जीवनी/आत्मकथा >> जेल में कटे वो दिन जेल में कटे वो दिनइफ़्तिख़ार गीलानी
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यातना, साहस, और जीत की दहला देने वाली गाथा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
9 जून, 2002, सुबह के साढ़े चार बजे, दरवाज़े पर हुई तेज़
दस्तक़ से कश्मीर टाइम्स के पत्रकार इफ़्तिख़ार गीलानी की आंख खुली।
उनींदी हालत में उन्होंने दरवाज़ा खोला, तो सामने एक पुलिस दस्ता खड़ा
पाया, जिनमें कुछ हथियारों से लैस थे, उनके पास गीलानी के घर की तलाशी का
वारंट था। कुछ ही मिनटों में, उन लोगों ने उनके घर में उथल-पुथल मचा दी।
गीलानी को ज़रा भी इल्म नहीं था कि दिन के ख़त्म होते-होते वे पुलिस की
हिरासत में होंगे। उनके ऊपर इल्ज़ाम था : पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आई
एसआई को जम्मू-कश्मीर में सेना की तैनाती से मुताल्लिक़ जानकारी मुहैया
कराना। सज़ा थी : चौदह साल की क़ैद। जेल में कटे वो दिन इफ़्तिख़ार गीलानी
की सिहरा देने वाली आपबीती है।
रातोंरात गीलानी को पेशेवर अख़बारनवीस से जासूस बना दिया गया। उन्हें तिहाड़ जेल में डाल दिया गया और उनके बारे में झूठी ख़बरें फैलाई गईं। पत्रकार की अपनी पेशेवराना तटस्थता को बरकरार रखते हुए गीलानी ने अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों की दास्तान कही है–उन्हें गहन-सुरक्षा वार्ड में क़ैद रखा गया, बुरी तरह से मारपीट की गई, अपनी पहनी हुई क़मीज़ से उनसे शौचालय साफ़ करवाया गया और फिर उसी क़मीज़ को पहनने के लिए मजबूर किया गया...
आख़िरकार, जनवरी, 2003 में, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के तीखे विरोध के कारण सरकार ने केस वापस ले लिया, और गीलानी फिर से आज़ाद हो सके। लेकिन उनकी कहानी इस बात की मिसाल है कि कानून के शासन को क़ायम रखना कितना ज़रूरी है और कुछ लोगों के लिए अपने मुताबिक कानून का बेजा इस्तेमाल करना कितना आसान है। गीलानी इस सबसे अहम मुद्दे को सामने रखते हैं कि हालांकि वे अपनी बेगुनाही साबित कर सके, मगर प्रजातंत्र में इंसाफ़ पाने और ज़ाती आज़ादी के मसलों पर समझौता नहीं किया जा सकता। गीलानी यह जताने में कामयाब रहे हैं कि यह महज़ उनकी लड़ाई नहीं है।
‘इफ़्तिख़ार गीलानी का तजुर्बा दिल्ली के तथाकथित शिष्ट वर्ग और ईमानदार मानी जानेवाली संस्थाओं के अधिकारियों के दिल में कश्मीर और कश्मीरियों के ख़िलाफ़ गहरी बसी बदगुमानी को साफ़-साफ़ दिखाता है, साथ ही यह मीडिया और शिक्षित वर्ग समेत भारतीय समाज के अनेक वर्गों की मानवाधिकारों के लिए प्रतिबद्धता को भी जाहिर करता है।’
रातोंरात गीलानी को पेशेवर अख़बारनवीस से जासूस बना दिया गया। उन्हें तिहाड़ जेल में डाल दिया गया और उनके बारे में झूठी ख़बरें फैलाई गईं। पत्रकार की अपनी पेशेवराना तटस्थता को बरकरार रखते हुए गीलानी ने अपने ऊपर हुए ज़ुल्मों की दास्तान कही है–उन्हें गहन-सुरक्षा वार्ड में क़ैद रखा गया, बुरी तरह से मारपीट की गई, अपनी पहनी हुई क़मीज़ से उनसे शौचालय साफ़ करवाया गया और फिर उसी क़मीज़ को पहनने के लिए मजबूर किया गया...
