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जिल और यादव

जिल लो

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :361
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7160
आईएसबीएन :0-14-400090-3

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अंग्रेज़ी समाज के उच्च वर्ग में जन्मी जिल लो की भारत-यात्रा के रोमांच और हिंदुस्तानी जीवनशैली में ख़ुद को ढालने के विस्तृत और मर्मस्पर्शी संस्मरण...

Jil Aur Yadav - A Hindi Book - by Jil Lo

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अंग्रेज़ी समाज के उच्च वर्ग में जन्मी जिल लो जब पहली बार भारत आईं, तब उनके दिमाग़ में इसका कोई ख़ास मक़सद नहीं था। सत्रह वर्षों के वैवाहिक जीवन के बाद उनके पति का दीवाला निकल गया, इसी के साथ जिल की पुश्तैनी संपत्ति व लंदन में उनका सुविधा-संपन्न रहन-सहन भी समाप्त हो गया। बावन वर्ष की आयु तक वे जीवन के संघर्षों से इतना थक चुकी थीं कि अपनी ज़िंदगी में किसी भी तरह का बदलाव चाहती थीं। ख़ुद की तलाश में वे एक नितांत अजनबी देश हिंदुस्तान की यात्रा पर चली आईं। कुछ समय दक्षिण भारत घूमने के बाद जिल दिल्ली आईं और किराए की एक टैक्सी लेकर उत्तर भारत के सफ़र पर निकलीं। इस सफ़र ने उनकी ज़िंदगी की दिशा ही बदल दी और तीन साल बाद कई माह साथ गुज़ारने के बाद जिल ने अपने इसी टैक्सी ड्राइवर से विवाह कर लिया।

जिल के पति यादव हरियाणा के एक विधुर हैं। गांव में उनका लंबा-चौड़ा किसान परिवार कच्चे फ़र्श पर बैठकर भोजन करता है, चारपाइयों पर सोता है और शौचादि के लिए खेतों में जाता है।
गांव से सबसे क़रीबी टेलीफ़ोन भी पच्चीस किलोमीटर दूर था।
जिल और यादव का मिलन वैवाहिक संबंधों की कोमलता, उनके सुख-दुख व एक-दूसरे के प्रति उनकी वचनबद्धता की अद्भुत कहानी है। यादव के परिवार ने इस संबंध को खुशी-खुशी स्वीकार किया, पर बहुत से दूसरे लोग ऐसा नहीं कर पाए। अपने अत्यंत उन्मुक्त रोमांस के इस बेबाक, मगर गरिमापूर्ण संस्मरण में जिल ने अपने ब्रिटिश जीवन के अकेलेपन, भारत-यात्रा के रोमांच, विवाह की योजना के बनने-बिगड़ने और हिंदुस्तानी जीवनशैली में ख़ुद को ढालने की लंबी और जटिल यात्रा के बारे में विस्तृत और मर्मस्पर्शी ढंग से लिखा है।

आभार

जिस दिन पहली बार मैंने भारत-भूमि का स्पर्श किया, उसी दिन से मैंने अपनी डायरी लिखना प्रारंभ किया था। डायरी बढ़ती गई, बढ़ती गई। किंतु जब तक मैं डेवनशायर के अंतरंग इलाक़े में विलियम डेलरिंपल के लेखन पाठयक्रम में नहीं गई थी, तब तक मैंने इसे पुस्तक का रूप देने के विषय में गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया था। ‘बस, लिख लो,’ विली ने कहा। ‘और सब काम छोड़ दो, और लिखो,’ मैंने ऐसा ही किया। विली के इस उत्साहवर्धन के लिए सर्वप्रथम व सबसे अधिक मैं उनकी आभारी हूं।

