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संस्मरण >> दिद्दी

दिद्दी

इरा पांडे

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7167
आईएसबीएन :9780143064442

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शिवानी की ज़िंदगी से जुड़े कई रिश्तेदारों, मित्रों व अनेक रंगीन पात्रों से रूबरू कराता एक रोचक संस्मरण

Diddi Hamari Ma Shivani - A Hindi Book - by Ira Pandey

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शिवानी के उपन्यास, लघु कहानियां व स्तंभ घर-घर में पढ़े जाते थे। इस लोकप्रिय लेखिका के पीछे छिपे चेहरे को उनकी पुत्री इरा पांडे ने ‘दिद्दी : हमारी मां शिवानी’ में दर्शाते हुए अपनी मां की एक अनोखी झलक पाठकों के सम्मुख रखी है। मां-बेटी के अटूट रिश्ते को उकेरती यह कहानी शिवानी के उपन्यासों से कम दिलचस्प नहीं है।
पाठकों को इस पुस्तक में शिवानी की ज़िंदगी से जुड़े कई अनोखे रिश्तेदारों, मित्रों व अनेक रंगीन पात्रों से रूबरू कराती हुई इरा एक पूरे ज़माने को याद करवा देती हैं। हम एक ऐसे परिवार से अवगत होते हैं जिसके कई पात्र हमें अपने परिवारों के सदस्य लगने लगते हैं। इरा अपने परिवार के उन सुशिक्षित-सुशिष्ट सदस्यों का अभिनंदन करती हैं, जिनमें कुछ ख़ब्ती, फक्कड़ प्राणी भी थे और कुछ बेहद प्रतिभाशाली लेखक भी।
सामंतशाही व संयुक्त परिवार प्रणाली के गुज़र जाने के बाद कुमाऊं के गर्वोन्नमत्त ब्राह्मण परिवारों का भी चित्र हमें मिलता है : जब विशाल परिवार टूटकर धीरे-धीरे एकल परिवारों में तब्दील हो गए, और पुरानी रीतियां टूटती चली गईं।

आभार


फ़रवरी 2004 में हमें पता चला कि जिया को जीभ का कैंसर हो गया है। जिया को मैंने सास कभी न माना और न उन्होंने मुझे कभी बहू समझा। हमारा रिश्ता हमेशा एक मां-बेटी का सा रहा शायद इसलिए कि हम एक-दूसरे से सब कुछ कह लेते थे। यूं समझिए कि वह मेरी अंतरंग सहेली भी थीं और मां भी। उनकी बीमारी से हम भी उतने ही आहत हुए जितनी वे थीं और मैंने इस पुस्तक को चार महीनों में ताबड़तोड रफ़्तार से लिखा जैसे कि जब तक पढ़ सकती थीं वे उसे किसी तरह पढ़ लें। उन दुखद दिनों को इसी पुस्तक के सहारे मैं काट पाई थी। जब उन्होंने इसे पूरा पढ़ लिया तब तक उनके लिए बोल पाना असंभव हो चुका था। इसलिए उन्होंने मुझे एक पृष्ठ पर ‘इसके लिए मैं तुम्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान करती हूं’ लिखकर मूक शाबाशी दी। उनके इस आशीर्वाद और उनसे मिले अपार स्नेह की स्मृति में मैं यह पुस्तक उन्हें सादर समर्पित करती हूं।

मेरे भाई व बहनों ने मुझे दिद्दी की सब पुस्तकों से मनचाहे ढंग से खिलवाड़ करने की अनुमति ही नहीं दी, मेरी हर समस्या का समाधान भी सुझाया। नीता ने इसके हिंदी अनुवाद में मुझे अपना पूरा समर्थन ही नहीं प्रोत्साहन भी दिया। मेरी हिंदी कुछ ढीली ही है लेकिन मुझे आशा है पाठक मुझे शिवानी के दर्जे से हटकर पढ़ेंगे।
अंत में मैं अपने तीन बेटे अपूर्व, आदित्य और आफ़ताब व बहू चिन्मया और पोती अन्वया को इस पुस्तक में नानी की यादें दिखाना चाहती हूं। अमित ने मुझे जो दिया है और जिस तरह निभाया है, उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।

