सामाजिक >> श्रम एव जयते श्रम एव जयतेजयनन्दन
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इस उपन्यास में श्रम की विजय और पद पर प्रभाव पर ध्यान आकृष्ट किया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नई पीढ़ी के नवोदित लेखकों के लिए ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित उपन्यास
प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ घोषित प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने श्रम की
विजय और पद का प्रभाव-दोनों बातों की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करने का
बहुत ही सुन्दर प्रयास किया है। भाषा, साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में
आदर्श की बातें बहुत कही जाती हैं, पर यथार्थ की कठोरता का मार्मिक और
निर्भीक विवेचन करना सब के लिए सम्भव नहीं है। इस पटुता का परिचय जयनन्दन
के इस उपन्यास के प्रत्येक प्रसंग में मिलता है। वे अपनी बात अनेक पात्रों
के माध्यम से इस तरह कह देते हैं कि पाठक का हृदय द्रवीभूत हो जाता है, मन
स्तब्ध रह जाता है और कुछ कहने के लिए शब्द नहीं मिलते, केवल लेखक की बात
स्वीकारनी पड़ती है।
उपन्यास का शीर्षक इस सत्य को उद्घाटित करता है कि श्रम की विजय होकर ही रहती है, किन्तु विडम्बना यह कि विजय का यह प्रसाद विकर्मी को मिलता है, कर्मठ कार्यकर्ता को नहीं। इसी नृशंसता के विरुद्ध सात्त्विक आक्रोश का सशक्त स्वर उठाता है जयनन्दन का यह उपन्यास-‘श्रम एव जयते’।
उपन्यास का शीर्षक इस सत्य को उद्घाटित करता है कि श्रम की विजय होकर ही रहती है, किन्तु विडम्बना यह कि विजय का यह प्रसाद विकर्मी को मिलता है, कर्मठ कार्यकर्ता को नहीं। इसी नृशंसता के विरुद्ध सात्त्विक आक्रोश का सशक्त स्वर उठाता है जयनन्दन का यह उपन्यास-‘श्रम एव जयते’।
प्रस्तुति
लोकहितकारी साहित्य के प्रणयन और प्रकाशन को प्रोत्साहित करना
भारतीय ज्ञानपीठ के प्रमुख उद्देश्यों में एक है। उपेक्षित ज्ञान को
उद्घाटित करना, उत्तम साहित्य को पुरस्कृत करना और नवनवोन्मेषिणी प्रतिभा
को उत्तरोत्तर दिशा प्रदान करना तीन ऐसे आयाम हैं जिनके माध्यम से
ज्ञानपीठ पिछले पचास वर्षों से इस मूल उद्देश्य की पूर्ति में सफलता
प्राप्त करता रहा है। मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला, लोकोदय ग्रन्थमाला,
राष्ट्रभारती, विश्वभारती आदि के माध्यम से ज्ञानपीठ ने अबतक लगभग 600
ग्रन्थ प्रकाशित किए हैं। इन ग्रन्थों के माध्यम से वर्तमान शताब्दी की
साहित्यिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक गतिविधियों का एक प्रत्यक्ष प्रमाण
प्रस्तुत होता है। ज्ञानपीठ पुरस्कार और मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित
तीस-चालीस वाङ्मय-तपस्वियों की सारस्वत साधना को अवगत करने से इस शताब्दी
की परिनिष्ठित शब्दवाहिनी की मनोहर दृश्य साहित्य के सहृदय जिज्ञासुओं के
सामने प्रकट होता है।
