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चूड़ीवाला और अन्य कहानियां

अमरेंद्र कुमार

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7156
आईएसबीएन :0-14-310261-3

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आधुनिक समाज में बदलते जीवन मूल्यों को रेखांकित करती आठ कहानियां

Chudiwala Aur Anya Kahaniyan - A Hindi Book - by Amrendra Kumar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हरेक इंसान के भीतर एक और इंसान छिपा होता है, जिसे वह बाहरी दुनिया से दूर अपनी हथेलियों की ओट में रखता है। यह वह इंसान है जो चिड़ियों से, इमारतों से, फूल-पौधों से बात करता है, उनसे प्रेम करता है, उनका इंतज़ार करता है। संसार के भीतर संसार, अपनी ख़ुशी अपनी टूटन है, मगर फिर भी त्रिकोण की तरह सब आपस में जुड़े हैं। एक सूत्र है जो इंसान को इंसान से जोड़ता है। आज के हालात में मगर कुछ लोग प्रेम के इस सूत्र को तोड़ दे रहे हैं। मानव मन की यही गुत्थियां अमरेंद्र कुमार की कहानियों में सामने आती हैं।

संग्रह की कहानियाँ


१. चिड़िया
२. चूड़ीवाला
३. ग्वासी
४. रेत पर त्रिकोण
५. मीरा
६. एक पत्ता टूटा हुआ
७. रेलचलितमानस
८. वज़न

भूमिका


आज जब यह लिखने के लिए बैठा हूं तो ऐसा लगता है कि एक बार फिर से मां ने हम सभी भाई-बहनों को भगवान के सामने लाकर खड़ा कर दिया है जैसा कि वे हमेशा किसी यात्रा के लिए घर से निकलने से पहले करती थीं। यह कोई नई यात्रा नहीं है लेकिन सृजन की सतत यात्रा के इस नए मोड़ पर मैं यही प्रार्थना करता हूं कि मान-सम्मान, उत्थान-पतन, ईर्ष्या-द्वेष, लाभ-हानि, यश-अपयश से परे वाग्देवी की कृपादृष्टि मुझ पर सदा बनी रहे।

यह कहना मुश्किल होगा कि कहानी के प्रति मेरा रुझान कब और कैसे शुरू और विकसित हुआ लेकिन इसका बीजारोपण मां की बताई हुई पुराण-कथाओं से हुआ होगा। घर में सबसे छोटा होने के कारण मैं हमेशा मां के साथ-साथ रहता चाहे वह भागवद्कथा, कीर्तन, यज्ञ हो या कि संध्या-वंदना। मेरी अवस्था और बोध से परे मां उन कथाओं और उनके केंद्र में निहित तत्वों का विवेचन मुझे करके बताती जाती। ये वे शब्द नहीं थे जो मेरी स्मृति में गहरे उतरते गए बल्कि यह वह अनुभूति थी जो बहुत ही एकांतिक क्षणों में हमारे अंदर और वह भी कभी अचानक कौंध जाती है। बाद में जब स्कूल में दाख़िला लिया और पढ़ाई शुरू की तो हिंदी मेरा प्रिय विषय रही। और किताब मैं साल भर में पढ़ता तो हिंदी की किताब आधी से ज़्यादा पहली रात को ही पढ़ जाता। बाद में दीदी अपने महाविद्यालय के पुस्तकालय से कुछ किताबें पढ़ने के लिए मुझे लाकर देतीं। यही नहीं बाद के दिनों में जब मैंने लिखना शुरू किया तो मैं उन्हें ही सबसे पहले पढ़ने के लिए देता।

कहानी शब्दों का संकलन मात्र नहीं है। यह मनुष्य की अनुभूत मनोदशाओं का एक पूरा दस्तावेज़ है। यह एक ऐसी दुनिया है जहां सब कुछ अपना है—पात्र, परिवेश, परिस्थिति, आरंभ, विकास और परिणति। कहानी का अंत कभी नहीं होता। उसमें एक विराम आ जाता है। एक कहानी से अनेक कहानियां निकलती हैं। इस तरह कहानियां समय और सीमा के पैमाने पर निरंतर प्रवाहित होती रहती हैं। कहानी के पात्र, परिवेश और उसमें वर्णित घटनाएं वास्तव में न होकर भी और न घटकर भी वास्तविकता से भी बड़े सच को उद्घाटित करते रहते हैं। कहानी में कला है और हर कला की अपनी एक कहानी है। कला के बिना कहानी, कहानी न होकर तथ्यों का पुलिंदा मात्र है। कहानी जागरण नहीं लाती, आंदोलन नहीं करती और न ही यह किसी युग का उद्घोष है लेकिन यह मनुष्य की सुप्त शिराओं में संवेदनाओं का संचार करती है, उसके विवेक को आलोड़ित और उसकी आत्मा को आलोकित करती है।

