कहानी संग्रह >> आरोहण आरोहणसंजीव
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संजीव की लेखनी से समकालीन रोचक कहानियाँ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
लेखन ने मुझे कुछ दिया हो या नहीं, मगर मनोजगत की
अर्गलाएं, खिड़कियां खोलते, बंद करते, दीवारों के पुख़्तेपन, सीलन या
भुरभुरेपन को महसूस करते, आदिम गंध की खोहों से सितारों के आगे तक स्मृति और कल्पना की आंखमिचौली में भटक कर सत्य को टटोलना मेरे लिए एक दिलचस्प अनुभव रहा है। इसलिए मेरी हर रचना मेरे लिए शोध की प्रक्रिया से गुज़रना है और
लिखना मेरे लिए चौबीसों घंटे की प्रक्रिया है— प्रश्न भी है, समाधान
भी; यातना भी है, और यातना से उबरने का माध्यम भी, निपट एकांत गुफ़ा भी है
और पछाड़ खाती झंझा में उतरने का साधन भी; हर पल तिल-तिल कर मरना भी है और मौत के दायरों के पार जाने का महामंत्र भी।
-संजीव
संग्रह की कहानियाँ
१. | अपराध |
२. | मां |
३. | प्रेत मुक्ति |
४. | ब्लैक होल |
५. | क़दर |
६. | आरोहण |
७. | ज्वार |
८. | मानपत्र |
९. | हत्यारे |
१॰. | मैं चोर हूं, मुझ पर थूको |
११. | प्रेरणास्रोत |
अपराध
रात के ख़ौफ़नाक अंधेरे को चीरती हुई मेरी ट्रेन भागी जा
रही है। एक अंधेरी सुरंग है कि मेरे समूचे अस्तित्व को निगलती जा रही है।
यूं मैंने सारी खिड़कियां बंद कर ली हैं, फिर भी एक शोर है कि जिस्म के
पुर्ज़े-पुर्ज़े धमक रहे हैं, यादों का एक क़ाफ़िला है कि मेरे मरुमन का
ज़र्रा-ज़र्रा कुनमुनाकर ताकने लगता है।
ज़हन में धीरे-धीरे आकार ले रही है एक हवेली... क़स्बे में व्यवस्था और सत्ता की प्रतीक मेरी हवेली— कंचनजंघा। धीरे-धीरे कई चेहरे उभर रहे हैं, प्रभुसत्ता रोबीले सेशन जज पापा, एस.पी.— बड़े भैया, ज़िलाधीश— छोटे भैया, गृह विभाग के सचिव— जीजा, उनके प्रभाव का अहसास कराती हुई गर्वीली बहन, सबके अपने-अपने पोस्टेड ज़िलों में चले जाने पर उदास राजमाता की तरह मम्मी, न जाने कितने मंत्रियों, अफ़सरों और ऊंचे ओहदे वालों के गड्डमड्ड चेहरे ! एक अजीब-सा खिंचाव, एक अजीब-सा ख़ौफ़ समाया रहता है यहां के लोगों में कंचनजंघा के प्रति ! मैंने बचपन से ही इस खिंचाव का अनुभव किया है। कपड़े की बॉल और पीढ़े का बल्ला बनाकर खेले जा रहे क्रिकेट या कांच की गोलियों जैसे खेल, गवर्नेस, ख़ानसामां, दाइयां, ट्यूटर्स, सेंट विंसेट और सेंट पैट्रिक्स स्कूलों में पलते मेरे वजूद को देखकर थम जाते और वे मुझे टुकुर-टुकुर ताकने लगते। ऐसा लगता, मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध कुछ इतर, कुछ विशिष्ट बनाने का षड्यंत्र चल रहा है और एक अस्वीकार समाता रहा अवचेतन में। पापा कहते, ‘जाने किस धातु का बना है ?’ पूरे परिवार में ‘सिद्घार्थ’ की उपाधि से मैं आभूषित था।