ज्ञान और साहित्य के संप्रसारण की इसी दिशा में एक और कदम ज्ञानपीठ ने उठाया है। युवा पीढ़ी की सृजनात्मक चेतना को प्रोत्साहित करने के उदेश्य से नवोदित लेखकों के लिए प्रतियोगिता पिछले पाँच वर्षों से आयोजित होती रही। इस प्रतियोगिता में 40 वर्ष तक ही आयु वाले सभी युवा साहित्यकार भाग ले सकते हैं। प्रत्येक वर्ष साहित्य की किसी एक विधा में यह प्रतियोगिता आयोजित होती है। इसमें उन्हीं लेखकों की पाण्डुलिपियाँ स्वीकार की जाती हैं जिनकी उस विधा में कोई पुस्तक प्रकाशित न हुई हो। प्राप्त पाण्डुलिपियों में सर्वश्रेष्ठ घोषित रचना का प्रकाशन ज्ञानपीठ द्वारा होता है। इस प्रकार नये-लेखक के लिए प्रशस्त प्रकाशन का द्वार खुल जाता है। अब तक इस योजना के अन्तर्गत डॉ० ऋता शुक्ल की कहानी संकलन ‘क्रौंच-वध’, श्री विनोद दास का कविता-संकलन ‘खिलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’, श्री हरीश नवल की हास्य-व्यंग्य रचना ‘बाग़पत के खरबूजे’ तथा श्री विवेकानन्द की नाट्य-कृति ‘अन्ततः प्रकाशित हो चुके हैं। इसी श्रृंखला में अब श्री जयनन्दन का उपन्यास ‘श्रम एव जयते’ प्रकाशित हो रहा है।
इस उपन्यास में श्रम की जयिष्णुता और पद की प्रभविष्णुता की ओर श्रमजीवी और पदजीवी समाज का ध्यान आकृष्ट करने का युवा उपन्यासकार ने अत्यन्त सफल प्रयास किया है। भाषा, साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में आदर्श की बातें बहुत कही जाती हैं, पर यथार्थ की कठोरता का मार्मिक और निर्भीक विवेचना करना सबके लिए सम्भव नहीं है। इस पटुता का परिचय जयनन्दन के इस उपन्यास के प्रत्येक प्रसंग में मिलता है। जयनन्दन की शैली में प्रचुर मात्रा में यह पटुता है, पर कहीं लेशमात्र भी नहीं है। वास्तव में वह अपनी बात अपने पात्रों के माध्यम से इस प्रकार कह देते हैं कि पाठक का हृदय द्रवीभूत हो जाता है, मन स्तब्ध रह जाता है और कुछ कहने के लिए शब्द नहीं मिलते हैं, केवल लेखक की बात स्वीकारनी पड़ती है।
‘श्रम एव जयते’-शीर्षक अपने आप आज के परम सत्य को औपनिषदिक भाषा में उद्घोषित करता है। पर यथार्थ इस सुन्दर आदर्श को दूषित कर देता है। श्रम करता एक है, फल पाता दूसरा है। इस पर भी विडम्बना यह है कि श्रम का फल अनायास पानेवाला कुशल चालक श्रमिक को पुरस्कृत करने के स्थान पर उसे बुरी तरह शोषित करता है। अन्त में श्रम की विजय अवश्य होती है, पर विजय का विभव विकर्मी को मिलता है, कर्मठ कार्यकर्त्ता को नहीं। यही आज की श्रमजीविता की सबसे बड़ी विषमता है। अधिकारी अपने अधिकार को आराधना अपराध का आधार बना लेते हैं तो अधिकार के भार से दबे हुए श्रमिक विवश, दयनीय और उपेक्षित बन जाते हैं। इसी नृशंसता के विरुद्ध सात्त्विक आक्रोश का सशक्त स्वर उठाता है जयनन्दन का यह उपन्यास।
जयनन्दन ने केदार और पूरन दा के माध्यम से जिस परम शोचनीय सत्य का प्रतिपादन किया है, उसकी ओर सत्ता का ध्यान जाता है तो लेखक का यह नारा ‘श्रम एव जयते’ नर को नारायण बना सकता है।
होनहार लेखक श्री जयनन्दन की यह रचना प्रकाशित करते हुए ज्ञानपीठ हार्दिक प्रसन्नता और आन्तरिक तृप्ति का अनुभव करता है। लेखक की यह साधना, कुछ कहने की लालसा और कर दिखाने की भावना आनेवाले समय में आगे और उसकी बात जनमानस तक पहुँचे, यही कामना है।