आख़िरकार, जनवरी, 2003 में, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के तीखे विरोध के कारण सरकार ने केस वापस ले लिया, और गीलानी फिर से आज़ाद हो सके। लेकिन उनकी कहानी इस बात की मिसाल है कि कानून के शासन को क़ायम रखना कितना ज़रूरी है और कुछ लोगों के लिए अपने मुताबिक कानून का बेजा इस्तेमाल करना कितना आसान है। गीलानी इस सबसे अहम मुद्दे को सामने रखते हैं कि हालांकि वे अपनी बेगुनाही साबित कर सके, मगर प्रजातंत्र में इंसाफ़ पाने और ज़ाती आज़ादी के मसलों पर समझौता नहीं किया जा सकता। गीलानी यह जताने में कामयाब रहे हैं कि यह महज़ उनकी लड़ाई नहीं है।
‘इफ़्तिख़ार गीलानी का तजुर्बा दिल्ली के तथाकथित शिष्ट वर्ग और ईमानदार मानी जानेवाली संस्थाओं के अधिकारियों के दिल में कश्मीर और कश्मीरियों के ख़िलाफ़ गहरी बसी बदगुमानी को साफ़-साफ़ दिखाता है, साथ ही यह मीडिया और शिक्षित वर्ग समेत भारतीय समाज के अनेक वर्गों की मानवाधिकारों के लिए प्रतिबद्धता को भी जाहिर करता है।’
–ए जी. नूरानी, वकील और कॉलमनिस्ट
दो शब्द
अगर कभी कोई मंत्री या नेता, पुलिसकर्मी या
फ़ौजी,
नौकरशाह, जज, यहां तक कि कोई पत्रकार भी मुझसे कहेगा कि उसे काननू की
परवाह है, तो मैं उससे सिर्फ़ दो शब्द कहूंगा : इफ़्तिख़ार गीलानी।
इस किताब में बयान की गई दुखद कहानी सिर्फ़ सरकार की सनक और मनमानेपन का सुबूत या भारतीय राजतंत्र की विद्वेषता का घिनौना इतिहास ही नहीं है, यह इस तथ्य का एक निराशापूर्ण वृत्तांत भी है कि किस तरह हमारे समाज के तथाकथित आधार-स्तंभ–प्रेस समेत–खुली नाइंसाफ़ी से रूबरू हुए और अपने फ़र्ज़ पर खरे नहीं उतरे।
जम्मू स्थित दैनिक अख़बार कश्मीर टाइम्स के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख और राजधानी के एक बाइज़्ज़त पत्रकार इफ़्तिख़ार को बेहद बेजा ढंग से इस्तेमाल किए गए ज़ालिमाना शासकीय गोपनीयता अधिनियम (ओएसए) के तहत बिना ज़मानत के सात महीने तक जेल में रखा गया। उनका ज़ुर्म यह था कि उनके पास भारत के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में भारतीय सेना की तैनाती से संबंधित एक ऐसी पुरानी और बेकार जानकारी थी जिसे पाकिस्तान के रिसर्च इंस्टीट्यूट के छापे हुए एक व्यापक स्तर पर प्रसारित आलेख से छांट कर निकाला गया था।
अधिकांश पाठक सोचेंगे कि मैं कुछ ग़लती कर रहा हूं। भारत-सरकार किसी आदमी को पाकिस्तान द्वारा दी गई जानकारी रखने के इल्ज़ाम में शासक़ीय गोपनीयता अधिनियम (ओएसए) के तहत क़ैद की सज़ा क्यों देगी ? इसका जवाब यह है कि हम वाक़ई नहीं जानते कि सरकार ऐसा क्यों करेगी। क्या इल्ज़ाम लगाने वाले गुप्तचर अफ़सर बेवकूफ़ थे ? शायद। क्या वे इफ़्तिख़ार को किसी भी बेतुके से बेतुके ज़ुर्म में फंसाने को उतावले थे ? मुमकिन है। क्या उन्हें यकीन था कि वे इस तरह की ख़तरनाक जालसाज़ी करके साफ़ बच निकलेंगे ? यक़ीनन ऐसा ही था क्योंकि वे जानते थे कि राजतंत्र के सभी महकमों और शाखाओं के कर्ताधर्ता और अफ़सर इस काम में उनकी मदद करेंगे और यह भी कि उनके वरिष्ठ अधिकारी–जिनके इशारों पर शायद वे काम कर रहे थे–दुर्भावना से भरे इस मुक़द्दमे के लिए उनके ख़िलाफ़ कोई भी क़ानूनी कार्रवाई करने की इजाज़त कभी नहीं देंगे।