‘ख़ैर, एक लड़का ऐसा ही सही !’ और मां सबकी चिंताओं पर स्टॉप लगा दिया करतीं। प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाख़िले के बाद पहली बार परिवार की तमाम बंदिशों से मिली आज़ादी, जगह-जगह दीवारों पर लिखे–पॉलिटिकल पावर फ़्लोज़ फ़्रॉम द बैरेल ऑफ़ द गन !... नक्सल, बाड़ीर पोथ आमादोर पोथ... जैसे नारे। माओ की लाल किताब, कॉलेज स्ट्रीट के फ़ुटपाथों तथा कॉलेज स्क्वायर पार्क की ‘गोल-दीघी’ में होने वाले हेतमपुर विद्यासागर, यादवपुर शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों के बीच के घुमंतू चर्चे ...! ऐसे गर्म परिवेश में पकने लगा था मेरा झिझक भरा शांत व्यक्तित्व। कुछ ही दिनों में मन के अवचेतन में दबा अस्वीकार सर उठाने लगा। क्लास तो हम नाममात्र को करते। हां, इस बीच बहुत सा बाहरी साहित्य पढ़ने को मिला। मार्क्स, ऐंगल्स, हेगेल, लेनिन और माओ पर विस्तृत चर्चाओं में शामिल होने का मौक़ा मिला, और बुर्ज़ुआ, पेटी बुर्ज़ुआ, रिवीज़निस्ट, प्रतिक्रियावादी, होमोसेपीयंस, लाल सलाम आदि नए-नए शब्द आ जुड़े मेरे शब्दकोश में और इन्हीं के साथ-साथ परिचय के फलते दायरे में आ जुड़ा शचिन संघमित्रा का परिवार, जहां अक्सर ही मेरी शामें गुज़रने लगीं। उनके पिता कल्याणी सेनिटोरियम में क्षय का उपचार करा रहे थे और उनकी अनुपस्थिति हमारे लिए वरदान साबित हो रही थी। कभी-कभी हमारे वाद-विवाद अतिरेक में इतने तीव्र हो उठते कि बग़ल के कक्ष में पढ़ती हुई संघमित्रा गुस्से से उफ़नती हुई, भड़भड़ाकर किवाड़ खोलकर धम-धम पांव पटकती हुई हमारे बीच आ खड़ी होती, ‘आई से स्टॉप दिस नॉनसेंस ! अपने कैरियर के साथ-साथ मेरा कैरियर भी ले डूबेगा बुलबुल !’ शचिन को वह उसके बुलाने वाले नाम ‘बुलबुल’ से ही बुलाया करती थी... और हम सन्नाटे खींच लिया करते। वार्तालाप की चिंदियां बिखर जातीं।
वह मेडिकल की एक मेधावी छात्रा थी, शचिन से एक साल बड़ी होने का लाभ उठाकर गार्जियन की तरह डांटा करती। इम्तिहान व़गैरह के चक्कर न होते तो वह दरवाज़े पर खड़ी-खड़ी हमारी बातें सुनती और मूड में आने पर हमारी पूरी बटालियन पर अकेले ही तिलमिला देने वाला सधा वार करती, जो अपना कैरियर नही बना सका, वह सोसाइटी और देश का क्या बनाएगा ?
‘दीदी, तुमी बूझवेना। एइजे पूंजीवादी, सोमोंतोवादी शिक्षा व्योवस्था...!
‘चुप कोर ! प्रेतिभा थाकले जे कोने जाएगा थेके स्कोप कोरे नेवा जाएर आर ना थाकले...’
‘थाक ! थाक !’