ज्ञान और साहित्य के संप्रसारण की इसी दिशा में एक और कदम ज्ञानपीठ ने उठाया है। युवा पीढ़ी की सृजनात्मक चेतना को प्रोत्साहित करने के उदेश्य से नवोदित लेखकों के लिए प्रतियोगिता पिछले पाँच वर्षों से आयोजित होती रही। इस प्रतियोगिता में 40 वर्ष तक ही आयु वाले सभी युवा साहित्यकार भाग ले सकते हैं। प्रत्येक वर्ष साहित्य की किसी एक विधा में यह प्रतियोगिता आयोजित होती है। इसमें उन्हीं लेखकों की पाण्डुलिपियाँ स्वीकार की जाती हैं जिनकी उस विधा में कोई पुस्तक प्रकाशित न हुई हो। प्राप्त पाण्डुलिपियों में सर्वश्रेष्ठ घोषित रचना का प्रकाशन ज्ञानपीठ द्वारा होता है। इस प्रकार नये-लेखक के लिए प्रशस्त प्रकाशन का द्वार खुल जाता है। अब तक इस योजना के अन्तर्गत डॉ० ऋता शुक्ल की कहानी संकलन ‘क्रौंच-वध’, श्री विनोद दास का कविता-संकलन ‘खिलाफ़ हवा से गुज़रते हुए’, श्री हरीश नवल की हास्य-व्यंग्य रचना ‘बाग़पत के खरबूजे’ तथा श्री विवेकानन्द की नाट्य-कृति ‘अन्ततः प्रकाशित हो चुके हैं। इसी श्रृंखला में अब श्री जयनन्दन का उपन्यास ‘श्रम एव जयते’ प्रकाशित हो रहा है।
इस उपन्यास में श्रम की जयिष्णुता और पद की प्रभविष्णुता की ओर श्रमजीवी और पदजीवी समाज का ध्यान आकृष्ट करने का युवा उपन्यासकार ने अत्यन्त सफल प्रयास किया है। भाषा, साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में आदर्श की बातें बहुत कही जाती हैं, पर यथार्थ की कठोरता का मार्मिक और निर्भीक विवेचना करना सबके लिए सम्भव नहीं है। इस पटुता का परिचय जयनन्दन के इस उपन्यास के प्रत्येक प्रसंग में मिलता है। जयनन्दन की शैली में प्रचुर मात्रा में यह पटुता है, पर कहीं लेशमात्र भी नहीं है। वास्तव में वह अपनी बात अपने पात्रों के माध्यम से इस प्रकार कह देते हैं कि पाठक का हृदय द्रवीभूत हो जाता है, मन स्तब्ध रह जाता है और कुछ कहने के लिए शब्द नहीं मिलते हैं, केवल लेखक की बात स्वीकारनी पड़ती है।
‘श्रम एव जयते’-शीर्षक अपने आप आज के परम सत्य को औपनिषदिक भाषा में उद्घोषित करता है। पर यथार्थ इस सुन्दर आदर्श को दूषित कर देता है। श्रम करता एक है, फल पाता दूसरा है। इस पर भी विडम्बना यह है कि श्रम का फल अनायास पानेवाला कुशल चालक श्रमिक को पुरस्कृत करने के स्थान पर उसे बुरी तरह शोषित करता है। अन्त में श्रम की विजय अवश्य होती है, पर विजय का विभव विकर्मी को मिलता है, कर्मठ कार्यकर्त्ता को नहीं। यही आज की श्रमजीविता की सबसे बड़ी विषमता है। अधिकारी अपने अधिकार को आराधना अपराध का आधार बना लेते हैं तो अधिकार के भार से दबे हुए श्रमिक विवश, दयनीय और उपेक्षित बन जाते हैं। इसी नृशंसता के विरुद्ध सात्त्विक आक्रोश का सशक्त स्वर उठाता है जयनन्दन का यह उपन्यास।
जयनन्दन ने केदार और पूरन दा के माध्यम से जिस परम शोचनीय सत्य का प्रतिपादन किया है, उसकी ओर सत्ता का ध्यान जाता है तो लेखक का यह नारा ‘श्रम एव जयते’ नर को नारायण बना सकता है।