इफ़्तिख़ार के पीछे पड़े इन घटिया लोगों के घटिया मंसूबे चाहे जो भी रहे हों, इस किताब में दिए गए घटनाक्रम से अब हम जान चुके हैं कि जिन सात महीनों में इफ़्तिख़ार तिहाड़ जेल में सड़ते रहे, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तत्कालीन सरकार इस बात से पूरी तरह अवगत थी कि वे बिल्कुल बेकुसूर हैं। इसके बावजूद इस देश के राजनेताओं और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के प्रभारी अधिकारियों ने जानबूझ कर उन्हें जेल में डाले रखा।
9 जून, 2002 को गिरफ़्तार किए गए इफ़्तिख़ार को आख़िरकार 13 जनवरी, 2003 को उस वक़्त रिहा किया गया, जब उनके ख़िलाफ़ दायर मामला अपनी ही विसंगतियों और विरोधाभासों के बोझ तले ख़ारिज हो गया। शायद ऐसा नहीं होता अगर कुछ पत्रकारों ने इफ़्तिख़ार का मामला पूरे ज़ोरशोर से नहीं उठाया होता। ये पत्रकार लगातार डटे रहे और उन्होंने ऐसी जानकारियां तलाश कीं जो बाद में अभियोजन पक्ष द्वारा दायर मामले को ध्वस्त करने में कारगर साबित हुईं। साथ ही उन्होंने बार-बार याचिकाएं देकर और समय-समय पर मंत्रियों और संपादकों से मिल कर इफ़्तिख़ार की कैद और उनसे की गई बदसुलूकी को एक जीवंत मुद्दा बनाए रखा।
आज इफ़्तिख़ार आज़ाद हैं, लेकिन बदकिस्मती से, उनकी गिरफ्तारी और कैद से पैदा होने वाले किसी भी सवाल का जवाब अब तक नहीं मिला है। हाँ, उनके मामले ने देश के किसी भी मासूम शहरी पर शिकंजा कसने की सरकार के ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ तंत्र की कानूनी और प्रशासनिक ताक़त का प्रदर्शन ज़रूर किया है। सरकार की ये शक्तियां आज भी बेलगाम हैं। बेशक ओएसए एक बुरा अधिनियम है, लेकिन अगर हम इस हकीक़त पर विचार करें कि इसी शासकीय प्रणाली, जिसने इफ़्तिख़ार को इसके तहत फंसाया, के पास आतंकवाद निरोधक अधिनियम (या इसका नया अवतार, ग़ैर-कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम) जैसे क़ानून भी मौजूद हैं, तो महसूस होता है कि इनके दुरुपयोग की संभावनाएं असीम हैं।
अब हम जानते हैं कि इफ़्तिख़ार को गिरफ्तार करने का फैसला उनके कंप्यूटर पर इत्तफ़ाक़िया मिली उस फ़ाइल का नतीजा नहीं था जिसकी वजह से शक पैदा हुआ था। उनके कंप्यूटर की हार्ड ड्राइव की तलाशी लेने वाले गुप्तचर अधिकारियों को ‘भारत के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में भारतीय सेनाओं का तथ्य-पत्र’ शीर्षक वाली एक फ़ाइल मिली। यह भांपते हुए कि उनके हाथ आख़िरकार एक ऐसी जानकारी लगी है जो शायद बहुत कार-आमद साबित हो सकती है, अधिकारियों ने यह साबित करने के लिए कि यह फ़ाइल किसी भारतीय दस्तावेज़ से निकाली गई है, भारत के क़ब्ज़े वाले कश्मीर–पाकिस्तान द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द, जिनका मतलब है जम्मू-कश्मीर के वे हिस्से जिन पर पाकिस्तान का क़ब्ज़ा नहीं है–से संबंधित सभी उल्लेखों की जगह पर ‘जम्मू व कश्मीर’ शब्द लगा दिए। इसके बाद उन्होंने गोपनीयता को और बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए ‘केवल संदर्भ के लिए। प्रकाशन या प्रसारण के लिए कतई नहीं’ शब्द भी जोड़ दिए।
