अम्माँ को समझाती–‘‘माला दीदी के सिर में तेल मैं डाल दूँगी। पूनम भाभी पर तो पहले ही काम का इतना बोझ है।’’
‘‘हाँ-हाँ, हम लोग तो बोझ हैं, बड़ी आई भाभी की हिमायत करने वाली। हमसे जैसे इसका कोई नाता ही नहीं है।’’
दोनों बहिनें रुआँसी हो आतीं। अंजू की ओर से क्षमा माँगती पूनम उनसे मनुहार करती–‘‘अंजू अभी छोटी है दीदी, बात समझ नहीं पाती।
आप भला बोझ हैं ? आप तो हमारे सिर-आँखों रहें दीदी। इसे क्षमा कर दें।’’
पूनम से अंजू का अतिशय स्नेह दोनों बहिनों को नहीं सुहाता था।

‘‘अम्माँ ने इसे सिर चढ़ा रखा है, हम पर ही सारे अंकुश लगाते थे। जो जी में आया बक देती हैं।’’
इसी अंजू से जब विनीत ने दो वर्षों की लगी सगाई तोड़ दी तो पूनम ने ही उसे सम्हाला था।
भावनात्मक स्तर पर अंजू विनीत के साथ किस गहराई से जुड़ चुकी थी, यह तो सगाई टूटने के बाद ही पूनम जान सकी। विनीत पर पूनम को बहुत गुस्सा आया था, जब जनाब को अपने दिलो-दिमाग पर भरोसा नहीं था तो निर्णय ही क्यों लिया ? अंजू से बार-बार मिलने या पाँच-पाँच पेज लम्बे प्रेम-पत्र लिखने की क्या जरूरत थी ? उतनी आसानी से सगाई तोड़, मुँह छिपाने सिंगापुर भाग जाना क्या ठीक था ? विनीत त्रिवेन्द्रम में है, क्या वहाँ अंजू सहज रह पाएगी ? विनीत के साथ बिताए सारे पल जीवित हो उठेंगे, कैसे झेल पाएगी अंजू ?

अंजू को एयरपोर्ट छोड़ने पति के साथ पूनम भी गई थी। काश, अंजू के इस व्यक्तित्व को विनीत देख पाता। अंजू-सी सलोनी पत्नी क्या वह पा सका होगा ? कम्पनी की मुख्य वित्त अधिकारी अंजू किससे कम है ! चार्टर्ड अकाउंटैंसी कितनी लड़कियों को कर पाना सम्भव होता है। अपने पाँवों पर झुकती अंजू को पूनम ने सीने से लगा लिया था। धीमे से फुसफुसाती पूनम ने कहा था–‘‘देख अंजू, यह दुनिया जितनी ही बड़ी है, उतनी ही छोटी भी–अगर वहाँ कहीं विनीत मिल गया तो झेल सकेगी ?’’

‘‘तुम निश्चिन्त रहो भाभी, अब तुम्हारी अंजू बदल चुकी है।’’
‘‘हाँ, पहले से ज्यादा निखर आई है हमारी अंजू, नजर न लग जाए।’’
कहने को पूनम हँस पड़ी थी, पर मन पाँच वर्ष पूर्व की बेहद टूटी-उदास अंजू की तस्वीर याद कर रहा था। विनीत के पापा का संक्षिप्त पत्र अचानक मिला था... ‘‘विवाह सम्भव नहीं, क्षमा करें,’’ यद्यपि पत्र में उन्होंने कोई कारण नहीं लिखा था, पर बाद में खबर मिली थी, सिंगापुर में बसे रबर-व्यापारी ने विनीत को खरीद लिया था।

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