और दोनों भाई-बहन मुंह फुला लिया करते।
उन दिनों संघमित्रा को मैं कनखियों से देख लिया करता और यदाकदा वह इसे मार्क कर लिया करती। मगर किसी बेतकल्लुफ़ी के अभाव में उसका अस्तित्व मेरे मन में अंखुआ नहीं पाया था। आख़िर वह झिझक भी टूट गई ‘डीघा’ की पिकनिक पर। वहां पहली बार मैं उसके व्यक्तित्व के सौंदर्य के घटक पर अभिभूत हुआ।
मैं पानी के अंदर जाने से डर रहा था और वह ताना दे बैठी थी, ‘यह हिम्मत है और चले हो बग़ावत करने।’ मैंने बताया, ‘मेरी मम्मी को किसी साधु ने बताया था कि मेरी मौत पानी में होगी। इसीलिए वहां पास ही गंगा और यहां गोलदीघी के पास रहकर भी तैरना सीख नहीं सका आज तक।’ वह हंसते-हंसते गिर पड़ी थी मेरे बदन पर, ‘...ओह ! ...ओह ! डोंट माइंड !’ फिर शचिन को इशारा करते हुए बोली, ‘एईजे तुमार ‘जोद्धारा’... की बोलो तोमार... लाल सिपाई !’ शचिन अपनी शिकस्त से उबरने के लिए बोला, ‘दीदी कितनी बड़ी ‘जोद्धा’ है... जानते हो ? पहली बार लैब में मुर्दे की चीर-फाड़ देखकर बेहोश हो गई थी।’ ‘सच !’ मैंने चिढ़ाया तो वह छिछले पानी में मुझे ढकेलती हुई मारने दौड़ पड़ी।
‘सत्ता पा जाने पर तुम भी वैसे ही ढल जाओगे... जे जाए लोंका, सेई होय रावोन !’ आंचल निचोड़ते हुए वह कहने लगी, ‘देखती हूं, बड़े आए हो ख़ूनी क्रांति करने वाले, समाज और व्यवस्था बदलने वाले, डिस्पैरिटी मिटाने वाले ! अरे, मैं कहती हूं, चूल्हे में डालो मार्क्स, लेनिन, माओ, चाओ को ! आदमी अपनी प्रवृत्ति से ही हिंसक होता है, अपराधवृत्ति ख़त्म करनी है तो जींस बदल डालो... जींस !’
पूजा की छुट्टियों में घर आया तो पापा सारा कुछ सूंघ बैठे थे। आते वक़्त उन्होंने साफ़तौर पर मुझे बता दिया कि पढ़ना है तो ढंग से पढ़ो, वरना छोड़कर चले आओ। मम्मी ने तो मुझसे आश्वासन ही ले लिया कि मैं अपने पांव डगमगाने नहीं दूंगा। लेकिन कलकत्ता आने पर ‘फिर बेताल डाल पर’ वाली बात हो जाया करती। मैं न भी जाता को संघमित्रा मुझे हॉस्टल में ही बुलाने चली आती। मैं जब कहता, ‘विरोक्तो कोरो न रानी।’ (उसका पुकारने का नाम रानी था) तो वह ठिठोली कर बैठती, ‘एसो आमार राजकुमार एसो ना !’ और मेरी मोर्चाबंदी भरभराकर गिर जाती।
मेरे साहित्यिक रुझान पर दोनों ही कुढ़ा करते। शचिन बिगड़कर बोलता, ‘भावुकता, चेतना का अपव्यय है, डिस्ट्रैक्शन है। ये लफ़्फ़ाज़, कामचोर, माटी के शेर, क्रांति का साहित्य लिखने वाले—इन लोगों को फ़ील्ड में ले जाया जाए तो पेशाब कर दें। इन सबों को खेतों और फ़ैक्टरियों में लगा देना चाहिए !’ फिर वह वियतनाम, कंबोडिया, लाओस, कोरिया, चिली, क्यूबा रूस, चीन आदि की बातें ले बैठता। संघमित्रा तो अक्सर इससे भी बुरी खिंचाई पर उतर आती, ‘तुम्हारे जैसे नाइंटी परसेंट साहित्यकार घोर कामी, सुविधावादी और भ्रष्ट होते हैं। तुम तो विभीषण हो... इस दल में बन सकोगे मुकुंद दास... छेड़े दाउ बोंगो नारी, आर पोड़ो ना रेशमी चूड़ी ...यू आर ए पेटी बुर्ज़ुआ !’