पहला गुनाह तब किया गया, जब गुप्तचर अधिकारियों ने फ़र्ज़ी सुबूतों का एक जाल बुना। लेकिन अभी और भी बहुत कुछ होना था। सैन्य गुप्त सूचना महानिदेशालय (डीजीएमआई), जिसे गुप्तचर विभाग के हाथ लगी जानकारी की अहमियत का अंदाज़ा लगाने का काम सौंपा गया था, ने अपना फ़ैसला देने से इंकार कर दिया। चूंकि पाकिस्तान के मूल आलेख की एक फ़ोटो क़ॉपी उसे उपलब्ध कराई गई थी, इसलिए महानिदेशालय जानता था कि इफ़्तिख़ार के ख़िलाफ़ कोई मामला नहीं बनता है और वे बेकुसूर हैं। जब छह महीने बाद महानिदेशालय को उक्त पत्रकार के ख़िलाफ़ इकट्ठे किए गए सुबूतों की दोबारा जांच करने के लिए कहा गया, तो उसने यही राय दी। लेकिन जून में किसी वजह से, जिसकी कि जांच होनी चाहिए, डीजीएमआई और उसका संगठन एक ऐसी राय (हासिल की गई जानकारी ‘हमारे दुश्मन के लिए सीधी तौर पर कार-आमद साबित हो सकती है’) देने के लिए सहमत हो गया, जो उन्हें पता था कि एकदम ग़लत है।
चूंकि डीजीएमआई की ‘राय’ में प्रकाशित दस्तावेज़ का कोई ज़िक्र नहीं किया गया था, इसलिए इफ़्तिख़ार के वकील ने अदालत से इस बात पर ध्यान देने और सैन्य महानिदेशालय से फ़ौरन दूसरी राय मंगाने की मांग की, जो व्यर्थ रही। इस मामले में तीसरी और चौथी अड़चन आई और वह थी राष्ट्रीय सुरक्षा और शासकीय गोपनीयता से सीधे तौर पर जुड़े मामलों में निचली अदालत और मीडिया की बुज़दिली। हैरानी की बात यह है कि किसी सुनवाई के दौरान हुई कार्रवाई की ग़लत जानकारी देने या उसे तोड़-मरोड़ कर पेश करके न्याय-प्रक्रिया में बाधा डालने की कोशिश करने वालों के ख़िलाफ़ अवमानना का मामला दर्ज करने में अदालत की मुस्तैदी के बावजूद संबंधित जज ने अदालत में इफ़्तिख़ार के पहली बार पेश होने पर एक अख़बार में छपी इस एकदम ग़लत ख़बर पर कोई कार्रवाई नहीं की : ‘सोमवार को सुनवाई के दौरान गीलानी ने तथाकथित रूप से इकरार किया कि वह आईएसआई को भारतीय सेनाओं की गतिविधियों के बारे में ख़ुफ़िया जानकारी देता रहा है। जब चीफ़ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट संगीता सहगल ने उससे पूछा कि क्या वह इस बयान को दर्ज कर लें, तो गीलानी ने इक़रार में अपना सिर हिलाया।’१
यह ख़बर झूठ थी और अदालत की तौहीन के बराबर थी। फिर भी, कोई कार्रवाई नहीं की गई।
जहां तक उस अख़बार की भोली-भाली क्राइम रिपोर्टर का ताल्लुक़ है, उसे यह ख़बर दिल्ली पुलिस की स्पेशल सैल द्वारा दी गई थी। लेकिन उसने निजी तौर पर कभी इसके लिए माफ़ी नहीं मांगी, हालांकि बाद में अख़बार ने इस ख़बर का खंडन किया।
इस किताब में बयान की गई दुखद कहानी सिर्फ़ सरकार की सनक और मनमानेपन का सुबूत या भारतीय राजतंत्र की विद्वेषता का घिनौना इतिहास ही नहीं है, यह इस तथ्य का एक निराशापूर्ण वृत्तांत भी है कि किस तरह हमारे समाज के तथाकथित आधार-स्तंभ–प्रेस समेत–खुली नाइंसाफ़ी से रूबरू हुए और अपने फ़र्ज़ पर खरे नहीं उतरे।
जम्मू स्थित दैनिक अख़बार कश्मीर टाइम्स के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख और राजधानी के एक बाइज़्ज़त पत्रकार इफ़्तिख़ार को बेहद बेजा ढंग से इस्तेमाल किए गए ज़ालिमाना शासकीय गोपनीयता अधिनियम (ओएसए) के तहत बिना ज़मानत के सात महीने तक जेल में रखा गया। उनका ज़ुर्म यह था कि उनके पास भारत के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में भारतीय सेना की तैनाती से संबंधित एक ऐसी पुरानी और बेकार जानकारी थी जिसे पाकिस्तान के रिसर्च इंस्टीट्यूट के छापे हुए एक व्यापक स्तर पर प्रसारित आलेख से छांट कर निकाला गया था।