होनहार लेखक श्री जयनन्दन की यह रचना प्रकाशित करते हुए ज्ञानपीठ हार्दिक प्रसन्नता और आन्तरिक तृप्ति का अनुभव करता है। लेखक की यह साधना, कुछ कहने की लालसा और कर दिखाने की भावना आनेवाले समय में आगे और उसकी बात जनमानस तक पहुँचे, यही कामना है।
नई दिल्ली
9-12-1991
9-12-1991
पाण्डुरंग राव
निदेशक
निदेशक
श्रम एव जयते
अनेक गगनचुम्बी चिमनियों से आकाश में मँडराता काला धुआँ दूर से एक कारखाने
के अस्तित्व का अहसास करा देता था। पास यह पूरे इलाक़े पर छायी अलकतरे से
रँगी काली छत-सा लगता था, जिसे भेदने में सूरज तक असमर्थ नज़र आता था।
कारखाने का गेट किसी विशालकाय राक्षस के जबड़े-सा हमेशा खुला रहता था। वहाँ मगरमच्छी की मुद्रा में पाँच-सात वर्धीधारी सुरक्षाकर्मी तैनात रहा करते थे। जब ड्यूटी पर मज़दूरों के आने का, आदमखोर शेर सदृश्य गगनभेदी सायरन दहाड़ता तो गेट के सामने कुकुरमुत्ते-सी उग आयी चाय-पान की गुमटियाँ और कालोनी से आने वाली सड़क ज़ोरदार हरकत में आ जातीं। लोग फटापट खैनी-बीड़ी तथा चाय-पान जैसी ज़रूरतें निपटाकर यूँ भागते जैसे जंगल में हाँका पड़ गया हो।
फिर लोग अधिकतम पाँच मिनट के भीतर गेट में इस तरह समा जाते जैसे किसी अजगर ने अपनी शक्तिशाली साँस द्वारा खींचकर लील लिया हो इन्हें।
गेट से ढाई-तीन सौ गज दूर एक-पर-एक रखकर सजी हुई माचिस-डिबिया की मानिन्द वर्कर्स-फ्लैट नज़र आ रहे थे। हाँलाकि उनमें रहने वाले लोग बारूद वाली तीली नहीं थे। अगर थे भी तो एक भीगी हुई तीली, जिसे जलने के पहले गर्म होना आवश्यक होता है।
आग पैदा करने वाली तीली का भीगना कितनी बड़ी विडम्बना है ! इन्हीं विडम्बनाओं के कुछ प्रतिनिधि चरित्र प्रथम पाली की सायरन-चीख पर कारखाने की तरफ बढ़े जा रहे थे।–कोई पान चबाते या चूना चाटते, कोई बीड़ी पीते या खैनी मलते, कोई अधछूटी चाय की मर्सिया पढ़ते, कोई निजी परेशानियों में मन-ही-मन गुणाभाग करते। इन गुणा-भाग करने वालों में ही एक नाम केदार था। अपनी ही धुन में वह सरपट यूँ बढ़ रहा था जैसे चल नहीं बल्कि किसी चिकने तल पर फिसल रहा हो।
पीछे से वर्करों के झुण्ड ने उसे आवाज़ लागायी तो झेंपते हुए उसने अपनी चाल घटा दी। कुछ ही पल बाद एक साथ हो गये। चलते-चलते ही आदतन उसने सबसे हाथ मिलाये। वे उसके ही मित्रमाला के मनके बद्री, सुधीर, हरीश, गेंदा, सलवर और रज्जब थे।
अब तक वे चलते-चलते गेट पर आ गये थे। सिक्यूरिटी दोहनसिंह ऊँची आवाज़ में गेट पर तैनात ‘गेटपास...गेटपास’ की रट लगाये जा रहा था। कुछ ऊपर, कुछ बगल कुछ पीछे की जेब की ओर संकेत करते हुए गेट पार करते जा रहे थे। इसी दोहनसिंह ने जमींदारी वाली कड़क दिखाकर रज्जब को टोका-लगा जैसे कोई पुराना खार हो।
‘‘ओ मियाँ जी, ज़रा खोलकर दिखाओ गेटपास।’’
पलभर के लिए कुछ लोग थम गये थे। स्वर की कर्कशता उन्हें अखर गयी थी।
दोहन ने अपने को और कटु कर लिया, ‘‘आँख क्या दिखा रहे हो गेटपास दिखाओ।’’
रज्जब ने उसे सहज करने के लिए मुसकराने की कोशिश की, ‘‘दस साल से तो देख ही रहे हैं लीजिए, आज भी समाद फरमाइए।’’ उसने गेटपास खोलकर दिखा दिया फिर लपककर सबके साथ हो लिया।
केदार ने गेंदा को देखते ही पूछा, ‘‘गेंदा भाई ! पता चला कि मैट्र्कि का रिज़ल्ट निकला गया ?’’