‘देखते जाओ... मेरा पहला वार होगा मेरी हवेली पर...!’ मैं कॉलर हिला दिया करता और इस पर दोनों हंस पड़ते। धीरे-धीरे शचिन की गतिविधियां बढ़ती गईं। इस बीच ‘ख़त्म करो’ अभियान भी चल निकला। दो-एक बार वह मुझे भी उत्तरी बंगाल के ग़रीब किसानों के बीच व्यवस्था से मोहभंग कराने के उद्देश्य से ले गया। हड्डियों पर मढ़े हुए चाम। धंसी पनीलीं आंखें, मैले-चिथड़े, शोषण की जड़ तक देखती हुई मेरी दृष्टि पारदर्शी हो उठी। अगर मैं नक्सल नहीं हुआ तो संघमित्रा की वजह से, जो वहां से लौटने पर मेरी नज़र उतारने के लिए नेशनल म्यूज़ियम, ट्रॉपिकल मेडिसन, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़िज़िकल हाइजिन एंड मेडिकल साइंसेज़ या और नहीं तो गंगा के किनारे पड़े बैंचों पर बैठाकर मुझे जीवों और सभ्यता का विकास समझाया करती। बातों ही बातों में उसने एक दिन बताया था कि वह सचमुच खोज करना चाहती है जींस पर और एक उत्साही निरपेक्ष अध्यापक की तरह बिना लज्जा के उसने जेनेटिक्स और मनुष्य के अंग-प्रत्यंग की बहुत सारी बातें बता डाली थीं।
शचिन ने बाद में क्लासें करना छोड़ ही दिया था। मैंने संघमित्रा से शिकायत की तो उसके आते ही वह फट पड़ी, ‘क्यों रुलाते हो बुलबुल ? जानते हो, बाबा टी.बी. के पेशेंट हैं, मैं उन्हें यह सब बता नहीं सकती, इसलिए न...!’ लेकिन शचिन को न रानी के आंसू रोक पाए, न परिवार की ज़िम्मेदारी। थ्योरेटिकल परीक्षाओं में भी वह अनुपस्थित रहा तो आख़री पर्चा देते ही पता करने उनके घर जा पहुंचा। शाम की मरकरी नियोन की शोख़ बत्तियां जल उठी थीं सड़कों पर। मगर उस मकान में मात्र धुंधली रोशनी मातम-सी बरस रही थी।
‘दीदी तोमाके जेतेड़ होवे !’ शचिन रानी से अनुनय कर रहा था, ‘और हात टा एक बारेकइ उड़े गेछे। होवे तो ब्लीडिंग होयेई मारा जाबे।’
ज़हन में धीरे-धीरे आकार ले रही है एक हवेली... क़स्बे में व्यवस्था और सत्ता की प्रतीक मेरी हवेली— कंचनजंघा। धीरे-धीरे कई चेहरे उभर रहे हैं, प्रभुसत्ता रोबीले सेशन जज पापा, एस.पी.— बड़े भैया, ज़िलाधीश— छोटे भैया, गृह विभाग के सचिव— जीजा, उनके प्रभाव का अहसास कराती हुई गर्वीली बहन, सबके अपने-अपने पोस्टेड ज़िलों में चले जाने पर उदास राजमाता की तरह मम्मी, न जाने कितने मंत्रियों, अफ़सरों और ऊंचे ओहदे वालों के गड्डमड्ड चेहरे ! एक अजीब-सा खिंचाव, एक अजीब-सा ख़ौफ़ समाया रहता है यहां के लोगों में कंचनजंघा के प्रति ! मैंने बचपन से ही इस खिंचाव का अनुभव किया है। कपड़े की बॉल और पीढ़े का बल्ला बनाकर खेले जा रहे क्रिकेट या कांच की गोलियों जैसे खेल, गवर्नेस, ख़ानसामां, दाइयां, ट्यूटर्स, सेंट विंसेट और सेंट पैट्रिक्स स्कूलों में पलते मेरे वजूद को देखकर थम जाते और वे मुझे टुकुर-टुकुर ताकने लगते। ऐसा लगता, मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध कुछ इतर, कुछ विशिष्ट बनाने का षड्यंत्र चल रहा है और एक अस्वीकार समाता रहा अवचेतन में। पापा कहते, ‘जाने किस धातु का बना है ?’ पूरे परिवार में ‘सिद्घार्थ’ की उपाधि से मैं आभूषित था।
‘ख़ैर, एक लड़का ऐसा ही सही !’ और मां सबकी चिंताओं पर स्टॉप लगा दिया करतीं। प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाख़िले के बाद पहली बार परिवार की तमाम बंदिशों से मिली आज़ादी, जगह-जगह दीवारों पर लिखे–पॉलिटिकल पावर फ़्लोज़ फ़्रॉम द बैरेल ऑफ़ द गन !... नक्सल, बाड़ीर पोथ आमादोर पोथ... जैसे नारे। माओ की लाल किताब, कॉलेज स्ट्रीट के फ़ुटपाथों तथा कॉलेज स्क्वायर पार्क की ‘गोल-दीघी’ में होने वाले हेतमपुर विद्यासागर, यादवपुर शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों के बीच के घुमंतू चर्चे ...! ऐसे गर्म परिवेश में पकने लगा था मेरा झिझक भरा शांत व्यक्तित्व। कुछ ही दिनों में मन के अवचेतन में दबा अस्वीकार सर उठाने लगा। क्लास तो हम नाममात्र को करते। हां, इस बीच बहुत सा बाहरी साहित्य पढ़ने को मिला। मार्क्स, ऐंगल्स, हेगेल, लेनिन और माओ पर विस्तृत चर्चाओं में शामिल होने का मौक़ा मिला, और बुर्ज़ुआ, पेटी बुर्ज़ुआ, रिवीज़निस्ट, प्रतिक्रियावादी, होमोसेपीयंस, लाल सलाम आदि नए-नए शब्द आ जुड़े मेरे शब्दकोश में और इन्हीं के साथ-साथ परिचय के फलते दायरे में आ जुड़ा शचिन संघमित्रा का परिवार, जहां अक्सर ही मेरी शामें गुज़रने लगीं। उनके पिता कल्याणी सेनिटोरियम में क्षय का उपचार करा रहे थे और उनकी अनुपस्थिति हमारे लिए वरदान साबित हो रही थी। कभी-कभी हमारे वाद-विवाद अतिरेक में इतने तीव्र हो उठते कि बग़ल के कक्ष में पढ़ती हुई संघमित्रा गुस्से से उफ़नती हुई, भड़भड़ाकर किवाड़ खोलकर धम-धम पांव पटकती हुई हमारे बीच आ खड़ी होती, ‘आई से स्टॉप दिस नॉनसेंस ! अपने कैरियर के साथ-साथ मेरा कैरियर भी ले डूबेगा बुलबुल !’ शचिन को वह उसके बुलाने वाले नाम ‘बुलबुल’ से ही बुलाया करती थी... और हम सन्नाटे खींच लिया करते। वार्तालाप की चिंदियां बिखर जातीं।
वह मेडिकल की एक मेधावी छात्रा थी, शचिन से एक साल बड़ी होने का लाभ उठाकर गार्जियन की तरह डांटा करती। इम्तिहान व़गैरह के चक्कर न होते तो वह दरवाज़े पर खड़ी-खड़ी हमारी बातें सुनती और मूड में आने पर हमारी पूरी बटालियन पर अकेले ही तिलमिला देने वाला सधा वार करती, जो अपना कैरियर नही बना सका, वह सोसाइटी और देश का क्या बनाएगा ?