अधिकांश पाठक सोचेंगे कि मैं कुछ ग़लती कर रहा हूं। भारत-सरकार किसी आदमी को पाकिस्तान द्वारा दी गई जानकारी रखने के इल्ज़ाम में शासक़ीय गोपनीयता अधिनियम (ओएसए) के तहत क़ैद की सज़ा क्यों देगी ? इसका जवाब यह है कि हम वाक़ई नहीं जानते कि सरकार ऐसा क्यों करेगी। क्या इल्ज़ाम लगाने वाले गुप्तचर अफ़सर बेवकूफ़ थे ? शायद। क्या वे इफ़्तिख़ार को किसी भी बेतुके से बेतुके ज़ुर्म में फंसाने को उतावले थे ? मुमकिन है। क्या उन्हें यकीन था कि वे इस तरह की ख़तरनाक जालसाज़ी करके साफ़ बच निकलेंगे ? यक़ीनन ऐसा ही था क्योंकि वे जानते थे कि राजतंत्र के सभी महकमों और शाखाओं के कर्ताधर्ता और अफ़सर इस काम में उनकी मदद करेंगे और यह भी कि उनके वरिष्ठ अधिकारी–जिनके इशारों पर शायद वे काम कर रहे थे–दुर्भावना से भरे इस मुक़द्दमे के लिए उनके ख़िलाफ़ कोई भी क़ानूनी कार्रवाई करने की इजाज़त कभी नहीं देंगे।
इफ़्तिख़ार के पीछे पड़े इन घटिया लोगों के घटिया मंसूबे चाहे जो भी रहे हों, इस किताब में दिए गए घटनाक्रम से अब हम जान चुके हैं कि जिन सात महीनों में इफ़्तिख़ार तिहाड़ जेल में सड़ते रहे, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तत्कालीन सरकार इस बात से पूरी तरह अवगत थी कि वे बिल्कुल बेकुसूर हैं। इसके बावजूद इस देश के राजनेताओं और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के प्रभारी अधिकारियों ने जानबूझ कर उन्हें जेल में डाले रखा।
9 जून, 2002 को गिरफ़्तार किए गए इफ़्तिख़ार को आख़िरकार 13 जनवरी, 2003 को उस वक़्त रिहा किया गया, जब उनके ख़िलाफ़ दायर मामला अपनी ही विसंगतियों और विरोधाभासों के बोझ तले ख़ारिज हो गया। शायद ऐसा नहीं होता अगर कुछ पत्रकारों ने इफ़्तिख़ार का मामला पूरे ज़ोरशोर से नहीं उठाया होता। ये पत्रकार लगातार डटे रहे और उन्होंने ऐसी जानकारियां तलाश कीं जो बाद में अभियोजन पक्ष द्वारा दायर मामले को ध्वस्त करने में कारगर साबित हुईं। साथ ही उन्होंने बार-बार याचिकाएं देकर और समय-समय पर मंत्रियों और संपादकों से मिल कर इफ़्तिख़ार की कैद और उनसे की गई बदसुलूकी को एक जीवंत मुद्दा बनाए रखा।
आज इफ़्तिख़ार आज़ाद हैं, लेकिन बदकिस्मती से, उनकी गिरफ्तारी और कैद से पैदा होने वाले किसी भी सवाल का जवाब अब तक नहीं मिला है। हाँ, उनके मामले ने देश के किसी भी मासूम शहरी पर शिकंजा कसने की सरकार के ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ तंत्र की कानूनी और प्रशासनिक ताक़त का प्रदर्शन ज़रूर किया है। सरकार की ये शक्तियां आज भी बेलगाम हैं। बेशक ओएसए एक बुरा अधिनियम है, लेकिन अगर हम इस हकीक़त पर विचार करें कि इसी शासकीय प्रणाली, जिसने इफ़्तिख़ार को इसके तहत फंसाया, के पास आतंकवाद निरोधक अधिनियम (या इसका नया अवतार, ग़ैर-कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम) जैसे क़ानून भी मौजूद हैं, तो महसूस होता है कि इनके दुरुपयोग की संभावनाएं असीम हैं।