मैं अपने प्रिय मित्र पॉल हॉप को भी धन्यवाद देना चाहूंगी जो विज्ञापन की दुनिया के एक असाधारण ‘कॉपी राइटर’ हैं (‘पुट ए टाइगर इन योर टैंक’ उन्हीं की उक्ति थी), जो बेवॉटर के अपने छोटे-से फ्लैट में मेरे साथ घंटों बैठकर मेरे अत्यधिक लंबे वाक्यों, दोहरे विशेषणों और प्रयोगों को संपादित करते थे। सबसे अधिक पॉल ने ही मुझे लिखना सिखाया। एक अन्य प्रिय मित्र और व्यवसाय से संपादक, एलीसन सेल्फ़्रिज ने बहुत-सा प्रारंभिक कार्य भी किया।
ऐन मॉरो और उनके पति गे फ़ेन स्मिथ ने हर मोड़ पर मुझे प्रोत्साहन दिया और हिलेरी रूबिन्स्टाइन से मेरा परिचय करवाया, जिन्होंने अपने उत्साह से, मेरा काम जारी रखने में विशेष भूमिका निभाई। लिखने के कार्य में मेरे सबसे अच्छे मित्र हैरोल्ड कार्ल्टन रहे हैं, जो अपनी पुस्तक लिखते हुए उसे बीच में छोड़कर मेरी पुस्तक पढ़ने और उसका मूल्यांकन करने का समय निकाल लेते थे।

मेरी स्कूल की सहेली जेनेट डैगटोग्लू, जो बहुत पहले लैटिन सीखने में मेरी सहायता करती थी, ने भी मेरी पांडुलिपि पढ़कर मुझे अपनी सलाह दी। जेनेफ़र जेफ़र्स निरंतर मेरे संशोधनों के साथ चलती रही, फ़्रेड और जूलियेट रेडिंग पढ़ते, आलोचना करते और सहायता करते रहे; मेरे भाई जॉन लो फ्रांस के अपने फ़ार्म हाउस से गुप्त, किंतु उपयुक्त टिप्पणियां भेजते थे; माइकेल बॉयल ने इंग्लैंड में कुछ बिखरे हुए तथ्यों को व्यवस्थित करने में मेरी सहायता की; और प्रफुल्ल मोहंती व डेरेक मोर ने निरंतर अभिरुचि दिखाई और सहारा दिया।

भारत में, मैं सबसे अधिक आभारी हूं यादव के, और अपने सबसे अच्छे मित्र, एनी व मार्टिन हॉवर्ड की, जिन्होंने सदैव स्वेच्छा से, मेरी सहायता की और मेरा समर्थन किया और सुनील सेठी से मेरा परिचय भी करवाया; उन्हें भी सहायता व प्रोत्साहन देने के लिए मैं धन्यवाद देना चाहती हूं, और मंजुला पद्मनाभन को, जो मेरी अच्छी मित्र बन गईं व पेंगुइन इंडिया से मेरी भेंट करवाने में सहायक हुईं।
इन सब लोगों के बाद, सहानुभूतिपूर्ण संपादन के लिए मैं क्रिस्टीन सिप्रियानी को धन्यवाद दूंगी। मेरी बकझक और बेसिर पैर की बातों के बीच भी, जो किस विषय में होती थीं यह मैं भी नहीं जानती, वे अक्सर सारी गड़बड़ को एकदम व्यवस्थित रूप दे देती थीं।
अंततः निःसंदेह, मैं आभारी हूं अपने पति यादव की, जिनके बिना मेरी पुस्तक तो क्या, डायरी भी न होती।

दो शब्द

जिल यादव से मेरा परिचय तब हुआ, जब वे अपनी जन्मभूमि और वहां की संस्कृति को छोड़कर, सहज ही पूरी गरिमा और धीरज के साथ एकदम अलग ज़िंदगी को अपनाने भारत आकर बस गईं।
यादव के लिए जिल का प्यार सच्चा और बहुत गहरा था। वह वर्ग, जाति और आर्थिक भेदों से परे था। इंग्लैंड के उच्च वर्ग से संबंधित होने के बावजूद उनमें झूठा दंभ नहीं था।
हमारे संबंध अच्छे थे, किंतु यह दोस्ती बहुत कम दिन चली। 2003 में जिल को बोन-मैरो का कैंसर हो गया, जो कि अपने अंतिम चरण में था। स्वाभाविक ख़ुशमिजाज़ी के साथ लंबी तक़लीफ़ झेलने के बाद, उनके परिवारीजन उन्हें वापस इंग्लैंड ले गए। उनके पति यादव भी साथ गए थे।
जुलाई, 2004 में उनकी मृत्यु हो गई।