‘दीदी, तुमी बूझवेना। एइजे पूंजीवादी, सोमोंतोवादी शिक्षा व्योवस्था...!
‘चुप कोर ! प्रेतिभा थाकले जे कोने जाएगा थेके स्कोप कोरे नेवा जाएर आर ना थाकले...’
‘थाक ! थाक !’
और दोनों भाई-बहन मुंह फुला लिया करते।
उन दिनों संघमित्रा को मैं कनखियों से देख लिया करता और यदाकदा वह इसे मार्क कर लिया करती। मगर किसी बेतकल्लुफ़ी के अभाव में उसका अस्तित्व मेरे मन में अंखुआ नहीं पाया था। आख़िर वह झिझक भी टूट गई ‘डीघा’ की पिकनिक पर। वहां पहली बार मैं उसके व्यक्तित्व के सौंदर्य के घटक पर अभिभूत हुआ।
मैं पानी के अंदर जाने से डर रहा था और वह ताना दे बैठी थी, ‘यह हिम्मत है और चले हो बग़ावत करने।’ मैंने बताया, ‘मेरी मम्मी को किसी साधु ने बताया था कि मेरी मौत पानी में होगी। इसीलिए वहां पास ही गंगा और यहां गोलदीघी के पास रहकर भी तैरना सीख नहीं सका आज तक।’ वह हंसते-हंसते गिर पड़ी थी मेरे बदन पर, ‘...ओह ! ...ओह ! डोंट माइंड !’ फिर शचिन को इशारा करते हुए बोली, ‘एईजे तुमार ‘जोद्धारा’... की बोलो तोमार... लाल सिपाई !’ शचिन अपनी शिकस्त से उबरने के लिए बोला, ‘दीदी कितनी बड़ी ‘जोद्धा’ है... जानते हो ? पहली बार लैब में मुर्दे की चीर-फाड़ देखकर बेहोश हो गई थी।’ ‘सच !’ मैंने चिढ़ाया तो वह छिछले पानी में मुझे ढकेलती हुई मारने दौड़ पड़ी।
‘सत्ता पा जाने पर तुम भी वैसे ही ढल जाओगे... जे जाए लोंका, सेई होय रावोन !’ आंचल निचोड़ते हुए वह कहने लगी, ‘देखती हूं, बड़े आए हो ख़ूनी क्रांति करने वाले, समाज और व्यवस्था बदलने वाले, डिस्पैरिटी मिटाने वाले ! अरे, मैं कहती हूं, चूल्हे में डालो मार्क्स, लेनिन, माओ, चाओ को ! आदमी अपनी प्रवृत्ति से ही हिंसक होता है, अपराधवृत्ति ख़त्म करनी है तो जींस बदल डालो... जींस !’