इरा पांडे

दिद्दी : हमारी मां शिवानी


हम अपनी मां को दिद्दी कहकर पुकारते थे। शायद यही कारण था कि वो हमेशा हमारे लिए मां कम, एक बड़ी बहन ज़्यादा रही : एक ऐसी बहन जो हमसे पिछली पीढ़ी में पैदा हुई थी और हमसे ज़रा फ़र्क़ थी। लेकिन उसके चले जाने के बाद मुझे ऐसा लगा जैसे वो मेरे अंदर घुस के बैठ गई है क्योंकि मुझे उसकी आवाज़ अपने अंदर निरंतर सुनाई देती थी। इतना बोलते तो मैंने उसे तब भी न सुना था जब वह मेरे पास रहती थी। मुझे तब आभास हुआ कि यद्यपि दिद्दी ने हमेशा अपने आपको तटस्थ रखना पसंद किया, हम उससे इतने जुड़े थे कि उसके चले जाने पर मुझे लगा जैसे मेरे शरीर का एक अंग ही कट गया है। कहते हैं न कि अक्सर हाथ या पैर कट जाने के कई दिनों तक लगता है जैसे कि उनमें कोई हरकत हो रही है ?

ये जानते हुए भी कि दिद्दी अपने समय की सबसे लोकप्रिय लेखिका थी, हम बच्चे उसको लेखिका के रूप में कम ही देखते थे। सच पूछिए तो इससे हमें हल्की खिसियाहट महसूस होती थी। और चूंकि अपने मुंह से दिद्दी अपने लेखन या पठन-पाठन की बातें कभी करती ही नहीं थी, हमारे घर में उसका दर्जा एक महत्वपूर्ण लेखिका का कभी नहीं रहा। न जाने उसे इस बात से कितनी चोट पहुंची होगी कि छुटपन में जो बच्चे उसकी कहानियां सुनने को मचलते रहते थे, अब उसकी रोमांटिक शैली की तारीफ़ करने से कतराते थे। इसलिए वो अपने पुरस्कार, या पाठकों की फ़ैन मेल को हमें कभी दिखाती तक न थी।

हमारे परिवार में अपना ढिंढोरा पीट के अपनी तारीफ़ करने का शौक़ किसी को न था, बल्कि अपनी खिल्ली उड़वाना हम लोगों का प्रिय खेल था, इसलिए दिद्दी को किस संस्था ने कौन सा पुरस्कार दिया, किस विश्वविद्यालय ने उसे कौन सी उपाधि दी, न हमने कभी उससे ये पूछा न उसने हमें ये बताया।
इसी ग्लानि से पीड़ित होकर दिद्दी के चले जाने के बाद मैंने प्रण किया कि मैं उसकी सब किताबें पढ़ूंगी। मुझे ये कहते हुए शर्म आती है कि इनमें कई किताबें ऐसी थीं जिन्हें मैंने कभी खोलकर देखा भी न था। लेकिन उन्हें पढ़ लेने के बाद, मुझे आभास हुआ कि जिन पचास सालों में उसने अपनी सबसे लोकप्रिय कहानियां व उपन्यास लिखे, उन्हीं पचास सालों में उसने सैकड़ों लेख, निबंध, सफ़रनामे और स्तंभ भी लिखे थे, जिनमें उसने अपने जीवन की कई ऐसी बातें लिख डाली थीं जिनसे जुड़ी कई पुरानी बातें, कई किस्से मुझे अब याद आने लगे। कुछ कहानियां हमने दिद्दी के ही मुख से सुनी थीं, और कुछ तब पढ़ी थीं जब वे पहले लिखी गई थीं। अचानक मुझे ये लगा कि जब तक मैं इन यादों को लिखकर अपने अंदर से न निकाल लूंगी, दिद्दी मेरे अंदर बैठे के निरंतर बोलती ही रहगी।

इस पुस्तक को पाठक दिद्दी की जीवनी नहीं मानें–
मैंने इसे लिखते समय ये कभी न सोचा कि इसमें मैं उसके साहित्यिक जीवन के सफ़र को रूप दूं। मेरा उद्देश्य केवल ये था कि मैं किसी तरह उसकी खोई हुई आवाज़ को अपने अंदर से ढूंढ़ के उसके पाठकों तक पहुँचा दूं। लेकिन इस खोज में मुझे एक ऐसा ख़ज़ाना मिला और मेरे सामने ऐसा व्यक्तित्व उभरने लगा जिसमें आवाज़ ही नहीं सभी इंद्रियों का एक अनोखा सम्मिश्रण था। दिद्दी की लेखनी के जादू से मैं मुग्ध होती चली गई। न जाने दिद्दी ने यह जादू जानबूझकर रचा, और न जाने इस जादू को किसी ने इस दृष्टि से कभी देखा था कि नहीं। हो सकता है दिद्दी की लेखनी को ऐसा वरदान था कि वो किसी भी कहानी में छिपे सत्य को बहुत सहजता से, बिना किसी आडंबर के, प्रस्तुत कर सकती थी। मुझे तो लगता है कि वो खुद इस गुण को न समझते हुए अपनी कथा-जगत में खो जाती थी। या हो सकता है, अपने दुख और पीड़ा को छिपाने का उसे यही एक रास्ता दिखता था।