इस कथा-संग्रह में पिछले दस सालों में मेरे द्वारा लिखी हुई आठ कहानियां संग्रहीत हैं। मेरे विचार से ये कहानियां आधुनिक समाज में बदलते जीवन मूल्यों को रेखांकित करती हैं। कुछ कहानियों की पृष्ठभूमि में जहां आधुनिक भारत का मध्यवर्गीय समाज है, वहीं कुछ कहानियों में भारत के बाहर अमेरिका और यूरोप का आधुनिक समाज भी सम्मिलित है। समाज और उसके घटकों के अंतरसंबंधों को प्रगति और आधुनिकीरण के नवीन आलोक में देखने का प्रयास किया गया है। अधिकांश कहानियों में आज का युवा कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में अपने आपको तलाशता हुआ नज़र आता है। यही तलाश जब वृहत्तर रूप धारण करती है तो एक किस्म की जीवन-दृष्टि में प्रवर्तित हो जाती है। कहना अनुचित नहीं होगा कि आज के सामज की समस्याएं और उसकी दुविधाएं मेरी कहानियों में उमड़-घुमड़कर प्रकट होती रही हैं। लेकिन ये कहानियां किसी भी अर्थ में समस्याप्रधान नहीं कही जा सकती हैं। तथ्यों को रखने और प्रस्तुत करने के साथ-साथ कला के स्वाभाविक रूप को अक्षुण्ण रखने में ये कहानियां मेरे विचार में सफल रही हैं। कथ्य, शैली और शिल्प में सामंजस्य जहां मैंने बनाए रखने का प्रयास किया है, वही कहानियां संदर्भहीन होने से भी बची रह गई हैं। मेरी कहानियां अपनी समकालीन अन्य कहानियों से भिन्न इस अर्थ में हैं कि यथार्थ के चित्रण को केंद्र में रखकर लिखी जा रही आज की कहानियां जहां नई कहानी और उसके स्वाभाविक विकास के क्रम को क़ायम न रख पाते हुए एक तरह से अपने मूल उद्देश्य से भटक गई हैं, वही मेरे विचार में मेरी कहानियां नई कहानी के क्रमिक विकास की अगली कड़ी की तरह हैं।

मुझे विश्वास है कि हिंदी के पाठकों को ये कहानियां पसंद आएंगी। इस विश्वास का एक कारण यह भी है कि ये कहानियां अमेरिका से प्रकाशित होने वाली हिंदी पत्रिकाओं ‘क्षितिज’ और ‘विश्वा’ के माध्यम से अमेरिका और भारत में यथेष्ट रूप से पसंद की गई हैं। इसके अतिरिक्त कई वेब-पत्रिकाओं में भी इनमें से कई कहानियां प्रकाशित हुई हैं। इन कहानियों में जहां रोज़गार तलाशता हुआ युवक है तो अपनी नौकरी में नए अर्थ ढूंढता हुआ अधिकारी भी है, जहां एक ही घर में बंटे हुए लोग हैं वहां भारत और अमेरिका की बौद्धिक एकता भी है, जहां भारत के गांव और शहर हैं वहीं लंदन और न्यूयॉर्क भी है, जहां दिनोंदिन की ऊहापोह है वहीं शाश्वत की खोज भी है, जहां व्यक्ति की महत्ता है तो वहीं परिवेश भी प्रभावी है, जहां संजीदगी है वहीं व्यंग्य का पैनापन भी है। संक्षेप में, इन कहानियों में भारत और भारत से बाहर बसे भारतीयों और उनके आज के परिवेश का प्रतिनिधित्व करती हुई सामग्री उपस्थित है।

मैं आभार प्रकट करना चाहूंगा उन सबका, जिनका मेरी कहानियों से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से संबंध रहा है—मेरे परिवार के लोग, मेरे साहित्यिक और ग़ैर साहित्यिक मित्र, भारत की भूमि और वहां के लोग, यही नहीं वे घटनाएं, आकाश, हवा, धूप, पहाड़, गांव, झरना, पानी, पतझड़ में गिरते पत्ते, वसंत में खिलते फूल, अगर ये न होते तो मेरी कहानियों का ताना-बाना नहीं होता।

मैं आभारी हूं पेंगुइन इंडिया के श्री मैथ्यू अब्राहम और श्री रवि सिंह का जिन्होंने मेरी कहानियों को प्रकाशित करने का निर्णय बहुत ही कम समय के अंतराल में लिया।
आज जब मैं यह भूमिका पूरी कर रहा हूं तो मेरे कंधे पर झुकीं मेरी प्रिय पत्नी हर्षा प्रिया मुस्करा रही हैं। वैसे जब से वे मेरे जीवन में आई हैं, मुस्कराहटें लौट आई हैं। हमने साथ-साथ पुस्तक की संकल्पना की और प्रकाशन की योजनाएं बनाईं और उन्हें फलीभूत होते हुए भी हम साथ-साथ ही देख रहे हैं।

अमरेंद्र कुमार

चिड़िया

(१)


समय की रफ़्तार कभी रुकती नहीं और हम खड़े भी नहीं रह पाते उसके आगे, बहे चले जाते हैं। कुछ पलों को मुट्ठी में भींचकर रखना एक ऐसे बच्चे की कातरता की तरह है जो जानता है कि अब चाहे वह जितनी भी कोशिश कर ले, उसे रोक नहीं पाएगा और वह पल-पल रिसता जाएगा जब तक कि उसकी अंतिम छुअन भर रह जाएगी, उस स्पर्श की बचीखुची स्मृति की जगह।

अमेरिका में हर ऋतु एक पहचान लिए आती है। हवा, आकाश, धूप और पत्तों का रंग बता देता है कि कौन सा मौसम है। दिल्ली में ऐसा कभी लगता नहीं था। एक मौसम दूसरे मौसम पर लदा हुआ सा आता था जैसे कि उसके अपने हाथ-पैर ही न हों। और जब तक कि आप उसे पहचान पाएं, मौसम बदल जाता था। धुंध भरी सर्दी एक उदास चेहरे की तरह होती थी। उसमें पता भी न चल पाता था कि वसंत कब चुपके से आकर किधर निकल गई, कि अप्रैल में धूप एकदम से तेज हो जाती थी, जैसे कोई किसी को आतंकित कर देता है। लेकिन यहां आप पहचान बना सकते हैं हरेक ऋतु से। हर मौसम इतने समय तक रहता है कि आप उसे तसल्ली से पहचान सकें।

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