अब हम जानते हैं कि इफ़्तिख़ार को गिरफ्तार करने का फैसला उनके कंप्यूटर पर इत्तफ़ाक़िया मिली उस फ़ाइल का नतीजा नहीं था जिसकी वजह से शक पैदा हुआ था। उनके कंप्यूटर की हार्ड ड्राइव की तलाशी लेने वाले गुप्तचर अधिकारियों को ‘भारत के क़ब्ज़े वाले कश्मीर में भारतीय सेनाओं का तथ्य-पत्र’ शीर्षक वाली एक फ़ाइल मिली। यह भांपते हुए कि उनके हाथ आख़िरकार एक ऐसी जानकारी लगी है जो शायद बहुत कार-आमद साबित हो सकती है, अधिकारियों ने यह साबित करने के लिए कि यह फ़ाइल किसी भारतीय दस्तावेज़ से निकाली गई है, भारत के क़ब्ज़े वाले कश्मीर–पाकिस्तान द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले शब्द, जिनका मतलब है जम्मू-कश्मीर के वे हिस्से जिन पर पाकिस्तान का क़ब्ज़ा नहीं है–से संबंधित सभी उल्लेखों की जगह पर ‘जम्मू व कश्मीर’ शब्द लगा दिए। इसके बाद उन्होंने गोपनीयता को और बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए ‘केवल संदर्भ के लिए। प्रकाशन या प्रसारण के लिए कतई नहीं’ शब्द भी जोड़ दिए।
पहला गुनाह तब किया गया, जब गुप्तचर अधिकारियों ने फ़र्ज़ी सुबूतों का एक जाल बुना। लेकिन अभी और भी बहुत कुछ होना था। सैन्य गुप्त सूचना महानिदेशालय (डीजीएमआई), जिसे गुप्तचर विभाग के हाथ लगी जानकारी की अहमियत का अंदाज़ा लगाने का काम सौंपा गया था, ने अपना फ़ैसला देने से इंकार कर दिया। चूंकि पाकिस्तान के मूल आलेख की एक फ़ोटो क़ॉपी उसे उपलब्ध कराई गई थी, इसलिए महानिदेशालय जानता था कि इफ़्तिख़ार के ख़िलाफ़ कोई मामला नहीं बनता है और वे बेकुसूर हैं। जब छह महीने बाद महानिदेशालय को उक्त पत्रकार के ख़िलाफ़ इकट्ठे किए गए सुबूतों की दोबारा जांच करने के लिए कहा गया, तो उसने यही राय दी। लेकिन जून में किसी वजह से, जिसकी कि जांच होनी चाहिए, डीजीएमआई और उसका संगठन एक ऐसी राय (हासिल की गई जानकारी ‘हमारे दुश्मन के लिए सीधी तौर पर कार-आमद साबित हो सकती है’) देने के लिए सहमत हो गया, जो उन्हें पता था कि एकदम ग़लत है।
चूंकि डीजीएमआई की ‘राय’ में प्रकाशित दस्तावेज़ का कोई ज़िक्र नहीं किया गया था, इसलिए इफ़्तिख़ार के वकील ने अदालत से इस बात पर ध्यान देने और सैन्य महानिदेशालय से फ़ौरन दूसरी राय मंगाने की मांग की, जो व्यर्थ रही। इस मामले में तीसरी और चौथी अड़चन आई और वह थी राष्ट्रीय सुरक्षा और शासकीय गोपनीयता से सीधे तौर पर जुड़े मामलों में निचली अदालत और मीडिया की बुज़दिली। हैरानी की बात यह है कि किसी सुनवाई के दौरान हुई कार्रवाई की ग़लत जानकारी देने या उसे तोड़-मरोड़ कर पेश करके न्याय-प्रक्रिया में बाधा डालने की कोशिश करने वालों के ख़िलाफ़ अवमानना का मामला दर्ज करने में अदालत की मुस्तैदी के बावजूद संबंधित जज ने अदालत में इफ़्तिख़ार के पहली बार पेश होने पर एक अख़बार में छपी इस एकदम ग़लत ख़बर पर कोई कार्रवाई नहीं की : ‘सोमवार को सुनवाई के दौरान गीलानी ने तथाकथित रूप से इकरार किया कि वह आईएसआई को भारतीय सेनाओं की गतिविधियों के बारे में ख़ुफ़िया जानकारी देता रहा है। जब चीफ़ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट संगीता सहगल ने उससे पूछा कि क्या वह इस बयान को दर्ज कर लें, तो गीलानी ने इक़रार में अपना सिर हिलाया।’१
यह ख़बर झूठ थी और अदालत की तौहीन के बराबर थी। फिर भी, कोई कार्रवाई नहीं की गई।
जहां तक उस अख़बार की भोली-भाली क्राइम रिपोर्टर का ताल्लुक़ है, उसे यह ख़बर दिल्ली पुलिस की स्पेशल सैल द्वारा दी गई थी। लेकिन उसने निजी तौर पर कभी इसके लिए माफ़ी नहीं मांगी, हालांकि बाद में अख़बार ने इस ख़बर का खंडन किया।
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