मेरा लड़का बुन्देल और बद्री की लड़की सुनयना ने प्रथम श्रेणी पायी है।’’ गेंदा ने कहा।
‘‘वाह ! बधाई.... बहुत-बहुत बधाई ! हमारी कालोनी को गर्व है ऐसे होनहार बच्चों पर।’’
बद्री और गेंदा की छाती फूल-सी गयी। केदार ने इन्हें परामर्श दिया कि वे इनकों आगे पढ़ने के लिए कहीं से कोई रुकावट न आने दें। जोश में गेंदा ने अपने बेटे को डाक्टर बनाने की मंशा प्रकट की और कहा कि अपने न पढ़ने का मलाल तो इन बच्चों को ही पढ़ाकर मिटाना है। ऐसी चाह सम्भवताः भावी परिस्थिति से अनभिज्ञ हर बाप की होती है। बद्री भी अपनी बेटी को किसी ऊँचे ओहदे पर पहुँचाने की ख्वाहिश रखता था।
केदार की निगाह अचानक हरीश पर पड़ी तो उसे उसके बेटे के बारे में खयाल आ गया, ‘‘हरीश, तुम्हारे लड़के के दाखिले का क्या हुआ ?’’
हरीश ने संजीदा होने का नाटक करते हुए मसखरेपन से कहा, ‘‘यह सवाल सरेआम न पूछते तो अच्छा था। लड़के का इण्टरव्यू तो ठीक हुआ .......मगर उसके माँ-बाप का इण्टरव्यू बेकार हुआ इसलिए छँट गया वह।’’
चलते-चलते सब लोग ठठाकर हँस पड़े। मगर एक सुधीर था जो इन बातों से एकदम अप्रभावित गुमसुम दिखाई पड़ रहा था। सबकी निगाह एक साथ उसकी
तरफ खिंच गयी। सलवर ने पहल की, ‘‘क्या बात है सुधीर, कुछ उदास-से लग रहे हो ?’’
‘‘अरे हाँ भाई ! ये कुछ हाँ-हूँ भी नहीं कर रहा..... बात क्या है यार ! कोई परेशानी है क्या ?’’ केदार ने उसे टटोलने की कोशिश की।
सुधीर ने टालने के अंदाज में कहा, ‘‘अरे कुछ नहीं यार .....ऐसी कोई बात नहीं है।’’
हरीश ने फिर उसका पीछा किया, ‘‘देखो मामला तो कुछ ज़रूर है ...नहीं तो तुम इस प्रकार चुपचाप रहने वाले प्राणी नहीं हो। क्यों घरवाली से झगड़ा हुआ है क्या ?’’