पूजा की छुट्टियों में घर आया तो पापा सारा कुछ सूंघ बैठे थे। आते वक़्त उन्होंने साफ़तौर पर मुझे बता दिया कि पढ़ना है तो ढंग से पढ़ो, वरना छोड़कर चले आओ। मम्मी ने तो मुझसे आश्वासन ही ले लिया कि मैं अपने पांव डगमगाने नहीं दूंगा। लेकिन कलकत्ता आने पर ‘फिर बेताल डाल पर’ वाली बात हो जाया करती। मैं न भी जाता को संघमित्रा मुझे हॉस्टल में ही बुलाने चली आती। मैं जब कहता, ‘विरोक्तो कोरो न रानी।’ (उसका पुकारने का नाम रानी था) तो वह ठिठोली कर बैठती, ‘एसो आमार राजकुमार एसो ना !’ और मेरी मोर्चाबंदी भरभराकर गिर जाती।
मेरे साहित्यिक रुझान पर दोनों ही कुढ़ा करते। शचिन बिगड़कर बोलता, ‘भावुकता, चेतना का अपव्यय है, डिस्ट्रैक्शन है। ये लफ़्फ़ाज़, कामचोर, माटी के शेर, क्रांति का साहित्य लिखने वाले—इन लोगों को फ़ील्ड में ले जाया जाए तो पेशाब कर दें। इन सबों को खेतों और फ़ैक्टरियों में लगा देना चाहिए !’ फिर वह वियतनाम, कंबोडिया, लाओस, कोरिया, चिली, क्यूबा रूस, चीन आदि की बातें ले बैठता। संघमित्रा तो अक्सर इससे भी बुरी खिंचाई पर उतर आती, ‘तुम्हारे जैसे नाइंटी परसेंट साहित्यकार घोर कामी, सुविधावादी और भ्रष्ट होते हैं। तुम तो विभीषण हो... इस दल में बन सकोगे मुकुंद दास... छेड़े दाउ बोंगो नारी, आर पोड़ो ना रेशमी चूड़ी ...यू आर ए पेटी बुर्ज़ुआ !’
‘देखते जाओ... मेरा पहला वार होगा मेरी हवेली पर...!’ मैं कॉलर हिला दिया करता और इस पर दोनों हंस पड़ते। धीरे-धीरे शचिन की गतिविधियां बढ़ती गईं। इस बीच ‘ख़त्म करो’ अभियान भी चल निकला। दो-एक बार वह मुझे भी उत्तरी बंगाल के ग़रीब किसानों के बीच व्यवस्था से मोहभंग कराने के उद्देश्य से ले गया। हड्डियों पर मढ़े हुए चाम। धंसी पनीलीं आंखें, मैले-चिथड़े, शोषण की जड़ तक देखती हुई मेरी दृष्टि पारदर्शी हो उठी। अगर मैं नक्सल नहीं हुआ तो संघमित्रा की वजह से, जो वहां से लौटने पर मेरी नज़र उतारने के लिए नेशनल म्यूज़ियम, ट्रॉपिकल मेडिसन, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़िज़िकल हाइजिन एंड मेडिकल साइंसेज़ या और नहीं तो गंगा के किनारे पड़े बैंचों पर बैठाकर मुझे जीवों और सभ्यता का विकास समझाया करती। बातों ही बातों में उसने एक दिन बताया था कि वह सचमुच खोज करना चाहती है जींस पर और एक उत्साही निरपेक्ष अध्यापक की तरह बिना लज्जा के उसने जेनेटिक्स और मनुष्य के अंग-प्रत्यंग की बहुत सारी बातें बता डाली थीं।
शचिन ने बाद में क्लासें करना छोड़ ही दिया था। मैंने संघमित्रा से शिकायत की तो उसके आते ही वह फट पड़ी, ‘क्यों रुलाते हो बुलबुल ? जानते हो, बाबा टी.बी. के पेशेंट हैं, मैं उन्हें यह सब बता नहीं सकती, इसलिए न...!’ लेकिन शचिन को न रानी के आंसू रोक पाए, न परिवार की ज़िम्मेदारी। थ्योरेटिकल परीक्षाओं में भी वह अनुपस्थित रहा तो आख़री पर्चा देते ही पता करने उनके घर जा पहुंचा। शाम की मरकरी नियोन की शोख़ बत्तियां जल उठी थीं सड़कों पर। मगर उस मकान में मात्र धुंधली रोशनी मातम-सी बरस रही थी।
‘दीदी तोमाके जेतेड़ होवे !’ शचिन रानी से अनुनय कर रहा था, ‘और हात टा एक बारेकइ उड़े गेछे। होवे तो ब्लीडिंग होयेई मारा जाबे।’
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