ऐसा कई बार देखा गया है कि लेखक स्वयं अपने उपन्यास में एक पात्र बनकर पाठक के सम्मुख उभर आता है। सब लेखकों के बारे में ऐसा कहा जा सकता है कि नहीं, ये तो मैं नहीं कह सकती, लेकिन हां, दिद्दी अपने हर उपन्यास या कहानी में कहीं न कहीं अपने पाठक को मिल जाती है, और अक्सर उसे इस बात का आभास तक न होता था। मेरा मानना है कि वो अपने ही मायाजाल में इतनी विलीन हो जाती थी कि फिर वो इस काल्पनिक दुनिया से अपने आपको अलग नहीं कर पाती थी। वो अपनी आवाज़ को अपनी कृतियों में ऐसे दबा के छोड़ गई कि जब वो हमेशा के लिए ख़ामोश हो जाए, तो भी हम उस आवाज़ को न भुला पाएं। जिस तरह वो अपने हर बच्चे में अपना एक अंश छोड़ गई, ठीक उसी तरह दिद्दी ने अपनी हर कहानी या उपन्यास में अपने जीवन का एक अंश रख छोड़ा है।
इस पुस्तक को उसी छिपे जीवन की एक खोज मान लीजिए।

दिद्दी ने अपनी श्रेष्ठ कहानियां उन स्मृतियों में रचीं जो उसे सबसे प्रिय थीं–अपने बचपन और किशोरावस्था की। बार-बार, हमें उसके कथा साहित्य में कुमाऊं या बंगाल के दृश्य मिलते हैं क्योंकि इन्हीं से उसकी सबसे सुखद स्मृतियां जुड़ी थीं। जिस तरह कोई बच्चा अपनी मां का हाथ पकड़ के अपने को सुरक्षित मानता है, दिद्दी को इन स्मृतियों से ऐसी शक्ति मिलती थी कि उनका सहारा लेकर वह निडर होकर लिख सकती थी। मुझे लगता है उसका एक अंश हमेशा अपने बचपन के घर की मुंडेर पर खड़ा नीचे चलते लोगों को देखकर ये सोचता रहता था कि तुम कितने अभागे हो कि तुम्हारा जन्म हमारे परिवार में नहीं हुआ !

दिद्दी के बचपन की दुनिया के विवरण में स्मृतियों और काल्पनिक कथाओं का एक अद्भुत मिश्रण मिलता है। कभी कोई किस्सा सत्य कथा बन के पाठक के सामने आता है, तो कभी वही एक काल्पनिक घटना बन जाती है। सच तो ये है कि हम सब दिद्दी के लिए हाड़-मांस के प्राणी भी थे और कल्पना के पात्र भी। मुझे अब लगता है कि हमारे जीवन को नियंत्रित करने का उसके पास यही तो एक तरीक़ा था। तभी वो हमारे दुख-सुख की कहानियां लिख पाती थी–तभी वो हमारे दुख-तकलीफ से अपने को मुक्त कर पाती थी। उसे जीवन के अप्रिय सत्यों से भागने की ऐसी आदत थी, कि वो उस सत्य का चित्रण केवल कथाओं में कर सकती थी। अब समझ में आता है कि चाहे वो लाख बार हमसे कहती थी कि वो हम सबसे तटस्थ रहना चाहती है, सच ये था कि वो कभी अपने आपको हमसे दूर नहीं रख पाई। और जब हम सब एक-एक कर उसके जीवन से दूर होते चले गए, तो उसने हमें पकड़कर अपनी कहानियों में बंद कर लिया। अपने बच्चों को अपने से चिपकाकर रखने का उसने ये एक अनोखा तरीक़ा निकाला था–उनको कहानियों में पकड़ के कैद कर लो।

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