हरीश के कहने का अंदाज हास्य पैदा कर रहा था। सुधीर ने उसे झिड़क दिया, ‘अरे चल न यार चुपचाप। देखते नहीं समय हो गया।’’
अब रज्जब ने भी अपनी चुटकी उछाल दी, ‘‘यार इसमें बुरा क्या है। जिसकी बीवी झगड़ती न हो, भला उसके जीवन में कोई लुफ्त है। तुम लोग एक से ही परेशान हो, मैं तो दो-दो के झगड़े देखो कितनी दिलेरी से झेल रहा हूँ।’’ रज्जब ने अपने सीने की मछलियाँ थोड़ी-सी हिला दीं।
मुसकान स्वतः तिर आयी सबके होठों पर।
इनकी तेज़ चाल के कारण रास्ते में धीमे चलनेवाले कुछ और उम्रदराज सहकर्मी साथ हो गये। इन्हीं में एक पूरन थे। सबने उन्हें देखते ही ‘प्रणाम-प्रमाण की झड़ी लगा दी। चूँकि ज़्यादा तेज़ अब चला नहीं जाता, इसलिए वे प्रायः काफ़ी समय रहते घर से निकल पड़ते थे। पर पता नहीं क्यों वे आज सायरन होने के बाद भी रास्ते में ही हैं।
केदार ने पूछा लिया, ‘‘लगता है पूरन दा, आज आपकी नींद भी देर से खुली।’’
कारखाने का गेट किसी विशालकाय राक्षस के जबड़े-सा हमेशा खुला रहता था। वहाँ मगरमच्छी की मुद्रा में पाँच-सात वर्धीधारी सुरक्षाकर्मी तैनात रहा करते थे। जब ड्यूटी पर मज़दूरों के आने का, आदमखोर शेर सदृश्य गगनभेदी सायरन दहाड़ता तो गेट के सामने कुकुरमुत्ते-सी उग आयी चाय-पान की गुमटियाँ और कालोनी से आने वाली सड़क ज़ोरदार हरकत में आ जातीं। लोग फटापट खैनी-बीड़ी तथा चाय-पान जैसी ज़रूरतें निपटाकर यूँ भागते जैसे जंगल में हाँका पड़ गया हो।
फिर लोग अधिकतम पाँच मिनट के भीतर गेट में इस तरह समा जाते जैसे किसी अजगर ने अपनी शक्तिशाली साँस द्वारा खींचकर लील लिया हो इन्हें।
गेट से ढाई-तीन सौ गज दूर एक-पर-एक रखकर सजी हुई माचिस-डिबिया की मानिन्द वर्कर्स-फ्लैट नज़र आ रहे थे। हाँलाकि उनमें रहने वाले लोग बारूद वाली तीली नहीं थे। अगर थे भी तो एक भीगी हुई तीली, जिसे जलने के पहले गर्म होना आवश्यक होता है।
आग पैदा करने वाली तीली का भीगना कितनी बड़ी विडम्बना है ! इन्हीं विडम्बनाओं के कुछ प्रतिनिधि चरित्र प्रथम पाली की सायरन-चीख पर कारखाने की तरफ बढ़े जा रहे थे।–कोई पान चबाते या चूना चाटते, कोई बीड़ी पीते या खैनी मलते, कोई अधछूटी चाय की मर्सिया पढ़ते, कोई निजी परेशानियों में मन-ही-मन गुणाभाग करते। इन गुणा-भाग करने वालों में ही एक नाम केदार था। अपनी ही धुन में वह सरपट यूँ बढ़ रहा था जैसे चल नहीं बल्कि किसी चिकने तल पर फिसल रहा हो।
पीछे से वर्करों के झुण्ड ने उसे आवाज़ लागायी तो झेंपते हुए उसने अपनी चाल घटा दी। कुछ ही पल बाद एक साथ हो गये। चलते-चलते ही आदतन उसने सबसे हाथ मिलाये। वे उसके ही मित्रमाला के मनके बद्री, सुधीर, हरीश, गेंदा, सलवर और रज्जब थे।
अब तक वे चलते-चलते गेट पर आ गये थे। सिक्यूरिटी दोहनसिंह ऊँची आवाज़ में गेट पर तैनात ‘गेटपास...गेटपास’ की रट लगाये जा रहा था। कुछ ऊपर, कुछ बगल कुछ पीछे की जेब की ओर संकेत करते हुए गेट पार करते जा रहे थे। इसी दोहनसिंह ने जमींदारी वाली कड़क दिखाकर रज्जब को टोका-लगा जैसे कोई पुराना खार हो।
‘‘ओ मियाँ जी, ज़रा खोलकर दिखाओ गेटपास।’’
पलभर के लिए कुछ लोग थम गये थे। स्वर की कर्कशता उन्हें अखर गयी थी।
दोहन ने अपने को और कटु कर लिया, ‘‘आँख क्या दिखा रहे हो गेटपास दिखाओ।’’
रज्जब ने उसे सहज करने के लिए मुसकराने की कोशिश की, ‘‘दस साल से तो देख ही रहे हैं लीजिए, आज भी समाद फरमाइए।’’ उसने गेटपास खोलकर दिखा दिया फिर लपककर सबके साथ हो लिया।
केदार ने गेंदा को देखते ही पूछा, ‘‘गेंदा भाई ! पता चला कि मैट्र्कि का रिज़ल्ट निकला गया ?’’