मैं अक्सर सोचती हूं कि उनके अंतिम दिनों में मेरा भेजा वह नीले और सुनहरे रंग का कार्ड क्या उनको मिल सका होगा, जिस पर हाथी उकेरे हुए थे ? फिर ब्रिटिश हाई कमीशन आवास पर उनके ब्रिटिश और भारतीय मित्रों की अश्रुपूर्ण शोकसभा हुई। प्रख्यात लेखक विलियम डेलरिंपल, जिनके सान्निध्य में जिल ने लिखना सीखा था, उनका चेहरा आंसुओं से भीग गया। यह उस महिला को एक भावुक विदाई थी, जिसने ब्रिटिश और भारतीय संस्कृतियों के बीच लंबे और प्रगाढ़ प्रेम संबंध का एक नया और असाधारण अध्याय जोड़ा था। मुझे विश्वास है कि हिंदी संस्करण यादव और उसके देश के प्रति जिल की प्रेम-कथा को पाठकों के एक बड़े वर्ग तक पहुंचाने में सफल होगा।

पुनश्च

आज मैंने यादव के बारे में मालूमात हासिल करने के लिए जिल की प्रिय मित्र एनी हॉवर्ड को फ़ोन किया, जिन्होंने जिल के समान ही भारत को अपना घर बना लिया है। मुझे पता लगा कि उस समय यादव, जिल की बेटी और एनी के साथ कार में ही थे और जिल की अस्थियां गंगा में प्रवाहित करने जा रहे थे। उन्हें इसी देश में एकाकार करने, जहां अपनी कहानी की भांति वे दुबारा जन्म लेंगी।

प्राक्कथन

बसंत की गर्मी में बूंदों की आकस्मिक बौछार के बीच सरसराती, झूमती सरसों, सीधे खड़े रहने के लिए जूझ रही है। साढ़े छह बजे हैं और गुनगुने, नम वायुमंडल में अंधेरा हो चला है। जैसा कि अक्सर होता है, इसी समय बिजली चली जाती है। रसोई के कच्चे फ़र्श पर बैठे, जलते चूल्हे की रोशनी में हम नीचे झुककर सब्ज़ी के साथ चपाती खा रहे हैं। साल भर पहले की सरसों के सूखे, चटकते डंठल बुझने से लगते हैं। बुझती हुई रोशनी को सहारा मिलता है मिट्टी के तेल की ढिबरी की छोटी-सी बत्ती से। खाना खाकर यादव और मैं, अपनी-अपनी जूठी थालियां रसोई के दरवाज़े के बाहर शहतूत के पेड़ के नीचे रख देते हैं। पुरुष बर्तन नहीं मांजते यहां। और मैं भले ही बीच-बीच में काफ़ी समय से यहां रहती रही हूं, पर कुछ बातों में अब भी मुझसे सम्माननीय अतिथि जैसा व्यवहार किया जाता है, कहने का मतलब यह है कि मुझसे भी बर्तन नहीं मंजवाए जाते। हम आंगन पार कर अपने कमरे में चले जाते हैं। भैंसें पहले ही रातभर के लिए अंदर कर दी गई हैं। हम दो चारपाइयों पर अपना-अपना बिस्तर लगा लेते हैं। रोशनी तो है नहीं, सो सोने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते। ठक्... ठक् ठक् ठक्... मां की छड़ी बरामदे के पक्के फ़र्श पर बेसुरी ताल दे रही है।

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