मेरा लड़का बुन्देल और बद्री की लड़की सुनयना ने प्रथम श्रेणी पायी है।’’ गेंदा ने कहा।
‘‘वाह ! बधाई.... बहुत-बहुत बधाई ! हमारी कालोनी को गर्व है ऐसे होनहार बच्चों पर।’’
बद्री और गेंदा की छाती फूल-सी गयी। केदार ने इन्हें परामर्श दिया कि वे इनकों आगे पढ़ने के लिए कहीं से कोई रुकावट न आने दें। जोश में गेंदा ने अपने बेटे को डाक्टर बनाने की मंशा प्रकट की और कहा कि अपने न पढ़ने का मलाल तो इन बच्चों को ही पढ़ाकर मिटाना है। ऐसी चाह सम्भवताः भावी परिस्थिति से अनभिज्ञ हर बाप की होती है। बद्री भी अपनी बेटी को किसी ऊँचे ओहदे पर पहुँचाने की ख्वाहिश रखता था।
केदार की निगाह अचानक हरीश पर पड़ी तो उसे उसके बेटे के बारे में खयाल आ गया, ‘‘हरीश, तुम्हारे लड़के के दाखिले का क्या हुआ ?’’
हरीश ने संजीदा होने का नाटक करते हुए मसखरेपन से कहा, ‘‘यह सवाल सरेआम न पूछते तो अच्छा था। लड़के का इण्टरव्यू तो ठीक हुआ .......मगर उसके माँ-बाप का इण्टरव्यू बेकार हुआ इसलिए छँट गया वह।’’
चलते-चलते सब लोग ठठाकर हँस पड़े। मगर एक सुधीर था जो इन बातों से एकदम अप्रभावित गुमसुम दिखाई पड़ रहा था। सबकी निगाह एक साथ उसकी
तरफ खिंच गयी। सलवर ने पहल की, ‘‘क्या बात है सुधीर, कुछ उदास-से लग रहे हो ?’’
‘‘अरे हाँ भाई ! ये कुछ हाँ-हूँ भी नहीं कर रहा..... बात क्या है यार ! कोई परेशानी है क्या ?’’ केदार ने उसे टटोलने की कोशिश की।
सुधीर ने टालने के अंदाज में कहा, ‘‘अरे कुछ नहीं यार .....ऐसी कोई बात नहीं है।’’
हरीश ने फिर उसका पीछा किया, ‘‘देखो मामला तो कुछ ज़रूर है ...नहीं तो तुम इस प्रकार चुपचाप रहने वाले प्राणी नहीं हो। क्यों घरवाली से झगड़ा हुआ है क्या ?’’
हरीश के कहने का अंदाज हास्य पैदा कर रहा था। सुधीर ने उसे झिड़क दिया, ‘अरे चल न यार चुपचाप। देखते नहीं समय हो गया।’’
अब रज्जब ने भी अपनी चुटकी उछाल दी, ‘‘यार इसमें बुरा क्या है। जिसकी बीवी झगड़ती न हो, भला उसके जीवन में कोई लुफ्त है। तुम लोग एक से ही परेशान हो, मैं तो दो-दो के झगड़े देखो कितनी दिलेरी से झेल रहा हूँ।’’ रज्जब ने अपने सीने की मछलियाँ थोड़ी-सी हिला दीं।
मुसकान स्वतः तिर आयी सबके होठों पर।
इनकी तेज़ चाल के कारण रास्ते में धीमे चलनेवाले कुछ और उम्रदराज सहकर्मी साथ हो गये। इन्हीं में एक पूरन थे। सबने उन्हें देखते ही ‘प्रणाम-प्रमाण की झड़ी लगा दी। चूँकि ज़्यादा तेज़ अब चला नहीं जाता, इसलिए वे प्रायः काफ़ी समय रहते घर से निकल पड़ते थे। पर पता नहीं क्यों वे आज सायरन होने के बाद भी रास्ते में ही हैं।
केदार ने पूछा लिया, ‘‘लगता है पूरन दा, आज आपकी नींद भी देर से खुली।’’
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